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ऐसा न हो कि इस रेस में आगे निकलने वाला ही सब कुछ हड़प कर जाए, जैसा कि सिलीकॉन वैली में होता आया है.
ज़बरदस्त हिट गेम फोर्टनाइट के प्रकाशक एपिक गेम्स ने गूगल और एप्पल के ख़िलाफ़ एंटी ट्रस्ट का मुक़दमा दायर किया है. एपिक गेम्स ने ये क़दम गूगल, एप्पल, अमेज़न और फ़ेसबुक के अपने प्रतिद्वंदियों के ख़िलाफ़ अवैधानिक कार्रवाई करने को लेकर अमेरिकी संसद में हुई सुनवाई के बाद उठाया है. इस विवाद की शुरुआत तब हुई थी, जब एपिक गेम्स ने ख़ुद का पेमेंट सिस्टम लॉन्च किया, जिसे कि उसके ऐप का इस्तेमाल करने वाले ख़रीद-फ़रोख़्त के लिए इसी व्यवस्था का इस्तेमाल कर सकें. लेकिन, एप्पल और गूगल ने कहा कि ये उनके ऐप स्टोर की शर्तों का उल्लंघन है. इसके बाद ही गूगल और एप्पल ने अपने अपने प्ले स्टोर पर फोर्टनाइट (Fortnite) को प्रतिबंधित कर दिया.
एपिक गेम्स ने ये क़दम बिल्कुल योजनाबद्ध तरीक़े से उठाया था. दोनों कंपनियों के प्ले स्टोर से फोर्टनाइट को बाहर करने के कुछ मिनटों के भीतर एपिक गेम्स ने ये एप्पल और गूगल के ख़िलाफ़ मुक़दमा दायर कर दिया. इस विवाद की जड़ में एप्पल और गूगल का ऐप के अंदर की ख़रीद फ़रोख़्त में तय कमीशन है. इसके तहत ये दोनों ही कंपनियां इन-ऐप ख़रीद का 30 प्रतिशत हिस्सा कमीशन के तौर पर लेती हैं. इस विवाद की शुरुआत एपिक गेम्स ने की थी, जब उसने अपने ऐप पर ख़रीद के लिए अपने पेमेंट सिस्टम को लॉन्च किया, जो ग्राहकों के लिए ऐप बाज़ार के दूसरे विकल्पों से काफ़ी सस्ता था. यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि एपिक गेम्स, गेमिंग के दूसरे खिलाड़ियों जैसे कि स्टीम (PC गेम्स के लिए), सोनी के प्लेस्टेशन स्टोर, माइक्रोसॉफ्ट के एक्सबॉक्स गेम्स स्टोर और निन्टेंडो के गेम स्टोर. ये सभी गेमिंग प्ले स्टोर भी ख़रीदारी में 30 प्रतिशत कमीशन लेते रहे हैं.
दूसरी तकनीकी कंपनियां इस क़ानूनी जंग में काफ़ी दिलचस्पी ले रही हैं. उन्हें लग रहा है कि इस विवाद के ख़ात्मे के बाद उन्हें एप्पल के बंद इकोसिस्टम में दाख़िल होने का रास्ता मिलेगा. क्योंकि, इस मुक़दमे से ऐप डेवेलप करने के पूरे बाज़ार पर असर पड़ने की संभावना है. अब ऐप विकसित करने वाले एप्पल और गूगल की इन ऐप परतचेज़ की नीतियों पर खुल कर सवाल उठा रहे हैं. गूगल, एप्पल और एपिक गेम्स के इस विवाद में फ़ेसबुक खुलकर एपिक गेम्स के साथ आ गया है. फ़ेसबुक ने एप्पल की इस बात के लिए कड़ी आलोचना की कि वो ऑनलाइन दुनिया में फ़ेसबुक के नए इवेंट्स फ़ीचर को 30 प्रतिशत ऐप स्टोर टैक्स से रियायत नहीं दे रहा है. हालांकि, मज़े की बात ये है कि ख़ुद फ़ेसबुक भी ऐसे गेम्स से कमाई के राजस्व को उसी 30:70 के अनुपात में अन्य ऐप के साथ बांटता है, जैसा गूगल और ऐप्पल के प्ले स्टोर करते रहे हैं.
