Author : Niranjan Sahoo

Published on Jan 19, 2018 Updated 0 Hours ago

क्या भारत में भी पार्टी के आंतरिक चुनाव के लिए सरकारी फंडिंग उपलब्ध करवाने का संयुक्त राज्य अमेरिका का तरीका उपयोगी हो सकता है?

राजनीति में सरकारी फंडिंग: क्या सीख सकते हैं हम दुनिया से

लोकतंत्र पर काफी लागत आती है। चुनाव लड़ने और अपनी सामान्य गतिविधियों को संचालित करने के लिए भारत में राजनीतिक दल हर मुमकिन स्रोत से धन हासिल करने की जुगत में रहते हैं, जिनमें‘गैरकानूनी’ और‘निहित स्वार्थ वाले’स्रोत से आने वाले धन शामिल हैं। भारतीय लोकतंत्र की मर्यादा को बचाए रखने के लिहाज से इसका गंभीर प्रभाव देखने को मिलता है। उधर, इस दौरान बहुत से देशों ने राजनीतिक पार्टियों और गतिविधियों की सरकारी सब्सिडी और डायरेक्ट फंडिंग का रास्ता अपना लिया है ताकि निहित स्वार्थ वाले धन पर उनकी निर्भरता कम हो, राजनीतिक अवसरों की समानता हो और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में ज्यादा पारदर्शिता व जवाबदेही आ सके। उदाहरण के तौर पर जर्मनी और यूके जैसे देशों ने सरकारी सब्सिडी को बेहतर तरीके से उपयोग कर चुनाव में निहित स्वार्थ वाले धन की भूमिका को काफी कम कर दिया है और उनकी चुनावी राजनीति में इसकी वजह से पारदर्शिता दिखाई देती है। हालांकि भारत इन उपायों को ठीक उसी तरह अपने यहां लागू नहीं कर सकता, लेकिन इनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। इस शोधपत्र में पब्लिक फंडिंग के विभिन्न मॉडलों के प्रभाव, ऐसे सुधारों के संदर्भ और उसके पूरे तंत्र, इसे लागू करने में आने वाले उतार-चढ़ाव के अध्ययन के साथ ही भारत के लिए अनुकूल विकल्पों को भी पेश किया गया है।

परिचय

नोटबंदी के अपने अभियान के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजनीतिक दलों से अपील की थी कि वे भारत में चुनावों की सरकारी फंडिंग के मुद्दे पर आम राय बनाएं। [1] प्रधानमंत्री चुनाव की लगातार बढ़ती लागत और ‘काले धन’ या गैर कानूनी धन की देश की राजनीतिक व्यवस्था में घुसपैठ की बात कर रहे थे। यह एक कड़वी सच्चाई है कि भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया अवैध वित्तीय संसाधनों पर गंभीर रूप से आश्रित है। इस बात की झलक इस तथ्य में मिल सकती है कि रजिस्टर्ड राजनीतिक दलों को मिलने वाले राजनीतिक चंदे का लगभग दो तिहाई कथित ‘अज्ञात’ स्रोत से आता है। [2] काले धन से जुड़ी चुनावी गतिविधियों से होने वाली समस्याएं सभी को अच्छी तरह पता हैं। चुनावी राजनीति में अवैध धन की घुसपैठ को कम करने और ‘सफेद धन’ की सप्लाई को बढ़ाने के लिए मोदी सरकार ने हाल में वित्त बिल के रूप में कई तरह के सुधारों का प्रस्ताव किया है। [3] इन प्रयासों में नकद चंदे की रकम को 20,000 रुपये से घटा कर 2,000 रुपये तक सीमित करने; टैक्स राहत के लिए समय से टैक्स रिटर्न दाखिल करने को अनिवार्य करने और चुनावी बांड जारी करने के प्रस्ताव अहम हैं। इसमें मौजूद कई कमियों [4] को छोड़ दें तो ये कदम गैर कानूनी फंडिंग के मुद्दे पर इस सरकार की गंभीरता को दिखाते हैं जो पार्टियों की राजनीतिक गतिविधियों के लिए साफ-सुथरी फंडिंग को विस्तार दे सकते हैं। हालांकि, ये कदम भारत में राजनीतिक वित्त व्यवस्था से जुड़े व्यवस्थागत मुद्दों का समाधान कर पाने में नाकाम होते हैं।

व्यापक गरीबी और निरक्षरता वाले एक जटिल और विशाल देश होने के बावजूद लोकतंत्र की कामयाबी की वजह से भारत को वैश्विक सराहना मिली है। [5] लेकिन हमारे देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया भ्रष्टाचार के साथ ही पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी से घिरी हुई है। सबसे ज्यादा चिंताजनक स्थिति है भारत के चुनावी लोकतंत्र में धन की बढ़ती भूमिका। सहज ही है कि 16वीं लोकसभा के चुनाव को 2012 के अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के बाद सबसे महंगा चुनाव माना जाता है। [6] सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की ओर से किए गए एक अध्ययन के मुताबिक यह आंकड़ा 30,000 करोड़ (लगभग 5.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर) है। [7] यह आकलन जबकि बहुत कम है। औसतन (जिसके बारे में विभिन्न तथ्य उपलब्ध हैं और खुद उम्मीदवार भी स्वीकार करते हैं)[8] लोकसभा चुनाव लड़ रहे उम्मीदवार अपने ठीक-ठाक प्रचार के लिए 5 से 10 करोड़ रुपये खर्च करते हैं। नकदी, शराब, ड्रग्स और दूसरी चीजें दे कर वोट खरीदने का चलन तो अलग है ही। पिछले चुनाव के दौरान चुनाव आयोग के खर्च पर्यवेक्षकों की ओर से बरामद की गई नकदी ने रिकार्ड तोड़ दिए। सिर्फ तमिलनाडु से ही 150 करोड़ रुपये जब्त किए गए। [9]

चुनावों के ज्यादा से ज्यादा महंगे होते जाने के साथ पार्टी और उम्मीदवार दोनों पर यह बोझ बढ़ता जा रहा है कि वे ज्यादा से ज्यादा धन इकट्ठा करें। चूंकि छोटे अंशदानों को जुटाना ज्यादा मुश्किल है और भारत में इसके लेन-देन पर आने वाला खर्च अभी बहुत ज्यादा है, [10] इसलिए कारपोरेट के ‘स्वार्थ से जुड़े धन’ ने ज्यादा अहम स्थान हासिल कर लिया है। [11] ऐसे में भारत की ज्यादातर बड़ी राजनीतिक पार्टियों को कारपोरेट घरानों की उदार फंडिंग हासिल है। [12] उदाहरण के तौर पर ज्ञात स्रोतों से मिले कुल चंदे में निजी बिजनेस और कारपोरेट सहयोग का हिस्सा भारी-भरकम 89 फीसदी है। [13] इसके ऊपर से अर्थव्यवस्था को संचालित करने में सरकार की जितनी अहम भूमिका है, इसकी वजह से कारपोरेट धन गैर कानूनी और अघोषित तरीकों से आता है, जिसकी वजह से चुनाव और पार्टी की दूसरी गतिविधियों में काले धन का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है। टैक्स छूट के प्रावधान के बावजूद कारपोरेट अपनी पहचान जाहिर करने को आगे नहीं आ रहे हैं, क्योंकि उन्हें विरोधी पार्टी की ओर से प्रताड़ित किए जाने का डर सताता है। [14] ऐसे में हाल के वर्षों में भारत में राजनीति में बड़ी पूंजी का असर और भ्रष्टाचार सामान्य चलन हो गया है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के दूसरे शासनकाल के दौरान इसका अधिकांश समय भ्रष्टाचार के बड़े मामलों के आरोपों से जूझने में गया, जिनमें 2जी निलामी और कोयाला घोटाला (जो फैसले के बदले लाभ पाने से जुड़ा था और जिसकी चर्चा राडिया टेप में भी मिलती है) भी शामिल है। [15]

जहां पूंजीवाद और भ्रष्टाचार का देश में लोकतंत्र की गुणवत्ता और शासन की प्रवृत्ति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है [16] धन के बढ़ते प्रभाव की वजह से पार्टियों के अंदर भी उम्मीदवारों के चयन पर नकारात्मक असर पड़ा है। धन की बढ़ती जरूरत की वजह से पार्टियां ज्यादा से ज्यादा ऐसे व्यक्तियों को तवज्जो दे रही हैं जो अपना चुनावी खर्च उठा सकें और खर्च के लिए पार्टी का मुंह ना देखें। इसकी वजह से धनी उम्मीदवारों की संख्या बढ़ी है और कई मामलों में तो अपराधी भी चुनाव लड़ते देखे जा रहे हैं। [17]

अंतत:, चूंकि पार्टियों का वित्तीय संचालन देश भर में कुछ घरानों और क्षेत्रीय क्षत्रपों के हाथ में है, इसलिए इन पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र बहुत सीमित है। [18] चुनावों में धन की बढ़ती भूमिका की वजह से ज्यादातर पार्टियां, कुछ अपवाद को छोड़ कर, धनी उम्मीदवार को चुनती हैं या फिर इनका मानना होता है कि वह कम से कम ऐसा जरूर होना चाहिए कि चुनाव के लिए धन जुटा सके। इस वजह से अक्सर ऐसी स्थिति आ जाती है कि अपराधी खुद को उम्मीदवार बनवाने में कामयाब हो जाते हैं और प्रतिभावान उम्मीदवार लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अपनी भागीदारी को सुनिश्चित करने से वंचित रह जाते हैं। [19] संक्षेप में, भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया के सामने विश्वसनीयता का संकट है, जिसकी कई वजहों में राजनीतिक वित्त संचालन से जुड़ी चुनौतियां भी प्रमुख हैं।

यह भी सच है कि राजनीतिक फंडिंग संबंधी समस्या सिर्फ भारत की ही नहीं है। लगभग सभी लोकतंत्र, जिनमें स्थापित लोकतंत्र भी शामिल है, राजनीति में धन संबंधी यह चुनौती कमोबेश जरूर झेल रहे हैं। [20] धन, राजनीति और भ्रष्टाचार का यह तालमेल उतना ही पुराना है जितना प्राचीन ग्रीस में लोकतंत्र का उदय। एथेन्स के तब के प्रत्यक्ष लोकतंत्र के ट्रेंड का उल्लेघ करते हुए ग्रीस के इतिहासकार प्लुटार्च ने कहा है, “वोटों की खरीद-बिक्री शुरू हो गई है और चुनावों का भविष्य धन पर निर्भर करेगा। लेकिन बाद में रिश्वतखोरी ने अदालतों और कैंपों को भी प्रभावित किया और सेना को पूरी तरह से धन का गुलाम बना कर शहर को राजशाही में बदल दिया। इस स्थिति के लिए कहा गया है कि लोगों की ताकत को सबसे पहले वही ध्वस्त करता है जो उन्हें भोज और रिश्वत देता है।” [21]

