Author : Sunjoy Joshi

Published on Oct 30, 2021 Updated 0 Hours ago

आज 2008 की विपत्ति से कई गुणा ज़्यादा बड़ी विपदा ने दुनिया को अपनी आगोश में ले लिया है. कोविड का प्रभाव ऐसा है कि आज की स्थिति को द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की सबसे बड़ी आपदा माना जा रहा है

G20: दशा, दिशा और देश

30 अक्टूबर 2021 से G20 देशों का रोम में शिख़र सम्मेलन चल रहा है. क्या दुनिया की 80% जीडीपी, 75% व्यापार और 60% आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले G20 देशों के नेतागण दुनिया के द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद आए सबसे बड़े संकट से हमें बाहर निकालने के लिए एक साथ काम कर सकते हैं?

जी-20 का प्रारंभ 1999 में एशियन फाइनेंशियल क्राइसिस के बाद हुआ. एशिया में आए अर्थिक संकट के फलस्वरूप विचार बना की जी-7 और जी-8 जैसे समूह स्थिति संभाल पाने में सक्षम नहीं है. आवश्यकता समझी गयी नए उभरते देशों की हिस्सेदारी की. ऐसे गठन हुआ जी-20 समूह का जिसमें अर्थव्यवस्था, राजकोष संचालन और व्यापार के विषय पर सामूहिक विचार-विमर्श करने के लिए 19 देशों तथा यूरोपीय यूनियन के वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंक को सदस्य बनाया गया. इस तरह पहली बार गठन हुआ विकसित और विकासशील देशों का यह समूह जिसका उद्देश्य विश्व के विभिन्न  देशों की आर्थिक और व्यापार नीतियों में सामंजस्य लाना था.

2008 में अमेरिका से शुरू हुआ वित्तीय संकट पूरे विश्व में भयानक संक्रमण की तरह फैला. अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्लू बुश ने ऐसे समय में जी-20 के स्वरूप को और विस्तृत और वृहद करने के लिये इस समूह को और उच्चस्तरीय बनाने का प्रस्ताव किया।. इस तरह इन 19 देशों तथा यूरोपीय संघ के शीर्ष कार्यवाहक नेता इसके कर्णधार बने. और वास्तव में जी-20 के माध्यम से भिन्न देशों की मौद्रिक, राजकोषीय और व्यापार नीतियों में समन्वय के कारण ही 2008 में आए कठोर वित्तीय संकट से निजात पाने में काफी हद तक सफलता भी मिली.

जी-20 का प्रारंभ 1999 में एशियन फाइनेंशियल क्राइसिस के बाद हुआ. एशिया में आए अर्थिक संकट के फलस्वरूप विचार बना की जी-7 और जी-8 जैसे समूह स्थिति संभाल पाने में सक्षम नहीं है. 

आज 2008 की विपत्ति से कई गुणा ज़्यादा बड़ी विपदा ने दुनिया को अपनी आगोश में ले लिया है. कोविड का प्रभाव ऐसा है कि आज की स्थिति को द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की सबसे बड़ी आपदा माना जा रहा है. यही मौका है जी-20 को अपना दमखम दिखाकर उसके माध्यम से एक बार पुनः विश्व भर में शिथिल पड़ते बहुपक्षीयवाद का परचम फहराने का. पर अफसोस है कि यह समन्वय 2008 के बाद अधिक टिक नहीं पाया. समय के साथ इस शीर्ष समूह के बीच दरारें भी स्पष्ट होती गयी. जैसे ही 2008 की आपदा से निकास पर Quantitative Easing की बात आयी, तो समूह में शामिल सभी देश भिन्न-भिन्न रास्तों पर चलने लगे और 2011-13 तक तो मानो यहाँ भी बजने लगी अपनी अपनी ढपली अपना अपना राग. इयान ब्रेमर ने टिप्पणी की कि आज की दुनिया में न जी-20, न जी-7 बचा है, न जी-2. हम अब जी-0 विश्व के वासी बन चुके हैं. 

तो, क्या G20 आज अपनी 2008 की सफलता को दोहरा सकता है? रोम से क्या विशिष्ट परिणामों की उम्मीद की जा सकती है? 

