Published on Mar 27, 2023 Updated 0 Hours ago

यूरोप में संघर्ष ने तालिबान को वैध राजनीतिक इकाई के रूप में ख़ुद को और अधिक मज़बूती से स्थापित करने का मौक़ा दिया. 

महाशक्तियों के बीच मौज़ूदा प्रतिस्पर्द्धा अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की मदद कैसे कर रही है

अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता पर तालिबान का काबिज़ होना एक नई भू-राजनीतिक वास्तविकता है जिससे दुनिया अभी भी जूझ रही है. पिछले एक साल में राजनयिक मान्यता की अपनी तलाश को जारी रखते हुए तालिबान ने अलग-अलग स्तर पर सफलता हासिल की है. जबकि ज़्यादातर देशों ने तालिबान को सामान्य राजनीतिक दर्ज़ा देने से परहेज़ किया है लेकिन ईरान, रूस और चीन जैसे अन्य देशों ने, वैश्विक व्यवस्था में नई चुनौतियों से जूझते हुए तालिबान के साथ अधिक उत्साह और व्यावहारिकता से संबंध जोड़ा है क्योंकि यूक्रेन संकट ने पारंपरिक कूटनीतिक व्यवस्था को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया है

काबुल में एक निर्विरोध सरकार पर तालिबान का कब्ज़ा और अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन से अमेरिका का असफल और ज़ल्दी में बाहर निकलने की तस्वीरें आज भी यादों में प्रमुखता से रची बसी है. तालिबान का नया शासन एक वास्तविकता के तौर पर सामने आया है.

यूक्रेन संकट वैसे भी ऐसे समय में आया जब दुनिया अफ़ग़ानिस्तान में हो रही घटनाओं में उलझी हुई थी. 1990 के दशक के विपरीततालिबान ने इस अधिग्रहण को विश्व स्तर पर केवल समाचार और सोशल मीडिया के द्वारा समान रूप से प्रसारित किया. काबुल में एक निर्विरोध सरकार पर तालिबान का कब्ज़ा और अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन से अमेरिका का असफल और ज़ल्दी में बाहर निकलने की तस्वीरें आज भी यादों में प्रमुखता से रची बसी है. तालिबान का नया शासन एक वास्तविकता के तौर पर सामने आया है और अंतरराष्ट्रीय समुदाय को अब एक देश पर नियंत्रण करने वाले इस्लामी विद्रोह का जवाब देना है, वो भी 9/11 के बाद अमेरिका के नेतृत्व वाली आतंकवाद विरोधी नैरेटिव के बीच.

हालांकि इसमें दो राय नहीं कि यूरोप में मौज़ूदा संघर्ष तालिबान के लिए एक वरदान के रूप में आया है जो वैश्विक अछूत बनने की ओर आगे बढ़ रहा था. कीव के ख़िलाफ़ रूस की कार्रवाई बड़े बदलाव का कारण बन गया है, जिसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शीत युद्ध के दिनों जैसे दायरे को खींचने का काम किया है. यूरोप में संघर्ष की उम्मीद पश्चिम को भी नहीं थी, वो भी तब जबकि अमेरिका और चीन के बीच होने वाली प्रतिद्वंद्विता को लेकर सभी सहमे हुए थेमास्को के साथ वाशिंगटन की पुरानी प्रतिद्वंद्विता के फिर से शुरू होने से ये जटिलताएं सामने आई हैं. फिर भी  तालिबान के लिए, यह दरार अच्छा मौक़ा है क्योंकि यह एक वैध राजनीतिक इकाई के रूप में ख़ुद को और अधिक मज़बूती से स्थापित करने के लिए लामबंद हो सकता है. तालिबान ने पिछले डेढ़ साल में मध्य एशिया, ईरान, कतर, पाकिस्तान, मलेशिया, रूस और चीन में अफ़ग़ानिस्तान के कुछ दूतावास पर नियंत्रण हासिल करने में क़ामयाबी पाई है. हाल ही में  इसने अब दुबई में एक नया "केयरटेकर (कार्यवाहक)" काउंसल जनरल भी नियुक्त किया है, जो संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों के दृष्टिकोण में हो रहे धीमे बदलाव की ओर इशारा करता है. सत्ता पर काबिज़ होने के दो साल से भी कम समय में  अपने अधिकांश पड़ोसियों के साथ एक कूटनीतिक संबंध बनाना तालिबान के लिए ख़राब ट्रैक रिकॉर्ड नहीं कहा जा सकता है. आख़िरकार ऐसे प्रतिबंधित उग्रवादी समूह इन भू-राजनीतिक दूरियों का इस्तेमाल अपने हित के लिए कर ही रहे हैं. तालिबान की अपनी कूटनीतिक स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए हमास को मॉस्को पहुंचने में मदद करने से लेकर रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव के साथ बातचीत करने और वैश्विक शक्तियों के बीच इसे अपनी अहमियत के तौर पर दिखाने के दावे तक, असलियत यही है कि राजनीतिक कमी सभी समूहों को उनकी योजनाओं को पूरा करने का मौक़ा देती है.

