वर्कफोर्स यानी नौकरियों या फिर रोज़गार में महिलाओं की कम भागीदारी के लिए कई चीज़ें ज़िम्मेदार हैं. इनमें लैंगिक मानदंड और पूर्वाग्रह के साथ ही पुरुषों की तुलना में महिलाओं के ऊपर घरेलू काम-काज, बच्चों के पालन-पोषण और बुजुर्गों की देखभाल की असमान ज़िम्मेदारी बड़ी वजहें हैं, जिनके चलते कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी अत्यधिक प्रभावित होती है. ज़ाहिर है रोज़मर्रा के जीवन में महिलाओं को इन कार्यों के लिए वेतन नहीं मिलता है और इस वजह से उन्हें अपने लिए वक़्त नहीं मिल पाता है एवं उनके लिए आगे बढ़ने के अवसर भी कम हो जाते हैं, जिससे महिला श्रम बल भागीदारी की दर गिर जाती है. इसका दूरगामी सामाजिक-आर्थिक प्रभाव पड़ता है, जो कि न सिर्फ़ हानिकारक लैंगिक पूर्वाग्रहों को बढ़ाता है, बल्कि आधी आबादी के सामर्थ्य व उनकी संभावनाओं को भी सीमित कर देता है.
भारत में कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी वर्ष 2022 में 24 प्रतिशत थी. वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी की यह दर, जहां एक तरफ देश की आर्थिक प्रगति और सामाजिक कल्याण को कमज़ोर करती है, वहीं महिला सशक्तिकरण से संबंधित भारत की नीतियों एवं योजनाओं की तत्काल समीक्षा करने की ज़रूरत पर भी ज़ोर देती है.
भारत के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के ‘मिशन शक्ति’ अभियान को महिलाओं की सुरक्षा, बचाव और सशक्तिकरण को ध्यान में रखकर बनाया गया है.
भारत के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के ‘मिशन शक्ति’ अभियान को महिलाओं की सुरक्षा, बचाव और सशक्तिकरण को ध्यान में रखकर बनाया गया है. इस अभियान के अंतर्गत ‘सामर्थ्य’ और ‘संबल’ दो उप-योजानाएं हैं. सामर्थ्य उप-योजना महिला सशक्तिकरण पर फोकस करती है, जबकि संबल उप-योजना महिलाओं में लैंगिक आधारित हिंसा के मुद्दे को संबोधित करती है, साथ ही महिलाओं के पुनर्वास और आवास के मुद्दे का भी समाधान करती है. पूर्व में बाल विकास योजना के अंतर्गत आने वाली नेशनल क्रेच स्कीम और प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना भी अब इस सामर्थ्य उप-योजना के तहत ही आती है. इसके अतिरिक्त, मिशन शक्ति के राष्ट्रीय महिला सशक्तिकरण हब के तहत इन उप-योजनाओं से जुड़ी अचानक पैदा होने वाली आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु एक फ्लेक्सी-फंड का भी प्रावधान है. जब फंड के दूसरे स्रोत अपर्याप्त होते हैं, तो यह हब फ्लेक्सी-फंड्स के माध्यम से लचीले एवं ज़िम्मेदार तरीक़े से महिलाओं की सुरक्षा, समृद्धि एवं प्रगति सुनिश्चित करने के लिए समय-समय पर राशि उपलब्ध कराता है.
कोविड 19 महामारी
ज़ाहिर है कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित किए गए सतत विकास लक्ष्यों को लेकर भारत की जो प्रतिबद्धता है, वो भी इन पहलों के ज़रिए मज़बूत होती है. हालांकि, एक सच्चाई यह भी है कि वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की वर्ष 2023 की ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट, जिसमें महिलाओं की आर्थिक भागीदारी और अवसर को लेकर 146 देशों की रैंकिंग जारी की गई है, उसमें भारत 142वें स्थान पर है. सूची में भारत स्थिति साफ दर्शाती है कि लैंगिक समानता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अभी बहुत किया जाना बाक़ी है.
हालांकि, वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार की तरफ से व्यापक स्तर पर नीतियां और योजनाएं बनाई गई हैं. लेकिन इन्हें ज़मीनी स्तर पर लागू करने में सामाजिक और प्रक्रियागत पूर्वाग्रहों के साथ ही लॉजिस्टिक्स से संबंधित अवरोध तमाम चुनौतियां पैदा करते हैं. इन लॉजिस्टकल अवरोधों में सांस्कृतिक लिहाज़ से समाज की जड़ों में गहराई तक फैल चुके पूर्वाग्रह के साथ ही सरकारी योजनाओं के प्रति जागरूकता की कमी और पहुंच नहीं होना भी शामिल हैं. ऐसे में, पारस्परिक तौर पर जुड़े इन मुद्दों को बेहतर तरीक़े से समझना और समुचित नीतियां बनाना, साथ ही ज़रूरी दख़ल देना आवश्यक हो जाता है.
