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ग़ाज़ा का पुनर्निर्माण इस क्षेत्र में हमास की राजनीतिक पकड़ का समाधान करने पर निर्भर है. बदलती भू-राजनीति के बीच ये एक ऐसी चुनौती है जिसका समाधान करने में अरब ताकतें और वैश्विक नेता जूझ रहे हैं.
Image Source: Getty
अमेरिका में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कामकाज संभालने और ग़ाज़ा पट्टी को अपने नियंत्रण में लेने की धमकी देकर दबाव बनाने के बीच मिडिल ईस्ट में खाड़ी की ताकतें ग़ाज़ा के पुनर्निर्माण और देख-रेख के मक़सद से एक मज़बूत योजना बनाने के लिए भाग-दौड़ में जुटी हैं. ट्रंप की योजना के तहत "ग़ाज़ा में रहने वाले लोगों को सुरक्षित ठिकानों और पड़ोसी देश जैसे कि मिस्र और जॉर्डन में भेजना और बसाना" शामिल हैं. इसके बदले आगे आने वाले समय में इस विवादित क्षेत्र का कायाकल्प करके इसे "मिडिल ईस्ट का रिवेरा (छुट्टी बिताने का लोकप्रिय स्थान)" बनाया जाएगा.
ट्रंप के ठेठ रवैये- मिडिल ईस्ट में बंटवारे के केंद्र बने ग़ाज़ा को गंभीर भू-राजनीतिक संकट के बदले रियल एस्टेट की समस्या के रूप में ज़्यादा देखना- ने और कुछ नहीं तो अरब की ताकतों को आनन-फानन में बैठकों के लिए मजबूर कर दिया है. सऊदी अरब, जॉर्डन, क़तर, मिस्र, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन और कुवैत के नेता पिछले दिनों रियाद में फिलिस्तीनी संकट के समाधान के लिए अरब के नेतृत्व वाले ब्लूप्रिंट को फिर से ताज़ा करने की कोशिश के तहत जमा हुए. ये बैठक उस समय हुई जब ग़ाज़ा में हमास के ख़िलाफ़ इज़रायल का युद्ध जारी था. ये बहस का विषय है कि ग़ाज़ा के लोगों के विस्थापन और उन्हें दूसरी जगह बसाने के अपने नज़रिए को ट्रंप कितनी गंभीरता से देखते हैं. लेकिन व्हाइट हाउस से आने वाले अपेक्षाकृत रूप से बेपरवाह रवैये ने निश्चित रूप से अरब देशों को इतना व्याकुल कर दिया है कि वो 4 मार्च 2025 को मिस्र के काहिरा में होने वाले आपातकालीन अरब शिखर सम्मेलन से पहले ग़ाज़ा के पुनर्निर्माण की योजना पर और अधिक चर्चा करने के लिए एक जगह जमा हो रहे हैं.
ये बैठक उस समय हुई जब ग़ाज़ा में हमास के ख़िलाफ़ इज़रायल का युद्ध जारी था. ये बहस का विषय है कि ग़ाज़ा के लोगों के विस्थापन और उन्हें दूसरी जगह बसाने के अपने नज़रिए को ट्रंप कितनी गंभीरता से देखते हैं.
हालांकि ग़ाज़ा के संदर्भ में मुख्य मुद्दा केवल पुनर्निर्माण नहीं है बल्कि ग़ाज़ा पट्टी और फिलिस्तीनी मुद्दे का राजनीतिक भविष्य भी है. हमास से परे फिलिस्तीन के लोगों के लिए राजनीतिक नेतृत्व के बारे में सवाल महत्वपूर्ण बने हुए हैं. वर्तमान समय में इस मुख्य पहेली को सुलझाने के लिए न तो कोई स्पष्टता या दिशा है, न ही कोई कदम उठाया गया है. वैसे तो हमास को पिछले डेढ़ साल के दौरान उसके शीर्ष नेतृत्व की सुनियोजित हत्या समेत कई झटके लगे हैं लेकिन लगता है कि इस संगठन को तबाह करने के इज़रायल के घोषित लक्ष्य के बावजूद उसने अपना असर बरकरार रखा है. ये इस तथ्य के साथ जुड़ जाता है कि हमास की जगह लेने की किसी भी संभावना के बारे में क्षेत्रीय स्तर पर गंभीरता से चर्चा, कम से कम सार्वजनिक मंच पर, नहीं की गई है.
