अमेरिका के पूर्व रक्षा मंत्री रॉबर्ट एम. गेट्स का कहना है कि ऐतिहासिक दृष्टि से संयुक्त राज्य अमेरिका (US) मौज़ूदा समय में सुरक्षा के लिहाज़ से शायद सबसे गंभीर संकट के दौर से गुजर रहा है. रॉबर्ट गेट्स ने रूस, चीन, ईरान और उत्तर कोरिया के गठबंधन की तरफ इशारा करते हुए कहा कि “इन देशों के पास मौज़ूद कुल परमाणु हथियारों की संख्या कुछ ही वर्षों में लगभग दोगुनी हो सकती है.” गेट्स अफसोस जताते हुए कहते हैं कि अमेरिका की ओर से इस मुद्दे को लेकर एकजुटता दिखाई जानी चाहिए थी, लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि अमेरिका की ओर से इस पर बेहद लचर प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है. इसका कारण यह है कि अमेरिका की दोनों प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के नेताओं यानी डेमोक्रेट्स और रिपब्लिकन्स के बीच इस मुद्दे पर गहरे मतभेद हैं. इसके बीच हाल ही में जो कुछ हुआ वो तो और भी हैरान करने वाला था. दरअसल, प्रतिनिधि सभा के स्पीकर केविन मैक्कार्थी को उनकी ही पार्टी के लोगों द्वारा पद से हटा दिया गया. यह साबित करता है कि अमेरिकी कांग्रेस के भीतर रिपब्लिकन पार्टी में ज़बरदस्त ध्रुवीकरण हो गया है और यह विभाजन इतना गहरा है कि उसे संभालना अब बेहद मुश्किल है. रिपब्लिकन पार्टी के भीतर यह फूट कितनी व्यापक है, यह उस समय ज़ाहिर हो गया, जब प्रतिनिधि सभा में बहुमत रखने वाले रिपब्लिकन सदस्यों ने सरकार के लिए अस्थायी रूप से फंड का इंतज़ाम करने के लिए पेश किए गए अपने ही बिल को पारित करने से इनकार कर दिया. हालांकि, इस सबके बावज़ूद अमेरिकी शटडाउन संकट तो जैसे-जैसे टल गया, लेकिन जिन मुद्दों ने स्थितियों को इतना पेचीदा बनाया, वे आज भी जस के तस हैं. अगर अमेरिका में यह शटडाउन हो जाता, तो यह एक दशक के भीतर चौथा शटडाउन होता और यदि यह लंबे वक़्त तक बना रहता, तो देश के आर्थिक हालात बुरी तरह से चरमरा जाते. इतना ही नहीं शटडाउन की स्थिति में कम इनकम वाले ऐसे लाखों लोगों को, जिन्हें खाद्यान्न सहायता उपलब्ध कराई जाती है, उन्हें बहुत दिक़्क़तों का सामना करना पड़ता, साथ ही सेना समेत सरकारी कर्मचारियों को वेतन के लाले पड़ जाते.
अमेरिकी कांग्रेस के भीतर रिपब्लिकन पार्टी में ज़बरदस्त ध्रुवीकरण हो गया है और यह विभाजन इतना गहरा है कि उसे संभालना अब बेहद मुश्किल है. रिपब्लिकन पार्टी के भीतर यह फूट कितनी व्यापक है
यह सब रिपब्लिक पार्टी में शामिल कट्टर दक्षिणपंथी नेताओं के एक छोटे से ग्रुप की हरकतों का नतीज़ा है, जो कि अपने क़दमों से अपनी ही पार्टी नहीं, बल्कि देश को भी संकट में धकेल रहे हैं. अमेरिका कांग्रेस में रिपब्लिकन नेतृत्व और बाइडेन प्रशासन के बीच जून में एक समझौता हुआ था, जिसके अंतर्गत अगले 10 वर्षों के लिए फेडरल बजट को फंड देने एवं बजट घाटे में 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की कटौती करने की बात शामिल थी. लेकिन, “मेक अमेरिका ग्रेट अगेन” (MAGA) का नारा बुलंद करने वाले रिपब्लिकन्स ने कांग्रेस के भीतर उस सभी पारंपरिक संस्थागत प्रक्रियाओं को तिलांजलि दे दी है, जो प्रक्रियाएं