18 दिसंबर 2022 को कन्वेंशन ऑन बायोलॉजिकल डायवर्सिटी (CBD) की 15वीं कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़ ने जैव विविधता के संरक्षण (बायो-डायवर्सिटी कंज़र्वेशन) को आगे बढ़ाने के लिए कुन्मिंग-मॉन्ट्रियल ग्लोबल बायो-डायवर्सिटी फ्रेमवर्क को अपनाया. फ्रेमवर्क के तहत 2050 के लिए चार परिकल्पना (विज़न) और 2030 के लिए 23 टारगेट हासिल करने को तय किया गया. इस लेख के ज़रिए हम बायो-डायवर्सिटी फ्रेमवर्क के क्षेत्र आधारित संरक्षण, मुख्य रूप से संरक्षित क्षेत्रों, के टारगेट-3 पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं. इसमें भारत के वनों में रहने वाले समुदायों के अधिकारों का विश्लेषण किया जाएगा.
इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंज़र्वेशन ऑफ नेचर (IUCN) ने संरक्षित क्षेत्रों (प्रोटेक्टेड एरियाज़) को छह श्रेणियों में बांटा है, उनके जैविक महत्व और संरक्षण की ज़रूरत के मुताबिक़ शासन व्यवस्था (गवर्नेंस) की संरचना और ज़मीन के इस्तेमाल के पैटर्न के आधार पर परिभाषित किया गया है. भारत में वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट (WLPA) 1972 में संसद से पारित हुआ था. ये एक्ट भारत में वाइल्ड लाइफ (वन्य जीवन) के संरक्षण के लिए पहला संगठित क़ानून था. उससे पहले तक वाइल्ड लाइफ का संरक्षण राज्यों के क़ानूनों के तहत किया जाता था जिनका प्रमुख उद्देश्य संरक्षण के बजाय जानवरों को शिकार होने से बचाना था.[i]
WLPA के मुताबिक़ अलग-अलग शासन व्यवस्था की संरचना के साथ संरक्षित क्षेत्रों की पांच श्रेणियां हैं यानी नेशनल पार्क, वाइल्ड लाइफ सेंचुरी, कंज़र्वेशन रिज़र्व, कम्युनिटी रिज़र्व और टाइगर रिज़र्व. नीचे की तालिका देश में संरक्षित क्षेत्रों की संख्या और उनके कुल क्षेत्र के बारे में बताती है.
टेबल 1: भारत में संरक्षित क्षेत्र (जनवरी 2023 तक)
संरक्षित क्षेत्र |
संख्या |
कुल क्षेत्र (वर्ग किमी. में) |
कुल भौगोलिक क्षेत्र में % कवरेज |
वाइल्डलाइफ सेंचुरी |
567 |
1,22,564.86 |
3.73 |
नेशनल पार्क |
106 |
44,402.95 |
1.35 |
कंज़र्वेशन रिज़र्व |
105 |
5,206.55 |
0.16 |
कम्युनिटी रिजर्व |
220 |
1,455.16 |
0.04 |
टाइगर रिज़र्व[ii] |
53 |
75,796.83 |
2.3 |
कुल |
998 |
1,73,629 |
5.28 |
स्रोत- wiienvis.nic.in, ntca.gov.in
वैसे तो संरक्षित क्षेत्रों की संख्या में काफ़ी बढ़ोतरी हुई है लेकिन इन क्षेत्रों को अधिसूचित (नोटिफाई) करने की प्रक्रिया संतुलित नहीं है. कई मामलों में क़ानून के तहत निर्धारित उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया जाता है, ख़ास तौर पर टाइगर रिज़र्व की अधिसूचना (नोटिफिकेशन) के मामले में. 1973 में एक केंद्र प्रायोजित योजना के तौर पर शुरुआत के समय से 'प्रोजेक्ट टाइगर' भारत की प्रमुख संरक्षण योजना रही है. इसे वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट (WLPA) के पास होने के महज़ एक साल के बाद देश में बाघों की तेज़ी से घटती आबादी पर रोक लगाने के लिए प्रशासनिक श्रेणी की योजना के रूप में शुरू किया गया था. नौ नेशनल पार्क[iii] को टाइगर रिज़र्व के तौर पर घोषित किया गया जिनकी संख्या धीरे-धीरे हर साल बढ़ रही है. 2006 में WLPA के तहत प्रोजेक्ट टाइगर को औपचारिक रूप से शामिल करने के बाद से ये संख्या बढ़कर 53 हो गई है.