वर्ष 2020 में लगे कोरोना लॉकडाउन के दौरान नौकरी छूटने पर की गई एक स्टडी से साफ पता चलता है कि इसमें किस स्तर की लैंगिक असमानता थी, यानी पुरुषों की तुलना में महिलाओं को कितनी बड़ी संख्या में नौकरी से हाथ धोना पड़ा था.
कोविड-19 महामारी ने संकट के समय महिलाओं की नौकरी व रोज़गार से जुड़ी दिक़्क़तों को सामने लाने का काम किया था. वर्ष 2020 में लगे कोरोना लॉकडाउन के दौरान नौकरी छूटने पर की गई एक स्टडी से साफ पता चलता है कि इसमें किस स्तर की लैंगिक असमानता थी, यानी पुरुषों की तुलना में महिलाओं को कितनी बड़ी संख्या में नौकरी से हाथ धोना पड़ा था. स्टडी के मुताबिक़ उस दौरान सिर्फ़ 7 प्रतिशत पुरुषों की नौकरी गई थी, जबकि 47 प्रतिशत महिलाओं को अपनी नौकरी गंवानी पड़ी थी. और तो और उनमें से ज़्यादातर महिलाओं ने साल के आख़िर तक फिर से नौकरी शुरू नहीं की थी. असंगठित सेक्टर में हालात और ज़्यादा भयावह थे, लॉकडाउन के दरम्यान असंगठित क्षेत्र के 80 प्रतिशत कामगारों ने अपनी रोजी-रोटी के साधनों को खो दिया था.
कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी को प्रोत्साहित करने के लिए लड़कियों के बीच शिक्षा को बढ़ावा देना एक और अहम मुद्दा है. आंकड़ों के अनुसार पुरुषों की तुलना में महिलाओं की साक्षरता दर कम है. अगर 15 से 49 वर्ष आयु वर्ग के आंकड़ों पर नज़र डालें, तो 84.4 प्रतिशत पुरुषों की तुलना में महज 71.5 प्रतिशत महिलाएं ही साक्षर हैं. हांलाकि, पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं की साक्षरता दर में सुधार हुआ है, बावज़ूद इसके, महिलाओं की कम साक्षरता दर और शिक्षा के अवसरों तक उनकी कम पहुंच भी ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर समुचित ध्यान दिया जाना चाहिए.
महिलाओं एवं लड़कियों की शिक्षा और आजीविका के अवसरों तक पहुंच में सिर्फ़ समाज में गहराई से अपनी जड़ें जमा चुका लैंगिक पूर्वाग्रह और अवैतनिक घरेलू कार्य करने की मज़बूरी ही बड़ी बाधा नहीं है, बल्कि पेयजल की कमी और स्वच्छता सुविधाओं की कमी भी इसमें रुकावट हैं. आम तौर पर देखा जाए, तो लड़कियां हर महीने क़रीब छह दिन स्कूल नहीं जा पाती हैं. स्कूल-कॉलेजों में पर्याप्त स्वच्छता सुविधाएं नहीं होने से लगभग 23 प्रतिशत लड़कियां युवा होते-होते स्कूल जाना छोड़ देती हैं. नतीज़तन, लड़कियों की क्षमताओं एवं संभावनाओं पर असर पड़ता है, साथ ही भविष्य में वर्कफोर्स में शामिल होने की उनकी संभावना भी क्षीण हो जाती है.
नौकरी को छोड़ने वाली महिलाओं के बीच किए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक़ क़रीब-क़रीब 50 प्रतिशत महिलाओं का कहना है कि उन्हें बच्चों से जुड़ी ज़िम्मेदारियों का निर्वहन करने के कारण वेतन वाली नौकरी छोड़नी पड़ी थी.
उल्लेखनीय है कि देश की आर्थिक और सामाजिक उन्नति के लिए STEM यानी साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और मैथमैटिक्स से संबंधित पेशों में महिलाओं को शामिल करना बेहद महत्वपूर्ण है. ध्यान देने वाली बात यह है कि भारत में STEM विषयों में जितने भी विद्यार्थी ग्रेजुएशन करते हैं, उनमें लड़कियों की संख्या लगभग आधी है. हालांकि, भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी से संबंधित व्यवसायों में काम करने वाली महिलाओं का अनुपात सिर्फ़ 14 प्रतिशत ही है. ज़ाहिर है कि महिलाओं का यह आंकड़ा उस संख्या से कतई मेल नहीं खाता है, जितनी संख्या में लड़कियां STEM जैसे विषयों में पढ़ाई करती हैं. यही वजह है कि एजुकेशन के साथ-साथ वर्कफोर्स, दोनों में ही महिलाओं की पहुंच में आने वाली रुकावटों को समझना और उनका उचित समाधान तलाशना बेहद अहम है.