अभी तक रिपब्लिकन पार्टी के लिए मायने रखती थीं. रिपब्लिकन सदस्यों ने 1 अक्टूबर को वित्तीय वर्ष की शुरुआत से पहले 12 समायोजन विधेयकों (appropriation bills) को संसद में पारित नहीं होने दिया. हालांकि, पिछले शटडाउन की तुलना में इस बार अलग बात यह थी कि इस दफ़ा रिपब्लिकन्स और डेमोक्रेट्स की बीच विवाद कम था, बल्कि रिपब्लिकन सांसदों के बीच आपसी तकरार ज़्यादा थी. सरकार के लिए अस्थाई फंडिंग उपाय के तौर पर फिलहाल बिल को तो पारित कर दिया गया है, लेकिन यह अस्थाई उपाय नवंबर मध्य में समाप्त होने वाला है, यानी कि ये लड़ाई अभी ख़त्म नहीं हुई है. ज़ाहिर है कि संभावित शटडाउन संकट के स्थाई समाधान के लिए सरकार को अपने सभी 12 वार्षिक व्यय बिलों को अनिवार्य रूप से कांग्रेस में पास कराना होगा, या फिर एक और अस्थाई फंडिंग उपाय के लिए मंज़ूरी लेनी होगी. लेकिन ऐसा करने से पहले सरकार को प्रतिनिधि सभा में नए स्पीकर की नियुक्ति करनी होगी, जहां रिपब्लिकन पार्टी का बहुमत है और उनमें ज़बरदस्त आपसी फूट है.
अमेरिका कि आर्थिक स्थिति
ऊपरी तौर पर देखा जाए तो, फिलहाल अमेरिका काफ़ी बेहतर स्थिति में है. सैन्य लिहाज़ से देखें, तो अपने प्रतिद्वंद्वियों की तुलना में अमेरिका सेना पर अधिक धनराशि ख़र्च करता है. अमेरिकी अर्थव्यवस्था के संकट में घिरने को लेकर तमाम अनुमान जताए गए थे, लेकिन अमेरिकी इकोनॉमी ने सभी अनुमानों को झुठला दिया है और बेहतरीन प्रगति कर रही है. अमेरिका नई औद्योगिक नीति बना रहा है और जब यह तैयार हो जाएगी व लागू की जाएगी, तब तकनीक़ी विकास के मामले में अमेरिका बाक़ी दुनिया से काफ़ी आगे निकल सकता है. दूसरी ओर, देखें तो अमेरिकी के प्रतिद्वंद्वी राष्ट्रों की हालत बहुत ख़राब है. रूस तो यूक्रेन के साथ युद्ध में उलझ कर रह गया है और फिलहाल चीन की हालत भी डांवाडोल है और उसकी अर्थव्यवस्था हिचकोले खा रही है. चीन में इन दिनों ऋण संकट सुर्खियां बटोर रहा है और बड़ी चेतावनी बनकर उभरा है. संभावित शटडाउन से ठीक पहले, यानी जब अस्थाई फंडिग उपाय पारित नहीं हुआ था, तब क्रेडिट रेटिंग फर्म मूडीज ने चेतावनी दी थी कि अगर अमेरिकी सरकार द्वारा शटडाउन की घोषणा की जाती है, तो उसकी रेटिंग गिर सकती है. विश्व की चोटी की तीन क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों में से अकेली मूडीज ही है, जिसने अमेरिका को “AAA” रेटिंग देना जारी रखा है. AAA रेटिंग का मतलब है कि देश की अर्थव्यवस्था बेहतर है और वहां क्रेडिट जोख़िम न्यूनतम है. दो महीने पहले ही क्रेडिट एजेंसी फिच ने ऋण सीमा (debt ceiling) को लेकर चल रहे विवाद एवं गवर्नेंस के मुद्दे के चलते अमेरिका की रेटिंग को घटाकर “AA+” कर दिया था. एस एंड पी ग्लोबल (S&P Global) क्रेडिट एजेंसी ने भी वर्ष 2011 में अमेरिका में इसी तरह के ऋण सीमा विवाद के दौरान रेटिंग को घटा दिया था.
विश्व की चोटी की तीन क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों में से अकेली मूडीज ही है, जिसने अमेरिका को “AAA” रेटिंग देना जारी रखा है. AAA रेटिंग का मतलब है कि देश की अर्थव्यवस्था बेहतर है और वहां क्रेडिट जोख़िम न्यूनतम है.