हाल के इतिहास में राजनीति में धन के बढ़ते महत्व और उससे जुड़ी समस्याएं दुनिया भर के लगभग सभी लोकतंत्रों में रोजाना समाचार में दिखाई देती हैं। [22] उदाहरण के तौर पर जापान का “रिक्रूट” घोटाला हो, या फिर ब्रिटेन का सनसनीखेज “वेस्टमिन्स्टर” घोटाला और दुनिया भर में जाना जाने वाला अमेरिका का “वाटरगेट” घोटाला और ब्राजील में चुनाव संबंधी रिश्तव के घोटालों के सिलसिले, जिनकी वजह से दिलमा रॉसेफ का महाभियोग लाया गया [23] ये सभी दिखाते हैं कि स्थापित लोकतंत्र हो या नया, सभी राजनीतिक फंडिंग की समस्या से जूझ रहे हैं। [24] इसी तरह, चुनाव आधारित राजनीतिक भ्रष्टाचार ने बहुत से यूरोपीय लोकतंत्रों को और खास तौर पर इटली, ग्रीस, फ्रांस, स्पेन और बेल्जियम के लोकतांत्रिक प्रशासन को किस तरह नुकसान पहुंचाया है इसको ले कर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। उभरते लोकतंत्रों में यह स्थिति और ज्यादा गंभीर है, क्योंकि रिश्वत, भ्रष्टाचार और बड़ी पूंजी पर निर्भरता विकास और तरक्की की राह में बड़े रोड़े साबित हो रहे हैं। ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल इंडोनेशिया, मेक्सिको, रूस, मलेशिया और फिलिपिंस को भ्रष्टाचार तालिका और चुनाव संबंधी रिश्वतखोरी में बहुत खराब स्थिति में रखता है। [25] वोट खरीदने के आम चलन को बहुत से विकसित लोकतंत्रों में भी अनुभव किया जा रहा है। [26] इसलिए, सभी लोकतंत्र, चाहे विकसित हों या उभरते, राजनीतिक फंडिंग की चुनौती से लगातार जूझ रहे हैं जिसकी वजह से लोकतंत्र की गुणवत्ता और राजनीतिक प्रक्रिया में लोगों का भरोसा, राजनीतिक दलों में बराबरी की प्रतिद्वंद्विता, पारदर्शिता और जवाबदेही के सिद्धांत और साथ ही विकास और बेहतर शासन के व्यापक लक्ष्य प्रभावित हो रहे हैं। [27]

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बड़ी पूंजी पर निर्भरता को घटाने और नए व उभरते राजनेताओं को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भागीदारी के लिए बढ़ावा देने के लिए बहुत से विचारकों ने राजनीतिक फंडिंग में व्यापक सुधार की वकालत की है। उदाहरण के तौर पर कुछ लोकतंत्रों ने घोषणा संबंधी नियम बहुत सख्त कर दिए हैं, संस्थानों से मिलने वाले योगदान, खर्च की सीमा, कारपोरेट चंदे पर प्रतिबंध, प्रचार की समय सीमा और दूसरी रणनीतियां अपनाई हैं। [28] हाल के दशकों में सबसे ताजा और प्रमुख बदलाव है राजनीतिक पार्टियों के लिए सार्वजनिक फंडिंग की पूर्ण या आंशिक व्यवस्था, जिसे बहुत से देशों में अपनाया है।

चुनाव और पार्टियों की सरकारी फंडिंग (और कुछ मामलों में उम्मीदवारों की) अधिकांश लोकतंत्रों में हाल का बदलाव है, हालांकि यह परिकल्पना लगभग एक शताब्दि पुरानी है। लैटिन अमेरिकी देशों ने ही राजनीतिक पार्टियों को सरकारी सब्सिडी देने की शुरुआत की थी। उरुग्वे ने 1920 में सरकारी सहायता शुरू की, जिसे बाद में कोस्टा रिका और अर्जेंटीना ने भी अपना लिया। अब, सात से ज्यादा लैटिन अमेरिकी लोकतंत्रों में सरकारी सहायता उपलब्ध है। [29] जर्मनी ने सरकारी फंडिंग 1950 के दशक में शुरू की। इसके मॉडल को यूके और फ्रांस सहित बहुत से देशों ने अपना लिया। जहां तक अमेरिका का सवाल है, यहां राजनीतिक दलों के लिए सार्वजनिक धन की व्यवस्था ने राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी के कार्यकाल के दौरान 1960 के दशक में आकार लिया। राष्ट्रपति चुनाव के लिए सार्वजनिक धन की उपलब्धता का पहली बार एलान 1966 में किया गया और वाटरगेट घोटाले के बाद अमेरिका में इस अवधारणा ने और मजबूती हासिल की। संक्षेप में राजनीतिक दलों और चुनावों की सरकारी फंडिंग को दुनिया भर में सबसे प्रमुख चुनाव सुधार के तौर पर देखा जा सकता है। अब तक 116 देशों (68 फीसदी) ने राजनीतिक पार्टियों को प्रत्यक्ष सार्वजनिक फंडिंग उपलब्ध करवा दी है। [30] यूरोप में बहुसंख्य देश (86 प्रतिशत) राजनीतिक दलों को सब्सिडी उपलब्ध करवाते हैं और जर्मनी तथा यूके इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। [31]


चुनाव और पार्टियों (तथा कुछ मामलों में उम्मीदवार) को सरकारी फंडिंग उपलब्ध करवाना हालांकि एक शताब्दि पुराना विचार है, लेकिन अधिकांश लोकतंत्र में इसे हाल ही में लागू किया गया है।


निम्न खंड में यह शोधपत्र चुनावी राजनीति की सरकारी फंडिंग के लिए सैद्धांतिक आधार उपलब्ध करवाता है। इसके बाद सरकारी फंडिंग के प्रकार का संक्षिप्त विवरण है। तीसरे खंड में दुनिया भर में उपलब्ध सरकारी सब्सिडी की प्रकृति और प्रभाव की चर्चा है। अंतिम खंड में शोधपत्र उन खास उदाहरणों की बात करता है, जो भारत के लिए बहुत उपयोगी हो सकते हैं।

चुनावी राजनीति की सरकारी फंडिंग: सिद्धांत और अवधारणा

जहां दलीय लोकतंत्र के सामने मौजूद समस्याओं में फंडिंग का मुद्दा बहुत प्रमुख है, [32] वहीं यह भी सच है कि दूसरे उप-क्षेत्रों के मुकाबले इस लिहाज से सैद्धांतिक विवरण का अभाव है। सरकारी फंडिंग को ले कर सबसे लोकप्रिय दलील यह है कि इससे भ्रष्टाचार विरोधी प्रयासों को मदद मिलेगी। भ्रष्टाचार-विरोधी सिद्धांतकार [33] अपने पक्ष में वे ऐतिहासिक तथ्य पेश करते हैं जिनके मुताबिक चुनावी सहयोग, जिनमें कुछ मामलों में वैध तरीके से दिए गए चंदे भी शामिल हैं, एक तरह से कानूनी तौर पर दी गई रिश्वत की तरह काम करते हैं, जिनकी वजह से राजनेता के लिए निष्पक्ष तौर पर काम करना मुश्किल हो जाता है। [34] राजनीतिक वित्त व्यवस्था के जानकार सरकारी फंडिंग की वकालत करते हैं तो इसकी सबसे बड़ी वजह यही है। इसके पीछे उनका उद्देश्य होता है कि “राजनीति से बड़ी पूंजी को दूर रख” कर ‘निजी धन की अहमियत’ कम की जा सके। सरकारी फंडिंग राजनीतिक प्रक्रिया को प्रत्यक्ष लेन-देन, रिश्वत और भ्रष्टाचार से दूर करती है। [35] इनके लिए सरकारी फंडिंग एक सकारात्मक कदम है, ना कि एक प्रतिबंधात्मक कदम, जो भ्रष्टाचार को रोकता है, उम्मीदवारों की विविधता को बढ़ावा देता है और सिर्फ पार्टियों व उम्मीदवारों की सहायता करने वालों की बजाय पूरे समाज के हित के लिए काम करता है। [36]

राजनीतिक वित्त व्यवस्था के नियमन और खास तौर पर सरकारी फंडिंग के प्रस्ताव के पक्ष में शुरुआती दलील ‘प्रभाव को समान करने’ के लक्ष्य पर आधारित है। इसका लक्ष्य यह सुनिश्चित करना है कि कुछ शक्तिशाली समूह या व्यक्ति चुनावी प्रक्रिया पर अवांक्षित प्रभाव ना डालें। [37] इसके समर्थकों के मुताबिक राजनीतिक समानता के सिद्धांत का मतलब है ‘समान राजनीतिक प्रभाव’ और इसका अर्थ है किसी भी नागरिक के पास राजनीतिक प्रक्रिया को प्रभावित करने का दूसरे नागरिक के मुकाबले ज्यादा शक्ति नहीं होनी चाहिए। इसका मकसद है कि धन या पैसा राजनीतिक प्रक्रिया पर ज्यादा नियंत्रण को संभव नहीं बनाए या दूसरे शब्दों में कहें तो गरीबी की वजह से किसी की राजनीतिक शक्ति को गहरा झटका नहीं लगे। ‘एक व्यक्ति, एक वोट’ का सिद्धांत नागरिकों की समानता के सिद्दांत में विश्वास का सबसे बड़ा उदाहरहण है। [38]

जॉन रॉल्स, राबर्ट डल और रोनाल्ड डोर्किन जैसे राजनीतिक दर्शनशास्त्री और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के विद्वान सरकारी फंडिंग की वकालत करते हैं ताकि समान राजनीतिक प्रभाव को बचाए रखा जा सके और संपन्न उम्मीदवारों को अपने धन का लाभ उठा कर कम पैसे वाले विरोधियों को हराने से रोक सकें। [39] अपने मौलिक लेखन ‘लोकतांत्रिक सिद्धांत की भूमिका’ में डल समान राजनीतिक प्रभाव के पक्ष में तर्क देते हैं साथ ही वोटर की स्वायत्तता की वकालत करते हैं जिसके तहत यह जरूरी होता है कि वोटर को चुनाव के दिन मुकाबला कर रहे उम्मीदवारों के बारे में पूरा ब्योरा मिल सके। डल के मुताबिक वोटर की पसंद का आधार सिर्फ “…किसी व्यक्ति या समूह की ओर से नियंत्रित की गई सूचना तक ही नहीं हो।” [40]

समानता के तर्क के सबसे मुखर समर्थक राजनीतिक दर्शनशास्त्री जॉन रॉल्स हैं। रॉल्स “राजनीतिक अभियान और चुनाव खर्च के लिए सरकारी मदद, चंदे पर विभिन्न तरह के प्रतिबंधों और राजनीतिक स्वतंत्रता के निष्पक्ष मूल्य को कायम रखने के पक्ष में मजबूती से तर्क देते हैं।” रॉल्स के मुताबिक, “जरूरी है कि राजनीतिक प्रक्रिया पर उन लोगों के वर्चस्व को तोड़ा जाए जिनके पास काफी संपत्ति और धन है और इस वजह से ज्यादा बेहतर कौशल व संगठन है।” [41] समानतावादी लोकतंत्र के रॉल्स के विचार इस सिद्धांत पर आधारित हैं कि राजनीतिक दलों के अस्तित्व से होने वाले सार्वजनिक लाभ की वजह से सरकार यह दावा कर सकती है कि ये सार्वजनिक संपत्ति हैं और उन्हें इसी मुताबिक नियमों से भी बांध सकती है। रॉल्स के इन विचारों पर आधारित समानतावादी लोकतंत्र के विचार को आगे बढ़ाते हुए रोनाल्ड डोर्किन तर्क देते हैं कि लोकतंत्र में यह जरूरी है कि हम सभी को ना सिर्फ मुकाबले में खड़े उम्मीदवारों में से चुनने का समान अधिकार हो बल्कि दूसरों को इन उम्मीदवारों और मुद्दों के प्रति “आकर्षित करने के लिए समान मौका” भी मिलना चाहिए। [42] उनके मुताबिक खर्च पर नियमन भर कर देने से इस सिद्धांत का उल्लंघन होता है। क्योंकि धनी उम्मीदवार को दूसरों के मुकाबले अपने विचारों के प्रचार का ज्यादा मौका मिलेगा। [43] संक्षेप में सरकारी फंडिंग को ले कर समानता का विचार उस मुख्य चिंता पर आधारित है कि राजनीतिक लोगों के हाथ में छोड़ दिया गया तो वे आर्थिक शक्ति को राजनीतिक शक्ति में बदल देंगे और इस तरह राजनीतिक समानता के सिद्धांत को ध्वस्त कर देंगे। [44]

