Author : Kabir Taneja

Expert Speak Raisina Debates
Published on Mar 12, 2025 Updated 0 Hours ago

काहिरा में आयोजित महत्वपूर्ण बैठक में अरब देशों के नेताओं ने राष्ट्रपति ट्रंप के गाज़ा पट्टी के पुनर्निर्माण से जुड़े प्रस्ताव के सामने 53 अरब अमेरिकी डॉलर का अपना वैकल्पिक प्रस्ताव पेश किया है. अरब नेताओं के इस प्रस्ताव में गाज़ा पट्टी से फिलिस्तीनियों के जबरन विस्थापन को तो दरकिनार कर दिया गया है, लेकिन भविष्य में गाज़ा पट्टी में हमास की भूमिका लेकर स्पष्ट तौर पर कुछ भी नहीं कहा गया है. 

गाज़ा पर नई जंग – विचारधारा की या रणनीति की?

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अरब देशों के नेताओं ने हाल ही में मिस्र के काहिरा में एक आपातकालीन बैठक आयोजित की थी, जिसमें गाज़ा पट्टी में पुनर्निर्माण कार्यों को लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ओर से पेश किए गए प्रस्ताव पर गंभीरता से विचार-विमर्श किया गया. ज़ाहिर है कि राष्ट्रपति ट्रंप ने प्रस्ताव दिया है कि मिस्र और जॉर्डन गाज़ा पट्टी में रहने वाले फिलिस्तीनियों को अपने देशों में बसा लें. इसके साथ ही उन्होंने यह भी प्रस्ताव दिया है कि गाज़ा पट्टी को मिडिल ईस्ट रिविएरा यानी एक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जाए. अरब लीडर्स ने ट्रंप के इस प्रस्ताव पर विचार किया, लेकिन इस पर उनमें सहमित नहीं बन पाई और आख़िर में उन्होंने गाज़ा के लिए मिस्र की पुनर्निमाण योजना पर अपनी रज़ामंदी जताई.

 देखा जाए तो गाज़ा पट्टी को लेकर अरब देशों के नेताओं ने जो प्रस्ताव मंज़ूर किया है, उसका मुख्य मकसद कहीं न कहीं मिस्र और जॉर्डन में फिलिस्तीनियों के बसाने की जो अमेरिकी योजना थी, उसका विकल्प पेश करना था, साथ ही अमेरिका के सामने अपनी एकजुटता को प्रदर्शित करना था. 

काहिरा में अरब देशों के नेताओं की मौज़ूदगी में जो भी फैसला हुआ है, उम्मीद भी ऐसे ही किसी निर्णय की थी. कहीं न कहीं ट्रंप भी इस समस्या का कुछ ऐसा ही हल चाहते थे. कहने का मतलब है कि यह अरब देशों के नेतृत्व में फिलिस्तीन मुद्दे और हमास व इजराइल के बीच संघर्ष का एक फौरी समाधान है. गाज़ा पट्टी में हमास की भूमिका बेहद अहम है और वहां के राजनीतिक भविष्य को निर्धारित करने में और पुनर्निर्माण की कोशिशों के केंद्र में हमास ज़रूर होना चाहिए. काहिरा में हुई अरब नेताओं की बैठक में गाज़ा के पुनर्विकास और उसे एक नया स्वरूप प्रदान करने के लिए 53 बिलियन अमेरिकी डॉलर की योजना को मंज़ूरी दी गई. सबसे अहम बात यह है कि इस बैठक के दौरान अरब नेताओं ने गाज़ा पट्टी से जुड़े विवादास्पद राजनीतिक मुद्दों को दरकिनार कर दिया. इनमें हमास को गाज़ा पट्टी का प्रमुख राजनीतिक और सैन्य किरदार मानने एवं इजराइल की सुरक्षा चिंताओं से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दे शामिल थे. देखा जाए तो गाज़ा पट्टी को लेकर अरब देशों के नेताओं ने जो प्रस्ताव मंज़ूर किया है, उसका मुख्य मकसद कहीं न कहीं मिस्र और जॉर्डन में फिलिस्तीनियों के बसाने की जो अमेरिकी योजना थी, उसका विकल्प पेश करना था, साथ ही अमेरिका के सामने अपनी एकजुटता को प्रदर्शित करना था. इसके अलावा अरब नेताओं के इस प्रस्ताव का उद्देश्य यह भी था कि वे फिलिस्तीनियों के विस्थापन के मुद्दे पर चुप नहीं बैठे हैं और उनके पास अमेरिका को जवाब देने के लिए अपनी कार्ययोजना है. हालांकि, अमेरिका और इजरायल दोनों ने ही गाज़ा पट्टी को लेकर अरब देशों के प्रस्ताव को खारिज कर दिया है.

