Author : Manoj Joshi

Published on Jun 07, 2021 Updated 0 Hours ago

भारत को एक तरफ़ अपने पड़ोसियों को वैक्सीन की सप्लाई करके क्षेत्रीय ताक़त के तौर पर उभरने के बदले भारत को वैक्सीन का निर्यात लगभग पूरी तरह बंद करके विदेशी मेडिकल सहायता पर निर्भर होना पड़ा है

बेमतलब के विवाद और गुस्से के बीच हो रहा है भू-राजनीतिक मंथन

भारत में कोविड-19 महामारी की तीव्रता ने उसे कई मामलों में पीछे धकेल दिया है. जहां भारत महामारी की दूसरी लहर की दिक़्क़तों का सामना कर रहा है, वहीं इस घरेलू परेशानी का असर भारत की विदेश नीति के तौर-तरीक़ों पर भी निश्चित तौर पर पड़ा है. एक तरफ़ अपने पड़ोसियों को वैक्सीन की सप्लाई करके क्षेत्रीय ताक़त के तौर पर उभरने के बदले भारत को वैक्सीन का निर्यात लगभग पूरी तरह बंद करके विदेशी मेडिकल सहायता पर निर्भर होना पड़ा है. वहीं दूसरी तरफ़ महामारी ने चीन के साथ भारत के संबंधों को सामान्य करने को भी मजबूर किया है. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के द्वारा प्रधानमंत्री मोदी को चिट्ठी लिखकर महामारी से मुक़ाबला करने में मदद की पेशकश से इसका पता चलता है. 2020 की शुरुआत में महामारी के हमले और पिछले साल अप्रैल-मई में चीन-भारत सीमा संकट के बाद दोनों नेताओं के बीच ये पहला सार्वजनिक संपर्क है. 

इसके साथ-साथ भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर और चीन के विदेश मंत्री वांग यी के बीच टेलीफ़ोन पर बातचीत हुई. भारतीय विदेश मंत्री ने चीन के विदेश मंत्री से चीन के ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर की अहमियत और भारत में कोविड की लहर से निपटने में सामानों के आवागमन को आसान बनाने के लिए कार्गो फ्लाइट को जारी रखने पर बातचीत की. बातचीत के दौरान उन्होंने ज़िक्र किया कि एलएसी से सैनिकों की वापसी की प्रक्रिया ‘अधूरी’ है और इसे ‘जल्द-से-जल्द पूरा’ किया जाना चाहिए. 

चीन की हालत फिर से सामान्य होना महत्वपूर्ण है क्योंकि अमेरिका और भारत में अभी तक ऐसा नहीं हुआ है. इसका असर भूराजनीतिक व्यवहार पर होगा विशेषकर क्वॉड देशों की संशोधित इंडो-पैसिफिक रणनीति पर.

इस बीच ऐसा लगता है कि चीन अपनी मंज़िल की तरफ़ आगे बढ़ रहा है. महमारी से अपेक्षाकृत बची हुई उसकी अर्थव्यवस्था अच्छा प्रदर्शन कर रही है और वहां का राष्ट्रीय मिजाज़ 28 अप्रैल के अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन के कोर मॉड्यूल के लॉन्च से स्पष्ट होता है. ये एक बड़ा संकेत है कि वहां कारोबार अपनी सामान्य स्थिति में लौट आया है. बीजिंग को उम्मीद है कि उसका अंतरिक्ष स्टेशन 2022 के अंत तक शुरू हो जाएगा. ये भी एक संयोग है कि भारत ने जो जगह छोड़ी, चीन उसे भरने की कोशिश कर रहा है. चीन ने बांग्लादेश और नेपाल जैसे देशों से वादा किया है कि वो वैक्सीन और दूसरे सामान की आपूर्ति करेगा. 27 अप्रैल को चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका के विदेश मंत्रियों के साथ एक वीडियो कॉन्फ्रेंस की मेज़बानी की जिसमें चीन ने उन देशों के बीच महामारी के ख़िलाफ़ सहयोग के लिए कई क़दम उठाने के प्रस्ताव दिए. इसके साथ-साथ चीन ने आर्थिक स्थिति बेहतर करने के लिए भी प्रस्ताव दिए ताकि बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव आगे बढ़ सके. इस वीडियो कॉन्फ्रेंस में भारत को भी न्योता दिया गया था लेकिन भारत इसमें शामिल नहीं हुआ. 

