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Published on Mar 27, 2024 Updated 1 Days ago

संघीय संस्थाओं को मजबूत बनाने के साथ-साथ अगर हम सभी पक्षों की राजनीतिक संवेदनाओं का ख्याल रखेंगे, तभी अन्तर्राज्यीय नदी जल विवाद का स्थायी समाधान निकल पाएगा.

संघीय ढांचे के तहत बातचीत, स्पष्टता और आपसी सहयोग: अन्तर्राज्यीय नदी जल विवाद के समाधान की कुंजी

ये लेख निबंध श्रृंखला विश्व जल दिवस 2024: शांति के लिए जल, जीवन के लिए जल का हिस्सा है.


भारत में राज्य और केंद्र सरकार के बीच कामकाज की किस तरह की व्यवस्था होगी, इसका निर्धारण संघीय राजनीतिक संस्थाओं के हिसाब से होता है. हालांकि, इसी संघीय ढांचे की वजह से अन्तर्राज्यीय नदी जल विवाद लंबे समय से एक बड़ी समस्या बने हुए हैं. इन विवादों से देश की सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था और पर्यावरण पर असर पड़ता है. भारत के अलग-अलग राज्यों में 25 रिवर बेसिन यानी नदी घाटियां हैं. यहीं से अलग-अलग राज्य इस पानी का साझा इस्तेमाल करते हैं. इसलिए आज ज़रूरत ऐसी नीतियां बनाने की है जिससे नदियों के पानी का सही आवंटन हो. संघीय ढांचे के तहत केंद्र सरकार को नदी जल विवाद सुलझाने के लिए दो मोर्चों पर काम करना चाहिए. पहला, सम्बंधित राज्यों के बीच विवाद सुलझाना और दूसरा, केंद्र और राज्य के बीच के विवाद का समाधान करना. 

दो या ज्यादा राज्यों के बीच बहने वाली नदियां लंबे वक्त से विवाद का बड़ा मुद्दा बनी हुई हैं. इन नदियों के पानी पर अधिकार और इसे लेकर खाद्य सुरक्षा की जो दोषपूर्ण आर्थिक नीतियां बनाई गईं हैं, उसने भी विवाद को बढ़ाने का काम किया है.

दो या ज्यादा राज्यों के बीच बहने वाली नदियां लंबे वक्त से विवाद का बड़ा मुद्दा बनी हुई हैं. इन नदियों के पानी पर अधिकार और इसे लेकर खाद्य सुरक्षा की जो दोषपूर्ण आर्थिक नीतियां बनाई गईं हैं, उसने भी विवाद को बढ़ाने का काम किया है. इसके अलावा पारिस्थितिकी तंत्र को लेकर एकीकृत दृष्टिकोण की कमी और जल प्रबंधन के लिए जल विज्ञान का अत्यंत सरलीकरण किया जाना भी इस विवाद की बड़ी वजह है. नदियों पर अधिकार को लेकर ये विवाद आज़ादी के बाद से चले आ रहे हैं. इन विवादों के कई ऐतिहासिक और संस्थागत कारण भी है. इन विवादों का अब तक समाधान नहीं हो पाने की एक बड़ी वजह राजनीतिक जटिलताएं भी हैं. 

नदी जल विवाद की संरचनात्मक जटिलताओं को समझना

नदी जल विवाद का समाधान खोजने से पहले ये समझना ज़रूरी है कि इसे लेकर चुनौतियां क्या हैं. अन्तर्राज्यीय नदी जल विवाद के लिए तीन प्रमुख सरंचनात्माक अस्पष्टताएं जिम्मेदार हैं. पहली, केंद्र सरकार का अधिकार क्षेत्र, दूसरी, ऐतिहासिक और भौगोलिक और तीसरी, संस्थागत अस्पष्टताएं. ये तीनों आपस में जुड़ी हैं.  

अन्तर्राज्यीय जल विवाद (ISWD) को लेकर संविधान में स्पष्ट तौर पर दिशानिर्देश नहीं दिए गए हैं.  दो राज्यों के बीच बहने वाली नदियों के जल प्रबंधन को लेकर केंद्र सरकार और राज्य सरकार के अधिकारों पर साफ-साफ कुछ नहीं कहा गया है. यानी अधिकार क्षेत्र को लेकर अस्पष्टता बनी हुई है. भारत पर अंग्रेजी शासन के दौरान 1919 और 1935 में इसे लेकर जो कानून बने थे, कमोबेश वही कानून आज़ादी के बाद भी बने रहे. इन कानूनों के मुताबिक अन्तर्राज्यीय नदियों का पानी भले ही सम्बंधित राज्य ही इस्तेमाल कर सकेंगे लेकिन विवाद की स्थिति में इनके नियमन का अधिकार केंद्र सरकार के पास होगा. लेकिन अधिकार क्षेत्र को लेकर संविधान में स्पष्ट उल्लेख नहीं किए जाने से विवाद हमेशा बना रहता है. भारत में अन्तर्राज्यीय जल विवाद की स्थिति इतनी जटिल है कि केंद्र सरकार नदियों के पानी के न्यायपूर्ण आवंटन की चाहे जितनी भी कोशिशें कर ले, विवाद फिर भी बने रहेंगे.