चीन की कुटनीतिक चाल

पश्चिम में क़रीब क़रीब भूल चुके अफ़ग़ानिस्तान को दूसरों ने एक खुले मौक़े के रूप में देखा है. रूस के ख़िलाफ़ पश्चिम के एकीकरण ने अफ़ग़ानिस्तान में चीन को काम करने के लिए और अधिक जगह दी है. बीजिंग के ईरान के साथ लंबे समय से संबंध और मॉस्को की चीनी अर्थव्यवस्था पर बढ़ती निर्भरता ने काबुल में तीन सबसे सक्रिय देशों को तालिबान शासन के साथ मूलभूत मतभेदों के बावज़ूद व्यापक रूप से सहयोग बढ़ाने का मौक़ा दिया है. हालांकि, इन मतभेदों को तेज़ी से विकसित हो रहे 'पश्चिम बनाम पूर्व' के नैरेटिव में काफी हद तक व्यवधान के रूप में देखा जाता है. जबकि ईरान का तालिबान शासन के साथ निकटता बनी हुई हैजो दोनों देश के अधिकारियों द्वारा नियमित यात्राओं से और बढ़ी है और रूस ने भी अपनी मौज़ूदगी को अफ़ग़ानिस्तान में मज़बूत किया है. इस बीच चीन भविष्य के लिए अफ़ग़ानिस्तान के मुख्य आर्थिक साझेदार के रूप में ख़ुद की मार्केटिंग करने में लगा है. इन सभी तिकड़मों के बीच रूस, चीन और ईरान का मक़सद अमेरिका और यूरोप को लंबे समय तक इस क्षेत्र समेत मध्य एशिया से बाहर रखना है और यहां यह याद रखना ज़रूरी है कि तेहरान और मॉस्को दोनों पहले भारत और ताजिक़िस्तान के साथ-साथ तालिबान विरोधी नॉर्दन अलाय़ंस के मुख्य संरक्षक थे, जिसके डीएनए के चलते ही 2001 के बाद अफ़ग़ानिस्तान में राष्ट्रपति हामिद करजई और अशरफ गनी की सरकारें बनीं.

चीन भविष्य के लिए अफ़ग़ानिस्तान के मुख्य आर्थिक साझेदार के रूप में ख़ुद की मार्केटिंग करने में लगा है. इन सभी तिकड़मों के बीच रूस, चीन और ईरान का मक़सद अमेरिका और यूरोप को लंबे समय तक इस क्षेत्र समेत मध्य एशिया से बाहर रखना है

हालांकि उपरोक्त स्थितियां तालिबान के लिए अंतरराष्ट्रीय कूटनीति को परखने और समझने के लिए एक लिटमस टेस्ट जैसा भी है. भले ही तालिबान के पास वास्तविक राजनीति के खेल का गहरा अनुभव ना हो  लेकिन ज़रूरी नहीं कि वे इस क्षेत्र में पूरी तरह से नौसिखिए हैं. तालिबान के वार्ताकार 2013 से ही दोहा, कतर में अपने राजनीतिक कार्यालय का संचालन कर रहे है और सफलतापूर्वक 2021 में अमेरिका के साथ अपने लिए एक अनुकूल सौदे पर बातचीत को अंज़ाम दिया. इससे पहले भी, 1990 के दशक में मुल्ला उमर के तालिबान शासन के तहत एक अपहरण संकट के दौरान तालिबान ने मध्यस्थ की भूमिका निभाई और ऐसा करने में, स्वतंत्र राजनयिक और राजनीतिक इकाई के रूप में सामने आने की कोशिश की. 1999 में इंडियन एयरलाइंस की विमान आईसी 814 का अपहरण संकट आठ दिनों के बाद कंधार में ख़त्म हो गया जिसमें लगभग सभी यात्रियों की सुरक्षित रिहाई (1 की मौत हो गई) सुनिश्चित की गई और नई दिल्ली को कश्मीर की जेल में बंद आतंकवादियों की रिहाई के लिए मज़बूर होना पड़ा. जैश-उल-मुस्लिमीन के पूर्व प्रमुख और उस दौरान तालिबान से क़रीबी रखने वाले सैयद अकबर आगा ने कहा, "यह महान और सकारात्मक काम था जो तालिबान ने किया ... [साथ ही] तालिबान का एक स्वतंत्र दृष्टिकोण है, चाहे पाकिस्तान कुछ भी कहे." 

निष्कर्ष

मौज़ूदा तालिबान अंतरिम सरकार के साथ बहुत कुछ अफ़ग़ानिस्तान में बदल चुका है, जो कम से कम धारणा में क्वासी स्टेट संरचना की तरह काम कर रही है. हालांकि तालिबान की अंतरिम सरकार ख़ुद ही आंतरिक मतभेदों से जूझ रही है. जबकि काबुल में आधिकारिक राजनीतिक व्यवस्था कुछ शर्तों के साथ अंतर्राष्ट्रीय किरदारों के साथ सहयोग करने की इच्छुक लगती है, जैसे कि महिला शिक्षा, तकनीक़ी रूप से दोनों पक्षों के लिए विवादित विषय है और अंतरराष्ट्रीय वैधता के बदले में धार्मिक रियायतें प्रदान करने की मांगों पर तालिबान के सर्वोच्च नेता हिबतुल्लाह अखुंदजादा का सिद्धांत अडिग है. एक्सपर्ट मोहम्मद ईशान ज़िया और सना तारिक़ द्वारा प्रकाशित महत्वपूर्ण नए रिसर्च जिसमें तालिबान के कूटनीति प्रयासों को रेखांकित किया गया है, उसमें इस तथ्य को सामने लाया गया है कि एक असफल इंटरा-अफ़गान डायलॉग के अनुभव, विशेष रूप से अति रूढ़िवादी व्यवस्था के भीतर, समूह के शीर्ष नेतृत्व के बीच विश्

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