मंज़िल की तरफ़ बढ़ती चीनी अर्थव्यवस्था

चीन की हालत फिर से सामान्य होना महत्वपूर्ण है क्योंकि अमेरिका और भारत में अभी तक ऐसा नहीं हुआ है. इसका असर भूराजनीतिक व्यवहार पर होगा विशेषकर क्वॉड देशों की संशोधित इंडो-पैसिफिक रणनीति पर. चीन, ऑस्ट्रेलिया और जापान का प्रमुख व्यापारिक साझेदार है जबकि अमेरिका के लिए नंबर दो है. चीन के आंकड़ों के मुताबिक़ इस साल की पहली तिमाही में भारत और चीन के बीच द्विपक्षीय व्यापार बढ़कर 27.7 अमेरिकी अरब डॉलर तक पहुंच गया है जो पिछले साल की इसी अवधि की तुलना में 42.8 प्रतिशत की ज़बरदस्त बढ़ोतरी है. जापान के द्वारा रीजनल कंप्रीहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) की मंज़ूरी के बाद इतिहास में सबसे बड़े व्यापार गुट के रूप में इस समझौते के जनवरी 2022 में लागू होने की उम्मीद है. चीन इस व्यापार गुट के लिए पूर्वोत्तर एशिया में, जहां जापान और दक्षिण कोरिया भी हैं, सबसे बड़ा सहारा है. एशिया की चार सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से तीन यही देश हैं.

दूसरे मोर्चों पर भी चीन का अभियान जारी है. अप्रैल के आख़िर में चीन के रक्षा मंत्री जनरल वेई फेंगे ने दक्षिण एशिया का दौरा किया. इस दौरे में वो बांग्लादेश और श्रीलंका गए. इस दौरे की एक बड़ी ख़ासियत चीन के द्वारा श्रीलंका को कोविड-19 संकट से निपटने के लिए दी गई मदद है. हाल के हफ़्तों में श्रीलंका में कोविड-19 के मामले तेज़ी से बढ़े हैं. चीन ने श्रीलंका को दो अरब अमेरिकी डॉलर कर्ज़ और करेंसी स्वैप फैसिलिटी के तौर पर बढ़ाया है ताकि वो महामारी की वजह से बने मुश्किल आर्थिक हालात का सामना कर सके. श्रीलंका पर चीन का पहले से पाँच अरब अमेरिकी डॉलर का बकाया कर्ज़ है. अपने ढाका दौरे में जनरल वेई ने दोनों देशों की तरफ़ से “दक्षिण एशिया में बाहरी ताक़तों के द्वारा सैन्य गठबंधन स्थापित करने” के विरोध की अहमियत पर बात की.

चीन को लेकर अमेरिकी रणनीति की व्यापक समीक्षा अभी भी की जा रही है. इस तरह चीन को लेकर बाइडेन प्रशासन की नीति काफ़ी हद तक निरंतरता को अपनाने की होगी.