इसके अलावा प्रचार खर्च पर नियमन और चुनाव की सरकारी फंडिंग के पक्ष में लोक हित का तर्क है, जिसके मुताबिक यह लोकतंत्र को लाभ पहुंचाता है और लोक हित को पूरा करता है। [45] लोक हित के तर्क की जड़ें जॉन लोक के सेकेंड ट्रीटीज ऑफ गवर्मेंट (1968) में देखी जा सकती हैं। इसमें जॉन लोक अपना तर्क देते हैं, “जब हम कहते हैं कि सार्वजनिक कार्यालय सार्वजनिक विश्वास के लिए हैं जिसमें दोतरफा जवाबदेही है तो हमारा मतलब होता है कि चुने हुए जन प्रतिनिधि ट्रस्टी की भूमिका में होते हैं और उनकी जवाबदेही होती है कि वे सिर्फ उन नागरिकों के हित की ही सोचें जिन्होंने उन्हें यहां तक भेजा है। दूसरे शब्दों में उन्हें अपने फैसलों को उन नागरिकों के हित के अलावा किसी और चीज से प्रभावित नहीं होने दें, जिनकी सेवा का उन्होंने जिम्मा उठाया है।” [46]

इनके समकालीन सिद्धांतकार दावा करते हैं कि लोकतंत्र में राजनीतिक दल नागरिकों और राज्य के बीच एक अहम कड़ी के तौर पर काम करते हैं और ऐसा करते हुए दल महत्वपूर्ण लोक हित को पूरा कर रहे होते हैं। लोक हित के सिद्धांत के मौलिक पैरोकारों में शामिल डावसन के मुताबिक, [47] राजनीतिक दल उन गतिविधियों को संभव बनाते हैं और लोकतंत्र के लिए दिलचस्पी जगा कर वोटर के काम को आसान करते हैं ताकि वे अपनी बारी का इंतजार कर रही वैकल्पिक सरकार को मुमकिन कर पाते हैं और सत्तारुढ़ पार्टी को बाहर करने वाले चुनाव के बाद बदलाव में होने वाली देरी को कम करते हैं। ऐसे में चूंकि राजनीतिक दल और चुने हुए जन प्रतिनिधि एक तरह से मतदाताओं के “ट्रस्टी” की भूमिका निभाते हैं तो ऐसे में सरकार को उनकी गतिविधियों के लिए धन उपलब्ध करवाना सही ही होगा। लोक हित के सिद्धांत के पैरोकारों के मुताबिक अगर ठीक से चलाया जाए तो सरकारी फंडिंग से विधायिका संबंधी राजनीति और लोकतंत्र की गुणवत्ता में अहम सुधार लाया जा सकता है। चुने हुए जन प्रतिनिधियों को अपने दिए गए काम पर ध्यान देना चाहिए बजाय कि “चंदे के लिए अनवरत लगे रहने के, जिसमें कई बार अवैध तरीके भी शामिल होते हैं।” [48] इस विचार के मुताबिक अगर उम्मीदवारों को अपने समय का बड़ा हिस्सा फंड खड़ा करने के लिए लगाना पड़ता है तो यह चुनाव की नाकामी है। उनके मुताबिक चंदा जमा करना एक तरह का संकुचन है जो मतदाताओं के प्रतिनिधित्व की गुणवत्ता को प्रभावित करता है। [49] इसलिए लोकतंत्र के बेहतर स्वास्थ्य के लिए सरकार की इसमें अहम भूमिका है कि वह सुनिश्चित करे के चुने हुए जन प्रतिनिधि ऐसे व्यवहार से दूर रहें।

निष्कर्ष के तौर पर, राजनीति की पब्लिक फंडिंग को ले कर सैद्धांतिक स्थिति पर चर्चा से तीन अहम बिंदु उभरते हैं। पहला, भ्रष्टाचार विरोध और बड़ी पूंजी को राजनीति से दूर रखने का तर्क यह मांग करता है कि सरकार राजनीतिक पार्टियों और उम्मीदवारों के सामने मौजूद धन की चुनौती को दूर करने के लिए जरूरी कदम उठाए। दूसरा, “प्रभाव की समानता” और प्रतिद्वंद्विता (जिसमें कम संसाधन वाली पार्टियों और उम्मीदवारों और खूब संसाधन वाली पार्टियों व उम्मीदवारों के बीच बराबरी की स्थिति लाई जाए) को बढ़ावा देना है। तीसरा, लोक हित का तर्क यह मांग करता है कि चुनाव की फंडिंग सरकार करे, क्योंकि यह लोकतंत्र को समृद्ध करता है और सभी के हित की रक्षा करता है। यह शोधपत्र इन दावों का विश्लेषण करने की कोशिश करेगा, जिसमें इसके अमल में होने वाले उतार-चढ़ाव का भी ध्यान रखा जाएगा। इसमें उन कारकों की भी पहचान करने की कोशिश की जाएगी जो भारत में चुनावों की सरकारी फंडिंग के लिहाज से ज्यादा कारगर कानून बनाने में मदद कर सकते हैं।

सरकारी फंडिंग के प्रकार

जैसा कि पिछले खंड में बताया गया है, बहुत बड़ी संख्या में देशों ने चुनाव के लिए सरकारी फंडिंग की व्यवस्था को शुरू तो कर लिया है, लेकिन उन देशों में यह आम तौर पर पूरे राजनीतिक वित्तीय सुधार या चुनाव सुधार का हिस्सा रहा है। [50] इसलिए, सरकारी फंडिंग और इसके प्रभाव को इनके साथ लागू किए गए दूसरे व्यवस्थागत बदलावों से अलग रख कर देखने पर नतीजे के गलत होने की आशंका बहुत अधिक होती है। इसके अलावा, विभिन्न देशों ने पार्टियों की सरकारी फंडिंग की काफी अलग-अलग व्यवस्था की है और इनके नतीजे भी बहुत अलग-अलग आए हैं। जहां कुछ लोकतंत्रों ने प्रत्यक्ष फंडिंग की व्यवस्था की है, दूसरों ने अप्रत्यक्ष फंडिंग की व्यवस्था की है। अप्रत्यक्ष फंडिंग में सरकारी मीडिया को विज्ञापन के लिए उपलब्ध करवाना या फिर सरकारी इमारतों को रैली आदि के लिए उपलब्ध करवाना आदि शामिल हैं। प्रत्यक्ष फंडिंग के मामले में भी कुछ देश सभी पार्टी गतिविधियों के लिए धन उपलब्ध करवाते हैं तो कुछ इसे सिर्फ चुनाव खर्च तक सीमित रखते हैं। इसी तरह कुछ देश यह लाभ सभी रजिस्टर्ड पार्टियों को उपलब्ध करवाते हैं, जबकि कुछ दूसरे सिर्फ उन्हीं पार्टियों को यह लाभ उपलब्ध करवाते हैं जिन्होंने पिछले चुनाव में एक खास सीमा का प्रदर्शन कर दिखाया है। इसलिए पार्टियों की सरकारी फंडिंग के पक्ष या विपक्ष में कोई भी तर्क देते समम यह जरूर ध्यान रखना होगा कि वह किस खास तरह की व्यवस्था के संदर्भ में है। जैसा कि प्रख्यात चुनाव प्रचार खर्च विश्लेषक ब्रैडली ए स्मिथ ने ध्यान दिलाया है, “किसी का यह कहना कि वह प्रचार के लिए सरकारी फंडिंग का पक्षधर है, वैसा ही होगा जैसे कि यह कहना कि वह खेल-कूद को पसंद करता है। क्या आप फुटबॉल की बात कर रहे हैं? कयाकिंग? डाउनहिल स्किंग? बालरूम डांसिंग? चेस? कितने ही विकल्प हैं।” [51] सरकारी संसाधनों को पार्टियों या उम्मीदवारों को किस स्वरूप में उपलब्ध करवाया गया है इस आधार पर सरकारी फंडिंग को मोटे तौर दो प्रकार में विभाजित कर सकते हैं।

सरकारी फंडिंग और इसके प्रभाव को अगर इसके साथ ही लागू किए गए दूसरे व्यवस्थागत बदलावों से अलग कर के देखा गया तो वह गलतफहमी पैदा करने वाला होगा।

1. अप्रत्यक्ष सरकारी फंडिंग

इस श्रेणी में, सरकार राजनीतिक पार्टियों या उम्मीदवारों को मौद्रिक महत्व के संसाधन उपलब्ध करवाती है। इस श्रेणी के सबसे प्रचलित प्रकार हैं- सरकारी मीडिया को उपलब्ध करवाना, बैठकों और रैलियों के लिए सरकारी इमारतें उपलब्ध करवाना, प्रचार के लिए उम्मीदवार और पार्टी के प्रमुख लोगों को सार्वजनिक परिवहन मुफ्त या सब्सिडी वाले दरों पर उपलब्ध करवाना, बैलेट पेपर की मुफ्त प्रिंटिंग और वितरण (उन देशों में जहां पार्टियों पर ही इसे उपलब्ध करवाने की जिम्मेदारी होती है), मुफ्त या सब्सिडी वाली दरों पर पार्टी के कार्यालय और कार्यों के लिए जगह उपलब्ध करवाना, मूलभूत प्रचार खर्च के लिए ब्याज मुक्त कर्ज उपलब्ध करवाना और पार्टी को मिलने वाले चंदे को बढ़ावा देने के लिए इसे टैक्स छूट देना आदि शामिल हैं। अंतरराष्ट्रीय आईडीईए के आंकड़ों के मुताबिक दुनिया भर में 68 प्रतिशत देश पार्टियों या उम्मीदवारों को किसी न किसी तरह से अप्रत्यक्ष सब्सिडी उपलब्ध करवाते हैं। [52]

