Published on Sep 05, 2022 Updated 25 Days ago

आज चीन दुनिया में दुर्लभ खनिजों का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता है और अफ्रीका में भी इसकी व्यापक मौजूदगी है. हालांकि अब चीन की हैसियत को चुनौती दी जा रही है.

#Geo Economics: अफ्रीका में दुर्लभ खनिजों पर कब्ज़े का चीनी अभियान!

आज जब दुनिया के तमाम देश शून्य कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्यों का वादा कर रहे हैं, तो दुर्लभ खनिजों की मांग में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा देखा जा रहा है. दुर्लभ खनिजों में वो 17 खनिज आते हैं, तो जिनके बिना स्मार्टफ़ोन, इलेक्ट्रिक गाड़ियों, सैन्य हथियार और उन्नत तकनीक वाले अनगिनत उपकरण बनाना असंभव है. अफ्रीका में ऐसे दुर्लभ तत्वों और खनिजों के आला दर्ज़े वाले बड़े भंडार मिलने की संभावना है. पिछले तीन दशक से चीन ने पूरे अफ्रीका महाद्वीप में खनन के बड़े बड़े ठेके हासिल किए हैं. कमज़ोर नियम क़ायदों और सस्ते श्रम ने चीन की राह और भी आसान कर दी है. इस वक़्त दुनिया भर की दुर्लभ खनिज तत्वों (REE) की मांग मोटे तौर पर चीन द्वारा ही पूरी की जाती है. वहीं चीन ने अफ्रीका में अपनी मौजूदगी काफ़ी बढ़ा दी है ताकि वो ऊर्जा और तकनीक के भारी बदलाव की अपनी महत्वाकांक्षा पूरी कर सके. हालांकि दक्षिणी और पूर्वी अफ्रीकी देशों में दुर्लभ तत्वों के प्रचुर भंडार उपलब्ध होने के बावजूद इस इलाक़े ने अब तक अपनी पूरी क्षमता का इस्तेमाल नहीं किया है.

चीन ने अफ्रीका में अपनी मौजूदगी काफ़ी बढ़ा दी है ताकि वो ऊर्जा और तकनीक के भारी बदलाव की अपनी महत्वाकांक्षा पूरी कर सके. हालांकि दक्षिणी और पूर्वी अफ्रीकी देशों में दुर्लभ तत्वों के प्रचुर भंडार उपलब्ध होने के बावजूद इस इलाक़े ने अब तक अपनी पूरी क्षमता का इस्तेमाल नहीं किया है.

Table 1: दुनिया में खनन उत्पादन और भंडार

  खनन उत्पादन भंडार
  2020 2021  
अमेरिका 39,000 43,000 1,800,000
ऑस्ट्रेलिया 21,000 22,000 4,000,000
ब्राज़ील 600 500 21,000,000
बर्मा 31,000 26,000 NA
बुरुंडी 300 100 NA
कनाडा 830,000
चीन 140,000 168,000 44,00,000
ग्रीनलैंड 1,500,000
भारत 2,900 2,900 6,900,000
मैडागास्कर 2,800 3,200 NA
रूस 2,700 2,700 21,000,000
दक्षिण अफ्रीका 790,000
तंज़ानिया 890,000
थाईलैंड 3,600 8,000 NA
वियतनाम 700 400 22,000,000
अन्य देश 100 300 260,000
विश्व का कुल उत्पादन (मोटा आकलन) 240,000 280,000 120,000,000

स्रोत: अमेरिकी भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण 

दुर्लभ खनिज के मामले में अफ्रीका की संभावनाएं

अफ्रीका में पूरी दुनिया का सबसे बड़ा खनिज भंडार है. दक्षिण अफअरीका, मैडागास्कर, मलावी, कीनिया, नामीबिया, मोज़ांबीक़, तंज़ानिया, ज़ैम्बिया और बुरुंडी में नियोडायमियम, प्रैसियोडायमियम और डिस्प्रोसियम के बड़े भंडार हैं.

