पिछले 2 दशकों से धीरे-धीरे स्वास्थ्य से जुड़े वैश्विक मसले और अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा का जुड़ाव होता गया है. स्वास्थ्य को सुरक्षा से जुड़े मसले के तौर पर आगे बढ़ाया गया है और उसी तरह से उसकी व्याख्या की गई है. हालांकि वैश्विक स्वास्थ्य को सुरक्षा का मुद्दा बनाने की क़वायद से अल्प-विकसित और विकासशील दुनिया (ग्लोबल साउथ) में सबसे पीछे की कतार में खड़े तबक़ों की सेहत में किसी भी तरह की बेहतरी आना अभी बाक़ी है. वैश्विक प्रशासन से जुड़ी संस्थाओं और विकसित देशों की स्वास्थ्य सुरक्षा रणनीतियों में ग्लोबल साउथ में स्वास्थ्य प्रणाली की क्षमताओं को मज़बूत करने की बजाए वैश्विक स्तर पर व्यापक रूप से टोही क़वायदों पर ज़ोर दिया गया है. इस कड़ी में ग्लोबल साउथ में संक्रामक रोगों के प्रकोप पर निगरानी और विकसित विश्व (ग्लोबल नॉर्थ) में उसके प्रसार पर निगरानी रखी जाती रही है. इस लेख में ये दलील पेश की गई है कि स्वास्थ्य को सुरक्षा का मसला बनाने की क़वायद भर से सेहत की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हो जाती. दरअसल वैश्विक शासन-प्रशासन से जुड़ी संस्थाओं को स्वास्थ्य चुनौतियों के निपटारे के लिए अधिकारों पर आधारित रुख़ अपनाना चाहिए. इस कड़ी में कुछ चुनिंदा पक्षों के सुरक्षा हितों की बजाए आम लोगों और उनके स्वास्थ्य को प्राथमिकता दी जानी चाहिए.
इस लेख में ये दलील पेश की गई है कि स्वास्थ्य को सुरक्षा का मसला बनाने की क़वायद भर से सेहत की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हो जाती. दरअसल वैश्विक शासन-प्रशासन से जुड़ी संस्थाओं को स्वास्थ्य चुनौतियों के निपटारे के लिए अधिकारों पर आधारित रुख़ अपनाना चाहिए.
“भौगोलिक इलाक़ों और अंतरराष्ट्रीय सरहदों के आर-पार लोगों की सेहत को जोख़िम में डालने वाले सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़े संगीन वाक़यों के ख़तरे और प्रभाव को कम से कम करने के लिए सक्रिय और प्रतिक्रियात्मक रूप से ज़रूरी गतिविधियों” को विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा के तौर पर परिभाषित करता है. सेहत को सुरक्षा का मसला बनाने की क़वायद के पीछे एक तंग वेस्टफ़ेलियन रुख़ का हाथ रहा है. इसके तहत राष्ट्रीय-राज्यसत्ताओं की बाहरी ख़तरों से हिफ़ाज़त पर ज़ोर दिया जाता है. वैसे तो वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा के विचार को व्यापक रूप से सामने रखा गया है लेकिन इसकी परिभाषा में अब तक सार्वभौम आम सहमति का अभाव है. दरअसल ये विचार, लोगों और संपूर्ण रूप से सामुदायिक स्वास्थ्य की बजाए अब भी राष्ट्रीय सुरक्षा और प्रतिरक्षा पर केंद्रित है.
स्वास्थ्य को सुरक्षा का मसला बनाना
1990 के दशक के शुरुआती दौर में बेरी बुज़ान, ओले वीवर और जाप डी विल्ड ने ये विचार सामने रखा कि ताक़तवर किरदार सुरक्षा के तौर पर ‘स्पीच एक्ट्स’ को अंजाम देते हैं. इसे अब कोपनहेगन विचारधारा के नाम से जाना जाता है. दरअसल इसके ज़रिए असाधारण उपायों को जायज़ ठहराने के लिए जानबूझकर कुछ मसलों को अस्तित्व पर ख़तरे की तरह पेश किया जाता है. एक बार सुरक्षा का मसला बना दिए जाने के बाद इन विषयों को क़ानूनी और लोकतांत्रिक अड़चनों के बग़ैर तत्काल और प्राथमिकतापूर्ण कार्रवाई हासिल होने लगती है.
