Published on Dec 14, 2022 Updated 0 Hours ago

डूइंग बिज़नेस रैंकिंग के विस्फोट के बाद से विश्व बैंक जिस तरह से ग़ैर ज़िम्मेदार और राय पर आधारित ‘कार्य प्रणालियों’ को बढ़ावा देकर मुख्यधारा में ला रहा है, उससे दुनिया के विकासशील देशों को क्षति पहुंच रही है; G20 को चाहिए कि वो इस हेरा-फेरी को ख़त्म करे.

‘G20 अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग में सुधार लाने के लिये वर्ल्ड बैंक पर दबाव बनाएं’

आप कहीं भी नज़र डालिए, श्वेत पश्चिमी आख्यान का बेलगाम प्रभुत्व दिखाई देता है. इस ‘दबदबे’ का एक कारण तो वास्तविक आंकड़ों में छुपा- प्रति व्यक्ति आय की ऊंची दर, तक़नीक का आविष्कार और नई नई खोजें, एक ताक़तवर औद्योगिक-सैन्य ढांचा, दूसरों के लिए प्रेरणा बनने वाला विकास और खपत की ऐसी रफ़्तार जो आमदनी को लेकर चिंतित नहीं होती. लेकिन, अब इस प्रभुत्व की एक बड़ी और मुखर अभिव्यक्ति को हम तोड़-मरोड़कर पेश किए गए आख्यानों से बढ़ावा मिलते हुए देख रहे हैं.

एक ओर ये छवि बनाई जाती है कि वैश्विक रैंकिंग और देशों को लोकतंत्र से लेकर भूख तक के पैमानों पर काटने-छांटने की प्रक्रिया निरपेक्ष तथ्यों और योग्यता पर आधारित है. वहीं, अगर हम इन तथ्यों का विश्लेषण करते हैं, उन्हें सच्चाई के पैमानों पर कसते हैं, तो पता ये चलता है कि ये तो बेहद कमज़ोर ढांचे पर खड़े हैं और इनके द्वारा निकाले गए निष्कर्षों का बचाव नहीं किया जा सकता है.

तो, जहां एक ओर ये छवि बनाई जाती है कि वैश्विक रैंकिंग और देशों को लोकतंत्र से लेकर भूख तक के पैमानों पर काटने-छांटने की प्रक्रिया निरपेक्ष तथ्यों और योग्यता पर आधारित है. वहीं, अगर हम इन तथ्यों का विश्लेषण करते हैं, उन्हें सच्चाई के पैमानों पर कसते हैं, तो पता ये चलता है कि ये तो बेहद कमज़ोर ढांचे पर खड़े हैं और इनके द्वारा निकाले गए निष्कर्षों का बचाव नहीं किया जा सकता है. हम भारत के प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (EAC-PM) द्वारा तैयार किए गए एक नए वर्किंग पेपर के शुक्रगुज़ार हैं, जिसमें पश्चिमी देशों द्वारा ख़ुद ही अपनी आंखों में धूल झोंकने, और भारत जैसे उभरते देशों के ख़िलाफ़ माहौल बनाने वाली इस हेरा-फेरी का पर्दाफ़ाश किया गया है.

ये वर्किंग पेपर संजीव सान्याल और आकांक्षा अरोड़ा ने मिलकर लिखा है. दोनों ही प्रधानमंत्री का आर्थिक सलाहकार परिषद में काम करते हैं. इसका शीर्षक- व्हाई इंडिया डज़ पूअरली ऑन ग्लोबल परसेप्शन इंडिसेज़ है. इस वर्किंग पेपर में ऐसी रैंकिंग को लेकर एक ताज़ा और आलोचनात्मक दृष्टिकोण पेश किया गया है. इस वर्किंग पेपर को पढ़ने के बाद बड़े अफ़सोस से कहना पड़ता है कि पश्चिमी देशों द्वारा की जाने वाली रैंकिंग के पीछे जो व्यक्तिगत सोच और तोड़-मरोड़कर पेश किए गए जिन आख्यानों पर हम दशकों से आंख मूंदकर विश्वास कर रहे थे, उनकी सच्चाई थी अब उजागर हो गई है. रैंकिंग का ये ढांचा एक मज़बूत, निष्पक्ष और प्रणाली पर आधारित सूचकांक बताने वाला नहीं है, जो सवालों और समीक्षा की अग्निपरीक्षा में खरे उतसर सकें. असल में ये रैंकिंग, पर्दे के पीछे छुपे कुछ मुट्ठी भर लोगों की राय से कुछ ख़ास अधिक नहीं है, जिनके चुनाव की प्रक्रिया गोपनीयता का आवरण ओढ़े हुए है.

