Expert Speak Health Express
Published on Jan 21, 2025 Updated 0 Hours ago

अमेरिका अपनी विदेश नीति में वैश्विक स्वास्थ्य व्यवस्था को फिर से गढ़ना चाहता है, ‘ग्लोबल साउथ’ को इस बदली हुई परिस्थिति में पहल करने के लिए कदम बढ़ाने चाहिए.

ग्लोबल हेल्थ का गहराता संकट: WHO से अमेरिका के बाहर आने की सूरत में, दुनिया पर असर?

नव-निर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के फिर से व्हाइट हाउस पहुंचने के बाद यह क़यास लगाया जा रहा है कि अमेरिका विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) से औपचारिक रूप से अलग हो सकता है. इसका वैश्विक स्वास्थ्य व्यवस्था पर प्रतिकूल असर पड़ेगा. भले ही यह आश्चर्य की बात न हो कि वैश्विक स्वास्थ्य के नेतृत्व के रूप में अमेरिका की भूमिका फिर से सवालों के घेरे में है, लेकिन विश्व समुदाय को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि अमेरिका के इस कदम का क्या मतलब है, वैश्विक स्वास्थ्य की क्या-क्या ज़रूरतें हैं और बदली हुई परिस्थिति से पार पाने के लिए किस तरह के कदम उठाए जाने की आवश्यकता है.

जगज़ाहिर होती आशंकाएं

साल 2020 में ट्रंप ने यह कहते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन से अलग होने के लिए कदम उठाए थे कि कोविड-19 से निपटने में नाकाम रहने पर चीन की जवाबदेही न तय करके संगठन ने अपने पूर्वाग्रह ज़ाहिर किए हैं. कोविड-19 को समय पर ‘अंतरराष्ट्रीय चिंता संबंधी सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल’ (पीएचईआईसी) घोषित न कर पाने के लिए विश्व बिरादरी ने डब्ल्यूएचओ की आलोचना की थी. यह तब हुआ था, जब डब्ल्यूएचओ पहले से ही 2013 में मर्स कोरोना वायरस (एमईआरएस-कोव) के प्रकोप के दौरान अपनी सुस्ती और 2014 में इबोला के दौरान इसकी देरी से घोषणा करने के कारण सवालों के घेरे में था. कोविड-19 के दौरान, विश्व स्वास्थ्य संगठन पर चीन का प्रभाव इसी से समझा गया कि संगठन बीजिंग से आकंड़े हासिल कर पाने में नाकाम रहा और कोरोना संक्रमण के एक इंसान से दूसरे में फैलने की चेतावनी जल्द घोषित न कर सका. पिछले साल दिसंबर में, डब्ल्यूएचओ की प्रवक्ता मारिया वान केरखोव ने चीन से महामारी के नमूने उपलब्ध कराने का आग्रह करते हुए ‘नैतिक और वैज्ञानिक अनिवार्यता’ पर ज़ोर दिया, लेकिन चीन इस बार भी अड़ा हुआ है कि उसने संगठन को सभी नमूने उपलब्ध करा दिए हैं.

साल 2020 में ट्रंप ने यह कहते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन से अलग होने के लिए कदम उठाए थे कि कोविड-19 से निपटने में नाकाम रहने पर चीन की जवाबदेही न तय करके संगठन ने अपने पूर्वाग्रह ज़ाहिर किए हैं.

विश्व स्वास्थ्य संगठन से अमेरिका के बाहर निकलने की चर्चा तब परवान चढ़ रही है, जब कोविड-19 के जन्म को लेकर राजनीतिकरण बदस्तूर जारी है. कोरोना महामारी पर रिपब्लिकन के नेतृत्व वाली प्रवर उप-समिति ने अपने निष्कर्ष में बताया है कि ‘चीन के वुहान के प्रयोगशाला से ही कोविड-19 वायरस के जन्म की सर्वाधिक आशंका जान पड़ती है’. उप-समिति के मुताबिक, प्रयोगशाला में ‘गेन-ऑफ-फ़ंक्शन रिसर्च’ (ऐसा चिकित्सकीय-शोध कार्य, जिसमें किसी जीव को आनुवंशिक रूप से इस तरह से बदला जाता है कि जीन उत्पादों के जैविक कार्यों में बढ़ोतरी हो सके) हो रहा था और जैव सुरक्षा को लेकर वहां पर्याप्त व्यवस्थाएं नहीं की गई थीं. कोरोना वायरस के फैलने का यही शुरुआती कारण हो सकता है. उप-समिति ने ‘यूएस नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ’ (एनआईएच) द्वारा संभावित खतरनाक शोध की निगरानी न कर पाने और कथित तौर पर वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी (डब्ल्यूआईवी) में हुई लीक को ढंकने के लिए चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) के राजनीतिक दबाव के आगे विश्व स्वास्थ्य संगठन के झुक जाने को महामारी की वज़ह माना.