 दो या ज्यादा राज्यों के बीच बहने वाली नदियां लंबे वक्त से विवाद का बड़ा मुद्दा बनी हुई हैं. इन नदियों के पानी पर अधिकार और इसे लेकर खाद्य सुरक्षा की जो दोषपूर्ण आर्थिक नीतियां बनाई गईं हैं, उसने भी विवाद को बढ़ाने का काम किया है.

कानूनी और संवैधानिक अस्पष्टताओं के अलावा ऐतिहासिक और भौगोलिक कारणों ने भी नदी जल विवाद पैदा करने में अहम भूमिका निभाई है. अंग्रेज शासन के दौरान जिस तरह राज्यों की सीमाएं तय की गई और फिर आज़ादी के बाद रियासतों के विलय के तरीके ने भी अन्तर्राज्यीय नदी विवाद उत्पन्न किया है. भारत का गठन अलग-अलग राज्यों को मिलाकर हुआ है. इनमें से कुछ राज्य अंग्रेजों के ज़माने से हैं और कुछ वो रियासतें हैं जिन्होंने आज़ादी के बाद अपना विलय भारत में किया था.

भारत में ज्यादातर राज्यों का गठन राजनीतिक आधार पर हुआ है. यही कारण है कि कई लोगों की आकांक्षाएं पूरी नहीं हो पाई, जैसा कि सिमाद्री ने तेलंगाना को लेकर किए गए अपने अध्ययन में भी पाया था. संविधान बनाते वक्त राष्ट्रीय एकता को संसाधनों के आवंटन पर वरीयता दी गई, जिसमें नदी जल विवाद भी शामिल है. संविधान सभा की बैठकों में अन्तर्राज्यीय नदी विवाद पर बहुत कम चर्चा हुई. उस वक्त सबका ध्यान राष्ट्रीय एकता बनाए रखने पर था क्योंकि तब देश ने बंटवारे के बाद हुई हिंसा का तांडव देखा था. इसके बाद जब सांस्कृतिक और राजनीतिक आधार पर राज्यों का गठन हुआ तब नदी जल विवाद के ऐतिहासिक और पर्यावरणीय पहलुओं की अनदेखी की गई. इसने भी नदियों को लेकर होने वाले विवाद और उस पर फैसला लेने के सरकार के अधिकार क्षेत्र की स्थिति को और ज्यादा जटिल बना दिया. इसकी वजह से नदियों पर मालिकाना हक और इसके पानी के इस्तेमाल पर राजनीतिक विवाद तेज़ हुआ. कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच जारी कावेरी नदी विवाद इसका एक बड़ा उदाहरण है. विशेषज्ञों का मानना है कि नदी जल विवाद एक ऐसी समस्या है जो हमें अंग्रेजों के शासन से विरासत में मिली और अब तक जारी है. औपनिवेशिक काल के समय से चले आ रहे कानूनों ने इस समस्या को और जटिल बना दिया है. 

भारत में जिस तरह के राजनीतिक बदलाव हो रहे हैं, उसे देखते हुए ये ज़रूरी है कि केंद्र सरकार और विपक्ष शासित राज्य सरकारों के बीच बातचीत होती रहे. राज्य के स्तर पर भी विवादों के मुद्दों पर चुनावी सहमति बनाना अहम है. खासकर जब ये मुद्दे क्षेत्रीय पहचान और स्वायत्तता से जुड़ गए हों.

केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट की बनाई संस्थाओं के फैसलों ने भी नदी जल विवाद को बढ़ाने का काम किया है. संविधान का आर्टिकल 262 सुप्रीम कोर्ट को अन्तर्राज्यीय नदी विवाद में दखल देने से रोकता है लेकिन संविधान का ही आर्टिकल 136 सुप्रीम कोर्ट को इस बात का अधिकार देता है कि वो नदी जल प्राधिकरण के फैसलों पर सुनवाई कर सकता है. संविधान में लिखित ये विरोधीभासी बातें भी इस अनिश्चितता को बढ़ावा देती हैं कि नदी जल विवाद में फैसला करने का अंतिम अधिकार किसके पास है. प्राधिकरणों के पास या फिर सुप्रीम कोर्ट के पास. इन विवादों को सुलझाने के लिए 1956 में जब नदी जल प्राधिकरणों को गठन किया गया था तो इसे काफी अनूठा प्रयोग समझा गया था लेकिन ये प्राधिकरण अभी तक अपने मकसद में ज्यादा सफल नहीं हो सके हैं. इन प्राधिकरणों के नाकाम होने की एक बड़ी वजह अन्तर्राज्यीय नदी विवाद कानून 1956 की धाराएं भी हैं. इस कानून की धारा 5(2) प्राधिकरणों को फैसला करने का अधिकार देती है लेकिन इसी कानून की धारा  5(3) राज्य सरकारों को ये अधिकार देती है कि वो प्राधिकरण के फैसले को चुनौती दे सके. इसका नतीजा ये होता है कि ये प्राधिकरण जो भी फैसला देते हैं, उन्हें चुनौती देने का काम भी चलता रहता है और ये समस्या लंबे वक्त तक जारी रहती हैं. . कुछ विशेषज्ञों ने प्राधिकरण के काम करने की तरीकों पर सवाल उठाए हैं. इनकी बैठकें अनियमित होती हैं. ये सामान्य कोर्ट व्यवस्था से बाहर काम करते हैं. सुनवाई नियमित नहीं होती. हालांकि 2002 में इसे लेकर एक संशोधन किया गया था, जिससे कि ये प्राधिकरण तय समयसीमा में सुनवाई और फैसला दें लेकिन अभी तक ऐसा नहीं हो पा रहा है. 