जी-20 के बारे में इसके आलोचक कहते आए हैं कि भले ही यह एक बहुपक्षीय मंच है लेकिन इसकी अध्यक्षता साल दर साल बदलती रहती है. 2021 में इटली के पास से ये शिखर सम्मेलन इंडोनेशिया के पास की हो जाएगी और फिर अगले वर्ष भारत के हाथ जो 2022 में इसकी अध्यक्षता ग्रहण कर, 2023 में ऐसे ही शिखर सम्मेलन का आयोजन करेगा. ऐसे में हर देश, अपनी छाप छोड़ने के चक्कर में नये एजेंडा को लेकर सामने आता है. मसलन इटली ने इस वर्ष इटली के आयोजन को उपनाम दिया – तीन ‘P’ का – Planet, People and Prosperity. हिन्दी में कहें तो तीन “प” में से दो तो प्रजा और पृथ्वी मिल जाते हैं पर तीसरे ‘पी” को पार पाना मुश्किल हो जाता है. “Prosperity” यानी समृद्धि – और वो भी कोविड के चंगुल से बाहर निकल पाने कि आस लगाए बैठी दुनिया में क्या यह समृद्धि संभव है, या फिर सही उद्देश्य है?

आज जिस विपदा में हम हैं उसमें समृद्धि का स्वप्न देखने की बात तो छोड़िए, चुनौती है की दुनिया फिर से अपने पैरों पर खड़ी भर तो हो जाए! 

कोविड से संघर्षरत दुनिया के बारे में आईएमएफ (IMF) ने मार्च में लिखा था की इस महामारी के फलस्वरूप विश्व भर में एक भयावह स्खलन देखने को मिल रहा है. उसको उन्होंने नाम दिया “The Great Divergence”. इस स्खलन के परिणामस्वरूप एक भयावह खाई पैदा हो गयी है जो समय के साथ-साथ न सिर्फ़ गहराती जा रही बल्कि इसके पाटों के बीच का फासला बढ़ता जा रहा है. दुनिया के सामने चुनौती है की इस खाई को आखिर पाटा जाए तो कैसे? 

कोविड से संघर्षरत दुनिया के बारे में आईएमएफ (IMF) ने मार्च में लिखा था की इस महामारी के फलस्वरूप विश्व भर में एक भयावह स्खलन देखने को मिल रहा है. उसको उन्होंने नाम दिया “The Great Divergence”.

एक ओर असमान गति से विकास दर बढ्ने के कारण अमीर और गरीब देशों के बीच असमानता का फासला बढ़ता ही जा रहा है. दूसरी ओर सभी देशों के अंदर भी यही दरार निरंतर प्रगति पर है.  हर जगह अमीर और अमीर होता जा रहे हैं और गरीब गर्त में समाता जा रहा है. विकसित देशों ने कोविड से पैदा हुई विपत्ति पर पूरे $14 ट्रिलियन डॉलर फेंक डाले – अमीर देशों में सस्ती मुद्रा मतलब ब्याज दर शून्य से भी कम है. जो ले सके वो उधार क्यों न ले? उधार की इस बाढ़ से विश्व भर के बाज़ारों में मुद्रा जनित भयंकर उछाल देखने को मिला जिसने अमीरों को और अमीर बना दिया है. दूसरी ओर कोविड जनित तालाबंदियों ने लाखों छोटे मध्यम स्तर के उद्योगों की कमर तोड़ करोड़ों को बेरोज़गार कर दिया. व्यवसायों के बंद होने से आर्थिक हाशिये पर रहने वालों को दो वक्त़ की रोटी के लिए संघर्ष करना पड़ा. 

विघटन सिर्फ देश के अंदर अमीर गरीब के बीच नहीं बल्कि सामाजिक वर्गों के बीच, लिंग भेद के बीच गहराता जा रहा है. आज जब वर्क फ्रोम होम का बोल बाला है तब महिलाओं को ही देखना  पड़ता है की घर के बच्चे भी स्कूल फ्रॉम होम करें. आजीविका साधन में महिलाएँ ही पुरुषों के मुक़ाबले अपने आप को अधिक बेबस पा रही हैं. आजीविका ही क्यों, यह दरार टेक्नोलॉजी में भी है. आज जब सारी दुनिया में ऑनलाइन का ज़ोर है ऑनलाइन कंपनियों की तो अवश्य पौ-बारा होनी ही है. लेकिन ऑनलाइन साधनों तक पहुँच में सबसे कमजोर वर्ग वही है जो सामाजिक रूप से कमज़ोर है. चाहे वो गरीब देश का गरीब नागरिक हो या फिर महिला हो.  