अब भी अनसुलझा उत्पत्ति का सवाल

कांग्रेस (अमेरिकी संसद) के डेमोक्रेट सदस्यों ने इस प्रवर उप-समिति की रिपोर्ट को मानने से इंकार कर दिया है. उनके मुताबिक, यह महामारी को लेकर अतिवादी रुख़ है और इससे कोविड-19 की उत्पत्ति की असल वज़ह को लेकर स्पष्टता नहीं है, इसलिए समिति अब भी खाली हाथ ही है. वह पता नहीं कर पाई है कि वुहान मांस बाज़ार में बिकने वाले मांस सार्स-कोव2 (कोरोना वायरस) से संक्रमित थे और उसी से इंसानों में यह वायरस आया. दिलचस्प बात यह है कि अमेरिकी ऊर्जा विभाग ने ‘आधे-अधूरे दावों’ के साथ बताया कि किसी-न-किसी प्रयोगशाला से ही यह फैला था. यह उसके पहले के तटस्थ रुख़ से अलग है. उधर, राष्ट्रीय खुफ़िया परिषद् मजबूती से मानती है कि वायरस कभी-कभी, लेकिन बहुत ही कम एक प्रजाति से दूसरी को संक्रमित करता है, वहीं संघीय जांच ब्यूरो (एफबीआई) का कहना है कि प्रयोगशाला की दुर्घटना इसकी वज़ह हो सकती है. साफ़ है, कोविड-19 के जन्म पर लगातार होती राजनीति और इसके किसी जीव से इंसान में फैलने या प्रयोगशाला से लीक होने को लेकर जब तक वैज्ञानिक सुबूतों के साथ स्थिति स्पष्ट नहीं हो जाती, वायरस की उत्पत्ति का राज़ अनसुलझा ही रहेगा.

वैश्विक स्वास्थ्य बनाम राष्ट्रीय हित

यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि ट्रंप प्रशासन वैश्विक स्वास्थ्य प्रयासों में अमेरिका की भूमिका पर सवाल खड़े करने वाला है. संक्रामक रोगों का मुकाबला करने के लिए भारी धनराशि मुहैया कराके अमेरिका ने वैश्विक स्वास्थ्य के नेतृत्व में अपना दबदबा बनाया है, खास तौर से विकसित दुनिया की सुरक्षा और आर्थिक विकास से ग्लोबल साउथ, यानी वैश्विक दक्षिण को लाभान्वित करके. हालांकि, कोविड-19 ने साफ़ कर दिया कि इन प्रयासों के बावजूद, अमेरिका तैयार नहीं था. संक्षेप में कहें, तो वैश्विक स्वास्थ्य पर ज़ोर देने वाली अमेरिकी विदेश नीति कोविड-19 से अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा करने में विफल रही. इसी कारण अमेरिका को महामंदी के बाद सबसे बड़ी आर्थिक सुस्ती का सामना करना पड़ा और 12 लाख अमेरिकियों को कोरोना से जान गंवानी पड़ी.

बाइडेन प्रशासन ने विश्व स्वास्थ्य संगठन से बाहर निकलने संबंधी ट्रंप के 2020 के फ़ैसले को पलटते हुए वैश्विक स्वास्थ्य में अमेरिका के नेतृत्व को फिर से बहाल करने का प्रयास किया था. हालांकि, घरेलू राजनीति में ध्रुवीकरण और भू-राजनीति से यह सवाल उठने लगा कि वैश्विक स्वास्थ्य में अमेरिकी हिस्सेदारी का आखिर क्या औचित्य है? उदाहरण के लिए, बाइडेन ने ‘ट्रंप-1.0’ की विरासत ‘ऑपरेशन वॉर्प स्पीड’ (ओडब्ल्यूएस) को जारी रखा, जिसमें कोविड-19 के टीके रिकॉर्ड समय में बनाए गए थे. मगर वैक्सीन राष्ट्रवाद और कोवैक्स (कोविड-19 वैक्सीन की दुनिया भर में पहुंच सुनिश्चत करने वाली पहल) से उपजी असमानताओं ने जहां इन प्रयासों को बाधित किया, वहीं रूस और चीन की वैक्सीन कूटनीति ने वैश्विक स्वास्थ्य परिदृश्य को बदलकर रख दिया. नतीजतन, अमेरिकी विदेश नीति में वैश्विक स्वास्थ्य प्रमुखता से कायम नहीं रह सका.