दक्षिण एशिया आने से पहले जनरल वेई ने वियतनाम का दौरा किया जहां उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव न्गुयेन फु त्रोंग और राष्ट्रपति न्गुयन शुआन फुक से मुलाक़ात की. अपने बयान में राष्ट्रपति फुक ने कहा कि वियतनाम चीन के “आंतरिक मामलों में दखल देने वाली किसी भी ताक़त” का विरोध करेगा. उनका इशारा ताइवान की ओर था. उन्होंने ये भी कहा कि वियतनाम कभी भी “चीन का विरोध करने में दूसरे देशों के रास्ते पर नहीं चलेगा.” लगता है कि इस दौरे का छिपा हुआ मक़सद क्वॉड की गतिविधियों का मुक़ाबला करने की ज़रूरत है, क्योंकि क्वॉड ने इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में चीन का रणनीतिक तौर पर मुक़ाबला करने के लिए आक्रामक ढंग से कमर कस ली है. 

जहां तक बात अमेरिका की है तो उसने चीन के ख़िलाफ़ कठोर रुख़ बरकरार रखा है, ये अलास्का की बातचीत से ये स्पष्ट है. लेकिन, अमेरिका का ज़ोर लंबे समय की प्रतिस्पर्धा पर है. 

अमेरिका का कठोर रुख़ और केंद्र में क्वॉड

हाल के एस्पन सुरक्षा मंच में बात करते हुए अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन ने ऐलान किया कि बाइडेन की नीति का लक्ष्य “चीन को थामना” नहीं था. वास्तव में उन्होंने ये भी जोड़ा कि “क्वॉड मूल रूप से चीन को लेकर नहीं है. क्वॉड उस सकारात्मक एजेंडे को लेकर है, जिसे ये चार सक्षम लोकतंत्र तय कर सकते हैं.” बाइडेन की टीम अंतरिम राष्ट्रीय सुरक्षा सामरिक मार्गदर्शन के तहत काम कर रही है जो कहता है, “मुख्य सामरिक सुझाव” है: बाहर मज़बूत होने के लिए “अमेरिका को घर में मज़बूत बनने की ज़रूरत है.” इस प्रक्रिया की अभी-अभी शुरुआत हुई है और अमेरिका इस बात में दिलचस्पी नहीं रखना चाहेगा कि वो अपने एक प्रमुख व्यापारिक साझेदार के साथ संबंधों को और अस्थिर करे. चीन को लेकर अमेरिकी रणनीति की व्यापक समीक्षा अभी भी की जा रही है. इस तरह चीन को लेकर बाइडेन प्रशासन की नीति काफ़ी हद तक निरंतरता को अपनाने की होगी. इसके साथ-साथ कुछ सहयोग और यहां तक कि समझौते की भी. 

12 मार्च को राष्ट्रपति बाइडेन के द्वारा क्वॉड वर्चुअल शिखर वार्ता के दौरान नई इंडो-पैसिफिक रणनीति की रूप-रेखा खींची गई. उन्होंने संकेत दिए कि अमेरिका इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में स्थिरता हासिल करने में लगा हुआ है जो हॉन्ग-कॉन्ग में चीन की कार्रवाई और ताइवान को चीन की धमकी की वजह से अशांत है. अपने बयान में बाइडेन ने अमेरिका में आर्थिक रिकवरी को शुरू करने की अहमियत का ज़िक्र किया. हालांकि उन्होंने “अंतर्राष्ट्रीय नियमों के द्वारा संचालित, व्यापक मूल्यों को बरकरार रखने के लिए वचनबद्ध, दादागीरी से मुक्त” इंडो-पैसिफिक के लिए प्रतिबद्धता भी दिखाई. अमेरिकी नीति का लक्ष्य भविष्य में चीन के बर्ताव को नियंत्रित करना है न कि उन घटनाओं को बिगाड़ना जो पहले ही हो चुकी हैं. अप्रैल के आख़िर में कांग्रेस में अपने पहले भाषण में बाइडेन ने संकल्प लिया कि इंडो-पैसिफिक में मज़बूत सैन्य मौजूदगी को बरकरार रखेंगे. उन्होंने कहा कि जब चीन तेज़ी से अमेरिका का “पीछा कर रहा है” उस वक़्त अमेरिका को “भविष्य के उत्पादों और तकनीक को विकसित करना होगा, इस मामले में वर्चस्व कायम करना होगा.”  