वहीं, एप्पल का कहना है कि उसके ऐप स्टोर में 80 प्रतिशत ऐप मुफ़्त हैं. और उनसे कमाई का कोई ज़रिया नहीं है. क्योंकि, एप्पल उनसे कोई कमीशन नहीं लेता है. हालांकि, एप्पल ने अपने ऐप स्टोर के दरवाज़े सख़्ती से बंद रखने का इरादा तब फिर से दोहराया था, जब उसने ओपन सोर्स कंटेंट मैनेजमेंट सिस्टम (CMS) वर्ड प्रेस को अपने ऐप के ज़रिए भुगतान करने की व्यवस्था पर पाबंदी लगा दी थी. जबकि वर्ड प्रेस अपने एप्पल वाले ऐप पर ख़रीद का कोई विकल्प भी नहीं दे रहा था. हालांकि, बाद में एप्पल ने अपना ये क़दम वापस भी ले लिया था. वहीं, एपिक गेम्स के ख़िलाफ़ अपना सख़्त रुख़ दोहराते हुए एप्पल ने अपने सिस्टम के अपोज़ीशन मोशन से अनरियल इंजन नाम के डेवेलपर प्रोग्राम को प्रतिबंधित करने की धमकी दी थी. एप्पल के इस क़दम से स्वतंत्र रूप से गेमिंग करने वाले कई स्टूडियो को झटका लगने की आशंका थी. अनरियल गेम को भी एपिक गेम्स ने ही डेवेलप किया है. गेमिंग ऐप बनाने वाले और बहुत से लोग इसे गेम इंजन के तौर पर इस्तेमाल करते हैं. यहां तक कि कई फ़िल्म कंपनियां भी इसका इस्तेमाल कंप्यूटर ग्राफिक्स (CGI) विकसित करने के लिए करती हैं. एक अमेरिकी ज़िला अदालत ने एप्पल को अनरियल इंजन को ब्लॉक करने पर रोक लगा दी है. लेकिन, एपिक गेम्स का फोर्टनाइट अभी भी एप्प स्टोर पर प्रतिबंध की मार झेल रहा है.
हालांकि, एपिक गेम्स ऐसा दिखा रहा है कि वो तो डिजिटल दुनिया का एक मामूली खिलाड़ी है, जो एप्पल और गूगल जैसे महायोद्धाओं के एकाधिकार को चुनौती दे रहा है और ग्राहकों के हितों की रक्षा कर रहा है. लेकिन, ये बात सच नहीं है. भले ही एपिक गेम्स के सीईओ इसके उलट दावा करें, लेकिन हक़ीक़त तो ये है कि ये दो कॉरपोरेट गुटों की लड़ाई है, जिसमें अरबों डॉलर की एक कंपनी खरबों डॉलर मूल्य वाली कंपनी से लड़ रही है. और छोटी कंपनी का मक़सद सिर्फ़ अपना मुनाफ़ा बढ़ाना है. एप्पल और एपिक गेम्स के बीच इस जंग को बुनियादी तौर पर समझने के लिए हमें ये समझना होगा कि पिछले चालीस वर्षों में गेमिंग की संस्कृति का विकास किस तरह से हुआ है. 1990 के दशक में वीडियो गेम को डिस्क के ज़रिए ख़रीदा बेचा जाता था. और आज वही गेम ऑनलाइन प्ले स्टोर पर उपलब्ध कराए जाते हैं. इस बदलाव के साथ ही ये सोच भी बदली कि गेम्स उत्पादन नहीं बल्कि सेवाएं हैं. इस सोच का गेम्स को डेवेलप करने की प्रक्रिया पर बहुत गहरा असर पड़ा. ये गेम तैयार करने वालों ने कई खिलाड़ियों वाली व्यवस्था को बढ़ावा देने की कोशिश की. उनका तर्क ये था कि अब खिलाड़ी सिर्फ़ एक व्यक्ति के गेम खेलने में दिलचस्पी नहीं रखते हैं.