 

गाज़ा पुनर्निर्माण पर बड़ा फैसला

बताया यह भी गया है कि गाज़ा पट्टी के पुनर्निमाण के लिए मिस्र की जिस योजना को मंज़ूर किया गया है, उसमें वहां एक गवर्नेंस असिस्टेंस मिशन को विकसित करना भी शामिल है. यह मिशन वहां हमास के नेतृत्व वाली सरकार की जगह लेगा. इसके अलावा इसी मिशन के ज़रिए गाज़ा पट्टी में चलाए जा रहे मानवीय सहायता कार्यक्रमों का प्रबंधन किया जाएगा. ये मिशन यह भी निर्धारित करेगा कि भविष्य में गाज़ा पट्टी पर किस प्रकार शासन किया जाएगा. जैसी की उम्मीद थी, हमास ने इस विचार को अस्वीकार कर दिया. हालांकि, हमास ने गाज़ा पट्टी में पुनर्निर्माण के अरब देशों के नेतृत्व वाले प्रस्ताव पर ख़ुशी जताई, क्योंकि इसमें गाज़ा पर उसके राजनीतिक और सैन्य नियंत्रण को कोई चुनौती नहीं दी गई थी. एक और बात यह है कि इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है कि क्या काहिरा में गाज़ा पट्टी के पुनर्निर्माण से जुड़े प्रस्ताव को पेश करने से पहले हमास के मसले को बेहतर तरीक़े से संबोधित करने के लिए उसमें कोई बदलाव किया गया था या नहीं.

 अरब देशों द्वारा मंज़ूर किए गए मिस्र के प्रस्ताव में हमास को लेकर कुछ भी कहने से बचने की एक वजह यह भी हो सकती है कि अगर इस फिलिस्तीनी समूह को बलपूर्वक समाप्त किया जाता है, तो संभावना है कि हमास अपने कुछ अरब सहयोगियों के विरुद्ध खड़ा हो जाए.

जहां तक अरब देशों की बात है, तो उसके लिए अपने क्षेत्रीय उद्देश्यों और फिलिस्तीन संकट के बीच संतुलन बनाना बेहद ज़रूरी है. अगर अरब देशों के क्षेत्रीय उद्देश्यों की बात की जाए तो उसमें इजराइल के साथ बेहतर संबंध स्थापित करना शामिल है, क्योंकि ऐसा होने पर ही उनके अंतर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय आर्थिक हित पूरे हो सकते हैं. अक्टूबर 2023 में जब हमास ने इजराइल के ख़िलाफ़ हमला बोला था, तब रियाद और आबू धाबी समेत कई अरब देशों की राजधानियों को ज़बरदस्त झटका लगा था, क्योंकि उनके तमाम एजेंडे धराशायी हो गए थे. पिछले दो वर्षों से फिलिस्तीन के मुद्दे पर निष्पक्षता या तटस्थता बनाए रखने वाले अरब देश देखा जाए तो चाहे-अनचाहे इसमें घसीट लिए गए हैं. अरब देशों ने फिलिस्तीन के मुद्दे पर इसलिए आंखें बंद कर ली थीं, क्योंकि क्षेत्र में ईरान और इजराइल इस मसले पर खुलकर एक दूसरे के सामने थे और अरब देश इस झमेले में पड़ना नहीं चाहते थे. उदाहरण के तौर पर इजराइल ने यह स्पष्ट कर दिया है कि इंडिया-मिडिल ईस्ट- यूरोप इकोनॉमिक कॉरिडोर (IMEC) जैसी परियोजनाओं को अच्छी तरह से मुकम्मल करने के लिए रियाद की भागीदारी ज़रूरी है. देखा जाए तो इजराइल और अमेरिका दोनों ही देशों ने लगातार इस बात की वक़ालत की है कि सऊदी अरब एवं इजराइल की रिश्तों की बर्फ़ पिघले और संबंध सामान्य हों. लेकिन अमेरिका और इजराइल का यह दांव शायद उल्टा पड़ गया है, क्योंकि रियाद को इजराइल के साथ संबंध सुधारने से पहले ही संप्रभु फिलिस्तीन राष्ट्र की मांग करनी पड़ी और क्षेत्र में अपनी स्थिति को सशक्त करने के लिए मज़बूर होना पड़ा है.