हालांकि इस क़ानून पर अमल काफ़ी हद तक उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना किया गया है. बाघों के रहने के लिए महत्वपूर्ण जगह (क्रिटिकल टाइगर हैबिटेट) यानी 27 टाइगर रिज़र्व को 2007 में एक्ट की घोषणा के ठीक बाद जल्दबाज़ी में अधिसूचित किया गया था. इसके लिए कोई अध्ययन भी नहीं किया गया कि ये क्षेत्र बाघों के रहने के लिए ठीक हैं या नहीं. इसी तरह बफर ज़ोन - वो क्षेत्र जो बाघों के रहने के लिए महत्वपूर्ण जगहों के चारों ओर होते हैं जो क्रिटिकल टाइगर हैबिटेट और ग़ैर-संरक्षित क्षेत्रों के बीच की जगह हैं - में ये देखा गया कि संबंधित ग्राम सभाओं की सलाह और उनकी इजाज़त नहीं हासिल की गई. 2012 में 10 राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद जल्दबाज़ी में अपने-अपने टाइगर रिज़र्व में बफर ज़ोन को नोटिफाई किया.[iv]
एक और क़ानून जो वाइल्ड लाइफ के संरक्षण को तय करता है वो है अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वनवासी (वन अधिकार को मान्यता) अधिनियम, 2006. इस क़ानून की धारा 4 (2) के तहत महत्वपूर्ण वन्य जीव आवास (क्रिटिकल वाइल्ड लाइफ हैबिटेट्स) के निर्माण की इजाज़त दी गई है. साथ ही इस क़ानून में अधिसूचना के लिए कुछ पूर्व शर्तें (4 (2 a-f)) भी रखी गई हैं. क्रिटिकल वाइल्ड लाइफ हैबिटेट्स को नेशनल पार्क और सेंचुरी के भीतर वैज्ञानिक एवं निष्पक्ष कसौटी के ज़रिए स्थापित क्षेत्र के रूप में परिभाषित किया गया है जिन्हें वाइल्ड लाइफ कंज़र्वेशन के उद्देश्य के लिए सुरक्षित रखने की ज़रूरत है.[v] धारा 4 (2) में ये भी कहा गया है कि क्रिटिकल वाइल्ड लाइफ हैबिटेट्स के रूप में घोषित क्षेत्र को राज्य या केंद्र सरकार के द्वारा किसी दूसरे उद्देश्य के लिए बदला नहीं जा सकता है. इस तरह ये सुनिश्चित किया जाता है कि ऐसे क्षेत्र संरक्षित रहें.