शिक्षा और वर्कफोर्स में लड़कियों की भागीदारी को बढ़ावा देने से आर्थिक प्रगति पर पड़ने वाले सकारात्मक असर से कोई इनकार नहीं कर सकता है. ज़ाहिर है कि यदि भारत अपने वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों के स्तर तक बढ़ाने में क़ामयाब हो जाता है, तो देश की GDP संभावित रूप से 27 प्रतिशत तक बढ़ सकती है, जो 770 बिलियन अमेरिकी डॉलर के बराबर है.
वेतन वाली नौकरी
इसमें कोई संदेह नहीं है कि महिलाओं के समक्ष आने वाली तमाम चुनौतियों का मुक़ाबला करने के लिए तत्काल कार्रवाई किए जाने की ज़रूरत है. इनमें क्षमता निर्माण, कौशल विकास, महिलाओं की अगुवाई वाले व्यवसायों के लिए ऋण की उपलब्धता, कार्य करने की स्थितियों में सुधार और महिलाओं की सहूलियत के लिए क़ानूनी एवं सामाजिक सुधारों को अमल में लाने जैसी विभिन्न चुनौतियां शामिल हैं. इसके लिए सरकार, कल्याणकारी संस्थाओं, सिविल सोसाइटी और प्राइवेट सेक्टर समेत विभिन्न हितधारकों को न केवल अपनी कोशिशों को एकजुट करना चाहिए, बल्कि टिकाऊ समाधानों को भी विकसित करना चाहिए. अगर लड़कियों और महिलाओं को शिक्षा एवं रोजी-रोटी के बेहतर अवसर प्रदान करने की दिशा में इंफ्रास्ट्रक्चर व पब्लिक सर्विस डिलीवरी में सुधार पर ध्यान दिया जाता है, तो निश्चित तौर पर यह वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी के समक्ष आने वाली रुकावटों को दूर करने में काफ़ी मददगार साबित हो सकता है.
नौकरी को छोड़ने वाली महिलाओं के बीच किए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक़ क़रीब-क़रीब 50 प्रतिशत महिलाओं का कहना है कि उन्हें बच्चों से जुड़ी ज़िम्मेदारियों का निर्वहन करने के कारण वेतन वाली नौकरी छोड़नी पड़ी थी. ज़ाहिर है कि बच्चों की देखभाल का उत्तरदायित्व कहीं न कहीं महिलाओं के मत्थे मढ़ दिया जाता है, ऐसे में वर्कफोर्स में महिलाओं की अधिक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए कार्यस्थलों पर बच्चों की गुणवत्तापूर्ण और किफायती देखभाल की सुविधाएं सृजित करना बेहद ज़रूरी है. ऐसा करना महिलाओं के लिए काफ़ी मददगार सिद्ध हो सकता है. इसी प्रकार से अगर स्वच्छता से संबंधित बुनियादी ढांचे के विकास पर भी ध्यान दिया जाता है, तो यह लड़कियों को स्कूल-कॉलेज छोड़ने से रोक सकता है, साथ ही महिलाओं को इनकम अर्जित करने वाली भूमिकाओं से दूर होने से भी रोक सकता है.
कल्याणकारी सहयोग के ज़रिए ज़मीनी स्तर पर महिलाओं तक माइक्रोफाइनेंसिंग और ऋण की सुविधा आसानी से पहुंच सकती है, जो कि छोटे व्यवसायों को शुरू करने एवं उन्हें आगे बढ़ाने के लिए बहुत ज़रूरी है.
महिलाओं को सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक तौर पर सशक्त बनाने में सरकार की भूमिका बेहद अहम है और यह भूमिका फौरी तौर पर क़दम उठाने के साथ ही, लंबी अविधि के लिए नीतियां बनाने तक है. भारत सरकार द्वारा कार्यस्थल पर महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने, महिला कर्मचारियों के लिए समान वेतन सुनिश्चित करने और महिलाओं के उत्पीड़न के ख़िलाफ़ सख़्त क़ानूनी प्रावधान करने की दिशा में पहले से ही कई नीतिगत सुधार किए गए हैं. कल्याणकारी संस्थान, सिविल सोसाइटी संगठन और निजी सेक्टर जैसे हितधारक महिलाओं को दिए गए इन अधिकारों और सुरक्षा उपायों में न सिर्फ़ अपना योगदान दे सकते हैं, बल्कि इन्हें और सशक्त भी कर सकते हैं.
वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी को प्रोत्साहित करने और इसे बरक़रार रखने के लिए प्राइवेट सेक्टर अपनी ओर से महिला कर्मचारियों के लिए कार्यस्थल पर कई नीतियों को अमल में ला सकता है. जैसे कि निजी सेक्टर द्वारा सवैतनिक पितृत्व अवकाश, महिलाओं को काम करने के लिए समय में लचीलापन, काम से बाहर जाने पर उसका भुगतान करना और महिलाओं की सहूलियत के लिए कार्यस्थल पर बच्चों की देखभाल से जुड़ी सुविधाओं का प्रावधान किया जा सकता है. इसके अलावा, प्राइवेट सेक्टर द्वारा लैंगिक आधार पर महिलाओं के अनुकूल नियुक्ति नीतियों को अपनाकर, जैसे कि लंबे अंतराल के बाद महिलाओं को नौकरी ज्वाइन के लिए ज़रूरी प्रशिक्षण प्रदान करके और उनके लिए मातृत्व लाभ को बढ़ाकर, उन्हें वर्कफोर्स में शामिल करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है. इसके साथ ही कार्यस्थल महिलाओं को नई-नई स्किल्स प्रदान करने और नौकरी के प्रतिस्पर्धी माहौल हेतु उन्हें तैयार करने के उद्देश्य से सिविल सोसाइटी संगठनों की सहायता से क्षमता-निर्माण एवं कौशल उन्नयन जैसे विभिन्न कार्यक्रम भी शुरू किए जा सकते हैं. महिलाओं की औपचारिक एजुकेशन सिस्टम तक पहुंच बहुत सीमित होती है और ऐसे में ये कार्यक्रम उनके हुनर के निखारने में मददगार हो सकते हैं.
कल्याणकारी सहयोग के ज़रिए ज़मीनी स्तर पर महिलाओं तक माइक्रोफाइनेंसिंग और ऋण की सुविधा आसानी से पहुंच सकती है, जो कि छोटे व्यवसायों को शुरू करने एवं उन्हें आगे बढ़ाने के लिए बहुत ज़रूरी है. इसके अलावा परोपकारी फंडिंग के माध्यम से महिलाओं के लिए कौशल विकास से संबंधित सामाजिक पहलों में निवेश करके दीर्घकालिक रणनीतियों को प्रोत्साहित किया जा सकता है. इससे महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण में सहायता मिल सकती है.
ऐसे संगठन, जो महिला की अगुवाई में संचालित किए जाते हैं, उनमें महिला कर्मचारियों की तात्कालिक सहायता आसानी से की जा सकती है. इसके लिए संगठन में कार्यरत कर्मचारी, महिला कर्मियों का सहयोग कर सकते हैं और अपने अनुभव व नेटवर्क से उन्हें प्रोत्साहित कर सकते हैं. देखा जाए तो ऐसे प्लेटफॉर्म कहीं न कहीं महिलाओं के लिए जानकारी एवं संसाधनों के स्रोत के रूप में कार्य करते हैं और इस प्रकार से वर्कफोर्स में सफलता हासिल करने में महिलाओं के सामर्थ्य को बढ़ाने का काम करते हैं. ऐसे संगठन लंबी समय में महिलाओं के अधिकारों के प्रति जागरूकता लाने एवं उन्हें मज़बूती प्रदान वाली पहलों की न केवल अगुवाई कर सकते हैं, बल्कि इन अभियानों को आगे बढ़ाने में भी मदद कर सकते हैं. इसके साथ ही ये संगठन महिलाओं के सशक्तिकरण से संबंधित प्रभावशाली रणनीतियों को कार्यान्वित करने के लिए अन्य हितधारकों के साथ सहयोग कर सकते हैं और इस प्रकार से सभी सेक्टरों में महिलाओं के लीडरशिप वाली भूमिकाओं में उनके प्रतिनिधित्व को प्रोत्साहित कर सकते हैं.
निसंदेह तौर पर भारत के वर्कफोर्स में लैंगिक समानता यानी महिलाओं की समुचित भागीदारी सुनिश्चित करना बेहद जटिल और चुनौतीपूर्ण है. इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि अगर महिलाओं का सशक्तिकरण होता है, तो यह न केवल महिलाओं के लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए व्यापक तौर पर बेहद परिवर्तनकारी सिद्ध होगा. ऐसे में हम सभी का सामूहिक उत्तरदायित्व यह सुनिश्चित करना है कि भारत में महिला कामगारों को उनका वाज़िब हक़ ज़रूर मिले.
नग़मा मुल्ला एडेलगिव फाउंडेशन (EdelGive Foundation) की मुख्य कार्यकारी अधिकारी और फाउंडेशन के निदेशक मंडल की सदस्य हैं.
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