 

अमेरिका बनाम अरब

अरब देशों द्वारा मंज़ूर किए गए मिस्र के प्रस्ताव में हमास को लेकर कुछ भी कहने से बचने की एक वजह यह भी हो सकती है कि अगर इस फिलिस्तीनी समूह को बलपूर्वक समाप्त किया जाता है, तो संभावना है कि हमास अपने कुछ अरब सहयोगियों के विरुद्ध खड़ा हो जाए. गाज़ा पट्टी के पुनर्निर्माण के जुड़े प्रस्ताव में हमास से दूरी बनाने के पीछे यह भी डर हो सकता है कि अगर उसके ख़िलाफ़ कार्रवाई की बात की गई, तो अरब देशों की सड़कों पर हमास के समर्थन में प्रदर्शन शुरू हो सकते हैं और नागरिकों के बीच हमास को लेकर हमदर्दी बढ़ सकती है. इसके अलावा, ऐसा करने से अरब देशों में ईरान द्वारा शुरू किए गए मजहबी एजेंडे और धर्म की ताक़त को पहचानने की मुहिम को बल मिल सकता. ज़ाहिर है कि ऐसा होने पर पॉलिटिकल इस्लाम यानी देश में राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों को मजहबी तौर-तरीक़ों से संचालित करने से जुड़ी कट्टर इस्लामिक विचारधाराओं को बढ़ावा मिल सकता है. सऊदी अरब और यूनाइटेड अरब अमीरात (UAE) को अपने देशों के भीतर ऐसी इस्लामिक विचारधाराओं और धार्मिक एजेडों को पीछे धकेलने में वर्षों का समय लगा है. इसका एक और बड़ा ख़तरा यह है कि ऐसा होने पर इन कट्टर इस्लामिक विचारधाराएं फिर से उठ खड़ी हो सकती हैं और इनकी जड़ें भी गहरी हो सकती हैं. अगर ऐसा होता है तो अरब देशों में इस्लाम धर्म के अति-रूढ़िवादी विचारों वाले तबके फिर से उभर सकते हैं. ज़ाहिर है इस इस्लामिक विचारधारा के लोग अरब दुनिया के देशों को उदार बनाने और उन्हें वैश्विक स्तर पर स्वीकार्य बनाने या कहें कि दुनिया के साथ क़दमताल करने के लिए की जा रहीं बदलाव की कोशिशों के ख़िलाफ़ हैं. गौरतलब है कि सऊदी अरब जैसे अरब देशों के इन प्रयासों की सफलता कहीं न कहीं खुद को एक नए प्रगतिशील सोच वाले कलेवर में पेश करने पर निर्भर है, साथ ही पिछले दशकों में वैश्विक स्तर पर, ख़ास तौर पर पश्चिमी देशों की उनके बारे में बदली हुई राय पर निर्भर है. अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार हिशाम अलघनम ने सऊदी अरब पर किए गए शोध में पाया है कि वहां की राजशाही का लक्ष्य “मजहबी विचारधारा को किनारे रखकर अंतर्राष्ट्रीय रिश्तों को मज़बूत करना है. इसी प्रगतिशील सोच की वजह से पूरी दुनिया में सऊदी अरब के शाही परिवार को बहुत सम्मान प्राप्त है और सभी देश उसे तवज्जो देते हैं. हालांकि, सऊदी अरब का शाही परिवार अब इस बदलाव से होने वाले नुक़सान की भरपाई करने की क़वायद में जुटा हुआ है.” ज़ाहिर है कि मिडिल ईस्ट में जो भी महत्वपूर्ण परियोजनाएं शुरू की गई हैं, अगर उनसे हाथ वापस खींचे जाते हैं, तो वैश्विक स्तर पर इससे बहुत नुक़सान उठाना पड़ सकता है.

