रूस ने 2010 में ‘टर्न टू ईस्ट’ यानी पूर्व का रुख करने संबंधी नीति की घोषणा की थी। हालांकि चार साल बाद, यानी 2014 में एशिया के प्रति उसके झुकाव में गति देखी गई। यूक्रेन के मामले को लेकर पश्चिम और रूस के बंट जाने पर, चीन के साथ रूस के मेलजोल बढ़ता गया। तभी से, चीन-रूस के बीच मूलभूत मतभेदों और सौहार्दपूर्ण अतीत न होने के मद्देनज़र उनके संबंधों के स्थायित्व को लेकर बहस जारी है।
चीन–रूस समझौता?
रूस और चीन को परम्परागत मित्रों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, इसके बावजूद हाल के वर्षों में इनकी आपसी आवश्यकताएं इन्हें करीब ले आई हैं। बेशक वर्तमान भू राजनीतिक परिदृश्य ने चीन के पक्ष में काम किया है।
चीन भौगोलिक और साथ ही साथ आर्थिक रूप से रूस के लिए बहुत ही सहज भागीदार है। वह पहले से ही रूस के बड़े कारोबारी भागीदारों में से है। दोनों देशों के बीच आपसी व्यापार जो 2003 में 15.8 बिलियन डॉलर का था, 2013 में बढकर क्रमशः 88 बिलियन डॉलर और 2014 में 95.3 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया। 2015 में अपेक्षाकृत कमी (64.2 बिलियन डॉलर) के बाद, 2016 में फिर से उनके व्यापार में (70 बिलियन डॉलर) वृद्धि हुई। अब दोनों देशों ने 2020 तक आपसी व्यापार 200 बिलियन डॉलर तक पहुंचाने का लक्ष्य निर्धारित किया है।
चीन एक विस्तारशील अर्थव्यवस्था है और इस नाते, वहां प्राकृतिक संसाधनों की मांग बहुत अधिक है। रूस के साथ सहयोग से चीन की पहुंच संसाधनों की दृष्टि से समृद्ध रूस के सुदूर पूर्व तक हो जाएगी। दोनों देशों के बीच 2014 का प्राकृतिक गैस समझौता इसका एक उदाहरण है। जहां पश्चिम के साथ रूस का तनाव बढ़ रहा है, वहीं गैस के क्षेत्र में रूस की विशाल कम्पनी गेज़प्रॉम और चायना नेशनल पेट्रोलियम कार्पोरेशन (सीएनपीसी) के बीच 400 बिलियन डॉलर मूल्य का 30 साल का गैस समझौता हुआ है, जिसमें गेज़प्रॉम ने कीमतें कम करने की चीन की मांगों को आखिरकार स्वीकार कर लिया।
चीन-रूस के संबंधों में एक अन्य सुनहरा अवसर रूस द्वारा ‘उच्च प्रौद्योगिकी वाले सैन्य उपकरणों के निर्यात पर लगाए गए अनौपचारिक प्रतिबंध’ के लगभग दशक भर बाद, चीन को उन्नत हथियार प्रौद्योगिकी की बिक्री की शुरूआत करना है। रूस ने यह प्रतिबंध चीन द्वारा रूसी हथियारों के डिज़ाइन की नकल बनाए जाने के बाद उठाया था। इस संबंध में सबसे कुख्यात उदाहरण चीन द्वारा जे-11बी फाइटर का विकास शुरू करना था, जो कथित तौर पर सोवियत संघ द्वारा 1970 और 1980 के दशकों में विकसित किए गए वन-सीट फाइटर एसयू-27 की सीधी नकल था, जिसे सोवियत संघ ने अमेरिकी एफ-15 और एफ-16 से मुकाबले के लिए बनाया था। रूस ने चीन की रिवर्स इंजीनियरिंग को भी उस समय से उचित नहीं माना, जब से उसने हथियारों की हूबहू नकल करके उनका सस्ते दामों पर निर्यात शुरू किया, विकसित होते विश्व बाजार में जिसका प्रतिकूल प्रभाव रूस के हितों पर पड़ा।
वर्तमान मेल-मिलाप के बावजूद, रूस, चीन के साथ अपने लेन-देन में अपनी जरूरतों और चिंताओं के बीच अटका हुआ है। उदाहरण के लिए आक्रामक चीन, दक्षिण और पूर्व चीन सागर की ओर बढ़ रहा है, जिससे क्षेत्र में चीन की महत्वाकांक्षाओं के प्रति चिंताएं बढ़ रही हैं। यह इसलिए और भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि चीन अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए, खुद को पश्चिम एशिया और यूरोप से जोड़ने के लिए सिल्क मार्ग के विकास पर निवेश कर रहा है। इसके अलावा चीन के साथ लेन-देन के समय रूस के कम महत्व के दर्जे को लेकर भी चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं, जबकि चीन को उसकी ओर से प्रमुख रूप से कच्चा माल (तेल, कोयला और लकड़ी) ही निर्यात किया जा रहा है। दूसरी ओर, रूस, विनिर्मित उत्पादों (मशीनरी और परिवहन उपकरण) का चीन से आयात करता है।