संभावित उथल-पुथल 

भले ही दुनिया बतौर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा लिए जाने वाले अप्रत्याशित फ़ैसलों के लिए तैयार है, ज़रूरी यह भी है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन से अमेरिका के हटने के निहितार्थों का हम आकलन करें. अमेरिका का ऐसा कोई भी फ़ैसला किसी सदमे की तरह होगा, क्योंकि विश्व स्वास्थ्य संगठन को आर्थिक मदद देने वाले सबसे बड़े देशों में वह शामिल है. उसने 2022-23 में करीब 1.28 अरब डॉलर की मदद दी थी. ज़ाहिर है, उसके बाहर निकलने से स्वास्थ्य संबंधी खतरों से जुड़ी वैश्विक निगरानी व प्रयास प्रभावित हो सकते हैं. इससे अनुसंधान व विकास के लिए डब्ल्यूएचओ व विभिन्न अमेरिकी संस्थानों के बीच सहयोग भी बाधित हो सकता है और संगठन को अनुभवी तकनीकी व प्रशासनिक मानव संसाधनों का नुकसान झेलना पड़ सकता है. ‘यूएस एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट’ (यूएसएआईडी), एचआईवी/ एड्स, मलेरिया और टीवी को समर्पित ‘नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ्स फोगार्टी इंटरनेशनल सेंटर’ और अन्य योजनाओं के फ़ंड में भी कमी होगी. प्रजनन-स्वास्थ्य पर काम करने वाली संस्था संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष और एचआईवी रोकथाम को समर्पित राष्ट्रपति की एड्स राहत संबंधी आपातकालीन योजना (पीईपीएफएआर) के भी प्रभावित होने की आशंका है. विदेशी गैर-सरकारी संस्थाओं को गर्भपात में कानूनी मदद करने से रोकने के लिए ‘ग्लोबल गैग रूल’ या उनके फ़ंड पर रोक लगाई जा सकती है. इसी तरह, कैंसर के इलाज में मदद करने वाली ‘कैंसर मूनशॉट’ पहल को, जिसे हाल ही में नया जीवन दिया गया है, खत्म किया जा सकता है.

भले ही दुनिया बतौर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा लिए जाने वाले अप्रत्याशित फ़ैसलों के लिए तैयार है, ज़रूरी यह भी है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन से अमेरिका के हटने के निहितार्थों का हम आकलन करें. 

ट्रंप प्रशासन के संशयवादी नेतागण एक ऐसी सरकार के लिए तैयार हैं, जो सेहत के प्रति उदासीन है, लेकिन संकेत यह भी मिलता है कि अपनी विदेशी नीति में अमेरिका वैश्विक स्वास्थ्य को नए रूप में शामिल कर सकता है. उल्लेखनीय है कि ऑपरेशन वॉर्प स्पीड यही बताता है कि अमेरिकी जैव प्रौद्योगिकी और दवा उद्योग नए खतरे से लड़ने के लिए तत्काल तकनीकी समाधान अपनाकर उत्पादन करने में सक्षम थे. महामारी और जलवायु-परिवर्तन से जुड़े स्वास्थ्यगत मसलों के समाधान के लिए भी बौद्धिक संपदा (आईपी) अधिकार और भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा जैसे प्रोत्साहनों के माध्यम से नवाचार, यानी इनोवेशन आगे बढ़ाए जा सकते हैं. इस एजेंडे में घरेलू दवा की कीमतों को कम करने, अमेरिकी खाद्य और औषधि प्रशासन (एफडीए) के प्रावधानों को विश्व के साथ सामंजस्य बनाने और टीकों को अधिक सुरक्षित बनाने जैसे कदम भी शामिल हैं. बाइडेन का जैव सुरक्षा और जैव बचाव संबंधी एजेंडे को भी इसमें शामिल किया जा सकता है. जैव सुरक्षा संबंधी प्रावधानों के विस्तार के लिए एनआईएच में ढांचागत सुधार किए जाने की सूचना है, जिसका इकोहेल्थ अलायंस और वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी के साथ रिश्ता महामारी में कथित भूमिका के लिए जांच के दायरे में आया था.

कैसी हो जवाबी पहल

अमेरिका जब अपनी विदेश नीति में वैश्विक स्वास्थ्य संबंधी कार्यों को नया रूप देने के लिए संकल्पित दिख रहा है, तब ‘ग्लोबल साउथ‘ को इससे उबरने के लिए कदम उठाने की ज़रूरत है. सुरक्षा के नज़रिये से देखें, तो कोई भी देश स्वास्थ्य की अनदेखी नहीं कर सकता, इसलिए संभावना इसी बात की है कि अमेरिका विश्व स्वास्थ्य संगठन से बाहर नहीं जाएगा, लेकिन हां, वह इसमें अपना योगदान कम कर सकता है. अमेरिका की इस कटौती की भरपाई चीन कर सकता है, जिसने अपने स्वास्थ्य सिल्क रोड के माध्यम से स्वास्थ्य सेवा की तस्वीर बदलनी शुरू कर दी है. एक अन्य दावेदार यूरोप भी हो सकता है, लेकिन ब्रिटेन ने अपने विदेशी विकास सहायता कार्यक्रम में कमी करते हुए साल 2020 के 16.7 प्रतिशत के मुकाबले इसे साल 2023 में 7.6 प्रतिशत कर दिया था, जिसका संकेत है कि यूरोप की दावेदारी यूरोपीय संघ पर निर्भर करेगी. रूस-यूक्रेन और पश्चिम एशिया में चले रहे संघर्षों (हालांकि, अब हमास और इजरायल में युद्ध-विराम हो चुका है) के कारण काफी मात्रा में वैश्विक स्वास्थ्य के संसाधनों में कटौती की गई है, जो बताता है कि बीएमएफजी जैसे ‘परोपकारी‘ संगठन इस कमी को पूरा कर सकते हैं, लेकिन अभी यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि इस कटौती की भरपाई कैसे की जा सकेगी.