Figure 1: अफ्रीका में REE की मौजूदा परियोजनाओं का नक़्शा

स्रोत: अफ्रीका में दुर्लभ खनिजों के भंडार

दक्षिण अफ्रीका के पश्चिमी केप सूबे में स्थित स्टीनकाम्पस्क्राल खदान में इन सभी दुर्लभ खनिज तत्वों (REE) का सबसे अच्छी गुणवत्ता वाला भंडार है. इस भंडार के साथ दक्षिण अफ्रीका का उम्मीद है कि वो विश्व बाज़ार में दुर्लभ तत्वों का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता बन जाएगा. वैसे तो अफ्रीका में तुलनात्मक रूप से ये दुर्लभ खनिज प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं. लेकिन अन्य सामान्य अयस्कों की तुलना में इनका खनन कर पाना बहुत मुश्किल होता है. इन तत्वों का सीधा तकनीकी उपयोग भी हो सकता है या फिर उन्हें उच्च तकनीक वाले आम वस्तुओं के उत्पादन और सुधार में इस्तेमाल किया जा सकता है. आज की तारीख़ में दुनिया के बहुत से देशों के लिए दुर्लभ खनिज तत्वों की नियमित आपूर्ति उनकी राष्ट्रीय सुरक्षा और आर्थिक स्थिरता के लिए बहुत अहम हो गई है.

Table 2: देशों का आर्थिक जोख़िम स्कोर

उपरोक्त सारणी से साफ़ है कि दुर्लभ खनिज तत्वों के शोषण के नाम पर अफ्रीका किस तरह के आर्थिक जोखिमों की आशंका का शिकार है. 2020 की तीसरी तिमाही में सभी अफ्रीकी देश इस आर्थिक जोखिम के शिकार थे. इनमें से भी मोज़ांबीक और बुरुंडी को सबसे ज़्यादा ख़तरा था.

अफ्रीका में चीन की बढ़ती मौजूदगी

वर्ष 2010 के आख़िरी महीनों में दुनिया में दुर्लभ खनिज तत्वों की तलाश अपने शिखर पर पहुंच गई थी. तब चीन, जापान और दक्षिण कोरिया ने इन तत्वों को हासिल करने में अपनी ज़बरदस्त दिलचस्पी दिखाई थी और इनमें से चीन ने तो दुर्लभ खनिजों के व्यापार को लेकर कई विवाद खड़े करने के साथ ही इनके और दूसरी धातुओं के व्यापार पर नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश की थी. जैसे ही खनन कंपनियों को आपूर्ति की क़िल्लत का एहसास होने लगा, तो पूरे विश्व और ख़ास तौर से अफ्रीका में इन तत्वों के खनन की नई परियोजनाएं शुरू की गईं. क्योंकि, दुर्लभ खनिजों के क्षेत्र की अनिश्चितताओं को देखते हुए अफ्रीका में खनन की ज़बरदस्त संभावनाएं दिख रही थीं. 1980 के दशक के मध्य में ही चीन की सरकार ने दुर्लभ खनिज तत्वों के उद्योग में काफ़ी दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी थी. इसके चलते विश्व बाज़ार में उसे अपना दबदबा क़ायम करने में काफ़ी मदद मिली. 2011 का साल आते आते चीन ने दुर्लभ तत्वों के प्रचुर संसाधनों वाले देशों से बहुत अच्छे रिश्ते विकसित कर लिए थे. इन अफ्रीकी देशों में मूलभूत ढांचे का विकास करने के साथ साथ चीन ने उन्हें खनिजों के बदले में क़र्ज़ भी मुहैया कराया.

पूरी दुनिया में कोबाल्ट की कुल आपूर्ति के 70 प्रतिशत हिस्से पर कॉन्गो लोकतांत्रिक गणराज्य (DRC) का नियंत्रण है, जो इसका ज़्यादातर हिस्सा चीन को निर्यात करता है. 

