विदेशों में भारत के कार्यक्रमों के विकास पर असर का आकलन करना ज़रूरी है. क्योंकि, इससे भारत की ज़मीनी स्तर पर काम करने और अपने निवेश का अधिकतम लाभ उठाने की क्षमता बढ़ेगी.
विकास में भारत की साझेदारी के कार्यक्रम उतने ही पुराने हैं, जितना उसके आज़ाद होने के बाद का इतिहास है. आज़ादी हासिल करने के दो साल बाद 1949 में भारत ने एशिया और अफ्रीका के विकासशील देशों के छात्रों के लिए 70 वज़ीफ़ों का ऐलान किया था. इसके बाद 1964 में भारत ने विदेश में विकास के अपने बड़े कार्यक्रम, इंडियन टेक्निकल एंड इकोनॉमिक को-ऑपरेशन (ITEC) को शुरू किया था. अंतरराष्ट्रीय सहायता की पारंपरिक परिचर्चाओं को चुनौती देने का भी भारत का लंबा इतिहास रहा है. ग़रीबी और विकास न होने के उच्च स्तर वाले एक नए आज़ाद देश के तौर पर भारत ने उन अन्य एशियाई और अफ्रीकी देशों की चुनौतियों को भी बख़ूबी समझा जो उपनिवेशवाद के शिकंजे से स्वतंत्र हो रहे थे, और साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ व तीसरे विश्व के प्रति एकजुटता के भाव के साथ भारत ने विकास के अपने अनुभव को इन देशों के साथ साझा किया. शुरुआती दौर में विकास में साझेदारियों को लेकर भारत के मूल सिद्धांत बहुत महत्वपूर्ण थे, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय सहायता का पूरा ढांचा पश्चिमी देशों भरोसे पर चल रहा था, और पश्चिम से मिलने वाली मदद अक्सर विकासशील देशों को उन पर और अधिक निर्भर बना देती थी. अपनी अहमियत के बावजूद, विकास में भारत की साझेदारियों को विश्व स्तर पर बहुत तवज्जो नहीं दी गई, क्योंकि 1990 के दशक की शुरुआत तक भारत ख़ुद बड़ी मदद पाने वाला देश था.
2000 के दशक में अपने मज़बूत आर्थिक विकास और विश्व नेता बनने की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं के कारण, भारत ने विकास में साझेदारी के अपने कार्यक्रमों का बहुत तेज़ी से विस्तार किया.
विकास में भारत के सहयोग के कार्यक्रम की दो ख़ूबियां बिल्कुल अनूठी हैं. पहला, आपसी लाभ का सिद्धांत और मांग पर पर आधारित विकास. विकास में मदद का भारत का म़ॉडल OECD देशों की तरह दान देने और लेने वाले मॉडल पर आधारित नहीं है. OECD-DAC देशों के उलट, भारत स्वयं को ‘विकास में भागीदार’ कहता है और उसका लक्ष्य दोनों पक्षों के लिए लाभकारी होता है. भारत, दानदाताओं द्वारा बताई गई कार्यक्रमों के उलट, मदद पाने वाले देशों की मांग पर आधारित सहायता कार्यक्रम चलाता है, क्योंकि वो विकास में अपने सहयोग का तालमेल साझीदार देश की प्राथमिकताओं के साथ कराना चाहता है. दूसरा, भारत कम लागत में विकासशील देशों को विकास संबंधी समाधान मुहैया कराता है. पश्चिमी देश, विकासशील देशों को जो मदद देते हैं, उसका एक बड़ा हिस्सा कंसलटेंसी फीस और दूसरी प्रशासनिक लागतों (अक्सर दस प्रतिशत से भी ज़्यादा) के तौर पर ख़र्च हो जाता है.किशोर महबुबानीजैसे कई विशेषज्ञों का कहना है कि पश्चिमी देश, जो मदद मुहैया कराते हैं, उसका एक बड़ा हिस्सा वापस उन्हीं देशों में लौट जाता है. हालांकि, पश्चिमी देशों के बरक्स भारत की सहायता की प्रशासनिक लागत बहुत कम होती है, क्योंकि वो अपनी परियोजनाओं के लिए महंगे सलाहकार नहीं रखता है. इसीलिए, भारत अपनी परियोजनाओं और विकास के कार्यक्रमों को विकसित देशों की तुलना में बहुत ही मामूली लागत पर लागू करा पाता है.
पिछले दो दशकों में विकास में भारत की साझेदारी के कार्यक्रमों का दायरा काफ़ी बढ़ा है और ये कई मामलों में दूसरे देशों से बेहतर है.
भारत को अन्य देशों में अपने कार्यक्रमों के प्रभाव का आकलन करने के लिए संसाधनों में निवेश करने की ज़रूरत है. विदेश में अपनी योजनाओं के विकास पर प्रभाव को मापने से भारत की ज़मीनी स्तर पर सहयोग देने की क्षमता बेहतर होगी
आगे की राह
भारत सरकार ने विदेशों में विकास में व्यय के वास्तविक असर का मूल्यांकन करने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं किए हैं. भारत ने विकास में सहयोग के पश्चिमी नज़रिए को कामयाबी के साथ चुनौती दी है. लेकिन, अब उसको ये सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि विदेशों में विकास की उसकी परियोजनाएं, आम लोगों के जीवन पर वास्तविक प्रभाव डालें. विदेशों में विकास योजनाओं को लेकर भारत के प्रयासों के प्रगति पर प्रभाव को लेकर आधिकारिक रिपोर्टों का अभाव है और संस्थागत अध्ययन के लिए बहुत कम जानकारी उपलब्ध है. IETC जैसे कार्यक्रमों के ज़रिए भारत ने क्षमता निर्माण की जो पहलें की हैं, उनके प्रभावों को लेकर कोई संस्थागत अध्ययन सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं हैं. जबकि ये कार्यक्रम लगभग 60 साल से चल रहा है. इसी तरह, भारत ने विकासशील देशों में मूलभूत ढांचे के विकास के लिए 34.4 अरब डॉलर की रियायती पूंजी उपलब्ध कराई है. लेकिन, रियायती दरों पर सहायता पाने वाले देशों के विकास पर इस मदद का क्या असर हुआ, इससे जुड़े अध्ययन बहुत सीमित है. विकास में भारत के सहयोग पर रिसर्च अभी शुरुआती दौर में ही है, क्योंकि गिने चुने विद्वान और संस्थान ही अन्य देशों के विकास में भारत की भागीदारी पर रिसर्च कर रहे हैं. भारत को अन्य देशों में अपने कार्यक्रमों के प्रभाव का आकलन करने के लिए संसाधनों में निवेश करने की ज़रूरत है. विदेश में अपनी योजनाओं के विकास पर प्रभाव को मापने से भारत की ज़मीनी स्तर पर सहयोग देने की क्षमता बेहतर होगी और उसको अपने निवेश का अधिकतम मूल्य प्राप्त होगा. विकास में सहयोग को असरदार बनाने का मूल्यांकन करने की अपनी क्षमता विकसित नहीं करने पर, भारत को केवल पश्चिमी विद्वानों और संस्थानों द्वारा अपने मूल्यांकन का जोखिम उठाना होगा. जबकि, पश्चिमी देशों के रिसर्चर और संस्थान, विदेश में भारत की विकास योजनाओं के सर्वेक्षण पर आधारित अध्ययन बढ़ा रहे हैं.
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Dr Malancha Chakrabarty is Senior Fellow and Deputy Director (Research) at the Observer Research Foundation where she coordinates the research centre Centre for New Economic ...