अमेरिका वर्तमान में दोहरे चरित्र की तस्वीर प्रस्तुत करता है. एक ओर उसके पास दिन दूनी–रात चौगुनी फलती–फूलती अर्थव्यवस्था है और उसकी दिग्गज टेक्नोलॉजी कंपनियां आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस द्वारा संचालित होने वाले भविष्य के तकनीक़ी विकास को लेकर होड़ कर रही हैं. अमेरिका की सफलता को एक और तरीक़े से समझा जा सकता है, यानी कि अमेरिका दुनियाभर के लोगों का पसंदीदा गंतव्य बना हुआ है और विश्व में हर तरफ से इसकी दक्षिणी सीमा पर प्रवासियों की भीड़ उमड़ रही है. लेकिन अमेरिका के समाज में व्याकुलता, चिंता और उतावलापन आज की वास्तविकता है, जो वहां की राजनीति में भी दिखाई देती है. अमेरिकी समाज का यह संकट कितना व्यापक है, वो 6 जनवरी 2021 को उस वक़्त दिखा था, जब राष्ट्रपति चुनाव के नतीज़ों के बाद एक पार्टी के समर्थकों ने परिणाम स्वीकार करने से इनकार कर दिया था और बग़ावत पर भी उतर आए थे. चिंताजनक बात तो यह है कि उस दौरान तख़्तापलट की कोशिश करने के बावज़ूद, आज भी अमेरिका में क़रीब 30 फीसदी मतदाता ऐसे हैं, जो यह मानते हैं कि बाइडेन ने धोखाधड़ी के ज़रिए राष्ट्रपति चुनाव में जीत हासिल की थी.
अमेरिका में लंबे समय से चल रहे संकट की कई और भी वजहें हैं. अमेरिका कभी सामाजिक गतिशीलता वाला देश था, अर्थात यहां लोगों की सामाजिक स्थिति परिवर्तनशील थी. लेकिन आज स्थिति यह है कि पिछले 50 वर्षों के दरम्यान अमेरिका में करोड़पति लोगों की तादाद दस गुना बढ़ गई है. दूसरी तरफ, वहां अप्रशिक्षित कामगारों की इनकम लगभग आधी रह गई है. हालत यह है कि ऐसे 64 प्रतिशत अमेरिकी नागरिक, जिनके पास कॉलेज की डिग्री नहीं है, उनके वेतन पर बहुत बुरा असर पड़ा है. ज़ाहिर है कि ऐसी परिस्थितियों में सामाजिक संघर्ष और संकट को बढ़ने से रोका नहीं जा सकता है.
आंकड़ों पर अगर नज़र डालें, तो अमेरिका में क़रीब 6,50,000 लोग ऐसे हैं, जिनके पास अपना घर नहीं है. न्यूयॉर्क टाइम्स के मुताबिक़ लोगों के बेघर होने के पीछे कई कारण हैं, लेकिन इसकी सबसे बड़ी वजह “लंबे समय से वेतन में कमी होना” और सामाजिक सुरक्षा का धराशायी होना है. इसके अलावा, इसके पीछे मेंटल हेल्थ से जुड़े मामले और नशीली दवाओं की लत जैसी वजहें भी हैं. लेकिन सबसे बड़ा कारण “मकानों का महंगा होना और किफायती आवास तलाशने में दिक़्क़त” है. अमेरिका के महानगर, जैसे कि न्यूयॉर्क, लॉस एंजिल्स, शिकागो, मियामी, बोस्टन, सिएटल और सैन फ्रांसिस्को में लोगों की आबादी कम हो रही है. पिछले दशक के दौरान अमेरिका के 20 सबसे बड़े मेट्रो एरिया से लगभग दस लाख लोग दूर जा चुके हैं. ज़ाहिर है कि कोविड-19 महामारी के चलते शहरों से दूर कामकाज स्थापित होने की वजह से भी इसमें तेज़ी आई है. बड़े शहरों में लगातार बढ़ रही इस समस्या के पीछे प्रमुख कारणों में ग़रीबों और युवाओं के लिए शहरों में रहन–सहन बहुत महंगा हो गया है, अपराध बढ़ गए हैं, सार्वजनिक परिवहन के साधनों की संख्या में कमी आई है और शहरों में बड़ी संख्या में ऑफिस स्पेस खाली पड़े हैं.