संघीय ढांचे के तहत बातचीत की ज़रूरत

अगर नदी जल विवाद का इतिहास देखें तो ये बात भी सामने आती है कि केंद्र और राज्यों के बीच इस विवाद का हल निकालने के लिए संघीय ढांचे के तहत राजनीतिक तौर पर बातचीत और मध्यस्थता में कमी दिखती है. जल विवाद को सुलझाने के लिए केंद्र सरकार की संस्थाओं के साथ-साथ अलग-अलग राज्यों में शासन कर रही पार्टियों को भी शामिल करना होता है. कई बार ये सरकारें अलग-अलग पार्टियों की भी होती हैं. इसलिए इस विवाद का समाधान सिर्फ तकनीकी आधार पर नहीं खोजा जा सकता. इसके लिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया भी अपनानी होगी. नदी जल विवाद सिर्फ संसाधनों पर अधिकार का मामला नहीं है. कई बार इससे क्षेत्रीय और जातीय अस्तिताएं भी जुड़ जाती हैं. इसे लेकर राजनीति भी होने लगती है. नदी जल विवाद अब राजनीति का हिस्सा हो गए हैं. ऐसे में जल विवाद को सुलझाने के लिए एक व्यापाक राजनीतिक सहमति बनाना ज़रूरी हो जाता है. 

विवाद के हल के लिए संस्थाओं के तौर तरीके बदलने की ज़रूरत

नदी जल विवाद का स्थायी हल खोजने के लिए इसपर दो स्तर पर सहमति बनाना ज़रूरी है. पहली संघीय स्तर और दूसरा चुनावी स्तर पर. संघीय व्यवस्था के तहत केंद्र और राज्यों के बीच भरोसा पैदा करने की ज़रूरत है. जिन राज्यों के बीच पानी को लेकर विवाद चल रहा है. उनके बीच भी एक राय होनी चाहिए. इसके लिए ज़रूरी है कि बातचीत की प्रक्रिया में राज्यों को भी उचित प्रतिनिधित्व दिया जाए. निष्पक्ष और बहुपक्षीय बातचीत हो. फिलहाल इन सभी पक्षों के बीच विश्वास का संकट है. खासकर उन राज्यों में जहां विपक्षी पार्टियों की सरकार है. इससे केंद्र सरकार की संस्थाओं पर भरोसा नहीं बन पाता. विवाद के समाधान के लिए संस्थाओं पर भरोसा पैदा करना ज़रूरी है. 

भारत में जिस तरह के राजनीतिक बदलाव हो रहे हैं, उसे देखते हुए ये ज़रूरी है कि केंद्र सरकार और विपक्ष शासित राज्य सरकारों के बीच बातचीत होती रहे. राज्य के स्तर पर भी विवादों के मुद्दों पर चुनावी सहमति बनाना अहम है. खासकर जब ये मुद्दे क्षेत्रीय पहचान और स्वायत्तता से जुड़ गए हों. मतदाताओं को भी ये बताया जाना चाहिए कि अगर नदी जल विवाद लंबे वक्त तक जारी रहे तो क्या नुकसान होंगे और अगर समाधान हो गया तो क्या फायदे होंगे. अगर इसे लेकर सकारात्मक राजनीति होगी. जागरूकता फैलाने के लिए सिविल सोसायटी, अकादमियों और मीडिया की मदद ली जाएगी तो इससे लोगों में भरोसा भी बढ़ेगा और विवाद का हल खोजने में आसानी होगी. संस्थागत प्रणाली को मजबूत बनाने के साथ ही अगर हम सभी पक्षों की राजनीतिक मजबूरियों का ख्याल रखेंगे, तभी अन्तर्राज्यीय नदी जल विवाद का स्थायी समाधान निकल पाएगा.

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