हक़ीक़त तो ये है कि ये दो कॉरपोरेट गुटों की लड़ाई है, जिसमें अरबों डॉलर की एक कंपनी खरबों डॉलर मूल्य वाली कंपनी से लड़ रही है. और छोटी कंपनी का मक़सद सिर्फ़ अपना मुनाफ़ा बढ़ाना है.
2010 के दशक की शुरुआत से जब आईफोन और एंड्रॉयड मोबाइल ऑपरेटिंग सिस्टम लॉन्च किए गए, तो उससे मोबाइल फ़ोन पर गेमिंग ऐप्स की भरमार हो गई. मोबाइल फ़ोन पर गेमिंग की कामयाबी से एक और बिज़नेस मॉडल की ज़रूरत महसूस हुई. जो लोग ये गेम खेलते हैं, उनके लिए तो ये मुफ़्त रहेगा. ऐसी व्यवस्था की गई कि, ये गेम तैयार करने वाले अपने ऐप के माध्यम से ख़रीद का अवसर देकर पैसे कमा सकें. इस मॉडल को सफल बनाने के लिए मोबाइल गेम्स ने रोल प्लेइंग गेम्स (RPGs) के आइडिया को अपनाया. इसके तहत गेम खेलने वालों को उनकी गतिविधियों के लिए, गेम के दौरान ही प्वाइंट या किसी और तौर पर रिवार्ड देने का नुस्खा ईजाद किया गया. इस गेम में तेज़ी से आगे बढ़ने के लिए खिलाड़ियों को उस गेम में इस्तेमाल हो सकने वाली करेंसी ख़रीदने के लिए प्रोत्साहित किया गया. इसके लिए, खिलाड़ियों को छोटे छोटे ट्रांजैक्शन के माध्यम से वास्तविक धन ख़र्च करने की दिशा में धकेला गया. ऑनलाइन गेमिंग से मुनाफ़ा कमाने का ये मॉडल बेहद सफल रहा. और जिंगा गेम्स (Farmville) और रोवियो (एंग्री बर्ड) जैसी कंपनियों ने इस मॉडल पर कामयाबी और मुनाफ़े की ज़बरदस्त फ़सल काटी.
जैसे-जैसे ऑनलाइन गेमिंग की दुनिया के दूसरे खिलाड़ियों ने कारोबार के इस मॉडल को अपनाने की कोशिश की, वैसे-वैसे खिलाड़ियों ने इसका विरोध करना शुरू किया. खिलाड़ी इसे जीत के लिए खेलने (play to win) मॉडल कह कर इसका विरोध करने लगे. उनका कहना था कि इससे मुक़ाबलों में प्रतिद्वंदिता कम होती जा रही है और कम हुनरमंद खिलाड़ी पैसों के लेन-देन के ज़रिए गेम में आगे बढ़ रहे हैं. धीरे-धीरे गेमिंग से पैसे कमाने का मॉडल गेमिंग कन्सोल और पर्सनल कंप्यूटर के बजाय मोबाइल की दुनिया में ज़्यादा सफल होने लगा. निएल्सन का अनुमान है कि वर्ष 2019 में वीडियो गेम के कारोबार 120 अरब डॉलर कमाए थे. और इसमें से 64.4 अरब डॉलर की कमाई केवल मोबाइल प्लेटफॉर्म से हुई थी. इसके बाद कंप्यूटर और गेमिंग कन्सोल का नंबर आता था. एपिक गेम्स के फोर्टनाइट गेम ने भी छोटे छोटे ट्रांजैक्शन से 1.8 अरब डॉलर की कमाई की थी.