आज किसी के लिए बहुत आसान है कि वो स्वतंत्रता और लोकतंत्र के लिए सूचकांक तैयार कर ले. इसके लिए आवश्यक मूलभूत तथ्य, कंप्यूटर पर एक क्लिक करके मिल जाते हैं. इससे भी आसान है वो सूचकांक बनाना जो सोच पर आधारित हैं- जिनमें तथ्यों के ऊपर राय और एजेंडे को प्राथमिकता दी जाती है, और उससे भी आसान काम तो तब होता है जब विचारधारा की बंद गुफाओं के भीतर तथ्य उनके इशारों पर नाचते हैं. इस प्रक्रिया में आख्यान बनाना अकादेमिक अनुसंधान बन जाता है. फिर इस साज़िश में थिंक टैंक और मीडिया भी शामिल हो जाते हैं, जो भारत की रैंकिंग में गिरावट आने का जश्न मनाते हैं.

फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट को तैयार करने के लिए गूगल, हरफोर्ड फाउंडेशन, जाइलैंड्स- पोस्टेन फाउंडेशन, लिली एंडोमेंट इनकॉर्पोरेशन, मेटा प्लेटफॉर्म्स इनकॉर्पोरेशन और नेशनल एंडोमेंट फॉर डेमोक्रेसी से फंड मिला है. ये सूचकांक जम्मू और कश्मीर को भारत से अलग क्षेत्र मानता है और इसे ‘स्वतंत्र नहीं’ होने के रूप में रेखांकित करता है

इस तरह जो चुनिंदा तथ्यों पर आधारित बौद्धिक माहौल बनाया जाता है, तो ये सूचकांक विश्व बैंक के मज़बूत आंकड़ों में सेंध लगा देते हैं. इससे उन्हें कुछ हद तक विश्वसनीयता प्राप्त हो जाती है और फिर इसके माध्यम से ये सूचकांक वास्तविक गतिविधियों और निर्णयों को प्रभावित करते हैं. इनमें, क्रेडिट रेटिंग जैसे फ़ैसले (एक और वैश्विक संस्थान जिसे भारत के पूंजी बाजार की नियामक संस्था, भारतीय प्रतिभूति और विनिमय परिषद (SEBI) से दिशा निर्देश लेने की आवश्यकता होती है और जिसने रेटिंग एजेंसियों पर अपना नियामक शिकंजा और कस दिया है); बड़ी कंपनियों द्वारा सीधे निवेश; और पेंशन फंड जैसे संस्थागत निवेशकों द्वारा अप्रत्यक्ष निवेश से जुड़े निर्णय भी शामिल होते हैं.

अपने आप में इन रैंकिंग्स को इनकी उचित जगह यानी अप्रासंगिकता वाले कचरे के डब्बे में फेंका जा सकता है. लेकिन, जब इन रैंकिंग के आंकड़े, वॉशिंगटन डीसी की 1818H स्ट्रीट में दाख़िल हो जाते हैं, तो फिर ये तबाही (निवेश) के हथियार बन जाते हैं. सान्याल और अरोड़ा द्वारा तैयार किया गया वर्किंग पेपर, हथियार की तरह इस्तेमाल किए जा रहे ऐसे ही तीन सूचकांकों का विश्लेषण करता है.