इस प्रकार विघटन हर दिशा मैं अपने पैर पसारता जा रहा है. यह एक अप्रत्याशित चुनौती है, जिसका सामना करने के लिए भी अप्रत्याशित कदम उठाए जाना अनिवार्य है. लेकिन जी-20 के समान ऐसी ही संस्थायें जिन्हें इससे निपटना है, वो आज कितनी सक्षम हैं? उनके भीतर साथ मिलकर काम करने की कितनी सहमति है? यही प्रश्नचिन्ह आज जी-20 पर लगा हुआ है. यदि आप टीकाकरण को देखें, तो सभी का मानना है ‘समान पहुंच’ की आवश्यकता पर. लेकिन देखा हमने इसका ठीक विपरीत है. इन असमानताओं का G20 सम्मेलन क्या समाधान कर सकता है?

जहां तक कोविड के बाद विश्व व्यवस्था को संभालने के लिए एक्शन प्लान का सवाल है, उसमें तीन प्रमुख एक्शन हैं .  वैक्सीनेशन, टेक्नोलॉजी और अमीरी-ग़रीबी – तीनों में पैदा हो चुके गहराते फासले को पाटना. पर अब हम शिखर सम्मेलन तक आ चुके हैं. वास्तव में काम के सभी मुद्दे, एक्शन-प्लान जैसी चीजें, जी-20 शीर्ष सम्मेलन से पहले हो चुके कई छोटे-छोटे सम्मेलनों में अपना स्वरूप पहले ही ले लेती है. इनमें वित्त मंत्रियों और अन्य मंत्रियों के बीच पहले हो चुकी चर्चाएं शामिल होती हैं, जिनमें जहां आम सहमति बन सकती है या बना ली जाती है. इस प्रकार जहां तक गरीब देशों को उनके कर्ज़ से कुछ राहत देने का मुद्दा है उसको लेकर वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ आदि संस्थाओं के साथ विचार कर कई कदमों पर सहमति आज बन चुकी है. ऐसे देशों को कैसे सांस लेने तक का समय दिया जा सके ताकि वे तनिक और सक्षम हो सकें इस विपत्ति का सामना करने के लिये. कुछ कदम उठाने पर सहमति बन चुकी है अब देखना है कि यह कितनी आगे चलती है. 

विघटन हर दिशा मैं अपने पैर पसारता जा रहा है. यह एक अप्रत्याशित चुनौती है, जिसका सामना करने के लिए भी अप्रत्याशित कदम उठाए जाना अनिवार्य है. लेकिन जी-20 के समान ऐसी ही संस्थायें जिन्हें इससे निपटना है, वो आज कितनी सक्षम हैं? उनके भीतर साथ मिलकर काम करने की कितनी सहमति है? यही प्रश्नचिन्ह आज जी-20 पर लगा हुआ है.

इसी तरह डिजिटल टैक्स को लेकर चल रही तना-तनी भी समाधान की ओर अग्रसर दिखती है. और क्यों न हो?  आज सभी चीज़ों के ऑनलाइन होने से ई-कॉमर्स हो या IT सर्विस देने वाली कंपनियों – सब की आमदनी में काफी इज़ाफा हुआ है. आखिर  टेक्नोलॉजी कंपनी ही इस बुरे वक्त में इकोनॉमी का भार उठाए हुए हैं. चाहे शिक्षा हो या एडवरटाइजिंग, या फिर वर्क फ्रॉम होम,  टेक्नोलॉजी पर आधारित सर्विस में लॉकडाउन के दौरान भारी इज़ाफा हुआ है. पर इसके बढ़ने के साथ समस्या पैदा हो गयी थी इन पर लागू होने वाली टैक्स व्यवस्था की. भारत ने 2016 से ऑनलाइन विज्ञापनों पर सर्विस टैक्स सरीखे, सेवा के कुल मूल्य पर, 2% टैक्स लगाना प्रारम्भ कर दिया था. विगत वर्ष ई -कॉमर्स पर भी इसी तरह 6% टैक्स लगा दिया गया. 