भारत के लिए आगे का रास्ता आसान नहीं

अमेरिकी अर्थव्यवस्था भी अच्छा प्रदर्शन कर रही है और बाइडेन ने अर्थव्यवस्था के कायाकल्प के लिए एक महत्वाकांक्षी योजना सामने रखी है. लेकिन इसमें समस्या ये है कि अमेरिका राजनीतिक तौर पर विभाजित समाज है और योजना को ज़मीन पर उतारना आसान नहीं होने वाला है. फाइनेंशियल टाइम्स में लिखते हुए देमेत्री सेवास्टॉपुलो ने इस बात का ज़िक्र किया कि 2022 में दो ऐसी प्रमुख घटनाएं हैं जो चीन और अमेरिका- दोनों के लिए महत्वपूर्ण हैं. बाइडेन को डोनाल्ड ट्रंप की मौजूदा चुनौती के ख़िलाफ़ मध्यावधि चुनाव ज़रूर जीतना चाहिए और शी जिनपिंग अगले साल होने वाले पार्टी के सम्मेलन में पांच साल का एक और कार्यकाल मांगते हुए चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को निश्चित तौर पर एकजुट बनाए रखें. इस बात की संभावना है कि दोनों को तब तक कठोर रुख़ बनाए रखना होगा लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि हम उस तरह का आमना-सामना देखेंगे जैसा ट्रंप प्रशासन के आख़िरी साल में पश्चिमी पैसिफिक में हुआ था. वास्तव में अमेरिकी अधिकारियों ने संकेत दिए हैं कि सोच-संभलकर कुछ बातचीत भी हो सकती है. 

हाल की क्वॉड शिखर वार्ता में प्रधानमंत्री मोदी का बयान नीरस और कम महत्वपूर्ण था जबकि भारत अमेरिका के नये रुख़ का सबसे बड़ा लाभार्थी हो सकता है. उस वक़्त से भारत कोविड की सुनामी में घिर चुका है जिसकी वजह से उसके पास पैंतरेबाज़ी करने की जगह कम हो गई है.

ये सभी बातें भारत के लिए काफ़ी कम सुकून देती हैं जो इस वक़्त पूर्वी लद्दाख क्षेत्र में चीन की वापसी को लेकर बातचीत में लगा हुआ है. हाल की क्वॉड शिखर वार्ता में प्रधानमंत्री मोदी का बयान नीरस और कम महत्वपूर्ण था जबकि भारत अमेरिका के नये रुख़ का सबसे बड़ा लाभार्थी हो सकता है. उस वक़्त से भारत कोविड की सुनामी में घिर चुका है जिसकी वजह से उसके पास पैंतरेबाज़ी करने की जगह कम हो गई है. महामारी की मौजूदा लहर की तीव्रता को देखते हुए सरकार को बाहरी कूटनीति पर ध्यान देने में थोड़ा समय लगेगा. मौजूदा लहर का कमज़ोर होना अभी बाक़ी है और वो कमज़ोर हो भी जाती है तो भी भारत को अपनी प्रशासनिक और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में ख़तरनाक दरार को भरने पर ध्यान देना होगा. साथ ही अगली लहर के बारे में भी पहले से सोच-विचार करना होगा. 

ये सभी चीज़ें उस वक़्त हो रही हैं जब पूर्वी लद्दाख में भारत चीन के साथ गुत्थमगुत्था है और चीन को वहां पहले की स्थिति बहाल करने के लिए मना रहा है. लेकिन चीन से मिले संदेश से लगता है कि भारत को उस चीज़ के लिए तैयार रहना चाहिए जिसे बदला नहीं जा सकता. इसका मतलब ये है कि भारत पर वहां पैंगोंग त्सो की तरह स्थिति को ख़राब करने का दबाव होगा. इसका अपना अलग जोखिम है. 

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