जैसे-जैसे अधिक खिलाड़ियों वाले माध्यम लोकप्रिय होते गए, उससे गेम डेवेलप करने वाले पब्लिशर्स ने कमाई करने के लिए नए-नए तरीक़े भी आज़माने शुरू किए. इन्हें लूट बॉक्स और इन-गेम परचेज़ कहा गया. जिसमें एक वर्चुअल कंटेनर में रखे सामान के ज़रिए जीतने वाले खिलाड़ी को इनाम दिया जाता है.
जैसे-जैसे अधिक खिलाड़ियों वाले माध्यम लोकप्रिय होते गए, उससे गेम डेवेलप करने वाले पब्लिशर्स ने कमाई करने के लिए नए-नए तरीक़े भी आज़माने शुरू किए. इन्हें लूट बॉक्स और इन-गेम परचेज़ कहा गया. जिसमें एक वर्चुअल कंटेनर में रखे सामान के ज़रिए जीतने वाले खिलाड़ी को इनाम दिया जाता है. इसमें रखे सामानों में समय और जीत हार के साथ बदलाव होता रहता है. अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप में इस बात को लेकर चिंता बढ़ रही है कि ये डिजिटल लूट बॉक्स, गेमिंग के यूज़र्स में ख़तरनाक व्यवहार को बढ़ावा दे रहे हैं. और जुए की तरह इन्हें भी नियम क़ायदों के दायरे में लाने की ज़रूरत है. कई अध्ययनों में इस तर्क को और मज़बूती से रखा गया. अब बेल्जियम में लूट बॉक्स पर प्रतिबंध लगा दिया गया है. वहीं, ब्रिटेन भी इन पर पाबंदी लगाने पर विचार कर रहा है. जबकि, गेम डेवेलपर इलेक्ट्रॉनिक आर्ट्स (EA) और एप्पल के ख़िलाफ़ कैलिफ़ोर्निया में लूट बॉक्स की व्यवस्था को लेकर मुक़दमे चल रहे हैं.
यहां ये बात जानना महत्वपूर्ण है कि एपिक गेम्स भी लूट बॉक्स के मॉडल का इस्तेमाल करता है. इस समय फोर्टनाइट के 35 करोड़ से ज़्यादा यूज़र हैं. और इनमें से ज़्यादातर की उम्र 18 से 24 बरस के बीच है. बहुत से बच्चे भी ये गेम खेलते हैं. बच्चों पर ऑनलाइन गेमिंग के दौरान ये लेन देन क्या असर डालते हैं, इस पर स्टडी की जा रही है. अक्टूबर 2019 में इंग्लैंड के चिल्डेन्स कमिश्नर ने एक रिपोर्ट दी थी. इस रिपोर्ट में कहा गया था कि जब बच्चे इन ऐप ख़रीद करते हैं, तो उनके बर्ताव में पेचीदा क़िस्म का बदलाव देखने को मिलता है. इस रिपोर्ट में ज़ोर देकर कहा गया था कि बच्चों पर उनके दोस्त अक्सर इन ऐप ख़रीद का दबाव बनाते हैं. इनके ज़रिए अक्सर कॉस्मेटिक का सामान ख़रीदा जाता है, जिसका गेम खेलने पर कोई असर नहीं पड़ता, बल्कि किसी भी मुक़ाबले में ये दांव लगाने जैसा होता है. इस रिपोर्ट में ये भी कहा गया था कि इससे इन ऐप ख़रीद को बच्चों के बीच भी प्रचारित किया जा रहा है. इसके लिए बच्चों के दोस्त ही नहीं गेम विकसित करने वाले भी उन पर दबाव बना रहे हैं. इस सर्वे में भाग लेने वालों ने ये भी कहा था कि उन्हें पता होता है कि लूट बॉक्स से गेम के नतीजों की कोई गारंटी नहीं होती. ऐसे में जब लूट बॉक्स खोलने के बावजूद उन्हें मनमाफ़िक नतीजे नहीं मिलते, तो उनके अंदर खीझ पैदा हो जाती है. फिर भी इन बच्चों को ये लगता है कि वो ज़्यादा से ज़्यादा ख़रीददारी करें, जिससे कि उनकी गेमिंग के बेहतर नतीजे निकल सकें. और ऐसा करने के चक्कर में उन्हें नुक़सान ही ज़्यादा होता है.