लेकिन देश में अभी तक सिर्फ़ एक राज्य- महाराष्ट्र- ने इस पर अमल की प्रक्रिया शुरू की है. महाराष्ट्र में क्रिटिकल वाइल्ड लाइफ हैबिटेट्स की प्रक्रिया को लेकर ATREE (अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड दी एनवायरमेंट) और कल्पवृक्ष की एक रिपोर्ट में संपूर्ण घोषणा की प्रक्रिया की ग़लतियों पर प्रकाश डाला गया है. इस प्रक्रिया की कुछ प्रमुख खामियों में से एक ये है कि ज़्यादातर संरक्षित क्षेत्रों में वनवासी समुदायों के अधिकार को मान्यता की प्रक्रिया अधूरी है. साथ ही बॉम्बे हाई कोर्ट में चल रहे एक केस में वन विभाग का ये दावा झूठा साबित हुआ कि 25 संरक्षित क्षेत्रों में कोई बस्ती नहीं है और इसलिए अधिकारों की मान्यता की प्रक्रिया चलाने की ज़रूरत नहीं है. इस ढंग से क्रिटिकल वाइल्ड लाइफ हैबिटेट्स की घोषणा जारी रहने से महाराष्ट्र के 55 संरक्षित क्षेत्रों और उसके आसपास बसे 1,000 गांवों में रहने वाले लोगों के अधिकारों और रोज़गार को काफ़ी नुक़सान होगा. जून 2022 में महाराष्ट्र के स्टेट बोर्ड ऑफ वाइल्ड लाइफ ने राज्य में क्रिटिकल वाइल्ड लाइफ हैबिटेट्स के रूप में 10 संरक्षित क्षेत्रों की घोषणा के प्रस्ताव को मंज़ूरी दी.
संरक्षण संबंधी विस्थापन
भारत में संरक्षण की व्यवस्था की एक बड़ी खामी ये है कि एक जगह से दूसरी जगह बसाने और बेदखल करने में समुदायों का विस्थापन होता है. दस्तावेज़ी सबूत 1908 से असम के काज़ीरंगा रिज़र्व में विस्थापन को दिखाते हैं. हालांकि WLPA के तहत प्रक्रिया ज़्यादा औपचारिक हो गई है. कल्पवृक्ष और एनवायरमेंटल जस्टिस एटलस के द्वारा एक अध्ययन से पता चला कि 1999 से 2021 के बीच भारत में 26 संरक्षित क्षेत्रों से विस्थापित परिवारों की संख्या लगभग 13,500 है. इसमें बड़ा मुद्दा है ‘बिना किसी दबाव के पहले से मंज़ूरी लेने’ (फ्री प्रायर इन्फॉर्म्ड कंसेंट) के सिद्धांत का पालन किए बिना ज़बरन समुदायों को दूसरी जगह जाने के लिए कहना. कई मामलों जैसे कि अचानकमार टाइगर रिज़र्व, मेलघाट टाइगर रिज़र्व, पन्ना टाइगर रिज़र्व और सिमलीपाल टाइगर रिज़र्व में लोगों को दिया गया मुआवज़ा पर्याप्त से कम था. इसकी वजह से पुनर्वास से पहले की तुलना में लोगों की स्थिति में गिरावट आई है. भोरमदेव वाइल्ड लाइफ सेंचुरी के मामले में इलाक़े को टाइगर रिज़र्व के तौर पर घोषित करने का बहाना बनाकर सात से आठ गांवों के लोगों को दूसरी जगह बसाने का काम 2007-09 के दौरान शुरू किया गया था. लेकिन वाइल्ड लाइफ सेंचुरी को टाइगर रिज़र्व के रूप में अधिसूचित नहीं किया गया और लोगों को विस्थापन के एक दशक से ज़्यादा समय बीत जाने के बाद भी किसी भी प्रकार का मुआवज़ा नहीं मिला. अंत में इस प्रस्ताव को राज्य सरकार के द्वारा 2018 में रद्द कर दिया गया.
पुनर्वास के बाद भी लोगों की स्थिति ख़राब है. टी. एन. गोदावर्मन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में सेंट्रल एम्पावर्ड कमेटी (केंद्रीय सशक्त समिति) की रिपोर्ट के अनुसार टाइगर रिज़र्व से जिन 177 परिवारों को नई जगह पर बसाया गया उनमें से 122 परिवारों को जंगल की ज़मीन पर और बाक़ी 35 परिवारों को खेती की ज़मीन पर बसाया गया. जंगल की ज़मीन पर बसे 122 परिवारों में से सिर्फ़ 42 परिवारों की ज़मीन का दर्जा बदला गया है. इससे पता चलता है कि “स्वैच्छिक” रूप से नई जगह पर बसाए जाने के दशकों बाद भी लोग कई तरह की पाबंदियों का सामना कर रहे हैं और उनकी पहुंच सरकार की कल्याण योजनाओं तक नहीं है क्योंकि जंगल की ज़मीन के इस्तेमाल पर कई तरह के प्रतिबंध लगे हुए हैं.
