Author : Nina Sajić

Expert Speak Raisina Debates
Published on Jan 13, 2025 Updated 2 Days ago

2025 में ग्लोबल साउथ और ग्लोबल ईस्ट अपनी संप्रभुता पर ज़ोर देंगे. नवउपनिवेशवाद को चुनौती देंगे और आत्म निर्भरता व सहयोग पर आधारित एक नई समानतावादी विश्व व्यवस्था बनाने का प्रयास करेंगे.

बेड़ियों से आज़ादी: संप्रभुता, आत्म निर्भरता और नव-उपनिवेशवाद से परे भविष्य की राहें

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ये लेख निबंध श्रृंखला “बुडापेस्ट एडिट” का हिस्सा है. 


पिछले दशक के दौरान हमने विश्व स्तर पर और ख़ास तौर से ग्लोबल साउथ और ग्लोबल ईस्ट में संप्रभुता पर ज़ोर देने का सिलसिला बढ़ते देखा. इस चलन को हम पश्चिम की अगुवाई वाली अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के पुनर्गठन की मांग के तौर पर भी देख सकते हैं. क्योंकि मौजूदा विश्व व्यवस्था ने बहुपक्षीयवाद की आड़ में अक्सर नव-उपनिवेशवाद को ही आगे बढ़ाया है. संप्रभुता पर ज़ोर देना इस बात का भी संकेत है कि ग्लोबल साउथ और ग्लोबल ईस्ट ने शीत युद्ध के बाद बनाए गए इस अंतरराष्ट्रीय ढांचे को चुनौती देना शुरू कर दिया है और अब वो विश्व व्यवस्था में समानता, आपसी सम्मान और सबके लिए उपयोगी सहयोग की मांग कर रहे हैं. संप्रभुता पर ज़ोर देने के दौर की वापसी का मतलब बहुपक्षीयवाद को ख़ारिज करना नहीं है. बल्कि ये तो इस बात का संकेत है कि अब वैश्विक प्रशासन के लिए एक नई रूप-रेखा बनाने की ज़रूरत है.

 ग्लोबल साउथ और ग्लोब ईस्ट के देशों को नव-उपनिवेशवाद की बेड़ियों से आज़ाद होने और ख़ास तौर से अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों एवं बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा कसे गए शिकंजे से मुक्त होने के लिए सबसे पहले अपने सामरिक क्षेत्रों में घरेलू स्तर पर क्षमताएं विकसित करनी चाहिए.

ग्लोबल साउथ और ग्लोबल ईस्ट के देशों के बीच ये समझ बढ़ रही है कि अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को ऐसे मज़बूत और आत्म निर्भर देशों के आधार पर बनाया जाना चाहिए, जो वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं पर बहुत अधिर निर्भर न हों और घरेलू स्तर पर अहम क्षमताएं बनाए रख सकने में सक्षम हों. ग्लोबल साउथ और ग्लोब ईस्ट के देशों को नव-उपनिवेशवाद की बेड़ियों से आज़ाद होने और ख़ास तौर से अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों एवं बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा कसे गए शिकंजे से मुक्त होने के लिए सबसे पहले अपने सामरिक क्षेत्रों में घरेलू स्तर पर क्षमताएं विकसित करनी चाहिए. जब ये देश अपनी घरेलू क्षमताएं विकसित करके आत्मनिर्भर बन जाएंगे, तभी जाकर वो अंतरराष्ट्रीय विषयों में मज़बूती और समानता के आधार पर अपनी बात रख सकेंगे. दूसरे शब्दों में कहें, तो जो देश अपनी मदद कर सकते हैं, वो देश ही अधिक वास्तविक और समान भागीदारी के ज़रिए अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को वैश्विक मसलों से निपटने में भी मदद कर पाएंगे. हमें इस बदलाव को अलग थलग होने का विचार मानने की भूल नहीं करनी चाहिए. न ही हमें इसे पीछे क़दम ख़ींचने के तौर पर देखना चाहिए. इसके बजाय हमें इस बदलाव को एक ऐसी नई विश्व व्यवस्था की बुनियाद के तौर पर देखना चाहिए, जो समानता और आपसी सम्मान पर आधारित हो. ऐसी व्यवस्था जो नव-उपनिवेशवाद, ताक़त के असंतुलन और दादागीरी दिखाने के उन आयामों वाले विचार से दूरी बनाए, जो मौजूदा विश्व व्यवस्था की पहचान बन चुके हैं.

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