पहला, फ्रीडम इन द वर्ल्ड सूचकांक

इसे अमेरिका स्थित फ्रीडम हाउस तैयार करता है. ये सूचकांक ये दावा करता है कि वो पिछले 50 वर्षों से राजनीतिक अधिकारों और नागरिक स्वतंत्रताओं की जानकारी जुटाकर देशों की रैंकिंग करता आ रहा है. ‘नीति निर्माता, पत्रकार, अकादेमिक विद्वान, कार्यकर्ता और बहुत से अन्य लोग इस सूचकांक का नियमित रूप से प्रयोग करते आए हैं.’ फ्रीडम हाउस की 2022 की रिपोर्ट को 195 देशों और 15 क्षेत्रों से आने वाले 128 विश्लेषकों और 50 सलाहकारों ने मिलकर तैयार किया है. फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट को तैयार करने के लिए गूगल, हरफोर्ड फाउंडेशन, जाइलैंड्स- पोस्टेन फाउंडेशन, लिली एंडोमेंट इनकॉर्पोरेशन, मेटा प्लेटफॉर्म्स इनकॉर्पोरेशन और नेशनल एंडोमेंट फॉर डेमोक्रेसी से फंड मिला है. ये सूचकांक जम्मू और कश्मीर को भारत से अलग क्षेत्र मानता है और इसे ‘स्वतंत्र नहीं’ होने के रूप में रेखांकित करता है; वहीं भारत को इस रिपोर्ट में ‘आंशिक रूप से स्वतंत्र’ बताया गया है.

पिछली बार जब भारत की रैंकिंग कम करके उसे ‘आंशिक रूप से स्वतंत्र’ बताया गया था, तो पहले देश में आपातकाल लगा (1975-1976) हुआ था और फिर उदारीकरण (1991-96) के दौर में भी भारत को इसी दर्जे में रखा गया था. जिन दस सवालों के आधार पर भारत की रैंकिंग घटाई गई है, उन पर नज़र डालें तो हंसी आती है. क्योंकि इन कारणों को आधार बनाकर, आंकड़ों के नाम पर जो विद्वता प्रस्तुत की गई है, वो मज़ाक़ बन जाती है.

संजीव सान्याल और आकांक्षा अरोड़ा अपने पेपर में ठोस आंकड़ों की तेज़ धार वाली छुरी से इन रैंकिंग्स की जड़ में छुपे व्यक्तिगत विश्लेषणों की समीक्षा करते हुए लिखते हैं कि, ‘फ्रीडम हाउस की वार्षिक रपटों के हमारे विश्लेषण से ये पता चलता है कि वो कुछ मीडिया रिपोर्टों का इस्तेमाल करते हैं और अपने फ़ैसले करने के लिए अपनी पसंद से कुछ गिने चुने विषय उठाते हैं.’ ऐसा लगता है कि आख्यान बनाने की अपनी दृढ़ इच्छा के कारण ये रिपोर्ट तैयार करने वाले 128 विश्लेषकों और 50 सलाहकारों में से एक ने भी अपने तर्कों को उचित ठहराने के लिए इन आंकड़ों का अध्ययन नहीं किया. शायद वो अपनी बात सही ठहराने के लिए आंकड़ों के बजाय माहौल बनाने वाले कार्यकर्ताओं का प्रयोग ज़्यादा करते हैं.

लेकिन फ्रीडम हाउस, लोकतंत्र और स्वतंत्रताओं को व्यक्तिगत समझ वाले चश्मे से देखते हुए भी लड़खड़ा जाता है और अपना कच्चा चिट्ठा खोल देता है. उत्तरी साइप्रस को ‘स्वतंत्र क्षेत्र’ माना गया है और वो रैंकिंग में भारत से ऊपर है. ये तुर्की के नियंत्रण वाला इलाक़ा है जिसे सिर्फ़ तुर्की ने मान्यता दी हुई है. उत्तरी साइप्रस ने अपने यहां से ‘यूनानी आदिम निवासियों की आबादी का नस्लीय सफ़ाया कर दिया है.’ इससे भी बुरी बात तो ये है कि हाल ही में स्वतंत्र होने वाले कई देश जिनके यहां विकसित लोकतांत्रिक संस्थाओं का कोई रिकॉर्ड नहीं है, उन्हें भी भारत से ऊंची पायदान पर रखा गया है. 2002 में स्वतंत्र होने वाले तिमोर लेस्ट, 2006 में आज़ाद होने वाले मोंटेनीग्रो, दोनों को लोकतंत्र और स्वतंत्रता के सूचकांक में भारत से ऊपर जगह दी गई है. मंगोलिया में एकदलीय शासन व्यवस्था 1990 में ख़त्म हुई थी और उसे भी भारत से ऊंची जगह दी गई है.