ग़ाज़ा में राजनीतिक और सैन्य- दोनों मामलों में हमास की जगह किसी दूसरे संगठन को लाना कोई आसान कोशिश नहीं होगी भले ही ग़ाज़ा की अधिकांश दुर्दशा के लिए ये उग्र संगठन ख़ुद ज़िम्मेदार है. वैसे तो अक्टूबर 2023 से इज़रायल के द्वारा बहुत ज़्यादा ताकत का इस्तेमाल करने की वजह से ग़ाज़ा एक ऐसे इलाक़े में तब्दील हो गया है जिसकी पहचान करना बहुत मुश्किल है, लेकिन इसके बावजूद हमास अभी भी सक्रिय है. हमास ने पिछले दिनों युद्धविराम समझौते के हिस्से के तहत कैदियों की अदला-बदली के अवसर पर जनसंपर्क में जीत हासिल की. साथ ही सार्वजनिक चर्चा के कई हिस्सों में ‘आतंक’ की जगह ‘प्रतिरोध’ के विचार का व्यापक अंतर देखा गया. हमास से मिलते-जुलते एक और संगठन फिलिस्तीनी इस्लामिक जिहाद (PIJ) ने पिछले दिनों मुश्किलों में बढ़ोतरी की क्योंकि PIJ के प्रमुख ज़ियाद अल-नखाला ने ईरान के दौरे में प्रतिरोध के रास्ते की तरफ अपनी प्रतिबद्धता को फिर से दोहराया.
हमास से मिलते-जुलते एक और संगठन फिलिस्तीनी इस्लामिक जिहाद (PIJ) ने पिछले दिनों मुश्किलों में बढ़ोतरी की क्योंकि PIJ के प्रमुख ज़ियाद अल-नखाला ने ईरान के दौरे में प्रतिरोध के रास्ते की तरफ अपनी प्रतिबद्धता को फिर से दोहराया.
इसमें कोई शक नहीं है कि अरब ताकतों के लिए आगे का रास्ता कठिन है. ग़ाज़ा के पुनर्निर्माण के पीछे की वित्तीय व्यावहारिकता यानी राजनीतिक और आर्थिक- दोनों प्रायोजनों को शामिल करना पैसे के मामले में समृद्ध इन देशों के लिए बहुत मुश्किल काम नहीं है. लेकिन भविष्य में सबसे पहले सेना वाले रवैये के ख़िलाफ फिलिस्तीन की राजनीति को नए सांचे में ढालने और इसके साथ-साथ इज़रायल के सुरक्षा हितों से परिचित रहने में कई परतें जुड़ी हुई हैं. आगे का रास्ता आदर्श रूप से इसमें शामिल सभी पक्षों से समझौतों और स्पष्टता- दोनों की मांग करेगा और ये ऐसा काम है जिसके बारे में कहना तो आसान है लेकिन करना मुश्किल.
शुरुआत में सऊदी अरब और UAE- दोनों को संस्थागत तरीके से ईरान तक अपनी पहुंच का लाभ उठाने की ज़रूरत हो सकती है. इसका मक़सद हमास, PIJ और हिज़्बुल्लाह के लिए ईरान के समर्थन को कम करना है. इसके बाद इज़रायल को जोड़ना होगा और सबसे बुनियादी स्तर पर उसकी संप्रभुता केंद्रित सुरक्षा आवश्यकताओं का वास्तविक ढंग से समाधान करना होगा. ये दो देशों के समाधान में बदलता है कि नहीं ये मूलभूत सवाल बना हुआ है. कागज़ों में किसी और परिणाम का अस्तित्व नहीं है और पूरी आशंका है कि यथास्थिति में कोई भी दूसरा व्यवधान समाधान नहीं होगा बल्कि ज़्यादा से ज़्यादा मरहम-पट्टी होगी. बुनियादी सवाल अब ये बना हुआ है कि क्या किसी समाधान की तलाश करनी चाहिए या केवल कुछ देशों के लिए लाभदायक यथास्थिति का मज़बूत होना ही पसंदीदा विकल्प है.