न्याय व्यवस्था
इस सबके अलावा अमेरिका के समाज में एक और नकारात्मक सूचक लोगों का जीवन काल है. अमेरिका में कोविड 19 महामारी से काफ़ी पहले, यानी कि वर्ष 2014 के बाद से लोगों का जीवन काल लगातार घट रहा है. लोगों का जीवन काल हमेशा से ही किसी देश के आर्थिक और सामाजिक स्वास्थ्य का सूचक होता है. वाशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट के अनुसार लोगों की जीवन प्रत्याशा में कमी “देश में आर्थिक, राजनीतिक और नस्लीय बंटवारे की वजह से और व्यापक हो गई है.” ऐसे में इसमें कोई हैरानी नहीं है कि वर्ष 1980 के बाद से अमेरिका में ग़रीबों और अमीरों के बीच मृत्यु दर का अंतर 570 प्रतिशत बढ़ गया है.
ज़ाहिर है कि नस्ल, जेंडर एवं गन कल्चर से जुड़े मुद्दे न केवल अमेरिका को एक राष्ट्र रूप में बांटते हैं, बल्कि रिपब्लिकन और डेमोक्रेट के बीच राजनीतिक खाई को भी और गहरा करते हैं. नस्ल, जेंडर और गन संस्कृति से जुड़े मसले अमेरिका में तब स्पष्ट तौर पर दिखाई देते हैं, जब नस्लवाद के विरोधियों एवं गर्भपात अधिकारों से जुड़े प्रदर्शनकारियों का कट्टर दक्षिणपंथी समूहों और समाज के स्वयंभू ठेकेदारों से सामना होता है. अपने विचारों को थोपने के लिए, उन्हें नहीं मानने वालों के ख़िलाफ़ ऑनलाइन नफ़रत फैलाने, उन्हें धमकी देने जैसे कृत्यों को अंजाम देना आम हो गया है. अमेरिका में अत्याधुनिक असॉल्ट राइफलों समेत विभिन्न बंदूकों को रखने पर सख़्त नियम–क़ानून बनाए जाने को लेकर भी समाज बंटा हुआ है. इस साल अगस्त तक अमेरिका में सामूहिक गोलीबारी की 470 से अधिक हुई घटनाएं हुई हैं. इतना ही नहीं, पिछले तीन वर्षों की बात करें तो अमेरिका में हर साल 600 से अधिक गोलीबारी की घटानाएं हुईं. ज़्यादातर अमेरिकी नागरिक बंदूक रखने पर सख़्त क़ानून बनाए जाने का समर्थन करते हैं, लेकिन वहां एक संगठित लॉबी ऐसी भी है, जो बंदूक रखने पर किसी भी नए प्रतिबंधों का और क़ानून का विरोध करती है.
अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट का यह रवैया उस वक्त भी देखने को मिला था, जब उसने सभी महिलाओं के गर्भपात के अधिकारों को रद्द करने का निर्णय सुनाया था और नतीज़तन देश के 14 राज्यों ने गर्भपात पर पाबंदी लगा दी थी.
देखा जाए तो अमेरिका का सुप्रीम कोर्ट भी कहीं न कहीं धुर्र दक्षिणपंथियों का केंद्र बन गया है और अपने फैसलों से देश में सामाजिक बंटवारे को हवा दे रहा है. अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट का यह रवैया उस वक्त भी देखने को मिला था, जब उसने सभी महिलाओं के गर्भपात के अधिकारों को रद्द करने का निर्णय सुनाया था और नतीज़तन देश के 14 राज्यों ने गर्भपात पर पाबंदी लगा दी थी. अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट का नया कार्यकाल शुरू हो गया है और आने वाले दिनों में यहां बंदूक रखने के अधिकारों, फेडरल एजेंसियों की शक्ति, सोशल मीडिया से जुड़े नियम–क़ानूनों और किसी राजनीतिक दल को अनुचित लाभ दिलाने के मकसद से चुनावी हेरफेर से संबंधित प्रमुख मामलों की सुनवाई होगी. आशंका व्यक्त की जा रही है कि जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट में 6-3 के बहुमत के साथ दक्षिणपंथियों का वर्चस्व है, तो ऐसे में इसके द्वारा आने वाले दिनों में अमेरिका की राजनीतिक व्यवस्था और समाज को और ज़्यादा अस्थिर करने की संभावना है.