इस असंतुलन के बावजूद, रूस, मोटे तौर पर परस्पर लाभकारी मांग-आपूर्ति संबंध की वजह से चीन के समीप आया है। इस समझौते की निर्णायक कसौटी — मध्य एशिया है, जो इस नए समीकरण (‘न्यू ग्रेट गेम’) का केंद्र बिंदु है। मध्य एशिया को अपना पिछला आंगन या बैकयार्ड समझने वाले रूस के, चीन के प्रति आकर्षण का कारण आर्थिक है, क्योंकि उसका प्रस्तावित निवेश उसके अपनी महत्वाकांक्षी ‘वन बेल्ट वन रोड’ (ओबीओआर) पहल के अंतर्गत आता है। इसके अलावा, रूस के सुदूर पूर्व में आबादी कम होने के कारण, क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव को लेकर व्यक्त की जा रही चिंताओं के कारण वह असुरिक्षत भी है।
ट्रम्प का दौर
नए सिरे से स्थापित की जा रही डोनाल्ड ट्रम्प की विदेश नीति के प्रमुख पहलुओं में से एक उनका रूस के साथ कथित तौर पर दोबारा संबंध स्थापित करना है। यही कारण है कि टीकाकार इसे निक्सन और किसिंगर की त्रिकोणीय कूटनीति के साथ जोड़कर देख रहे हैं, जिन्होंने 1960 के दशक के आखिर में चीन के प्रति खुलापन दिखाते हुए चीन-सोवियत विभाजन का लाभ उठाया था। इस दृष्टिकोण को मानने वाले पिछली सदी में जिस स्थान पर चीन था, अब वहां उसकी जगह रूस को रख रहे हैं।
जहां एक ओर वर्तमान परिदृश्य 1970 के दशक की यादें ताजा कर रहा है, वहीं भू राजनीतिक वास्तविकताएं अलग-अलग कारणों से इस तरह की रणनीति का अब कारगर होना मुश्किल बना रही हैं। पहला, चीन के सोवियत संघ का विरोधी होने के कारण अमेरिका-सोवियत-चीन त्रिकोण, अनिवार्य तौर पर अमेरिका के पक्ष में रहा । इतना ही नहीं, विचाराधारा से संबंधित गहरी दरारें, जिन्होंने 1950 और 1960 के दशक में सोवियत संघ और चीन को अलग किया था, वे आज मौजूद नहीं हैं। दरअसल, अपने उथल-पुथल भरे अतीत को पराजित करते हुए रूस और चीन के बीच अब साझा राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा हितों वाली ‘रणनीतिक साझेदारी’ है।
हालांकि डोनाल्ड ट्रम्प के नेतृत्व में अमेरिका ने रूस साथ संबंध दोबारा जोड़ने की इच्छा व्यक्त की है, इसके बावजूद पुतिन के नेतृत्व में रूस की पश्चिम के साथ संबंध दोबारा स्थापित करने की संभावना उतनी ही निराशाजनक है, जितनी वर्षों पहले येल्तसिन के दौर में थी। विशेषकर नॉटो के बारे में रूस की आशंकाओं ने, चीन को लेकर उसकी चिंताओं को मिटा दिया है। हालांकि चीन-रूस भू राजनीतिक प्रतिस्पर्धा निश्चित तौर पर मौजूद है, इसके बावजूद दोनों देशों के बीच कामकाजी संबंधों (कम से कम पुतिन और शी जिगपिंग के नेतृत्व में) के संतुलित बने रहने की संभावना है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि दोनों अमेरिका के प्रभुत्व वाली व्यवस्था के स्थान पर बहुपक्षीय विश्व को ज्यादा तरजीह देते हैं। हाल ही में संपन्न म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन में रूस के विदेश मंत्री सर्जेई लावरोव द्वारा अपने भाषण में ‘पश्चिम के बाद की व्यवस्था’ (पोस्ट-वेस्ट ऑर्डर) की बात करना, इस धारणा को और ज्यादा बल प्रदान करता है।
और आखिरकार, रूस और चीन भले ही अलग-अलग हितों को पोषित करते हों, इसके बावजूद अमेरिका के नेतृत्व वाली व्यवस्था को चुनौती देने के उनके पारस्परिक हित, उन्हें निकट भविष्य में एक-दूसरे के खिलाफ जाने से रोकेंगे। यह व्यवस्था अल्प अवधि में तो निश्चित तौर पर महत्वपूर्ण है। ऐसी व्यवस्था की दीर्घकालिक संभाव्यता की संभावना हालांकि इस बात पर निर्भर करेगी कि रूस किस हद तक एशिया के साथ अपने संबंधों को पुनः संतुलित कर पाने में सक्षम हो पाता है। इससे यकीनन चीन का आर्थिक प्रभाव कम होता है। वहीं सीरिया में की गई पहल के परिणामस्वरूप रूस सुरक्षा कर्ता के रूप में उभरा है। क्षेत्र में अपने प्रभाव को दोबारा स्थापित करने के प्रयास में अब उसकी निगाहें सीरिया के समान ही, अफगानिस्तान पर लगी हैं। जब तक उसका परम्परागत साझेदार भारत, चीन और पाकिस्तान के साथ रूस के उत्तरोत्तर बढ़ते सहयोग से चौकस है, तब तक यह बहुत जटिल और सीमित प्रक्रिया है।
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.