2. प्रत्यक्ष सरकारी फंडिंग

प्रत्यक्ष सरकारी फंडिंग की योजना में सरकार धन सीधे राजनीतिक दल या उम्मीदवार को उपलब्ध करवा कर उनके खर्च को आशिंक या पूर्ण रूप से वहन करती है। इसमें भी कई प्रकार हैं जिनसे फंडिंग की जा सकती है। लक्ष्य के आधार पर ये निम्न प्रकार की हो सकती हैं-

a) प्राप्तकर्ता

ज्यादातर देश सरकारी सब्सिडी सीधे राजनीतिक पार्टियों को उपलब्ध करवाते हैं, खास तौर पर पार्टी के केंद्रीय कार्यालय या मुख्यालय को। लेकिन अमेरिका, आस्ट्रेलिया, कनाडा, डेनमार्क, जर्मनी, नोर्वे, स्पेन, आस्ट्रिया, स्वीडन जैसे बहुत से देश हैं जो राज्य स्तर पर या क्षेत्रीय स्तर पर पार्टियों के कार्यालयों को प्रत्यक्ष सब्सिडी देते हैं। [53] इक्वाडोर, फ्रांस, उरुग्वे और अमेरिका जैसे कुछ गिने-चुने देशों में ही उम्मीदवारों को प्रत्यक्ष फंडिंग होती है। [54]

सरकारी फंडिंग पाने के लिए योग्यता के मापदंड

सभी पार्टियों या उम्मीदवारों को फंड उपलब्ध करवाना सर्वाधिक प्रतिद्वंद्वी चुनावी व्यवस्था को खड़ा करता है। हालांकि ऐसी व्यवस्था में समस्या होती है कि अगंभीर पार्टियां और उम्मीदवार भी इसमें उतर जाते हैं, जिनका मकसद सिर्फ फंडिंग हासिल करना होता है। इसके विकल्प के तौर पर जो व्यवस्था की गई है, उसमें योग्यता का ऊंचा मापदंड रख दिया जाता है जैसे कि दस फीसदी वोट जैसा कि भूटान और मलावी में है, इससे ज्यादातर सत्तारुढ़ पार्टियों को फायदा होता है और प्रतिद्वंद्विता के लिए ठीक नहीं रहता, क्योंकि इसमें नई और छोटी पार्टियां सरकारी फंडिंग के लिए अयोग्य हो जाती हैं। [55]

इसलिए ज्यादातर देशों ने योग्यता संबंधी पैमाने के लिए पिछले चुनाव में प्रदर्शन को आधार बनाया है। यह सामान्य तौर पर संसदीय प्रतिनिधित्व पर आधारित है, जैसा कि बोलीविया और फिनलैंड में है, या वोट शेयर पर, जैसा कि जर्मनी और निकारागुआ में है। स्वीडन और कोस्टा रिका जैसे कुछ देशों ने प्रतिनिधित्व और वोट शेयर दोनों का मिश्रित स्वरूप अपनाया है और इनकी सफलता भी मिली-जुली रही है। [56]

कुछ मामलों में ऐसी योग्यता को इस तरह तय किया जाता है कि सभी राजनीतिक दलों को अपनी राजनीतिक गतिविधियों को जारी रखने के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हो सकें और मतदाताओं को ज्यादा से ज्यादा विकल्प मिल सकें। ऐसे मामलों में न्यूनतम योग्यता आदर्श रूप से ऐसी होगी जिससे कि ज्यादा से ज्यादा लोग राजनीतिक प्रक्रिया में भाग ले सकें।

b) योग्य राजनीतिक पात्रों में फंड आवंटन के पैमाने

एक बार प्राप्तकर्ता और सरकारी फंड को हासिल करने की न्यूनतम योग्यता तय कर दी जाए तब सवाल उठता है कि योग्य प्राप्तकर्ताओं में फंड वितरित करने के क्या पैमाने हों। जहां ऐसा लग सकता है कि सभी राजनीतिक संचालकों में बराबर-बराबर फंड का वितरण सबसे ज्यादा लोकतांत्रिक तरीका हो सकता है, लेकिन न्यूनतम प्रतिनिधित्व और मामूली वोट शेयर वाली किसी छोटी पार्टी को भी उतना ही धन उपलब्ध करवाना जितना कि किसी बड़ी पार्टी को दिया जा रहा हो, मतदाता की राय का अपमान होगा और इससे सरकारी धन का दुरुपयोग भी हो सकता है। इसकी वजह से पार्टी के अंदर टूट भी हो सकती है। [57] इसलिए ज्यादातर देश वोट प्रतिशत के अनुपात में ही इसका निर्धारण करते हैं, जैसा कि बेल्जियम और ग्रीस में होता है या प्रतिनिधित्व के मुताबिक जैसा कि फिनलैड और स्वीडन में होता है।

जर्मनी में मदद उपलब्ध करवाने का जो मापदंड है उसकी खासियत यह है कि यहां पार्टी को हासिल होने वाले शुरुआती 40 लाख वोट के लिए 0.85 यूरो प्रत्येक वैध वोट के तौर पर एक राशि निर्धारित है। इस संख्या से ज्यादा हासिल होने वाले वोट के लिए यह 0.70 यूरो प्रत्येक वैध वोट ही है। [58] इससे बड़ी स्थापित पार्टियों और छोटी व आम तौर पर क्षेत्रीय पार्टियों के बीच संतुलन कायम रखने में मदद मिलती है। संक्षेप में, मुख्य लक्ष्य को पूरा करने के लिहाज से आवंटन का मापदंड एक अहम कारक है।

c) फंड वितरण का तरीका

फंड को वितरित करने के तरीके और साधन की भी चुनौती कम नहीं है। फंड जारी करने के तरीकों में दो कारक शामिल हैं: जारी करने का उद्देश्य और समय। उद्देश्य क्या है, इस आधार पर पर्टी को हमेशा के लिए फंडिंग दी जा सकती है या फिर सिर्फ चुनाव के दौरान। अधिकांश देशों में या तो नियमित फंडिंग की व्यवस्था है या फिर नियमित और चुनाव फंडिंग दोनों की। सिर्फ कुछ गिने-चुने देश ही फंडिंग को चुनाव अभियान तक सीमित रखते हैं, हालांकि जारी करने के समय के मुताबिक उसके उद्देश्य अलग भी हो सकते हैं। [59]

उद्देश्य के लिहाज से पश्चिम यूरोपीय लोकतंत्रों और लैटिन व उत्तर अमेरिकी लोकतंत्रों में काफी अंतर है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि देश अपनी राजनीतिक पार्टियों को अलग-अलग तरह से देखते हैं। जहां पूर्ववर्ती देश राजनीतिक पार्टियों को स्थायी संगठन के तौर पर देखते हैं जिनके पास व्यापक गैर-चुनावी लोकतांत्रिक काम भी हैं। जबकि बाद के देश पार्टियों को ऐसे संस्थानों के तौर पर देखते हैं जिनका एकमात्र काम चुनाव अभियान चलाना और उम्मीदवारों का समर्थन करना है। [60]

धन जारी करने का समय भी विभिन्न देशों में अलग-अलग है। इस बात को तय करने में यह काफी अहम साबित होता है कि क्या पार्टियों को मुकाबले के लिए धन उपलब्ध करवाया जा रहा है। कोलंबियन व्यवस्था में जीती गई सीटों को आधार बनाया जाता है। वहां चुनाव लड़ने के समय पार्टियों को जरूरी संसाधन उपलब्ध नहीं करवाए जाते। कोस्टा रिका में पार्टियों को फंड तब मिलता है, जब उनके वित्तीय खातों की जांच कर ली जाती है। खर्च के संबंध में चुनाव प्राधिकरण के सामने रिपोर्टिंग को ले कर ठीक से दिशा-निर्देशों की कमी की वजह से कई पार्टियों का भुगतान रुक गया है। [61] दूसरी तरफ अमेरिका चुनाव से पहले ही अपनी मदद उपलब्ध करवा देता है। उरुग्वे जैसे देश इन दोनों व्यवस्थाओं के मिले-जुले रूप को अपनाते हैं।

सार्वजनिक फंडिंग का प्रभाव

जैसा कि पिछले खंड में बताया गया है, चुनाव और राजनीतिक गतिविधियों को सरकारी फंडिंग का मुख्य उद्देश्य चुनाव के बढ़ते खर्च पर काबू पाना, ‘लाभार्थ धन’ के प्रभाव को कम करना, छोटी और नई पार्टियों को बराबरी का मौका दिला कर राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता को बढ़ावा देना और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में पारदर्शिता और जवाबदेही को अंतर्निहित करना है। निम्न खंड ऊपर बताए गए तय उद्देश्यों के लिहाज से सरकारी फंडिंग के प्रभाव की व्याख्या करेगा-

सरकारी फंडिंग और चुनाव के खर्च में कमी

सरकारी सब्सिडी के पक्ष में सबसे प्रमुख तर्क यह है कि यह प्रचार के भारी खर्च को सीमित करने में मदद करता है। वैश्विक अनुभव से मिलने वाला नतीजा मिला जुला है। नकारात्मक में निम्न शामिल हैं- इजरएल और संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रत्यक्ष सब्सिडी दिए जाने के बावजूद चुनाव खर्च हर बार लगातार बढ़ता जा रहा है और दोनों ही देशों में पार्टियां अब भी बड़े निजी चंदादाताओं पर निर्भर है। [62] यह खर्च की सीमा की कमी और सभी पार्टियों को शामिल करने की नीति की वजह से है। [63] यह भी सच है कि संयुक्त राज्य अमेरिका में इसकी एक बड़ी वजह 2010 सिटिजन युनाइटेड फैसला है। [64] इस फैसले ने ‘स्वतंत्र खर्च’ की इजाजत दे दी। इससे किसी उम्मीदवार को चंदा देने की बजाय कारपोरेट सीधे विज्ञापन पर खर्च कर सकते हैं, जिसमें वे किसी उम्मीदवार को जिताने या हराने की अपील कर सकते हैं। [65] 2012 के राष्ट्रपति चुनाव के दौरान खर्च में हुई भारी बढ़ोतरी की वजह सुपर-पीएसी के गठन को दिया जाता है, जिसकी इजाजत 2010 के फैसले में मिल गई थी। [66]

इसके बावजूद बहुत से सफल उदाहरण हैं, जसे कि जापान और जर्मनी, जिन्होंने चुनाव के खर्च और प्राइवेट व्यापार पर निर्भरता कम की है। जापान अपने प्रचार का खर्च घटाने में कामयाब हुआ है। [67] ऐसा इसने सुधारों की वकालत कर के किया है, जिनमें सरकारी फंडिंग के साथ ही कारपोरेट चंदों पर पाबंदी, खर्च की सीमा तय करने और पारदर्शिता को बढ़ाने के उपाय भी शामिल हैं।