क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धा, जिसने अल्पकालीन अनुकूल क्षमता और अक्सर अरब देशों समेत क्षेत्रीय किरदारों के ख़िलाफ़- दोनों तरह से काम करके फिलिस्तीनी अस्थिरता से लाभ उठाया है, को महाशक्तियों के मुकाबले का भी सामना करना होगा. ये कहावत वाले शांति चक्र में एक अतिरिक्त बाधा है. चीन पहले ही अरब के नेतृत्व में फिलिस्तीनी पक्ष में दो देशों के समाधान को अपना समर्थन दे चुका है. हालांकि रूस असहाय बना हुआ है. सीरिया में बशर अल-असद की सत्ता के रातों-रात पतन होने से न केवल रूस के राजनीतिक असर में कमी आई है बल्कि भौगोलिक रूप से भी वो इस क्षेत्र में महत्वहीन हो गया है. रूस को भूमध्य सागर के तट पर अपने खोए हुए सैन्य अड्डों पर फिर से नियंत्रण पाने के लिए सीरिया की अहमद अल-शारा की नई सत्ता के साथ मध्यस्थता करने के लिए मजबूर होना पड़ा है. इसके साथ-साथ डोनाल्ड ट्रंप-व्लादिमीर पुतिन के बीच सुलह न सिर्फ यूरोप बल्कि ईरान को भी ख़तरे में डाल रही है. इस तरह की अटकलबाज़ी ईरान के अच्छी तरह से परिभाषित इस डर से तेज़ होती है कि उसका पुराना सहयोगी रूस यूरोप महादेश में दीर्घकालीन रणनीतिक बढ़त के बदले में अमेरिका को ईरान के मामले में फायदा उठाने की रियायत दे सकता है, विशेष रूप से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में.
ऊपर बताए गए सभी हालात में फिलिस्तीनी राजनीति का भविष्य शांति और संघर्ष के बीच है. ग़ाज़ा में हमास की पकड़ को ध्वस्त करने की कोई भी कोशिश एक लंबी प्रक्रिया होगी. सैन्य तरीके से उसे पूरी तरह ख़त्म करना संभव नहीं लगता. राजनीतिक रूप से हमास को एक व्यापक फिलिस्तीनी प्रक्रिया में शामिल करना शायद और भी गंभीर चुनौती है क्योंकि अपना दबदबा सुनिश्चित करने के लिए फिलिस्तीनी प्रणाली के भीतर भी ल़ड़ाई करने की इस संगठन की प्रवृत्ति बनी हुई है.
अंत में, अरब के देश ख़ुद को परेशानी की स्थिति में पा रहे हैं. आदर्श रूप से तो वो चाहते हैं कि हमास ख़त्म हो लेकिन इसके साथ-साथ वो ये उम्मीद भी करते हैं कि ग़ाज़ा से फिलिस्तीनी आबादी के किसी भी दीर्घकालिक या स्थायी विस्थापन के लिए उन्हें ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जाए. ये सिर्फ इसलिए नहीं है कि अरब देशों के नज़रिए से क्या करना सही हो सकता है बल्कि इसलिए भी है कि विस्थापन को लेकर उनकी मिलीभगत की कोई भी सोच उन देशों के नेताओं के शासन के लिए सीधी चुनौती बन सकती है, विशेष रूप से अगर ये मुद्दा एक सीमा से आगे तूल पकड़ ले और लोग अपनी भावनाओं का प्रदर्शन सड़कों पर विरोध प्रदर्शन के ज़रिए करने लगे.
ये सिर्फ इसलिए नहीं है कि अरब देशों के नज़रिए से क्या करना सही हो सकता है बल्कि इसलिए भी है कि विस्थापन को लेकर उनकी मिलीभगत की कोई भी सोच उन देशों के नेताओं के शासन के लिए सीधी चुनौती बन सकती है
अगले चार वर्षों के बारे में कल्पना करते हुए ट्रंप अब यूरोप के देशों को रूस के संबंध में अपनी सुरक्षा के लिए अधिक गहराई से सोचने का आग्रह कर रहे हैं. वहीं दूसरी तरफ अरब देशों को इज़रायल और फिलिस्तीन के बारे में क्षेत्रीय गतिशीलता के लिए अधिक ज़िम्मेदारी उठाने को कह रहे हैं. ये व्यवधान विशेष रूप से लंबे समय में पूरी तरह से शायद नुकसानदेह नहीं होगा.
कबीर तनेजा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में डिप्टी डायरेक्टर और फेलो हैं.
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Kabir Taneja is a Deputy Director and Fellow, Middle East, with the Strategic Studies programme. His research focuses on India’s relations with the Middle East ...
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