पिछले कुछ दशकों में स्वास्थ्य को धीरे-धीरे बचावकारी क़वायद में तब्दील करने में ऐतिहासिक घटनाक्रमों ने वाहक के तौर पर और अन्य रूपों में योगदान दिया है. सबसे पहले 1994 में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) ने अपनी मानव विकास रिपोर्ट में मानवीय सुरक्षा के विचार को सामने रखा था. इसके तहत स्वास्थ्य सुरक्षा को मानव विकास के अन्य संकेतकों को जोड़ने वाले प्रमुख कारक के तौर पर रेखांकित किया गया. उसके बाद, 2000 में संक्रामक रोगों (प्रमुख रूप से 1980 और 90 के दशक में फैली HIV/AIDS महामारी) के उभार के साथ विकसित देशों ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) को एक विशेष बैठक बुलाने के लिए रज़ामंद कर लिया. HIV/AIDS महामारी पर बुलाई गई ये बैठक स्वास्थ्य के मसले पर UNSC की ऐसी पहली बैठक थी. UNSC ने अपने प्रस्ताव संख्या 1308 में ज़ोर देकर कहा कि HIV/AIDS जैसे संक्रामक रोग, शांति और सुरक्षा को ख़तरा पहुंचा सकते हैं.
UNDP की रिपोर्ट में मानव विकास के लिए स्वास्थ्य सुरक्षा को बढ़ावा देने की ज़रूरत पर बल दिया गया, जबकि UNSC के प्रस्ताव में वैश्विक सुरक्षा एजेंडा में संक्रामक रोगों के वर्गीकरण की ज़रूरत की तस्दीक़ की गई. ये घटनाक्रम स्वास्थ्य के मोर्चे पर वैश्विक राजनीति में एक अहम मोड़ थे. कोपेनहेगन विचारधारा ने एक सैद्धांतिक ढांचा मुहैया कराया, जिसके तहत ताक़तवर किरदारों ने ‘सार्थक शब्दावलियों’ के ज़रिए किसी ख़ास मसले को सुरक्षा से जुडी क़वायद में तब्दील करना शुरू कर दिया. बाद के वर्षों में वैश्विक राजनीतिक मंचों पर स्वास्थ्य की अहमियत बढ़ती चली गई. साथ ही ‘स्वास्थ्य सुरक्षा’ की परिकल्पना विकास से जुड़े विमर्शों, वैश्विक शासन-प्रशासन और विदेश नीतियों का अहम हिस्सा बन गई.
कोपेनहेगन विचारधारा ने एक सैद्धांतिक ढांचा मुहैया कराया, जिसके तहत ताक़तवर किरदारों ने ‘सार्थक शब्दावलियों’ के ज़रिए किसी ख़ास मसले को सुरक्षा से जुडी क़वायद में तब्दील करना शुरू कर दिया.
वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा और WHO
WHO द्वारा अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य नियमनों (IHR) की समीक्षा किए जाने के बाद 2005 में सेहतमंदी की सुरक्षात्मक क़वायदों को औपचारिक तौर पर वैश्विक स्वास्थ्य दिशानिर्देशों की मुख्य धारा में शामिल कर लिया गया. इस संशोधन से WHO के महासचिव को अंतरराष्ट्रीय चिंता के अनुरूप सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़ी आपात परिस्थितियों (PHEIC) के एलान का अधिकार मिल गया. हालांकि ऐसी इमरजेंसी तभी लागू की जा सकती है जब उन्हें इस बात का भरोसा हो जाए कि "(1) बीमारी के अंतरराष्ट्रीय प्रसार से दूसरी राज्यसत्ताओं के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट खड़ा हो सकता है, और (2) जब संभावित रूप से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तालमेल भरी प्रतिक्रिया की ज़रूरत आ पड़े." स्वास्थ्य इमरजेंसी जैसे असाधारण उपायों को इसी प्रकार लागू करना सुनिश्चित किया गया. इसके मुताबिक 2009-2020 के बीच WHO ने सेहत से जुड़ी छह आपात परिस्थितियो का एलान किया- 2009 में इन्फ़्लूएंज़ा A, 2014 में पोलियोमेलाइटिस, 2014 में पश्चिमी अफ़्रीकी इबोला महामारी, 2016 में ज़ीका, 2019 में इबोला DRC और 2020 में कोविड-19.