सरकारी फंडिंग और बड़ी पूंजी

सरकारी फंडिंग के पक्ष में एक और महत्वपूर्ण तर्क यह है कि इससे पार्टियों की निजी चंदे पर निर्भरता घटती है। नतीजों को देखें तो अंतरराष्ट्रीय अनुभव मिले-जुले रहे हैं। दक्षिण अफ्रीका जैसे महत्वपूर्ण मामलों को नजदीक से देखें तो यहां सार्वजनिक धन का जम कर दुरुपयोग हुआ है, खास कर धनी उम्मीदवारों की ओर से। वे सरकारी सब्सिडी भी लेते रहते हैं और साथ ही सरकारी कांट्रैक्ट और दूसरे जरियों से निजी धन भी अपनी जेब में डालते रहते हैं। [68] अमेरिका में भी ऐसी फंडिंग से राजनीतिक पार्टियों की धनी चंदादाताओं पर निर्भरता कम नहीं हुई है। [69] सिटिजन युनाइटेड फैसले तक किसी उम्मीदवार को सरकारी फंड सिर्फ प्राइमरीज तक मिलता वो भी तब जबकि वह खर्च की सीमा का पालन करे। इसलिए सिर्फ गिने-चुने उम्मीदवार ही सरकारी फंडिंग के विकल्प को अपनाते। फैसले के बाद तो स्थिति और खराब हो गई है, क्योंकि खर्च की सीमा की अब संवैधानिक मान्यता नहीं रह गई है। आम चुनाव में सरकारी फंडिंग सिर्फ उन्हीं उम्मीदवारों को उपलब्ध है जो किसी भी तरह के निजी चंदे को स्वीकार नहीं करेंगे। इसलिए राष्ट्रपति चुनाव के उम्मीदवारों के लिए सरकारी फंडिंग बहुत कम हो गई है।

अंतरराष्ट्रीय अनुभव काफी मिले-जुले हैं। दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों का गौर से अध्ययन किया जाए तो पता चलता है कि इनमें सरकारी फंड का जम कर दुरुपयोग हुआ है, खास कर धनी उम्मीदवारों की ओर से।

पार्टी के खर्च और भ्रष्टाचार पर इसके प्रभाव पर नजर डालें तो जमीनी हालात से ज्यादातर नकारात्मक ट्रेंड ही देखने को मिल रहे हैं। [70] उदाहरण के तौर पर और जैसा कि ऊपर चर्चा की गई है, इजराएल और संयुक्त राज्य में सरकारी सब्सिडी से निजी चंदे पर निर्भारता कम नहीं हुई है। इसी तरह कई लैटिन अमेरिकी देशों में और खास कर ब्राजील, अर्जेंटीना, कोलंबिया, इक्वाडोर और कोस्टा रिका में सरकारी सब्सिडी राजनीतिक खर्च पर कारोबार की भूमिका को सीमित करने में अप्रभावी साबित हुई है। इसकी मुख्य वजह है इन देशों में खर्च पर सीमा की कमी और सख्त निगरानी का अभाव। [71] इजराएल और संयुक्त राज्य अमेरिका में इच्छुक समूहों और कारोबारियों की ओर से आसानी से उपलब्ध धन की वजह से भी सरकारी सब्सिडी की योजना नाकाम रही है। ये चंदादाता सभी पार्टियों को पकड़ कर रखना चाहते हैं। लैटिन अमेरिका में कारोबार ने केंद्रीय भूमिका निभाई है, क्योंकि पार्टियों के लिए और कोई स्रोत उपलब्ध नहीं था। लैटिन अमेरिकी देशों में पार्टियों का संगठन बहुत कमजोर है, पार्टी के सदस्य अपना सदस्यता शुल्क नहीं देना चाहते और ट्रेड यूनियन का सहयोग भी कम है। [72] इसलिए इन मामलों में सरकारी सब्सिडी निजी चंदे का विकल्प नहीं बन सकी और पार्टियों के लिए आमदनी का महज एक और स्रोत बन कर रह गई।

हालांकि कुछ कामयाब उदाहरण भी हैं। उदाहरण के तौर पर कनाडा ने व्यापक चुनाव सुधार के तहत सरकारी सब्सिडी को लागू किया, जिसमें खर्च की सीमा और छोटे चंदे के लिए टैक्स छूट शामिल थी। इसके बाद यह देश इच्छुक पक्षों की ओर से दिए जाने वाले चंदे की भूमिका को काफी कम कर सका है। [73] स्वीडन में उदार रूप से सरकारी सब्सिडी मिल जाती है (जो निजी चंदे से ज्यादा हो जाती है) और सरकार का पार्टी के काम-काज में न्यूनतम दखल होता है, इसलिए पार्टियों की गुमनाम और लाभ की इच्छा रखने वाले चंदे पर निर्भरता कम हुई है। [74] इन दोनों मामलों में यह समझना जरूरी है कि दूसरे कारक जैसे कि मजबूत पारदर्शिता कानून, चुनावी खर्च की सख्त निगरानी और छोटी पार्टियों के लिए टैक्स राहत जैसे कदम भी इस नतीजे में अपनी भूमिका निभा रहे थे।

सरकारी फंडिंग और चुनावी मुकाबला

क्या चुनाव की सरकारी फंडिंग नए लोगों को भाग लेने और चुनावी मुकाबले को बढ़ावा देती है? अंतरराष्ट्रीय अनुभव बताते हैं कि सार्वजनिक फंडिंग इस मकसद में कामयाब होती है या नहीं यह इस बात पर निर्भर करता है कि इस फंडिंग का वितरण कैसे किया जाता है। रूस जैसे कुछ देशों ने उल्टा इसका इस्तेमाल राजनीतिक मुकाबले को घटाने और अधिनायकवाद को बढ़ाने के लिए किया है। 2001 चुनाव कानून (चुनाव आयोजन विधेयक और अभ्यास) ने व्यापक सरकारी सब्सिडी के साथ ही कई तरह के नियम लागू किए। इनमें निजी चंदे को सीमित करने, खर्च की सीमा लगाने और अपने ब्योरे सार्वजनिक करने के सख्त नियम शामिल हैं। इससे ऐसी स्थिति पैदा हुई है जिसमें सत्तारुढ़ पार्टी को कोई चुनौती दे पाना लगभग नामुमकिन हो गया है। [75] इससे पार्टी की मनमानी हो गई है। लेकिन इससे उल्टे उदाहरण भी मिलते हैं। कनाडा और फिनलैंड जैसे देशों में ऐसे कदमों के बाद बहुत सी नई पार्टियां उभरी हैं। [76] खास तौर पर इजराएल, इटली और मैक्सिको जैसे कुछ मामलों में सब्सिडी लागू किए जाने से मुकाबला बढ़ा है, क्योंकि इसमें नई पार्टी के लिए आना आसान हुआ है और छोटी पार्टियों को मौजूदा बड़ी पार्टियों का मुकाबला करना भी संभव हुआ है। [77]

इसके अलावा कुछ खास तरह के अनुभव भी इस संदर्भ में अहमियत रखते हैं, खास कर उन पार्टियों के जिनकी कुछ खास तरह की वैचारिक प्रतिबद्धता है, जैसे कि वामपंथी दल। यह सर्वविदित है कि ये पार्टियां दक्षिणपंथी पार्टियों से मुकाबला करने में खुद को लगातार असमर्थ पा रही हैं, क्योंकि बड़ी मात्रा में निजी फंड दक्षिणपंथी पार्टियों को आसानी से उपलब्ध होते हैं। कुछ मामलों में सरकारी सब्सिडी शुरू किए जाने का ऐसी राजनीतिक पार्टियों को काफी लाभ हो रहा है, जैसा कि उरुग्वे के मामले में देखने को मिला है।

संबंधित देश सरकारी सब्सिडी का इस्तेमाल राजनीतिक पार्टियों में मुकाबले को बढ़ावा देने के लिए भी कर सकते हैं। पार्टी के अंदर उम्मीदवारों के चयन के लिए सरकारी फंड का इस्तेमाल कर के इसे हासिल किया जा सकता है। इसका एक अच्छा उदाहरण संयुक्त राज्य अमेरिका में देखने को मिलता है जहां उम्मीदवार पार्टी के अंदर के चुनाव लड़ने के लिए भी सरकारी फंडिंग हासिल कर सकता है। पार्टी के अंदर ही स्वस्थ्य प्रतिद्वंद्विता को बढ़ावा देने का एक और तरीका यह हो सकता है कि सब्सिडी को पार्टी की निचली इकाइयों को उपलब्ध करवाया जाए और इस तरह उन्हें मजबूत कर पार्टी के अंदर लोकतंत्र को सुनिश्चित किया जा सकता है।

सरकारी फंडिंग के दूसरे प्रभाव

राजनीति में सरकारी फंडिंग से कई और उद्देश्य भी पूरे होते हैं। उनमें से एक यह है कि इससे संस्थानों को मजबूती मिलती है और उन्हें बढ़ावा मिलता है और इस तरह पारदर्शिता के मानकों का बेहतर पालन हो पाता है। संबंधित साहित्य को पढ़ने से पता चलता है कि संस्थानों को मजबूत करने का लक्ष्य पार्टियों और उम्मीदवारों को फंड जारी करने के तरीके और उद्देश्य पर निर्भर करता है। लैटिन अमेरिकी और पश्चिम यूरोपीय देशों के बीच तुलनात्मक अध्ययन से इस संबंध में काफी कुछ जानकारी मिल सकती है। उरुग्वे और कोस्टा रिका जैसे देशों में पार्टियों के सदस्यों को बहुत उदार तरीके से फंड उपलब्ध करवाए जाते हैं, लेकिन पार्टियों के संस्थानीकरण के बहुत कम साक्ष्य मिले हैं। यह इस बात से भी साबित होता है कि चुनावों के बीच के काल में वित्तीय लेन-देन, सदस्यता और पार्टी गतिविधियां बहुत कम रहती हैं। अधिकांश पश्चिम यूरोपीय देशों के मामले में यह ठीक उल्टा है, जहां स्थायी सब्सिडी की मदद से पार्टी के संगठन काफी मजबूत हुए हैं। [78] यहां जो फर्क है, उसकी वजह दोनों क्षेत्रों की पार्टियों के विचारों में भिन्नता में भी देखी जा सकती है। जहां लैटिन अमेरिकी देशों में पार्टियों को सिर्फ चुनाव लड़ने वाले संगठन के तौर पर देखा जाता है, वहीं पश्चिम यूरोपीय देशों में पार्टियों को ऐसे संस्थान के तौर पर देखा जा रहा है जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अहम हिस्सा हों। इसके अलावा प्रत्यक्ष सब्सिडी पार्टियों को न्यूनतम संसाधन उपलब्ध करवा देती हैं ताकि वे सांगठनिक गतिविधियों को सुचारू रूप से चला सकें।

राजनीति की सरकारी फंडिंग से कई अतिरिक्त लाभ भी होते हैं। ऐसी रणनीति से संस्थाओं को मजबूती देने में भी मदद मिलती है।

