Published on Oct 07, 2023 Updated 19 Days ago

रक्षा के क्षेत्र में एकीकरण (थियेटराइज़ेशन) होने के साथ भारत की रक्षा ज़रूरतों के लिए अंतरिक्ष की क्षमता का इस्तेमाल करने का ये सही समय है.

राइफल से रफाल तक: रक्षा के लिए अंतरिक्ष

अंतरिक्ष: सुरक्षा महत्व

किसी भी सैन्य अभियान- सामरिक लड़ाई से लेकर रणनीतिक युद्ध तक हर क्षेत्र में- में लड़ाई के लिए ऑब्ज़र्वेशन, पोज़िशन और कम्युनिकेशन (निगरानी, स्थिति और संचार) तीन प्रमुख विशेषताएं हैं. अपनी ख़ास विशेषताओं की वजह से अंतरिक्ष सबसे भरोसेमंद ताकत बढ़ाने वाले क्षेत्र के तौर पर उभरा है जो वैश्विक कवरेज, सख्त निगरानी, बेरोकटोक संचार, तुरंत जवाब, ग्लोबल नेविगेशन और मल्टीमॉडल इंटीग्रेशन मुहैया कराने में ज़मीन, समुद्र और हवा आधारित प्लैटफॉर्म की गंभीर हदों को दरकिनार करता है. 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध के आख़िरी दौर में इसका आगमन हुआ था जब निराश जर्मनी ने फ्रांस और ब्रिटेन की सेना पर V2 रॉकेट दागे थे. आज अंतरिक्ष आधुनिक युद्ध की सबसे बड़ी तरकीब के रूप में रक्षा क्षमता बढ़ाने के लिए ढेर सारे अवसर पेश करता है.

आज अंतरिक्ष आधुनिक युद्ध की सबसे बड़ी तरकीब के रूप में रक्षा क्षमता बढ़ाने के लिए ढेर सारे अवसर पेश करता है.

एक अच्छी तरह परिभाषित संरचनात्मक रोडमैप, जिसमें सभी संभावित वास्तविक और अमूर्त विशेषताएं शामिल हों, उसको विकसित करने के लिए अंतरिक्ष के क्षेत्र में मौजूदा सैन्य क्षमता में सामंजस्य को स्थापित करने और भविष्य की स्पेस टेक्नोलॉजी सॉल्यूशंस के सबसे अच्छे इस्तेमाल की ज़रूरत पर इससे ज़्यादा ज़ोर नहीं दिया जा सकता है. उम्मीद के मुताबिक नतीजे हासिल करने के लिए भारत की अंतरिक्ष क्षमता, जिसमें न केवल आसमान के चक्कर लगाने वाले सैटेलाइट शामिल हैं बल्कि ग्राउंड और यूज़र सेगमेंट का एकीकृत विकास भी है, इसके पूरी तरह इस्तेमाल के अलावा उपयुक्त तकनीक़ी विकास को उचित ढंग से मिलाने की ज़रूरत है. इस तरह सामूहिक रूप से शांति और युद्ध के समय इरादे के मुताबिक रक्षा का इस्तेमाल होगा.

अंतरिक्ष-रक्षा मैट्रिक्स

पिछले दो दशकों के दौरान दुनिया भर में स्पेस को महत्वपूर्ण रूप से रक्षा के क्षेत्र में एकीकृत किया गया है (यहां तक कि भारत में भी कुछ हद तक). ‘स्पेस फॉर सिक्युरिटी’ के साथ एकीकृत दो अलग स्थितियां हैं अंतरिक्ष के ज़रिए रक्षा बलों की लड़ाई की क्षमता में बढ़ोतरी और अंतरिक्ष की परिसंपत्तियों (एसेट्स) (जिनमें स्पेस सिचुएशनल अवेयरनेस और काउंटर-स्पेस ऑपरेशंस शामिल हैं) की सुरक्षा. अंतरिक्ष परंपरागत युद्ध, विषम ख़तरे और आपदा के जवाब से लेकर क्षेत्र के बाहर अचानक ऑपरेशन जैसे सैन्य अभियानों के लिए ज़मीन, हवा और समुद्र में एकीकरण की क्षमता मुहैया कराता है. संक्षेप में कहें तो ये अंतरिक्ष आधारित C4ISR सिस्टम[i] है जो लड़ाई के मैदान में रक्षा बलों की तैयारी और असर को बढ़ाने में अहम है. अंतरिक्ष आधारित मौसम पूर्वानुमान, सुरक्षित संचार, खुफिया जानकारी इकट्ठा करना, हर समय निगरानी, गहराई से टोह, सटीक स्थिति निर्धारण, स्पष्ट नेविगेशन, टारगेट बनाना और साइबर स्पेस एवं आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) के साथ अच्छी तरह से एकीकृत मिसाइल वॉर्निंग का इस्तेमाल हर सैनिक को युद्ध के एक ताकतवर सिस्टम में बदलने की क्षमता रखता है. रक्षा इस्तेमाल के लिए अंतरिक्ष की क्षमता बिना लड़ाई के जीतने में है और इसलिए भारत को अपनी क्षमता बढ़ाने के साथ-साथ अंतरिक्ष के आवश्यक क्षेत्र से परे सिस्टम में निवेश करने की ज़रूरत है ताकि अलग तरह की चीज़ खोजी जा सके.

रक्षा इस्तेमाल के लिए अंतरिक्ष की क्षमता बिना लड़ाई के जीतने में है और इसलिए भारत को अपनी क्षमता बढ़ाने के साथ-साथ अंतरिक्ष के आवश्यक क्षेत्र से परे सिस्टम में निवेश करने की ज़रूरत है ताकि अलग तरह की चीज़ खोजी जा सके.