चूंकि अब ऑनलाइन गेम को सेवाओं में गिना जाता है, तो इन्हें विकसित करने वाले स्टूडियो पर लगातार ये दबाव बना रहता है कि वो ज़्यादा से ज़्यादा नया कंटेंट तैयार करें. जिससे उनके कारोबार का विस्तार हो. उनके गेम में नए आइटम डाले जाएं, जिससे उनके ऐप पर ख़रीद बढ़ सके. इससे पब्लिशर्स के कर्मचारियों पर भी थकान हावी होती है. उन पर दबाव बढ़ता जाता है. इस बात के पर्याप्त दस्तावेज़ी सबूत उपलब्ध हैं कि फोर्टनाइट की कामयाबी ज़बरदस्त दबाव का नतीजा है. क्योंकि, इसके कर्मचारियों को हफ़्ते में 70 घंटे काम करना पड़ता था. जिससे कि वो गेमिंग सिस्टम में लगातार नई व्यवस्थाएं और नए कंटेंट डालते रहें.
एक इंटरव्यू में एपिक गेम्स के सीईओ स्वीनी ने एक ऐसी डिजिटल दुनिया की अपनी परिकल्पना साझा की थी, जिसमें साझा वर्चुअल स्पेस का वास्तविकता के साथ संगम होता है. और उसमें नियमित रूप से वर्चुअल और आग्यूमेंटेड रियालिटी का समावेश होता जाता है. सेकंड लाइफ़ और माइनक्राफ्ट जैसे गेम्स, जो खेलने से अधिक सामाजिक संबंध बनाने पर ज़ोर देते हैं, वो अपने आप में छोटे छोटे सोशल नेटवर्क बन गए हैं. लेकिन, मेटावर्स के विचार को आगे बढ़ाने के मामले में फोर्टनाइट सबसे आगे है. ये गेम वर्चुअल कॉन्सर्ट और पार्टी मोड जैसी व्यवस्थाएं लेकर आया है. इसके अलावा फोर्टनाइट कुछ स्टूडियोज़ के साथ साझेदारी करके आने वाली फिल्मों का प्रचार करता है. और उन फिल्मों से संबंधित थीम आधारित कार्यक्रम आयोजित करता है. फ़ेसबुक और माइक्रोसॉफ्ट भी वर्चुअल रियालिटी (VR) तकनीक में भारी निवेश कर रहे हैं. और इसके लिए कॉन्टेंट डेवेलप कर रहे हैं. इसके लिए वो क्रमश: ऑक्युलस और होलोलेंस प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल कर रहे हैं. इसी तरह गूगल के स्टैडिया गेमिंग प्लेटफॉर्म के बारे में भी हम ये कह सकते हैं कि वो एक मेटावर्स बनाने की कोशिश कर रहा है, जिसमें वर्चुअल और वास्तविक दुनिया का संगम होगा.
हकीक़त तो ये है कि अपने जवाबी मुक़दमे में एप्पल ने बताया है कि एपिक अपने लिए ज़्यादा मुनाफ़े वाला समझौता करने की फ़िराक़ में है. वो ठीक वैसी ही कोशिश कर रहा है, जैसे अमेज़न ने अपने लिए एक समझौता एप्पल से किया था.