WHO, विकसित देशों (ग्लोबल नॉर्थ) के नज़रिए के हिसाब से सुरक्षा ढांचे को आगे बढ़ाता है. इस क़वायद से निगरानी प्रक्रियाओं, तैयारियों और प्रबंधन के कार्यक्रमों पर अमल करने की WHO की क्षमताओं और क़ाबिलियतों को रफ़्तार मिलती है. कोविड-19 महामारी का प्रकोप फैलने के कुछ महीनों पहले ही WHO ने IHR को बढ़ावा देने की क़वायद की थी. इसके तहत मौजूदा अंतरराष्ट्रीय निगरानी और टोही उपायों को पूरक के तौर पर इस्तेमाल करते हुए सेहत की सुरक्षा को आगे बढ़ाने के लिए स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए स्वास्थ्य प्रणालियों के ढांचे का प्रस्ताव दिया था. हालांकि जानकारों की दलील है कि विकासशील देशों में स्वास्थ्य प्रणाली की क्षमताओं को मज़बूत करने की बजाए मौजूदा क़वायद में संक्रामक रोगों के प्रकोपों पर निगरानी रखने और उनकी टोह लगाने पर ज़्यादा ज़ोर दिया जा रहा है. इसके लिए सुरक्षा-संचालित प्रणालियों का इस्तेमाल हो रहा है ताकि विकासशील देशों से विकसित देशों में संक्रामक रोगों के प्रसार की रोकथाम की जा सके.
WHO की रोग-आधारित नीति की जगह सुरक्षा-आधारित नीति लागू किए जाने से स्वास्थ्य सेवाओं की जवाबी शक्तियां (दवाइयों तक पहुंच से जुड़ी) बेजान पड़ जाती हैं. साथ ही स्वास्थ्य के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और अन्य ग़ैर-मेडिकल निर्धारक तत्वों पर ज़रूरी परिचर्चाओं पर भी पर्दा पड़ जाता है. मिसाल के तौर पर IHR के तहत सदस्य राष्ट्रों के लिए संक्रामक रोगों के प्रकोपों की जानकारी देने के लिए कुछ हद तक निगरानी और टोही क्षमताओं को बरक़रार रखना वैधानिक रूप से ज़रूरी है. हालांकि इस मक़सद को पूरा करने के लिए WHO कोई अतिरिक्त वित्तीय सहायता मुहैया नहीं करवाता. कई बार ग्लोबल साउथ के देश अपने सीमित कोष के साथ अंतरराष्ट्रीय नियम-पालनाओं को प्राथमिकता पर रखने लगते हैं. नतीजतन अपनी सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था को मज़बूत करने में उनका प्रदर्शन कमज़ोर पड़ने लगता है. उधर, ग्लोबल नॉर्थ के देश ग्लोबल साउथ से स्वास्थ्य से जुड़े निगरानी और टोही डेटा हासिल कर फ़ायदा उठाते रहते हैं. ग्लोबल साउथ से जुटाए गए डेटा के ज़रिए तैयार की गई दवाइयों और टीकों को ग्लोबल नॉर्थ की दवा कंपनियों द्वारा ग्लोबल नॉर्थ में ही पेटेंट कराया जाता है. आगे चलकर दुनिया भर में ऊंची क़ीमतों पर इनकी बिक्री की जाती है.
वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा और UNSC
UNSC ने क्रमिक रूप से स्वास्थ्य को सुरक्षा से जुड़ी क़वायद बनाने में योगदान दिया है. साल 2000 से ही UNSC अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा से जुड़े अपने एजेंडे में वैश्विक स्वास्थ्य से जुड़े मसलों को उठाता आ रहा है. सुरक्षा परिषद ने इस कड़ी में अबतक छह प्रस्ताव पारित किए हैं, जिसमें तीन संक्रामक रोगों पर तवज्जो दिया गया है. ये हैं- HIV/AIDS (प्रस्ताव 1308; प्रस्ताव 1983), इबोला (प्रस्ताव 2177 पश्चिमी अफ़्रीका; प्रस्ताव 2439 DRC) और कोविड-19 (प्रस्ताव 2532; प्रस्ताव 2565). इसके अलावा UNSC ने संघर्षग्रस्त इलाक़ों में स्वास्थ्य और मानवतावादी कर्मियों और असैनिक अस्पतालों की हिफ़ाज़त को लेकर अलग से तीन प्रस्ताव पारित किए हैं (प्रस्ताव 1998; प्रस्ताव 2286; और प्रस्ताव 2467).
इन प्रस्तावों का क़रीब से अध्ययन करने पर पता चलता है कि परिषद ने स्थानीय प्रकोपों और महामारियों के दायरे से परे स्वास्थ्य के मसले पर मंथन किया है. इस तरह सुरक्षा परिषद ने वैश्विक स्वास्थ्य मसलों पर परिचर्चा और सौदेबाज़ियों के लिए ख़ुद को वैकल्पिक मंच के तौर पर स्थापित कर लिया है. इसके बावजूद WHO द्वारा स्वास्थ्य के मोर्चे पर घोषित की गई सभी आपात परिस्थितियों की ओर सुरक्षा परिषद ने समान रूप से तवज्जो नहीं दिया है. बहरहाल, इस बात के कोई अनुभव आधारित प्रमाण नहीं हैं कि सुरक्षा परिषद, सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़े किसी मसले की कब और कैसे वैश्विक सुरक्षा के लिए ख़तरे के तौर पर पहचान करता है. दरअसल ये फ़ैसला सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों (P5) की राजनीतिक इच्छा पर निर्भर करता रहा है. लिहाज़ा रश्टन का ये सवाल कि "सुरक्षा किसके लिए? किससे सुरक्षा?", आज भी बेहद प्रासंगिक बना हुआ है और अब भी सबको इसके जवाब की तलाश है.
UNSC वैश्विक स्वास्थ्य को सुरक्षा के चश्मे से देखता है और उसके प्रस्तावों से वैश्विक स्वास्थ्य परिणामों पर सकारात्मक से ज़्यादा नकारात्मक प्रभाव पड़े हैं. स्वास्थ्य से जुड़ी आपात परिस्थितियों में UNSC के जुड़ावों से इस क्षेत्र में सहयोग और कोष मुहैया कराए जाने की ज़रूरत पर सियासी रूप से पूरे विश्व का ध्यान गया है. हालांकि ये क़वायद मोटे तौर पर विपरीत परिणामों वाली रही है. इनसे टकराव बढ़े हैं, आपसी मेलजोल में खटास आई है और एकजुट प्रतिक्रिया जताने की प्रक्रिया कुंद पड़ी है.
कोविड-19 महामारी तीसरी संक्रामक बीमारी है जिसपर सुरक्षा परिषद ने ध्यान टिकाया है. बहरहाल वैश्विक महामारी के बीच अंदरुनी भूराजनीतिक रस्साकशियों और सुरक्षा परिषद के P5 में लंबे अर्से से चले आ रहे तनावों के चलते ये क़वायद बेजान पड़ गई है. स्वास्थ्य को सुरक्षा का मसला बनाने की क़वायदों के बावजूद कोविड महामारी से निपटने में माकूल प्रतिक्रिया जताने में सुरक्षा परिषद चूक गया है. मिसाल के तौर पर UNSC ने कोविड-19 टीकों पर सद्भाव और वैश्विक सहयोग की वक़ालत की थी, लेकिन ज़्यादातर विकसित देशों (P5 समेत) ने कोविड-19 टीकों पर राष्ट्रवादी रुख़ अपनाया. यही मुल्क TRIPS में सार्थक रूप से छूट देने की क़वायदों के भी विरोध में खड़े रहे.