अगर अमेरिका और इजराइल मिलकर गाज़ा पट्टी का मुस्तक़बिल तय करते हैं, तो अरब देशों के नेताओं को शायद यह कतई मंज़ूर नहीं होगा.

इस बीच राष्ट्रपति ट्रंप ने भी अपनी कोशिशों पर विराम नहीं लगाया है और वे भी गाज़ा पट्टी में टकराव को रोकने के लिए तमाम हथकंडे अपना रहे हैं. हालांकि, ट्रंप कोई पुख्ता नीति के आधार पर इस समस्या का हल नहीं निकालना चाहते हैं, बल्कि अपने दम पर इसका समाधान निकालने में जुटे हैं. ज़ाहिर है कि उन्होंने चुनावों में बार-बार कहा था कि राष्ट्रपति बनने के बाद उनका लक्ष्य दुनिया में चल रहे युद्धों को समाप्त करना है. ट्रंप का मानना था कि दुनिया में जो भी युद्ध चल रहे हैं, उनमें कहीं न कहीं अमेरिकी सरकारों की संलिप्तता रही है और हालात को बिगाड़ने में अमेरिकी सत्ता में बैठे डेमोक्रेट्स और रिपब्लिकन दोनों ही शामिल रहे हैं. यही वजह है कि राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा हमास के साथ सीधे वार्ता की गई है और उसे चेतावनी भी दी गई है. ऐसा करके ट्रंप ने इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू को साफ संदेश दे दिया है कि इजराइल-अमेरिका के बीच प्रगाढ़ रिश्तों के बावज़ूद, वे क्षेत्र में शांति स्थापना के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं और इसके लिए इजराइल को भी किनारे छोड़ सकते हैं. बताया गया है कि ट्रंप प्रशासन द्वारा हमास से सीधे बातचीत किए जाने के बारे में इजराइल को दूसरे स्रोतों से पता चला है. हमास से वार्ता के बारे में व्हाइट हाउस ने आधिकारिक तौर पर इजराइल को कोई जानकारी नहीं दी है.

 

हमास के भविष्य पर अभी भी सवाल बरकरार

कुल मिलाकर, अगर अमेरिका और इजराइल मिलकर गाज़ा पट्टी का मुस्तक़बिल तय करते हैं, तो अरब देशों के नेताओं को शायद यह कतई मंज़ूर नहीं होगा. एक और सच्चाई यह है कि अरब देश यह भी चाहेंगे कि गाज़ा में हमास के अस्तित्व पर कोई असर न पड़े. हालांकि, इसके लिए क्या रणनीति अपनाई जा सकती है और किस प्रकार के विकल्प तैयार किए जा सकते हैं, जिससे क्षेत्रीय और वैश्विक हितों को साधा जा सके, यह एक ऐसा सवाल है, जिसका जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं है. ज़ाहिर है कि गाज़ा संकट कोई नया नहीं है. ऐसे में अगर यह उम्मीद की जाती है कि बगैर किसी ठोस रणनीति और दूरगामी नज़रिए के केवल राष्ट्रपति ट्रंप की बातों से इस संकट का मिनटों में समाधान निकल आएगा, तो यह कतई उचित नहीं है. मान लीजिए अगर ऐसा होता भी है, तो इसके नतीज़े बहुत सुखद नहीं होंगे और यह गाज़ा संकट को एक ऐसे समाधान की तरफ ले जाएगा, जहां मज़बूती की जगह मज़बूरी अधिक दिखाई देगी और ऐसा कोई भी विकल्प लंबी अवधि में क्षेत्र के लिए अच्छा नहीं होगा.


कबीर तनेजा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में डिप्टी डायरेक्टर और फेलो हैं.

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