स्वीनी ने उस इंटरव्यू में मेटावर्स के कारोबार की अहमियत पर काफ़ी ज़ोर दिया था. उन्होंने कहा था कि गेम बनाने वालों को उनका वाजिब हक़ मिलना चाहिए. लेकिन, इस बयान का खोखलापन तब उजागर हो जाता है, जब हम देखते हैं कि स्टूडियो में लोग ठेके पर रखे जाते हैं. और संबंधित प्रोजेक्ट ख़त्म होते ही उन्हें नौकरी से निकाल दिया जाता है. स्वीनी ज़ोर देकर ये कहते हैं कि एप्पल ऐप स्टोर पर ख़रीदारी वाले ट्रांजैक्शन की ऑपरेटिंग कॉस्ट कुल लेन-देन का महज़ पांच प्रतिशत होती है. और एप्पल जो 30 प्रतिशत हिस्सा ले लेता है, उसमें से 25 प्रतिशत उसका मुनाफ़ा ही होता है. उन्होंने आगे कहा था कि इसकी तुलना में एपिक गेम्स अपने ऑनलाइन स्टोर में अन्य डेवेलपर्स से केवल 12 प्रतिशत ही कमीशन लेता है. और वो अपना गेम उसके प्लेटफ़ॉर्म पर खिला सकते हैं. और उनकी कंपनी किसी भी लेन-देन से केवल पांच प्रतिशत का मुनाफ़ा कमाती है. एक कारोबारी के तौर पर स्वीनी, एप्पल स्टोर से अपने लिए एक बेहतर डील भर चाहते हैं. हकीक़त तो ये है कि अपने जवाबी मुक़दमे में एप्पल ने बताया है कि एपिक अपने लिए ज़्यादा मुनाफ़े वाला समझौता करने की फ़िराक़ में है. वो ठीक वैसी ही कोशिश कर रहा है, जैसे अमेज़न ने अपने लिए एक समझौता एप्पल से किया था.
हालांकि, एपिक गेम्स की कोशिश ये भी है कि वो अनरियल इंजन की मदद से फ्रीमियम मॉडल को भी दोबारा अपनाए. जिसके तहत वो डेवेलपर्स से तब तक कुछ नहीं लेगा, जब तक उनकी आमदनी दस लाख डॉलर के स्तर तक न पहुंच जाए. उसके बाद एपिक गेम्स कंपनियों के कुल राजस्व का 5 प्रतिशत कमीशन के तौर पर लेगा. जिससे कि गेमिंग के बाज़ार में उसका प्रभुत्व और बढ़ जाए. सीमित अवधि के लिए डेवेलपर्स के लिए तो ये मुनाफ़े का सौदा होगा. लेकिन, इस बात की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि जब एपिक गेम्स एक मज़बूत स्थिति में पहुंच जाएगा, तो वो कंपनियों से अधिक वसूली करने की कोशिश करेगा. कंपनी ने पैसे कमाने के लिए इससे पहले खिलाड़ियों के साथ जैसा बर्ताव दिखाया है, उससे तो कोई ख़ास उम्मीद नहीं जगती.
जैसे-जैसे वर्चुअल दुनिया का वास्तविक विश्व पर प्रभाव बढ़ता जा रहा है, वैसे-वैसे नियामक संस्थाओं के लिए ये ज़रूरी हो गया है कि वो इन बदलावों और ग्राहकों पर पड़ने वाले इनके प्रभावों का अध्ययन गहराई से करें. और जब तकनीकी कंपनियां वर्चुअल और वास्तविक दुनिया को मिलाकर एक मेटावर्स बनाने की कोशिश में जुटी हैं, तो ज़रूरी ये है कि तकनीकी कंपनियां एक ऐसी व्यवस्था भी विकसित करें जहां लोगों को बराबरी का अधिकार हो, फिर चाहे नई व्यवस्था विकसित करने वाले हों, या उसके यूजर्स. ऐसा न हो कि इस रेस में आगे निकलने वाला ही सब कुछ हड़प कर जाए, जैसा कि सिलीकॉन वैली में होता आया है.
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Shashidhar K J was a Visiting Fellow at the Observer Research Foundation. He works on the broad themes of technology and financial technology. His key ...
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