कंपनियों ने और जिन देशों में यह कंपनियां स्थित हैं उन्होंने आपत्ति की. बड़ी आपत्ति अमेरिकी ने लगाईं, उनका कहना था कि लाभ पर टैक्स लगायें क्योंकि ऐसा न करने पर छोटी छोटी कंपनियां मारी जायेंगी. फिर जी-20 के आते- आते  विकासशील देशों के संगठन ओईसीडी ने 137 देशों को राज़ी करा लिया कि 15% का एक न्यूनतम टैक्स डिजिटल सर्विस पर हर देश लगायेगा. गौर करें कि हंगरी, एस्टोनिया, आयरलैंड जैसे देश शून्य टैक्स लगा अपने यहां कंपनियों को निवेश करने के लिए प्रेरित करते आ रहे थे.  देशों के बीच के इस स्पर्धा को रोकने के लिए ही लाभ पर न्यूनतम टैक्स पर दुनिया के देश एक-राय हुए हैं. पर सभी इस से समान रूप से प्रसन्न नहीं. 

लंबी अवधि में, तकनीकी सेवा प्रदाता बनने के इच्छुक (मसलन भारत) जैसे देशों को अंततः कम दर से लाभ होता है, भले ही वे अल्पावधि में कुछ राजस्व खो दें. एक आईटी पावर हाउस के रूप में भारत को इस व्यवस्था का दीर्घकालिक लाभ होना चाहिए. 

लेकिन आम सहमति बनाने की प्रक्रिया एक कठिन काम है. आपसी प्रतिस्पर्धी हित हैं. यहाँ तक पहुँचने के लिए कई रियायतें दी गई हैं. अभी भी 2023 की समय-सीमा के अंदर समस्त देश अपना-अपना शुल्क वापस ले लेंगे – निश्चित नहीं, क्योंकि दी गयी रियायतों में कुछ देशों को इस अवधि पर दस वर्ष की रियायत भी शामिल है.  

इसी तरह डिजिटल टैक्स को लेकर चल रही तना-तनी भी समाधान की ओर अग्रसर दिखती है. और क्यों न हो?  आज सभी चीज़ों के ऑनलाइन होने से ई-कॉमर्स हो या IT सर्विस देने वाली कंपनियों – सब की आमदनी में काफी इज़ाफा हुआ है.

अंत में डिजिटल कर के मुद्दे पर अमेरिकी ने समस्त ऐसे देशों पर, जो डिजिटल टैक्स लगा कर बैठे थे, प्रतिबंध और टैरिफ लगा दिये. लगाने के बाद तुरंत स्थगित भी कर दिये इस धमकी के साथ की नवंबर तक समझौता न होने पर उसके प्रतिबंध कारगर हो जाएंगे. यानी की सहमति बन तो गयी पर समझो तो बंदूक की नोक पर. इस प्रकार जी-20 में हर चीज़ पर चाहे वो पर्यावरण हो, या डिजिटल टैक्स हो या फिर भविष्य में होने वाला मॉनेटरी रिलीफ़ किसी भी प्रकार की सहमति बन ही जाये कहना मुश्किल है क्योंकि आज अमेरिका और चीन समेत दुनिया के कई देशों के बीच विभाजन साफ़तौर पर देखा जा रहा है.

जी-20 और “Build Back Better” का भविष्य

ऐसे में G20 द्वारा स्थापित Resilience and Sustainability Trust” का भविष्य क्या है? क्या G20 अपनी वर्तमान स्थिति में वास्तव में महामारी के बाद बेहतर तरीके से बेहतर निर्माण कर सकता है?