दूसरा, EIU लोकतंत्र सूचकांक

ये सूचकांक ब्रिटेन स्थित इकॉनमिक इंटेलिजेंस यूनिट (EIU) तैयार करती है, जो ख़ुद को समाचार पत्र कहने वाली ‘द इकॉनमिस्ट’ नाम की साप्ताहिक पत्रिका की सलाहकार इकाई है. चुनावी प्रक्रिय और बहुलतावाद, सरकार की कार्य प्रणाली, राजनीतिक भागीदारी, राजनीतिक संस्कृति और नागरिक स्वतंत्रताओं जैसे पांच वर्गों में फैले 60 प्रश्नों का इस्तेमाल करते हुए EIU, 2006 से ही एक लोकतंत्र सूचकांक प्रकाशित करती आई है, जिसमें शासन व्यवस्थाओं को चार खानों में वर्गीकृत किया जाता है: पूर्ण लोकतंत्र, कमियों वाला लोकतंत्र, मिली-जुली शासन व्यवस्था और तानाशाही हुकूमत. भारत को ‘दोषपूर्ण लोकतंत्र’ के दर्जे में रखा गया है, जहां उसे अमेरिका, फ्रांस और स्पेन जैसे देशों की सोहबत हासिल है.

इसके लिए जिन 60 सवालों को आधार बनाया गया है, उनमें से 45 के जवाब ‘विशेषज्ञों’ द्वारा दिए गए हैं, जिनकी संख्या, राष्ट्रीयता और विशेषज्ञता के क्षेत्रों की जानकारी नहीं स्पष्ट की गई है. बाक़ी के प्रश्नों के उत्तर जनता की राय जानने वाले सर्वेक्षणों और मुख्य रूप से वर्ल्ड वैल्यू सर्वे से लिए गए हैं. ये सर्वे आख़िरी बार भारत में 2012 में किया गया था. इसलिए, सान्याल और अरोड़ा अपने पेपर में लिखते हैं कि, वास्तविक रूप से भारत की रैंकिंग ‘2012 से अब तक केवल विशेषज्ञों की राय’ पर आधारित है.

चूंकि, ये रैंकिंग तैयार करने की जड़ में ही व्यक्तिगत राय है, तो भारत की रैंकिंग लगातार गिरती जा रही है. 2014 में भारत 27वें स्थान पर था, तो 2020 में ये गिरकर 53वें स्थान पर पहुंच गया; उसके बाद 2021 में भारत थोड़ा सुधरकर 46वीं पायदान पर इसलिए पहुंच गया क्योंकि भारत की सरकार ने कृषि सुधार क़ानूनों को वापस ले लिया था. लेकिन, कनाडा द्वारा अभिव्यक्ति को निर्ममता से कुचलने और फरवरी 2022 में आपातकाल की घोषणा करने के बाद भी उसका ‘पूर्ण लोकतंत्र’ का दर्जा बरकरार रखा गया है. ज़ाहिर है लोकतंत्रों का मूल्यांकन करते वक़्त देशों की चमड़ी और भौगोलिक स्थिति का ख़याल रखा गया है. 

2014 में भारत 27वें स्थान पर था, तो 2020 में ये गिरकर 53वें स्थान पर पहुंच गया; उसके बाद 2021 में भारत थोड़ा सुधरकर 46वीं पायदान पर इसलिए पहुंच गया क्योंकि भारत की सरकार ने कृषि सुधार क़ानूनों को वापस ले लिया था.

EIU की रिपोर्ट अपनी वैचारिक और राजनीतिक प्रसन्नता को छुपाने की बिल्कुल भी कोशिश नहीं करती जब वो ये कहती है कि: ‘भारत में एक वर्ष से भी अधिक समय से चले आ रहे किसानों के प्रदर्शन ने सरकार को उन कृषि क़ानूनों को वापस लेने को मजबूर कर दिया, जो वर्ष 2020 में लागू किए गए थे. प्रदर्शनकारियों की जीत और कुछ चुनावों में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी की पराजय ने ये साबित किया है कि भारत में ऐसी व्यवस्थाएं और संस्थान हैं, जहां चुनावों के बीच भी मतदाताओं के प्रति सरकार के उत्तरदायित्व को सुनिश्चित किया जा सकता है.’