अमेरिका में चुनाव
आने वाले अमेरिकी चुनावों में इस बात की प्रबल संभावना है कि जो बाइडेन के विरुद्ध डोनाल्ड ट्रंप को खड़ा किया जाएगा, यानी कि अमेरिका में निकट भविष्य में फिलहाल कुछ भी ठीक नहीं होने वाला है. साफ है कि अगले वर्ष होने वाले चुनाव में एक ऐसा व्यक्ति अपनी दावेदारी पेश करेगा, जो पहले से ही कई आपराधिक एवं धोखाधड़ी के मामलों में फंसा हुआ है और इन मुकदमों में कोर्ट का फैसला उसे सलाखों के पीछे भी पहुंचा सकता है. दूसरी तरफ, मुक़ाबले में निवर्तमान राष्ट्रपति होंगे और अगर उन्हें दोबारा राष्ट्रपति पद पर चुना जाता है, तो वे 81 वर्ष के हो जाएंगे. जो बाइडेन अमेरिकी प्रतिनिधि सभा में महाभियोग की जांच का सामना कर रहे हैं और अब उनमें को क़ुव्वत भी नहीं दिखाई देती है कि वे अपनी पार्टी में जोश भर पाएं.
अमेरिका के प्रख्यात संस्थान जैसे कि अमेरिकी कांग्रेस या फिर सुप्रीम कोर्ट की नाक़ामयाबी की कहानी तस्वीर का एक पहलू है. इसका दूसरा पहलू, जो अधिक गंभीर है, वो अमेरिका में लोकतांत्रिक मूल्यों और मानदंडों का तार–तार होना और चुनाव में किसी राजनीतिक दल या प्रत्याशी को अनुचित लाभ दिलाने के हथकंडों को अपनाया जाना है. ज़ाहिर है कि चुनाव के दौरान हेराफेरी सीधे तौर पर मुक़ाबले की निष्पक्षता को प्रभावित करती है. वैसे भी देखा जाए तो अमेरिकी कांग्रेस, जिसका गठन बेहद प्राचीन नियमों और सिद्धांतों के आधार पर किया गया था, उसकी कार्यप्रणाली आसानी से ऐसे किसी बदलाव की अनुमति नहीं देती है.
वैश्विक दृष्टिकोण से देखें, तो बड़ा मसला यह है कि आने वाले वर्षों में अमेरिका में कैसे नेतृत्व की उम्मीद की जा सकती है? दुनिया पहले ही पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के “अमेरिका फर्स्ट” अभियान का नतीज़ा देख चुकी है, जिसमें अमेरिका के विश्वसनीय सहयोगियों और साझीदारों को महत्वहीन समझा जाता था और पुतिन व किम जोंग–उन जैसे नेताओं के साथ गलबहियां की जाती थीं. वहीं, जो बाइडेन ने अपनी नीतियों के बल पर और वैश्विक गठबंधनों के ज़रिए कहीं न कहीं दुनिया में अमेरिका के नीतिगत नेतृत्व को दोबारा स्थापित किया है.
निष्कर्ष
अमेरिका का 2024 का राष्ट्रपति चुनाव पहली नज़र में वर्ष 2020 के चुनाव को दोहराने जैसा प्रतीत हो सकता है, लेकिन वास्तविकता में इसकी कोई संभावना नहीं है. अमेरिका में जो ताज़ा हालात हैं, उनमें राष्ट्रीय हित के मुद्दों में कोई आम सहमति नहीं दिखाई देती है. उदाहरण के तौर पर रूस–यूक्रेन युद्ध में अमेरिकी प्रशासन यूक्रेन के साथ खड़ा है, लेकिन इसको लेकर वहां के दोनों प्रमुख राजनीतिक दल एकमत नहीं हैं. राष्ट्रपति जो बाइडेन ने जो नीतियां अपनाई हैं, उनके केंद्र में अमेरिका में निवेश को बढ़ावा देना, वैश्विक स्तर पर सहयोगियों और साझेदारों के साथ गठबंधन करना और चीन के साथ प्रतिस्पर्धा करना एवं उसे नियंत्रित करना शामिल है. लेकिन इसके बारे में कोई साफ जानकारी नहीं है कि सत्ता में आने पर रिपब्लिकन पार्टी और डोनाल्ड ट्रंप क्या रुख अख़्तियार करेंगे. देखा जाए तो रिपब्लिकन पार्टी में सभी महत्वपूर्ण मुद्दों पर पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप की बांटने और फूट डालने वाली नीति की छाप दिखाई देती है. ज़ाहिर है कि ऐसी परिस्थितियों में आने वाले दिनों में अमेरिकी विदेश नीति की अस्पष्टता न केवल बढ़ेगी, बल्कि स्थितियां और भी अधिक बदतर होती जाएंगी.
मनोज जोशी ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में डिस्टिंग्विश्ड फेलो हैं.
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