इसी तरह, अगर यह पूछा जाए कि क्या प्रत्यक्ष सब्सिडी से छोटे चंदे और सदस्यता शुल्क ठप हो जाते हैं तो इसके भी मिश्रित नतीजे देखे गए हैं। तर्क दिया जाता है कि सरकारी फंडिंग की वजह से पार्टियां सार्वजनिक धन पर इस कदर आश्रित हो जाती हैं कि वे सदस्यों और छोटे चंदादाताओं पर अपनी निर्भरता को पूरी तरह छोड़ देती हैं। [79] हालांकि इसके विरोध में तर्क यह दिया जाता है कि सरकारी फंड का उद्देश्य राजनीतिक दलों की धनी चंदादाताओं पर निर्भरता कम हो और उन्हें लोगों तक पहुंचने के लिए ऐसा धन मिल सके जिसका कोई निहित उद्देश्य नहीं हो। कई देशों के नतीजे यह दिखाते हैं कि सरकारी फंडिंग की वजह से पार्टियों में सदस्यता और छोटे चंदे को ले कर प्रयास समाप्त नहीं हुए हैं। उदाहरण के तौर पर स्वीडन और नार्वे को लें जहां खुल कर सरकारी फंडिंग उपलब्ध होने के बावजूद सदस्यता और बढ़ी है। स्पेन में जहां सरकारी सब्सिडी ऐसी व्यवस्था के तहत उपलब्ध है जिसमें प्रचार का खर्च बाद में दिया जाता है, वहां पोडेमोस नाम की पार्टी ने क्राउडफंडिंग के जरिए लोगों से यह कहते हुए धन मांगा कि सरकारी सब्सिडी मिलने के बाद लोगों को उनकी रकम लौटा दी जाएगी। इससे उन्हें कारपोरेट चंदादाताओं की रकम से इंकार करने में मदद मिल सकी। [80] जर्मनी और संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे दूसरे लोकतंत्रों ने सरकारी फंडिंग के साथ ही ऐसे बहुत से नियम लागू किए हैं जिससे छोटे चंदादाताओं और सदस्यों से सहयोग को प्रोत्साहन मिलता है। इन्होंने फंड मैचिंग योजना के जरिए इसे मुमकिन बनाया है।

जहां कहीं भी सरकारी सब्सिडी उदारता के साथ दी जा रही है, इसका उपयोग दूसरे नियमों का पालन करवाने के लिए भी किया जाता है। फंड जारी करने की न्यूनतम जरूरतों के साथ ही पार्टियों पर कुछ अतिरिक्त शर्तें भी रखी जा सकती हैं, जिनका पालन नहीं करने पर उनसे फंड वापस लिया जा सकता है। उदाहरण के तौर पर स्लोवानिया में सरकारी फंड वापस लिया जा सकता है अगर पार्टियों ने सीमा से अधिक खर्च किया। इसी तरह बेल्जियम में अगर पार्टियां अपने वार्षिक वित्तीय ब्योरे नहीं दें तो उनकी मदद को तात्कालिक तौर पर वापस लिया जा सकता है। [81] यहां भी जर्मनी का मॉडल एक अच्छा उदाहरण है, जिसमें मैचिंग फंड की व्यवस्था की गई है और उसे पूरा करने के लिए छोटे चंदे और सदस्यता शुल्क जुटाए जाते हैं। मैचिंग फंड की व्यवस्था ने पार्टियों को आम लोगों के करीब रहने और छोटे चंदे जुटाने के लिए बाध्य किया है।

निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि अंतरराष्ट्रीय अनुभव मिले-जुले नतीजे सामने लाते हैं। ऐसे देश भी हैं जिन्होंने बड़ी पूंजी और भ्रष्टाचार की भूमिका को समाप्त करने के बड़े उद्देश्य से सरकारी फंडिंग की व्यवस्था शुरू की है, लेकिन उन्हें कोई नतीजा हासिल नहीं हो सका है। उधर, दूसरी तरफ ऐसे बहुत से देश हैं जिन्होंने इन लक्ष्यों की दिशा में काफी प्रगति की है। इस संबंध में कामयाबी और नाकामी को तय करने में कई और गंभीर मुद्दे जुड़े हुए हैं, जैसे फंड का भुगतान, खर्च पर सीमा लगाने के नियम, निजी चंदे पर लगाम और नियमों के प्रवर्तन के सख्त नियम। इसलिए कहा जा सकता है कि सरकारी फंडिंग के विकल्प को प्रभावी बनाने के लिए जरूरी है कि इसके साथ मजबूत सुधार किए जाएं और पारदर्शिता के नियमों का सख्ती से पालन किया जाए।

भारत के लिए सबक

जैसी कि पहले अध्याय में चर्चा की गई है, भारत में राजनीतिक वित्तीय व्यवस्था कई कारणों से बहुत दबाव में है, लेकिन सबसे अहम है बढ़ता चुनावी खर्च। वोट की खरीद-बिक्री को आसानी से देखा जा सकता है। पार्टियों और चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों से उम्मीद की जाती है कि वे अपने चुनाव क्षेत्र में अच्छा प्रचार चलाने के लिए मोटी रकम खर्च करें। इनके चुनाव क्षेत्र भी कई मामलों में तो उतने बड़े होते हैं, जितने यूरोप के कई देश हैं। [82] अपने प्रचार को अच्छी तरह से चलाने और सामान्य राजनीतिक गतिविधियों को चलाने के लिए पार्टियां और उम्मीदवार हर तरह के उपायों को अपनाती हैं जिनमें गैर कानूनी और आपराधिक धन हासिल करना भी शामिल है। [83] उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक भारत की राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाला अधिकांश चंदा निजी कारोबार से हासिल किया जा रहा है। [84] आज पर्याप्त मात्रा में ऐसे उल्लेख मिलते हैं जो कारोबार और राजनीति के बीच आपसी फायदे के लेन-देन की ओर इशारा करते हैं। यह संबंध आर्थिक उदारीकरण के दौर में काफी मजबूत हुआ है। इसमें कुछ खास कारपोरेट हाउस की ओर से कुछ राजनेताओं को जम कर सहायता पहुंचा कर उससे लाभ हासिल करने की बदनाम ‘ब्रिफकेस’ राजनीति से ले कर पूरे राजनीतिक अभियान को सहायता करने के उदाहरण तक दिखते हैं। इन्हें देखते हुए कहा जा सकता है कि भारतीय लोकतंत्र के सामने मौजूद सबसे बड़ी चुनौती राजनीति पर कारोबारी फंडिंग का प्रभाव है। [85]

इसी तरह चुनाव के खर्चीले स्वरूप की वजह से बहुत से इच्छुक उम्मीदवार राजनीति में प्रवेश नहीं कर पाते हैं और यह ‘प्रवेश में बाधक’ बनता है। पर्याप्त फंड के अभाव में छोटी और नई पार्टियों के लिए अपना प्रचार अभियान ठीक से चला पाना काफी मुश्किल होता है। इसी तरह चूंकि भारत में बहुत सी पार्टियां गिने-चुने परिवार और क्षेत्रीय क्षत्रपों के नियंत्रण में हैं, ऐसे में पार्टी का खजाना भी उन्हीं के नियंत्रण में रहता है। चूंकि इन पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र बहुत कम है [86] इसलिए ये खजाने पर पूरी तरह नियंत्रण रखते हैं। यहां भी चुनाव में धन के बढ़ते प्रभाव की वजह से ज्यादातर पार्टियां (कुछ अपवाद को छोड़ कर) ऐसे धनवान उम्मीदवारों को चुनती हैं जो चुनाव लड़ने के लिए जरूरी फंड का इंतजाम कर सकें, जबकि प्रतिभावान उम्मीदवारों के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेना बहुत मुश्किल हो जाता है।

हालांकि लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कुछ खास लोगों के लिए सीमित नहीं किया जा सकता। इसलिए निहित स्वार्थ के लिए उपलब्घ करवाए जा रहे धन के प्रभाव को कम करने, नई और छोटी पार्टियों के लिए बराबरी की स्थिति उपलब्ध करवाने और राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र को बढ़ावा देने के लिए भारत में भी राजनीतिक फंड की व्यवस्था करने की मांग उठ रही है। पिछले साल के विवादास्पद नोटबंदी अभियान के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से इन मांगों को समर्थन मिला। [87]

इस चर्चा की पृष्ठभूमि में जाएं तो भारत में शासन में रही सरकारों ने इन चुनौतियों पर गौर किया है और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमजोर करने वाले इस हाल को दुरुस्त करने के लिए विभिन्न उपाय और तरीके अपनाए हैं। [88] सुधार के विभिन्न प्रस्तावों के तहत, राजनीति की सार्वजनिक फंडिंग और खास तौर पर चुनाव की सरकारी फंडिंग को ले कर लंबे समय से चर्चा चल रही है। भारत की सिविल सोसाइटी और नीतियां निर्धारित करने वालों के दायरे में भी चुनाव की सरकारी फंडिंग को ले कर बहुत तरह के विचार हैं। [89] पिछले दो दशकों के दौरान सरकारों की ओर से नियुक्त की गईं विभिन्न समितियों ने पार्टियों और चुनावों के प्रत्यक्ष सरकारी फंडिंग के विभिन्न प्रस्तावों पर चर्चा की है। यहां विभिन्न समितियों की सिफारिशों का सारांश दिया जा रहा है। सरकारी फंडिग के मामले पर विचार करने वाली गोस्वामी समिति (1990), इंद्रजीत गुप्ता समिति (1998), दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग (2007) और विधि आयोग (2015) ने पूर्ण सरकारी फंडिंग के प्रस्ताव का विरोध किया है। इनका तर्क यह रहा है कि मौजूदा आर्थिक परिस्थिति और विकास संबंधी जरूरतों को देखते हुए इतने बड़े लोकतंत्र को फंड करना मुमकिन नहीं होगा। इसकी बजाय इन्होंने दूसरे तरीकों से सहायता उपलब्ध करवाने की जरूरत बताई है। दूसरी तरफ, विधि आयोग रिपोर्ट (1999), वेंकटचलैया समिति रिपोर्ट (2002) और 255 विधि आयोग रिपोर्ट (2015) ने कहा है कि पूर्ण सरकारी फंडिंग से पहले पारदर्शिता, ब्योरे उपलब्ध करवाने, खाते उपलब्ध करवाने और ऑडिटिंग करवाने व पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र सुनिश्चित करने जैसे कदम उठाए जाने चाहिएं। सीआईआई टास्क फोर्स (2012) ने सुझाव दिया था कि लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए व्यक्तियों और कारपोरेट की आय पर 0.2 प्रतिशत का उपकर लगाया जाए और इस धन का उपयोग चुनाव खर्च की मदद करने में किया जाए। कारोबारियों के दूसरे समूह एसोसिएट चैंबर ऑफ कॉमर्स ऑफ इंडिया ने 2015 की अपनी विशेषज्ञ रिपोर्ट में प्रस्ताव किया है कि चुनाव के लिए 5,000 करोड़ रुपये का एक फंड तैयार किया जाए, जिसे पांच साल की अवधि में बांटा जाना है।

हालांकि समितियां और आयोग ऐसी फंडिंग के मापदंड, तरीके और आकार पर किसी आम सहमति पर नहीं पहुंच पाई हैं। सभी समितियों ने सरकारी फंडिंग की वकालत की है, लेकिन आज की तारीख में भारत में राजनीतिक पार्टियां सीमित अप्रत्यक्ष सब्सिडी ही पा रही हैं। 1996 से पार्टियों को सरकारी स्वामित्व वाले एलेक्ट्रानिक मीडिया पर मुफ्त समय दिया जाता है। लेकिन चूंकि दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो पार्टियों के एलेक्ट्रॉनिक मीडिया कैंपेन का एक बहुत छोटा हिस्सा होता है, इसलिए यह कोई खास असर नहीं डाल पाता है।