इस रैंकिंग में भारत को 46वें स्थान पर रखा गया है, लेकिन उसके समानांतर कौन से देश हैं? मलेशिया, जो 2019 से ही लगातार राजनीतिक संकटों का सामना कर रहा है वो 39वें स्थान पर है. ‘राजनीतिक संस्कृति’ के खांचे में भारत का स्कोर 5.0 है, जो 2014 में सैन्य तख़्तापलट के शिकार हुए लेसोथो से भी कम है, जहां पहले 2020 और फिर 2022 में आपातकाल की घोषणा की गई थी; सान्याल और अरोड़ा लिखते हैं कि पिछले काफ़ी समय से राजनीतिक उठा-पटक झेल रहे श्रीलंका और हॉन्ग कॉन्ग को भी भारत से ऊपर जगह दी गई है.

अगर EIU के लोकतंत्र सूचकांक के पीछे ठोस आंकड़ों की ये मज़बूती और तथ्यपरकता है, तो ऐसी रिपोर्ट्स को गंभीरता से लेने वाले अधिकारी और इस रैंकिंग के आधार पर किसी देश के विषय में निर्णय करने वाली कंपनियां बहुत बड़ा जोख़िम ले रही हैं. ऐसे में उद्योग के विश्लेषकों को इस बात की फिक्र करनी चाहिए कि कहीं ये सूचकांक हेरा-फेरी करके तो तैयार नहीं किए जा रहे. क्योंकि विचारधाराओं और व्यक्तिगत सोच पर आधारित ये सूचकांक उनके कारोबारी फ़ैसलों को दशा-दिशा दे रहे हैं. आख़िरी सवाल ये है: मेक्सिको को भौगोलिक रूप से उत्तरी अमेरिका से बाहर रखा गया है? क्या इसका मक़सद मेक्सिको को अलग रखकर उत्तरी अमेरिका के श्वेत बाशिंदों की चमड़ी का रंग थोड़ा धुंधला होने से रोकना है?

तीसरा, वी-डेम सूचकांक

स्वयं से तय किए गए पांच अहम सूचकांकों से खेलते हुए और स्वीडन की गोथेनबर्ग यूनिवर्सिटी में स्थित, वेराइटी ऑफ़ डेमोक्रेसी (V-Dem) ये दावा करता है कि वो ‘1789 से 2021 के दौरान, 2020 देशों से जुटाए गए तीन करोड़ आंकड़ों के आधार पर दुनिया में लोकतंत्र से जुड़े आंकड़ों का सबसे बड़ा संग्रह तैयार करने वाला संगठन है.’ वी-डेम का दावा है कि ये आंकड़े तैयार करने में 3700 से ज़्यादा विद्वान और देशों के अन्य विशेषज्ञ लगते हैं और वो लोकतंत्र की अलग अलग सैकड़ों ख़ूबियों का आकलन करता है. ये काम वो छह सूचकांकों के पैमानों पर कसकर करता है- उदारवादी लोकतंत्र सूचकांक, चुनावी लोकतंत्र सूचकांक, उदारवादी तत्व सूचकांक, समतावादी तत्व सूचकांक, भागीदारी के तत्वों का सूचकांक और परिचर्चावादी तत्व का सूचकांक- इन सब में 473 विविध बातों का संग्रह किया जाता है.

सान्याल और अरोड़ा अपने लेख में उन सवालों पर प्रश्न उठाते हैं जो वी-डेम अपने सर्वे के दौरान पूछता है, और वो अपने पेपर में वी-डेम की प्रणाली पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि इससे निरपेक्षता से समझौता होता है और देशों के बीच ग़लत तुलना की जाती है

इन्हें दो भागों में विभाजित किया जाता है, तथ्यात्मक और मूल्यांकन आधारित. तथ्यों में चुनाव के प्रकार, मतदान की न्यूनतम आयु, वोटिंग का अधिकार रखने वाली आबादी का प्रतिशत जैसी बातें शामिल हैं. वी-डेम के मुताबिक़, मूल्यांकन आधारित सूचकांकों को ‘हर साल हर देश के पांच विशेषज्ञों जैसे कि वरिष्ठ विश्लेषकों, संपादकों और न्यायाधीशों की राय के आधार पर तैयार किया जाता है, इनमें से दो तिहाई विशेषज्ञ उस देश के निवासी या नागरिक होते हैं.’