कोविड-19 महामारी को सुरक्षा से जुड़ी क़वायद बनाना
11 मार्च 2020 को WHO ने कोविड-19 को वैश्विक महामारी घोषित किया. WHO और UNSC दोनों ने 'स्पीच एक्ट' के ज़रिए इस महामारी को सुरक्षा का मसला बना दिया. WHO के महासचिव टेड्रोस के मुताबिक, "हम लोग एक ऐसे वायरस से जंग लड़ रहे हैं जो हमें तबाह करने पर उतारू है." उधर सुरक्षा परिषद ने दलील दी कि वैश्विक शांति और सुरक्षा पर कोविड-19 महामारी की अभूतपूर्व मार पड़ सकती है. दुनिया भर की सरकारें भी सुरक्षा-आधारित रुख़ अपनाए जाने को जायज़ ठहराती रही है. इससे उन्हें पारपंरिक प्रक्रियाओं और वैधानिक ज़रूरतों से बच निकलने में कामयाबी मिली. साथ ही संक्रमण पर क़ाबू पाने के लिए सख़्त उपाय लागू करने की अपनी क़वायदों को जायज़ ठहराने की भी छूट मिल गई. यहां अहम सवाल ये है कि क्या कोविड-19 को सुरक्षा से जुड़ा मसला बनाए जाने से इस चुनौती से प्रभावी रूप से निपटने में मदद मिली?
कोविड-19 महामारी को सुरक्षा के नज़रिए से पेश किए जाने की क़वायद से वैश्विक स्तर पर लोगों का ध्यान गया. हालांकि कोविड-19 पर वैश्विक प्रतिक्रिया टुकड़ों में बंटी और बेअसर थी. WHO के कोवैक्स पहल की नाकामी, TRIPS में ज़रूरत से कम छूट की प्रक्रिया अपनाए जाने और कोविड-19 वैक्सीन पासपोर्ट जैसे भेदभाव भरे उपायों को स्वीकार किए जाने की घटनाओं ने कोविड-19 महामारी से निपटने की प्रक्रिया को कमज़ोर करने में योगदान दिया.
कोविड-19 महामारी ने स्वास्थ्य को सुरक्षा से जुड़ी क़वायद बनाने की प्रक्रिया में रफ़्तार भर दी है. इस कड़ी में विकसित देश, वैश्विक स्वास्थ्य प्रशासन में व्यापक तस्दीक़, मंज़ूरी और नियमपालन के पक्ष में दलील दे रहे हैं. मिसाल के तौर पर प्रस्तावित महामारी संधि में यूरोपीय संघ (EU) ने शुरुआती दौर में ही सुराग लगाने, डेटा संग्रह और शेयरिंग के लिए डिजिटल प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करने, पैथोजेन और जीनोम डेटा शेयरिंग करने और जानकारी देने की प्रणाली के साथ-साथ पूर्व से मज़बूत स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए प्रावधान करने के सुझाव दिए हैं. हालांकि इस कड़ी में डेटा-बेनिफ़िट शेयरिंग, टीकों और दवाइयों तक पहुंच और प्रौद्योगिकी के मोर्चे पर पहले से चले आ रहे मसलों पर ज़रूरत से कम ध्यान दिया गया है.
कोविड-19 महामारी ने इस बात को रेखांकित किया है कि अगर विकासशील देश स्वास्थ्य से जुड़े मसलों के निपटारे के लिए टीके, दवाइयां और प्रौद्योगिकी जुटाने के लिए इसी तरह संघर्ष करते रहे तो टोह लगाने, निगरानी करने और डेटा शेयरिंग करने की प्रणालियां नाकाफ़ी साबित होती रहेंगी. लिहाज़ा वैश्विक प्रशासन से जुड़ी संस्थाओं और किरदारों को अधिकारों पर आधारित परिपाटी अपनानी चाहिए. इस क़वायद का ज़ोर स्वास्थ्य प्रणालियों और आपूर्ति से जुड़े बुनियादी ढांचों को मज़बूत करने पर होना चाहिए ताकि सिर्फ़ सुरक्षा मुहैया कराने वाले रोकथाम से जुड़े उपायों की बजाए स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच सुनिश्चित की जा सके.
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