पार्टियों को मिलने वाली दूसरी सहायता में उम्मीदवारों को मतदाता सूची और मतदाता पहचान स्लिप की मुफ्त सप्लाई शामिल है। इसी तरह राजनीतिक पार्टियों को दिए जाने वाले चंदे पर लोग आय कर छूट हासिल कर सकते हैं। हालांकि ये उपाय भी पार्टियों के होने वाले खर्च को कम करने में ज्यादा बदलाव कर पाने में या उनको मिलने वाले फंड को बढ़ाने में ज्यादा मदद नही कर पाते। [90] दूसरे नियम भी ज्यादातर नाकाम ही रहे हैं। पार्टियों के लिए और उम्मीदवार का समर्थन करने वाले अन्य लोगों (चुनाव व अन्य संबंधित कानून संशोधन 2003 से पहले) के लिए खर्च की सीमा नहीं होने और उसके बाद उम्मीदवारों के लिए खर्च की सीमा के बहुत कम होने की वजह से नियमों का जम कर उल्लंघन होता रहा है। [91]

सरकारी फंडिंग नहीं होने से नियमों का उल्लंघन और बढ़ा है। कारपोरेट चंदे पर पूरी तरह प्रतिबंध और दूसरे स्रोतों के अनुपस्थित होने की वजह से पार्टियों में फंड जमा करने के लिए भ्रष्ट तरीकों को बढ़ावा मिला। [92] पार्टियों के खर्च पर कोई सीमा नहीं होने की वजह से स्थिति और खराब हुई। जहां कारपोरेट चंदे पर प्रतिबंध हटा दिया गया, लेकिन अब भी कंपनी एक्ट के तहत कंपनियों की ओर से दिए जाने वाले अधिकतम चंदे पर सीमा है।

सरकारी फंडिंग की अनुपलब्धता नियमों के पालन में नाकामी को बढ़ावा दे रही है। दूसरे स्रोतों के उपलब्ध हुए बिना कारपोरेट चंदे पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाने से धन जुटाने के भ्रष्ट तरीके विकसित हुए।

जैसा कि ऊपर चर्चा की गई है, पारदर्शिता के मानकों का हमेशा से उल्लंघन हुआ है और छोटे चंदे और दूसरे वैध तरीकों से धन इकट्ठा करने के लिए प्रोत्साहन की कोई व्यवस्था उपलब्ध नहीं है। कर छूट के बावजूद बड़े कारपोरेट घरानों से वैध और खुले चंदे को ज्यादा प्रोत्साहन नहीं मिला है। क्योंकि सरकार से नियंत्रित होने वाले बाजार में राजनीतिक पार्टियों को डर रहता है कि कहीं दूसरी पार्टी उनसे बदला लेने पर उतारू नहीं हो जाए। [93]

दूसरे देशों के उदाहरणों में अपने लिए समाधान ढूंढ़ना आसान नहीं है, क्योंकि सभी का अलग संदर्भ होता है और लोकतंत्र की प्रकृति और आयाम अलग होते हैं, इसी तरह प्रतिनिधित्व की प्रकृति भी अलग होती है। हालांकि भारत के लिए विभिन्न विकल्प सामने रखे जा सकते हैं।

बढ़ती लागत पर लगाम और निहित स्वार्थ वाले धन को घटाना

वास्तव में चुनाव प्रचार पर कितने खर्च की जरूरत होती है, इसका आकलन बहुत मुश्किल है, क्योंकि भारत में उम्मीदवार और पार्टियां जो खर्च दिखाते हैं, वह अव्यवहारिक होता है। लेकिन यह सभी जानते हैं कि चुनाव में खर्च होने वाला अधिकांश धन कारपोरेट चंदे से आता है और उसके लिए अज्ञात स्रोत का रास्ता अपनाया जाता है। सरकारी फंडिंग शुरू कर गैर कानूनी कारपोरेट चंदे पर निर्भरता को भले पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सके, लेकिन घटाया जा सकता है। जैसा कि दूसरे देशों के मामलों में देखा जा सकता है। राजनीतिक दलों को सरकारी फंडिंग हासिल करने के लिए कारपोरेट क्षेत्र से धन जुटाना बंद करना होगा।

जापान का उदाहरण यहां प्रासंगिक होगा। जापान सरकारी फंडिंग के जरिए चुनाव का खर्च घटा पाने में कामयाब रहा है। पिछले वर्षों में इस देश ने खर्च पर सीमा लगा कर, पारदर्शिता को अनिवार्य कर के और कारपोरेट चंदे पर प्रतिबंध लगा कर सरकारी फंड को पार्टियों की आमदनी का मुख्य जरिया बनाया है। सार्वजनिक फंडिंग के साथ ही खर्च की सीमा को लागू करना और कारपोरेट चंदे को पूरी तरह प्रतिबंधित नहीं तो सीमित करना भी जरूरी है।

इसके मुकाबले भारत में 2003 के संशोधनों से पहले कोई वास्तविक सीमा थी ही नहीं, क्योंकि नियम सिर्फ उम्मीदवार पर लागू होते थे। 2003 के बाद सीमा इतनी कम रखी गई कि इसमें बेईमानी होना लाजमी था। 1969 में कारपोरेट चंदे पर प्रतिबंध का नकारात्मक असर पड़ा और काले धन को बढ़ावा मिला। [94] इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि खर्च की सीमा तय करते समय मनमाने तरीके से इसे बहुत कम करने की बजाय इसके वास्तविक अनुमान के आधार पर सीमा तय की जाए। इसी तरह कारपोरेट चंदे को पूरी तरह प्रतिबंधित करने की बजाय एक सीमा तक वैध कर दिया जाए।

भारत कनाडा के अनुभव से भी बहुत कुछ सीख सकता है। [95] कनाडा में सरकारी फंडिंग के साथ ही कई सख्त नियम लागू किए गए। इसमें खर्च की सीमा और छोटे चंदे के लिए टैक्स राहत शामिल हैं। जहां भारत में कारपोरेट चंदे पर टैक्स छूट सफल नहीं रही है, छोटे अंशदाताओं के लिए ऐसी राहत पार्टियों को ऐसे चंदे से ज्यादा रकम इकट्ठा करने और कारपोरेट चंदे पर अपनी निर्भरता घटाने में मदद कर सकती है।

भारत के लोग जर्मनी से भी सीख सकते हैं, जहां मैचिंग ग्रांट का तरीका अपनाया जाता है। पार्टियां दूसरे तरीकों से जो धन जुटाती हैं, उतना सरकार भी देती है। इससे पार्टियां छोटे चंदे जुटाने और सदस्यता शुल्क आदि से धन इकट्ठा करने को प्रोत्साहित होती हैं। इससे बढ़ते खर्च की समस्या को दूर करने में छोटे चंदे की सहायता भी मिल जाती है।

इसी तरह जहां तक कारपोरेट चंदे को क्रमिक रूप से समाप्त करने की बात है, स्वीडन भी अच्छा उदाहरण है। स्वीडन में जहां कारपोरेट चंदा राजनीतिक दलों की आय का मुख्य स्रोत हुआ करता था, सरकारी सब्सिडी शुरू किए जाने के बाद इसने बहुत व्यापक प्रभाव डाला। इसके बाद पार्टियों ने स्वैच्छिक तौर पर कारपोरेट चंदा स्वीकार करना बंद कर दिया। [96]

फ्रांस और नीदरलैंड जैसे दूसरे पश्चिम यूरोपीय देशों में भी सरकारी फंडिंग की मदद से छोटे चंदे और जमीनी स्तर से धन जुटाने को बढ़ावा मिला है। लेकिन नीदरलैंड में कारपोरेट धन की भूमिका को घटाने में इस तथ्य को भी अहम माना जाता है कि वहां नीतियां पहले से ही कारपोरेट के पक्ष में हैं, ऐसे में कारपोरेट को पार्टियों को चंदा देने की ज्यादा जरूरत ही महसूस नहीं होती। [97]

लेकिन भारतीय परिदृष्य डच परिस्थितियों से बहुत अलग है। यहां कारपोरेट चंदे को घटाने का मतलब यह होना चाहिए कि पार्टियों की इस पर निर्भरता घटने के साथ ही छोटे सहयोग और सदस्यता से मिलने वाले धन पर जोर बढ़े। सरकारी फंड जारी करने के समय का भी ध्यान रखना होगा। चुनाव के बाद धन जारी करने से पार्टियों की कारपोरेट चंदे पर निर्भरता आम तौर पर दूर नहीं हो पाती, क्योंकि प्रचार के दौरान पार्टियों के पास सरकारी सहायता उपलब्ध नहीं होती जैसा कि कोलंबिया और कोस्टा रिका में होता है।

चुनावी मुकाबले और पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र को बढ़ावा देना

पार्टियों में उम्मीदवार तय करने के दौरान और अन्य मौकों पर भी प्रतिद्वंद्विता की कमी देखने को मिलती है। उम्मीदवारों की ओर से खर्च की गई रकम के बारे में चर्चा करने वाली नेशनल एलेक्शन ऑडिट रिपोर्ट (1999) के मुताबिक उम्मीदवारों को मुकाबले में बने रहने के लिए एक न्यूनतम रकम खर्च करनी ही होती है। चुनाव में खर्च की बढ़ती भूमिका की वजह से पार्टियां भी ऐसे उम्मीदवारों को प्राथमिकता देती है जो अपना प्रचार का खर्च खुद जुटा सकें। [98] जितनी बड़ी संख्या में आपराधिक रिकार्ड वाले उम्मीदवार मौजूद हैं, उसकी एक वजह यह भी है। [99]

सरकारी सब्सिडी उपलब्ध होने के बाद उम्मीदवारों को अपने प्रचार का खर्च खुद जुटाने की मजबूरी समाप्त हो जाएगी। इससे उम्मीदवार और पार्टियों को जरूरी न्यूनतम फंड उपलब्ध हो सकेगा जो उन्हें चुनाव प्रचार के लिए या फंड जुटाने की गतिविधियों के लिए जरूरी होता है।

विभिन्न देशों के अनुभवों को देखते हुए कहा जा सकता है कि सरकारी सब्सिडी को जारी कैसे किया जा रहा है इसको ले कर बहुत सावधान रहने की भी जरूरत है। अगर पार्टी के मुख्यालय को पैसा जारी किया जा रहा है तो यह पार्टी में संसाधन और शक्तियों के एक ही जगह केंद्रित हो जाने का खतरा पैदा कर सकता है। भारत में अधिकांश क्षेत्रीय पार्टियां या तो परिवार संचालित हैं या फिर अपनी प्रवृत्ति और संचालन में सामंती हैं। इसी तरह अगर हर उम्मीदवार को फंडिंग उपलब्ध करवाई गई तो अगंभीर और सिर्फ फंड के लिए चुनाव लड़ने वालों की भीड़ बढ़ सकती है। इसके लिए न्यूनतम योग्यता इस तरह निर्धारित की जाए जो मुकाबले को तो बढ़ाए, लेकिन सराकारी फंड की बर्बादी को भी रोके।

पार्टी के आंतरिक चुनाव के लिए सरकारी फंड उपलब्ध करवाने का संयुक्त राज्य अमेरिका का तरीका उपयोगी हो सकता है। [100] उम्मीदवारों के चयन की प्रक्रिया को भी लोकतांत्रिक बनाने के लिए भी ऐसी फंडिंग जरूरी है। इस संबंध में एक सुझाव यह भी है कि पार्टियों के संगठनों में चुनावी प्रदर्शन के आधार पर स्थानीय और चुनाव क्षेत्र स्तरीय इकाइयों को सीधे फंड उपलब्ध करवाए जाएं। [101] इससे होने वाले लाभ में कारपोरेट चंदे के साथ ही पार्टी मुख्यालय पर भी निर्भरता कम होगी और इस तरह यह पार्टी के लोकतांत्रीकरण को बढ़ावा देगा। इस संबंध में एक समस्या यह है कि ऐसे में फंड चुनाव के बाद जारी होगा। इससे प्रचार के दौरान धन की कमी रहेगी, जैसा कि कोलंबिया या कोस्टा रिका में होता है।