सान्याल और अरोड़ा अपने लेख में उन सवालों पर प्रश्न उठाते हैं जो वी-डेम अपने सर्वे के दौरान पूछता है, और वो अपने पेपर में वी-डेम की प्रणाली पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि इससे निरपेक्षता से समझौता होता है और देशों के बीच ग़लत तुलना की जाती है. इन प्रश्नों में ज़ुल्म से आज़ादी, मीडिया के पूर्वाग्रह या फिर विधायिका के उम्मीदवारों के चयन का केंद्रीकरण शामिल हैं. ये ‘प्रत्यक्ष लोकप्रिय मताधिकार’ का सवाल उठाता है, जो भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में तो अप्रासंगिक हो जाते हैं लेकिन, स्विटज़रलैंड जैसे छोटे लोकतांत्रिक देशों के लिए अहम हैं. इस मामले में वी-डेम भारत और अमेरिका को शून्य अंक देता है, जो अफ़ग़ानिस्तान, बेलारूस या क्यूबा से कम है.

उम्मीद के मुताबिक़, 2014 से भारत के नंबर लगातार गिरते जा रहे हैं. 2021 में तो इससे भी आगे बढ़कर वी-डेम ने भारत को ‘चुनावी तानाशाही’ का दर्जा दिया था. अब इसका मतलब जो भी हो, लेकिन इस दर्जे में आतंकवादी देश पाकिस्तान, नाकाम होता हैती और अधिकारों को दबाने वाला राष्ट्र ईरान भी शामिल है. वी-डेम द्वारा भारत का ये नामांकन, फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट से मिलता जुलता है, दोनों ने भारत की रैंकिंग को जिस हद तक घटाया है, वो आपातकाल के दौर में राजनीतिक अधिकारों के दमन, चुनाव टालने और प्रेस को सेंसर करने से मेल खाने वाला है. ज़ाहिर है भारत को ‘तानाशाही बढ़ाने वाले देश’ के खांचे में रखा गया है.

वी-डेम के सूचकांकों का विश्लेषण करते हुए संजीव सान्याल और आकांक्षा अरोड़ा अपने पेपर में दिखाते हैं कि निष्पक्षता के पैमानों पर भारत ने काफ़ी अच्छा प्रदर्शन किया है, लेकिन, राय पर आधारित पैमानों में उसका स्तर लगातार गिरता गया है. भारत का स्थान 93वां है, जो लेसोथो (60), तिमोल लेस्ट (64), नेपाल (71) और भूटान (65) से भी नीचे है. सान्याल और अरोड़ा अपने पेपर में कहते हैं कि, ‘ये इस बात का प्रतीक है कि ये रैंकिंग इकतरफ़ा तरीक़े से की जाती है.’

इस पेपर में ये उचित सवाल भी उठाया गया है कि ‘कोई देश लोकतांत्रिक है अथवा नहीं, उसका मूल्यांकन करने का एक महत्वपूर्ण तत्व है: क्या शासनाध्यक्ष का चुनाव होता है?’ अगर इसे गंभीरता से लिया जाए तो इससे वी-डेम द्वारा देशों की जो रैंकिंग की गई है, उसमें अच्छी ख़ासी तब्दीली आ जाएगी और ‘अपने इलाक़े के प्रति वी-डेम का पूर्वाग्रह’ भी उजागर हो जाएगा क्योंकि स्वीडन, नॉर्वे, ब्रिटेन, डेनमार्क, बेल्जियम और नीदरलैंड सारे के सारे संवैधानिक राजशाही वाले देश हैं. ‘लोकतंत्र को मापने के लिए ये सवाल न सिर्फ उचित है बल्कि, इसका उत्तर निरपेक्षता से भी दिया जा सकता है.’