Build back Better का सीधे-सीधे तात्पर्य है इंफ्रास्ट्रक्चर से. कैसे आने वाले समय में हम एक लचीला इंफ्रास्ट्रक्चर बनाएँ  ताकि कोविड काल में सप्लाई-चेन में जो जर्जरता आई है उसे दुरुस्त किया जा सके और सुनिश्चित करें कि भविष्य में ऐसा दोबारा न हो. पर इंफ्रास्ट्रक्चर को लेकर जी-20 के देशों के बीच आम-सहमति बना पाना बहुत मुश्किल है. स्वयं जी-20 का इतिहास साक्षी है. 

Build back Better का सीधे-सीधे तात्पर्य है इंफ्रास्ट्रक्चर से. कैसे आने वाले समय में हम एक लचीला इंफ्रास्ट्रक्चर बनाएँ  ताकि कोविड काल में सप्लाई-चेन में जो जर्जरता आई है उसे दुरुस्त किया जा सके और सुनिश्चित करें कि भविष्य में ऐसा दोबारा न हो.

इंफ्रास्ट्रक्चर को लेकर इस समूह में 2011-2014 से ही संघर्ष शुरु हो चुका था. विकासशील देशों को आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक जैसी संस्थाओं पर भरोसा नहीं था क्योंकि जगह जगह उनके द्वारा जिस प्राइवेट-पब्लिक पार्टनरशिप (PPP) मॉडल बनाए जा रहे थे उनमें सफलता कम ही हाथ लगी. इसके साथ ही इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट पर कई तरह की पाबन्दियाँ लगाने लगी की कैसे ये प्रोजेक्ट दीर्घकालिक हों और sustainable हों. पीपीपी मॉडल के चलते विकासशील देशों को लगने लगा की ऐसे में उनकी जरूरतों की दाल गलने वाली नहीं. 2013-14 में दुनिया में स्थापित IMF और World Bank जैसी शीर्ष संस्थाओं को लेकर ही विघटन की प्रक्रिया शुरू हो गयी. चीन ने एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर एंड इन्वेस्टमेंट बैंक (AIIB) की नींव रखी और फिर उसके अगले साल ब्रिक्स (BRICS) बैंक भी बन गया. साथ ही चीन ने घोषणा कर दी अपने बेल्ट एंड रोड इनिशियेटिव (BRI) की. दरार इस बात पर अब और ज़्यादा गहराई कि इंफ्रास्ट्रक्चर का निर्माण कौन करेगा और कैसे करेगा? कहा जाने लगा की चीन जिस तरह से इंफ्रास्ट्रक्चर बना रहा है, वो देशों के हित में नहीं है. लेकिन विकल्प के तौर पर कुछ और सामने आ नहीं रहा. ओईसीडी यानि विकसित देश जैसे ऑस्ट्रेलिया, यूरोप और अमेरिका अभी भी पीपीपी मॉडल के ज़रिये प्राइवेट पार्टनरशिप के ज़रिये विकास करने पर ज़ोर देते हैं. 

हाँ, आज ज़रूरत एक ऐसे इंफ्रास्ट्रक्चर की जो न सिर्फ़ लंबे समय तक चले बल्कि टिकाऊ अर्थात सस्टेनेबल भी हो. लेकिन जब पीपीपी में प्राइवेट सेक्टर (पीपीपी) की बात होती है और रिस्क रिटर्न का प्रश्न उठता है तो प्राइवेट और पब्लिक दोनों धड़ों के उद्देश्य भिन्न-भिन्न हो जाते हैं. एक लाभ पर टिका है तो दूसरा दीर्घ-काल और टिकाऊपन पर. ऐसे में इन पार्टनरों के बीच जोख़िम का बंटवारा कैसे हो? परिणाम ये कि बातें ज्य़ादा पर वास्तव में सड़कों, रेलों, बिजली घरों, डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर आदि में निवेश लगभग नदारद.  

आज ज़रूरत एक ऐसे इंफ्रास्ट्रक्चर की जो न सिर्फ़ लंबे समय तक चले बल्कि टिकाऊ अर्थात सस्टेनेबल भी हो.

जब इंफ्रास्ट्रक्चर को लेकर दुनिया दो खेमों में बंट चुकी है तो ‘Build Back Better’ को लेकर ही सबसे बड़ा विवाद शुरु हो जाता है. कि कैसे और कौन ये काम करेगा और उसका स्वरूप क्या होगा?

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