 सुरक्षा के नज़रिये से देखें, तो कोई भी देश स्वास्थ्य की अनदेखी नहीं कर सकता, इसलिए संभावना इसी बात की है कि अमेरिका विश्व स्वास्थ्य संगठन से बाहर नहीं जाएगा, लेकिन हां, वह इसमें अपना योगदान कम कर सकता है.

सत्ता का यह हस्तांतरण, जिसमें ‘ग्लोबल नॉर्थ‘, यानी वैश्विक उत्तर में पारंपरिक देशों का मकसद वैश्विक स्वास्थ्य पर कम ध्यान देना है, ग्लोबल साउथ के लिए अपनी महत्वपूर्ण स्वास्थ्य ज़रूरतों को पूरा करने के लिए एक अवसर हो सकता है. मौजूदा विमर्श वैश्विक दक्षिण के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन को आवश्यक सुधारों के लिए राजी करने का एक मौका है, ताकि संगठन में पारदर्शिता व जवाबदेही में वृद्धि हो सके और महामारी से जुड़े तमाम विवादास्पद मसले निपटाए जा सके. आनुवंशिक संसाधनों के बंटवारे को सुनिश्चित करने वाला तंत्र ‘पीएबीएस‘ शायद ही वह समानता व निष्पक्षता ला सकता है, जिसका यह दावा करता है. लिहाजा, इसका विकल्प तैयार करना होगा. इसके अलावा, ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका का संगठन) वैश्विक स्वास्थ्य के मुद्दे को व्यापक नज़रिये के साथ और स्थानीयकरण के माध्यम से पूरा कर सकता है, जिसमें स्थानीय संगठनों के द्वारा विदेशी मदद का बंटवारा किया जाता है. कुल मिलाकर, कोविड-19 के राजनीतिकरण और उसके कारण होने वाले व्यापक दुष्प्रचार व भ्रामक अभियानों से पड़ने वाले दुष्परिणामों को देखते हुए वैश्विक दक्षिण यह सुनिश्चित करने का प्रयास कर सकता है कि विज्ञान का जिम्मेदारी से प्रसार किया जाए और भारत जैसे देश अपने राष्ट्रीय सुरक्षा ढांचे में जैव सुरक्षा को शामिल करने के लिए अपने वैश्विक समकक्षों के बराबर ठोस कदम उठाएं.

कोविड-19, ध्रुवीकृत घरेलू राजनीति और भू-राजनीतिक तनाव ने वैश्विक स्वास्थ्य में बढ़ती भागीदारी से अमेरिका को मिलने वाले किसी भी लाभ को धुंधला बना दिया है.

ज़ाहिर है, अमेरिका अपनी विदेश नीति में वैश्विक स्वास्थ्य की भूमिका बदलने को संकल्पित दिख रहा है. कोविड-19, ध्रुवीकृत घरेलू राजनीति और भू-राजनीतिक तनाव ने वैश्विक स्वास्थ्य में बढ़ती भागीदारी से अमेरिका को मिलने वाले किसी भी लाभ को धुंधला बना दिया है. हालांकि, उसके लिए ऐसा कोई कदम उठाना विवेकपूर्ण नहीं माना जाएगा, लेकिन यह भारत और वैश्विक दक्षिण के शेष देशों के लिए वैश्विक स्वास्थ्य पर पुनर्विचार के लिए एक प्रेरक बन सकता है, जिसमें निश्चित तौर पर सुधार की ज़रूरत है और जिसकी आवश्यकताओं को पूरा किया ही जाना चाहिए.


(लेखक ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के हेल्थ इनीशिएटिव में एसोसिएट फ़ेलो हैं)

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Author

Lakshmy Ramakrishnan

Lakshmy Ramakrishnan

Lakshmy is an Associate Fellow with ORF’s Centre for New Economic Diplomacy.  Her work focuses on the intersection of biotechnology, health, and international relations, with a ...

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