पूरी दुनिया में कोबाल्ट की कुल आपूर्ति के 70 प्रतिशत हिस्से पर कॉन्गो लोकतांत्रिक गणराज्य (DRC) का नियंत्रण है, जो इसका ज़्यादातर हिस्सा चीन को निर्यात करता है. पिछले एक दशक से भी ज़्यादा समय से कॉन्गो, चीन की खनन कंपनियों द्वारा चलाई जा रही खनिजों के बदले मूलभूत ढांचे के विकास की परियोजनाओं का हिस्सा बना हुआ है. ये सिलसिला हाल के दौर में उस वक़्त तक जारी रहा, जब कॉन्गो में चीन की कंपनियों पर बाल मज़दूरी कराने और मानव अधिकारों के उल्लंघन के आरोप लगने लगे. चीन के मालिकाना हक़ वाली कंपनियों पर खनन के अपारदर्शी ठेके लेने और कॉन्गो के संसाधनों के शोषण के आरोप लगे हैं. 2021 में कॉन्गो लोकतांत्रिक गणराज्य की सरकार ने चीन के साथ मूलभूत ढांचे के विकास के बदले खनन की 6 अरब डॉलर की परियोजनाओं की समीक्षा इसलिए की, क्योंकि आरोप ये लग रहे थे कि इन ठेकों से कॉन्गो को पर्याप्त फ़ायदा नहीं हो रहा था. चीन ने कॉन्गो को बार बार ये यक़ीन दिलाने की कोशिश की कि ये ठेके दोनों देशों के लिए फ़ायदे का सौदा हैं. लेकिन, कॉन्गो की सरकार चीन की कंपनियों और बाज़ार पर उनके नियंत्रण को लेकर चिंतित रही.

Figure 2: दुर्लभ खनिज तत्वों की बढ़ती क़ीमतें

आज चीन दुर्लभ खनिज तत्वों की आपूर्ति मामले में दुनिया का सबसे बड़ा खिलाड़ी बन चुका है. खनिजों के उत्पादन में चीन का नियंत्रण दो तरह से काम करता है. पहला, चीन की कंपनियां दुर्लभ खनिज तत्वों की प्रॉसेसिंग का काम अपने देश में करती हैं. इससे खनन उत्पादन पर उनका मालिकाना हक़ बना रहता है. दूसरा आज चूंकि अफ्रीका के बाज़ार बहुत छोटे हैं और उनकी वित्तीय ताक़त बेहद सीमित है, तो उन्हें अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संसाधनों से मदद की गुहार लगानी पड़ती है. 2000 के दशक से ही चीन, अफ्रीकी देशों का सबसे बड़ा क़र्ज़दाता देश रहा है और उसने अफ्रीकी देशों के साथ वित्त के मामले में द्विपक्षीय वार्ताएं करने और रणनीतियां बनाने में अहम भूमिका निभाई है. चूंकि चीन की विदेश नीति लेन-देन की सौदेबाज़ी पर चलती है, तो वो अपनी आर्थिक ताक़त का इस्तेमाल अफ्रीकी महाद्वीप में अपने दूरगामी लक्ष्य हासिल करने के लिए करता है.