कॉर्बेट टाइगर रिज़र्व के दक्षिण-पूर्व हिस्से से चार गांवों को नई जगह बसाने के मामले में भी ऐसी ही स्थिति है. तीन गांवों को 1993-94 में दूसरी जगह बसाया गया लेकिन 2002 में नये राज्य उत्तराखंड के निर्माण और राज्य एवं ज़िलों की सीमा के फिर से निर्धारित होने की वजह से लोग आधिकारिक प्रक्रिया में फंस गए. इसके कारण ज़मीन के दर्जे में लगभग तीन दशकों तक कोई बदलाव नहीं हो पाया. गांव के लोगों ने कहा कि दूसरी जगह बसाए जाने और बसाए जाने के बाद सत्यापन (वेरिफिकेशन) की प्रक्रिया के दौरान ज़िला और तहसील के अधिकारियों का भ्रष्टाचार भी उनकी ज़मीन के दर्जे को मान्यता नहीं मिलने का कारण बना. पूरी प्रक्रिया में गड़बड़ी का ज़िक्र करते हुए नैनीताल हाई कोर्ट में एक केस दायर किया गया है और संबंधित अधिकारियों के ख़िलाफ़ आपराधिक कार्रवाई की मांग की गई है.
ख़राब ढंग से लागू होने के बावजूद हम देखते हैं कि राज्य सरकारों और वन विभाग की नौकरशाही के द्वारा संरक्षित क्षेत्रों के निर्माण के लिए विस्थापन की ज़्यादा प्रक्रियाओं को बढ़ाया जा रहा है. भारत संरक्षण के सह-प्रबंधन (को-मैनेजमेंट) के विकल्पों का पता लगाने की कोशिशों के मामले में भी काफ़ी पीछे है. ग्लोबल बायो-डायवर्सिटी फ्रेमवर्क संरक्षण के संवाद में अपनी ज़मीन पर मूल निवासियों के अधिकारों को मान्यता देने और जैव विविधता के संरक्षण की योजना बनाने, निर्णय लेने एवं प्रबंधन की प्रक्रिया में इन समुदायों को शामिल करने की तरफ़ एक महत्वपूर्ण बदलाव पर प्रकाश डाला गया है. लेकिन चुनौती जैव विविधता के संरक्षण के मौजूदा फ्रेमवर्क के भीतर ऐसे गाइडलाइंस को शामिल करने में है, ख़ास तौर पर भारत में संरक्षित क्षेत्र की शासन व्यवस्था के संदर्भ में. मौजूदा संरक्षण की नीतियां और उनके साथ-साथ ख़राब ढंग से उन पर अमल ये सवाल खड़ा करते हैं कि क्या भारत दस्तावेज़ों से आगे बढ़कर ज़मीनी स्तर पर, जहां असली संरक्षण होता है, ग्लोबल बायो-डायवर्सिटी फ्रेमवर्क के लक्ष्यों को हासिल कर पाएगा.
अक्षय छेत्री कल्पवृक्ष एनवायरमेंट एक्शन ग्रुप के सदस्य हैं.
[i] To hunt or not to hunt: Tiger hunting, conservation and collaboration in Colonial India, Rajashri Mitra, International Journal for History, Culture and Modernity, HCM 2019, Vol. 7
[ii] Tiger Reserves are an overlay category to National Parks and Wildlife Sanctuaries therefore do not feature in the total figures.
[iii] Corbett NP, Kanha NP, Bandipur NP, Manas NP, Palamau NP, Melghat NP, Sunderbans NP and Simlipal NP
[iv] Ajay Dubey vs National Tiger Conservation Authority, SLP (C) No. 21339/2011 dated 3rd April 2012.
[v] Section 2(b) of the Forest Rights Act, 2006
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.