हम क्यों परवाह करें- और आगे की राह

इन्हें इनके हाल पर छोड़ दें तो ये सूचकांक और इन्हें तैयार करने वाला कुलीन वर्ग अपना खेल खेलता रह सकता है. जैसा कि अमीश त्रिपाठी ने वार ऑफ लंका  में लिखा है कि ‘कुलीन वर्ग का कुछ अधिक ही उत्पादन हो रहा है’, लेकिन कुलीनता को अभिव्यक्त करने की जगह बहुत कम बची है. नतीजा ये है कि वो अपने यहां से बाहर झांकते हैं और एक ईश्वर, एक धर्म एक लोकतंत्र का ढांचा खड़ा करने की कोशिश करते हैं. इस कुलीन वर्ग की एकध्रुवीय सोच अब तक काम करती आई है. लेकिन, अब इस लेख के बाद और भारतीय विद्वानों द्वारा अन्य सूचकांकों का निर्मम मूल्यांकन- मिसाल के तौर पर इसके लिए देखिए कि बिबेक देबरॉय ने किस तरह अपने तर्क से ‘भूख के सूचकांक’ के बारे में ये साबित किया है कि उसने ‘भूख को मज़ाक बना दिया’ है- के बाद पश्चिमी देशों के इस गोरी चमड़ी वाले प्रभुत्व को चुनौती देने की रफ़्तार और तेज़ होगी.

इसके अलावा, एक मुक्त विश्व में लोग अपनी अहमियत जताने के लिए बौद्धिक नाली के ऊपर ख़याली क़िले बनाने को स्वतंत्र हैं. समस्या तब होती है जब ऐसे सूचकांक को वैचारिक फंडिंग मिलती है और फिर इनके आधार पर कारोबारी और संस्थागत निवेश के फ़ैसलों को प्रभावित करने का प्रयास किया जाता है. वो भी स्वीकार्य है: अगर आपका कोई नज़रिया है और पैसा है, तो ऐसा ख़ूब कीजिए.

विश्व बैंक पहले से ही अपने अधिकारियों द्वारा चीन के इशारे पर ख़ारिज किया जा चुका है, डूइंग बिज़नेस रैंकिंग रिपोर्ट में की जाने वाली हेरा-फेरी के हमले झेल रहा है. अगर ये सिलसिला जारी रहता है, तो बस ये कुछ ही वक़्त की बात है, जब ख़ुद विश्व बैंक अपनी विश्वसनीयता गंवा बैठेगा.

लेकिन ये बात बिल्कुल भी स्वीकार्य नहीं है कि विश्व बैंक जैसी बहुपक्षीय संस्थाएं ऐसे विचारकों को वैधानिकता दें. विश्व बैंक पहले से ही अपने अधिकारियों द्वारा चीन के इशारे पर ख़ारिज किया जा चुका है, डूइंग बिज़नेस रैंकिंग रिपोर्ट में की जाने वाली हेरा-फेरी के हमले झेल रहा है. अगर ये सिलसिला जारी रहता है, तो बस ये कुछ ही वक़्त की बात है, जब ख़ुद विश्व बैंक अपनी विश्वसनीयता गंवा बैठेगा. ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूशन के डेनियल कॉफमैन और विश्वक बैंक के आर्ट क्राए द्वारा तैयार की गई वैश्विक प्रशासनिक सूचकांकों में ऐसे वैचारिक ग़ुबार को वैधानिकता देकर, विश्व बैंक आगे एक और अपमान झेलने की ओर बढ़ रहा है. क्योंकि सान्याल और अरोड़ा के आकलन के मुताबिक़, ऐसे सूचकांक क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों द्वारा फ़ैसले लेने में 18 से 20 प्रतिशत तक प्रभाव डालते हैं.

बौद्धिक इनपुट की आड़ में ठेले जा रहे इन नफ़रती सूचकांकों से निपटने के दो तरीक़े हैं. पहला तो स्वैच्छिक है: विश्व बैंक ख़ुद ही मूल्यांकन करे और अपने वैश्विक गवर्नेंस सूचकांकों में ऐसी व्यक्तिगत सोच वाली रैंकिंग या किसी अन्य सूचकांक को तब तक न शामिल करे, जब तक इनकी उचित समीक्षा न हो जाए. इसके लिए विश्व बैंक को उस तरीक़े में सुधार लाने की ज़रूरत है जिसके ज़रिए वो अपनी रिपोर्ट के लिए इनपुट लेता है. क्योंकि ये रिपोर्ट विकासशील देशों को वित्त के प्रवाह को प्रभावित करती है. और दूसरा, दबाव बनाने वाला तरीक़ा है: भारत की G20 अध्यक्षता दौरान प्रधानमंत्री मोदी, वैचारिक और पूर्वाग्रह लदी इस अरादजकता को ख़त्म करके तथ्यों पर बौद्धिकता और तथ्यों पर आधारित व्यवस्था को लागू करने का मज़बूती से प्रयास करें.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.