राह में आने वाली बाधाएं

दुर्लभ खनिज तत्वों की वार्षिक वैश्विक मांग को आर्थिक सुरक्षा के लिहाज़ से बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है. 2019 में जहां दुर्लभ खनिजों की मांग 208,205 मीट्रिक थी, उसके 2025 में 304,678 टन तक पहुंचने का अंदाज़ा लगाया जा रहा है. हालांकि दुर्लभ खनिज तत्वों (REEs) के उत्पादन और वितरण को लेकर कई चिंताजनक मुद्दे भी उठ रहे हैं. सारे दुर्लभ खनिज भंडार अन्य अयस्कों के साथ मिले हुए होते हैं. ऐसे में उन्हें निकालना और बाक़ी खनिजों से अलग करके साफ़ करना बहुत मुश्किल और महंगा काम होता है. ये खनिज अपनी ख़ास खूबियों का लाभ भी उठाते हैं. दुर्लभ खनिजों के खनन के सौदे से कोई ठोस मुनाफ़ा होने में कम से कम एक दशक का वक़्त लग जाता है. इसके अलावा विश्व में दुर्लभ खनिजों की क़ीमतें तय करने में पारदर्शिता की कमी भी एक बड़ी बाधा है. चीन की घरेलू नीतियां अक्सर विश्व बाज़ार में इन खनिजों की क़ीमतों पर असर डालती हैं. 2011 और 2019 में दुर्लभ तत्वों को लेकर हुए व्यापारिक विवाद के दौरान इनकी क़ीमतों में बड़ी तेज़ी से उछाल आया था क्योंकि चीन ने घरेलू उद्योगों को इनकी आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए बाक़ी दुनिया में दुर्लभ खनिजों की आपूर्ति सीमित कर दी थी. वैश्विक बाज़ार के माहौल में चीन की एकाधिकारवादी कंपनियां क़ीमतें सीमित रखती हैं. इससे पश्चिमी देशों के उत्पादन और आपूर्ति श्रृंखला पर असर पड़ता है. इस तरीक़े में चीन की किसी एकाधिकारवादी कंपनी द्वारा अपनी क़ीमतें इस हद तक गिरा देना शामिल होता है, जब उसके मुक़ाबले खड़ी दूसरी कंपनी के लिए एक पैसे का मुनाफ़ा कमाना भी दूभर हो जाता है और कई बार तो वो बाज़ार में दाख़िल होने का साहस भी नहीं जुटा पाते हैं. वैसे तो इन कंपनियों के सीमित अवधि में मुनाफ़ा कमाने की संभावना बहुत कम होती है. मगर इससे चीन और उसकी सरकार नियंत्रित कंपनियों को दूरगामी लाभ के नज़रिए से बाज़ार पर अपना दबदबा बनाए रखने में मदद मिल जाती है.

आगे की राह

चीन और अफ्रीका के बीच व्यापार घाटा और असंतुलन अरबों डॉलर में है. कनेक्टिविटी मज़बूत करने, मूलभूत ढांचे के विकास और खनन के रास्ते ही दोनों पक्षों के बीच व्यापार नीति को दुरुस्त करने की राह सुगम बना सकती है. वैसे तो चीन, अफ्रीका में मूलभूत ढांचे के विकास की कई परियोजनाएं पूरी करने में काफ़ी असरदार साबित हुआ है. लेकिन, सौदों में पारदर्शिता की कमी, मानव अधिकारों का उल्लंघन और टिकाऊ तौर तरीक़े न अपनाने की उसकी हरकतों की अनदेखी नहीं की जा सकती है.

वैश्विक बाज़ार के माहौल में चीन की एकाधिकारवादी कंपनियां क़ीमतें सीमित रखती हैं. इससे पश्चिमी देशों के उत्पादन और आपूर्ति श्रृंखला पर असर पड़ता है.

फिलहाल तो दुर्लभ खनिज तत्वों के मामले में चीन अपना दबदबा क़ायम रखने में सफल रहा है. लेकिन अब उसके प्रभुत्व को चुनौती दी जा रही है. एक विविधता भरी आपूर्ति श्रृंखला के बग़ैर बाज़ार के समीकरण समय समय पर बदलते रहते हैं. चीन, विश्व बाज़ार को अपने क़ाबू में नहीं रख सकता है. अमेरिका अब पहले की तुलना में चीन पर अपनी निर्भरता कम करने को लेकर ज़्यादा मज़बूत इरादा रखता है और उसने अफ्रीकी महाद्वीप में दुर्लभ खनिज तत्वों से जुड़ी कई परियोजनाओं को लेकर सक्रियता से चर्चा शुरू की है. यूरोपीय संघ भी चीन पर अपनी निर्भरता कम करने के तौर-तरीक़े तलाश रहा है और अफ्रीकी देशों के साथ नई सामरिक साझेदारियां कर रहा है. इसके अलावा दुर्लभ खनिज तत्वों के बाज़ार के दो अन्य प्रमुख खिलाड़ी, जापान और ऑस्ट्रेलिया भी चीन के दबदबे पर क़ाबू पाने और अफ्रीकी महाद्वीप के खनिजों पर उसके नियंत्रण को सीमित करने का प्रयास कर रहे हैं.

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कीर्थना राजेश नांबियार ORF दिल्ली में एक रिसर्च इंटर्न हैं.

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