उम्मीदवारों को सीधे फंड देने से निचले स्तर के नेताओं और पार्टी संगठन को मजबूती मिलेगी। निचले स्तर को मजबूती मिलने से पार्टियों में नीतियों के बदलाव से ले कर नेतृत्व परिवर्तन तक की मांग उठ सकती है जो पार्टियों को खुद को विकेंद्रित करने और लोकतांत्रिक बनने को मजबूर कर सकता है। [102]

उम्मीदवारों को सीधे सब्सिडी दिए जाने से निचले स्तर के नेता और पार्टी का संगठन मजबूत होगा।

मौजूदा और प्रस्तावित नियमों का पालन

चुनाव संबंधी नियमों के लिए सरकारी फंडिंग प्रोत्साहन और दंड दोनों का काम कर सकती है। बिना ब्जाय के फंड हासिल करने का लाभ और इसे वापस ले लिए जाने का खतरा सामने होने से उन्हें नियमों का पालन करने के लिए प्रेरित किया जा सकेगा। बेल्जियम, स्लोवानिया और स्वीडन की तरह सरकारी फंड को वापस लिए जाने या निलंबित किए जाने के विकल्प का इस्तेमाल विभिन्न नियमों को सख्ती से लागू करवाने के लिए किया जा सकता है। इनमें खर्च का ब्योरा, पारदर्शिता, तथ्य सार्वजनिक करने, पार्टी की संस्था को मजबूत करने तथा आंतरिक लोकतंत्र को मजबूत करने के उपाय शामिल हैं।

हालांकि सरकारी मदद वापस लेने के प्रावधान का फायदा तभी मिलेगा जब पार्टियों की आमदनी में सरकारी फंडिंग एक अहम स्रोत बने ना कि अतिरिक्त आमदनी का एक और छोटा सा जरिया। यहां जिन देशों की चर्चा की गई है, उन सभी में सरकारी फंडिंग काफी उदारता से उपलब्ध करवाई जाती है और अगर अकेला स्रोत नहीं भी है तो बहुत अहम स्रोत जरूर है।

सारांश के तौर पर वैश्विक अनुभवों से मिलने वाले साक्ष्य संकेत करते हैं कि सरकारी फंडिंग को चुनावी आय-व्यय संबंधी सभी रोगों की रामबाण दवा नहीं माना जा सकता। ज्यादा से ज्यादा यही कहा जा सकता है कि इसका मिला-जुला प्रभाव देखा जाता है और अलग-अलग देशों में यह अलग असर पैदा कर रहा है। जहां कुछ लोकतंत्रों में इसने बहुत उम्मीदें जगाई हैं, वहीं कुछ में यह पूरी तरह नाकाम रहा है। हालांकि विभिन्न समीक्षाओं से पता चलता है कि सरकारी सब्सिडी को प्रभावी बनाने के लिए दो स्तरीय रणनीति अपनाने की जरूरत है- कारपोरेट और निजी धन पर निर्भरता को घटाना (सीमा का सख्ती से पालन करवा कर, कड़े नियम बना कर और इस संबंध में तथ्यों को सार्वजनिक करवा कर) और सरकारी फंडिंग के जरिए सफेद धन को उपलब्ध करवा कर या कर-मुक्त चंदे अथवा कर्ज आदि विभिन्न अन्य उपाय कर।

चित्र © प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया


लेखक बेहतरीन शोध सहायता उपलब्ध करवाने के लिए ओआरएफ के पूर्व इंटर्न और एलएएमपी फेलो श्री राजेंद्रन नायर कराकुलम के प्रति आभार प्रकट करना चाहता है। साथ ही उन लोगों का भी जिन्होंने इस शोधपत्र के पिछले मसौदे पर अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं। इसमें हुई कोई भी चूक या गलती लेखक की अपनी होगी।


ऐंडनॉट्स

[1] “PM Narendra Modi calls for state funding of polls to combat corruption,” The Times of India, 16 November 2016,

[2] According to election watchdog Association for Democratic Reforms (ADR), between 2004–05 and 2014–15, national and regional parties in India received INR 11,367 crore in donations, of which only INR 1,835 crore was from known sources. See PTI, “69% of funds for India political parties from unknown sources: Report,” The New Indian Express, 24 January 2017,

[3] See Anuja and Meenal Thakur, “Political funding curbs in Budget 2017 add to NDA’s anti-corruption pitch,” Livemint, 2 February 2017.

[4] Niranjan Sahoo, “Reforming Campaign Finance,” DNA, 14 February 2017.

[5] Ashutosh Varshney, “India Defies the Odds: why democracy Survives,” Journal of Democracy, 9 (July 1998). Also see Ramachandra Guha, India After Gandhi: The History of the World’s Largest Democracy (New York: HarperCollins, 2007).

[6] See John Hudson, “The Most Expensive Elections in History by numbers,” The Atlantic, 6 November 2012.

[7] See Nilanjana Bhowmick, “The 2014 Elections Are the Most Expensive Ever Held in India,” Time, 11 April 2014.

[8] For example, the late Gopinath Munde, a senior politician from the Bharatiya Janata Party, sensationally claimed that he had spent INR 8 crore to fight the election in 2009. When the Election Commission asked him to explain, he was forced to retract his statement. See “Munde admits spending Rs. 8 crore in 2009 polls,” The Hindu, 28 June 2013.

[9] See Devesh K. Pandey, “Rs. 150 crore, 2 lakh dhotis: why EC pulled the plug on polls in 2 TN constituencies,” The Hindu.

[10] M.V. Rajeev Gowda and E. Sridharan, “Reforming India’s Party Financing and Election Expenditure Laws,” Election Law Journal 11, no. 2 (2012).

[11] For a detailed account of corporate funding, see Niranjan Sahoo and Samya Chatterjee, “Corporate Funding of Elections: The Strengths and Flaws,” ORF Issue Brief, 15 March 2014.

[12] Ibid.

[13] The said figure is of the last four years (2012–16). For details, see ADR Report.

[14] M.V. Rajeev Gowda and E. Sridharan, op. cit., 233.

[15] M. Rajshekhar, “How coal scam in linked to political funding,” The Economic Times, 7 August 2012.

[16] An excellent illustration of this can be found in Atul Kohli, ed., The Success of India’s Democracy (Cambridge: Cambridge University Press, 2001); Sumit Ganguly, Larry Diamond and Marc Plattner, eds., The State of India’s Democracy (Baltimore: Johns Hopkins University Press, 2007).

[17] For a summary of this trend, see Eswaran Sridharan and Milan Vaishnav, “India,” in Checkbook Elections: Political Finance in Comparative Perspective, eds. Pippa Norris, Andrea Abel van Es and Lisa Fennis (London: Oxford University Press 2016).

[18] Yogendra Yadav, “A Radical Agenda for Political Reform,” Seminar No. 506, 2001.

[19] For a comprehensive account of this trend, see Milan Vaishnav, When Crime Pays – Money and Muscle in Indian Politics (Noida: Harpers-Collins Publisher, 2017).

[20] See Checkbook Elections: Political Finance in Comparative Perspectiveet al 2016

[21] Plutarch, Lives of Noble Grecians and Romans, ed. Arthur Hough Clough, trans. John Dryden, 1979.

[22] Pippa Norris and Andrea Abel van Es, “Introduction,” Checkbook Elections: Political Finance in Comparative Perspective, eds. Pippa Norris, Andrea Abel van Es and Lisa Fennis (London: Oxford University Press, 2016).

[23] See Simon Romero, “Dilma Rousseff Is Ousted as Brazil’s President in Impeachment Vote,” The New York Times, 30 August 2016.

[24] Pippa Norris et al., op. cit.

[25] Ibid.

[26] Magnus Ohman, “Getting the Political Finance System Right,” in Funding of Political Parties and Election Campaigns: A Handbook on Political Finance (Stockholm: International IDEA); Bruno Speck, “Brazil,” and Francisco Javier Aparicio, “Mexico,” in Checkbook Elections: Political Finance in Comparative Perspective, eds. Pippa Norris, Andrea Abel van Es and Lisa Fennis (London: Oxford university Press2016, 17 and 30.

[27] For a detailed roadmap, see USAID Money in Politics Handbook, 2003.

[28] Pippa Norris et al.,

[29] Susan E. Scarrow, “Political Finance in Comparative Perspective,” Annual Review of Political Science, 2007.

[30] See Pippa Norris et. al., op. cit.

[31] Magnus Ohman, Political Finance Regulations around the World: An Overview of the International IDEA Database, (Stockholm: International IDEA, 2012).

[32] Pauline E. Beange, “Canadian campaign finance reform in comparative perspective 2000–2011,” Ph.D. Thesis, University of Toronto, 2012.

[33] See an excellent overview on anti-corruption argument by Adriana Cordis and Jeff Miliyo, Do State Finance Reforms reduce Public CorruptionUniversity of Missouri, 2013.

[34] See Bradley A. Smith, The Sirens’ Song: Campaign Finance Regulation and the First Amendment, 6 J.L. & POL’Y 1, 6 (1997); and James Sample, “The Last Rites of Public Campaign Financing?” Nebraska Law Review 92 (2013).

[35] Daniel R. Ortiz, “The Democratic Paradox of Campaign Finance Reform,” Stanford Law Review 50 (February 1998).

[36] James Sample, 2013.

[37] Ibid.

[38] Keena Lipsitz, “Democratic Theory and Political Campaigns,” The Journal of Political Philosophy 12, no. 2 (2004).

[39] Ibid.

[40] See Robert A. Dahl, A Preface to Democratic Theory (Chicago: University of Chicago Press, 1956).

[41] John Rawls, Political Liberalism (New York: Columbia University Press, 1993).

[42] Ronald Dworkin, “The Curse of American Politics,” The New York Review of Books, 17 October 1996.

[43] See Daniel Ortiz, 1998.

[44] John Rawls, op. cit.

[45] Pauline E. Beange, op. cit.

[46] For detailed analysis, see Greene and Shugarman, 1997.

[47] Dawson, 1963; Pauline E. Beange, op. cit.

[48] James Sample, 2013.

[49] Vincent Blasi, “Free Speech and the Widening Gyre of Fund-Raising: Why Campaign Spending Limits May Not Violate the First Amendment After All,” Legal Review, 94 COLUM, 1994.

[50] Kevin Casas-Zamora, “Political Finance and State Funding Systems: An Overview,” International Foundation for Electoral Systems, Washington, 2008, 8.

[51] Bradley A. Smith, Unfree Speech: The Folly of Campaign Finance Reform (Princeton University Press, 2001), 89; Kevin Casas-Zamora, op. cit., 17.

[52] Magnus Ohman, 2012, op. cit.

[53] Kevin Casas-Zamora, op. cit., 12.

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