भविष्य की जंग के बदलते स्वरूप को लेकर अलग-अलग थ्योरी के साथ युद्ध में असरदार इस्तेमाल के लिए तकनीक का विध्वंसकारक उपयोग बदल गया है. युद्ध के सभी संभावित फॉर्मेट- कम दिनों के प्रचंड परंपरागत युद्ध से लेकर हाइब्रिड, नेटवर्क केंद्रित, ग्रे-ज़ोन और सबसे ताज़ा मल्टी-डोमेन युद्ध तक- में एक बात सामान्य है- ‘निर्णय लेने की प्रक्रिया को छोटा करने के लिए C4ISR सिस्टम का एकीकरण’. आज जब दूसरी अग्रणी सैन्य तकनीकें अच्छी तरह से परिपक्व हो गई हैं तो स्पेस टेक्नोलॉजी तेज़ विकास की राह पर है और हाइपरसोनिक ग्लाइड व्हीकल, रियूज़ेबल लॉन्च व्हीकल, इन-ऑर्बिट रिफ्यूलिंग एवं मेंटनेंस, को-ऑर्बिटल एप्लिकेशन, लो अर्थ ऑर्बिट (LEO) में इंटरनेट ऑफ थिंग्स (IOT) उपग्रह, पृथ्वी और चांद के बीच खोज, क्वॉन्टम कम्युनिकेशन, मल्टी-पेलोड उपग्रह, डायरेक्टेड एनर्जी वेपन और अन्य कई चीजों में आविष्कार की खोज हो रही है जिससे सैन्य मामलों में क्रांति आ रही है.

अलग-अलग तकनीकी क्षमताओं में अंतर के अलावा भारत जैसी उभरती हुई अंतरिक्ष शक्ति के सामने सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है अंतरिक्ष का एकीकरण और साझा C4ISR सिस्टम का समग्र रूप से इस्तेमाल. राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अंतरिक्ष के इस्तेमाल से जुड़े संगठनों को बेहतर अंतर-एजेंसी तालमेल, असरदार संरचनात्मक सुधार, नज़रिए में बदलाव और चरणबद्ध रोडमैप तैयार करने में प्रयोग के साथ क्षमता के विकास पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है.

विश्लेषणात्मक तस्वीर

1957 में रूस के द्वारा पृथ्वी की कक्षा में पहला निगरानी सैटेलाइट उतारने के साथ अंतरिक्ष युग की शुरुआत के समय से अंतरिक्ष यात्रा करने वाले प्रमुख देशों (अमेरिका, रूस और चीन) के द्वारा बाद के सभी लॉन्च में सैन्य इरादा साफ और स्पष्ट था. ये भारत से हटकर था जिसने 1980 में रोहिणी-I को धरती की निगरानी के लिए अपने पहले दोहरे इस्तेमाल के सैटेलाइट के तौर पर लॉन्च किया था. भारत के द्वारा लॉन्च किए गए 115 सैटेलाइट में से 64 सैटेलाइट पृथ्वी की कक्षा में काम कर रहे हैं. भारत का पहला उपग्रह 1975 में छोड़ा गया था. भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) ने जहां वैश्विक स्तर पर संख्या के मामले में अंतरिक्ष व्यवस्था में छठे स्थान का दावा किया है वहीं चीन 2018 में रूस- जो उस वक्त दूसरे नंबर पर था- से आगे निकल गया और रूस के 230 सैटेलाइट के मुकाबले 645 काम-काजी सैटेलाइट को ऑपरेट करता है. चीन के मशहूर होने की वजह कभी न ख़त्म होने वाली सूची है. उसने कई मील के पत्थर हासिल किए हैं जिनमें आक्रामक एवं रक्षात्मक अंतरिक्ष युद्ध की क्षमता (हार्ड और सॉफ्ट स्किल) समेत सभी प्रकार की अद्वितीय तकनीक का प्रदर्शन; सैन्य इस्तेमाल के लिए धरती की निगरानी करने वाले उपग्रह की सीरीज़ जैसे याओगान, गाओफेन, जिलिन, शियान, जियांगबिंग; दुनिया का इकलौता क्वॉन्टम कम्युनिकेशन सैटेलाइट ‘मिसियस’; ग्लोबल नेविगेशन सैटेलाइट सिस्टम (GNSS) ‘बाइडू’ (मात्रात्मक और गुणात्मक रूप से GPS से भारी); हवा, समुद्र और ज़मीनी लॉन्च प्लैटफॉर्म; लगभग पूर्ण चीनी अंतरिक्ष केंद्र; इंटरनेशनल लूनर रिसर्च स्टेशन (ILRS जो कि अमेरिका के अर्टेमिस अकॉर्ड से मुकाबला करने के लिए रूस-चीन के बीच सहयोग है) का पृथ्वी और चांद के बीच खोज का कार्यक्रम और इसी तरह की चीज़ें शामिल हैं.

भारत और चीन ने 60 के दशक में लगभग एक समय अपने अंतरिक्ष कार्यक्रम की शुरुआत की थी लेकिन आज दोनों में कोई समानता नही है- न तो क्वॉलिटी के मामले में, न संख्या के मामले में.

भारत और चीन ने 60 के दशक में लगभग एक समय अपने अंतरिक्ष कार्यक्रम की शुरुआत की थी लेकिन आज दोनों में कोई समानता नही है- न तो क्वॉलिटी के मामले में, न संख्या के मामले में. 2020 से चीन के द्वारा सालाना लॉन्चिंग भारत के कुल काम-काजी स्पेस एसेट्स के लगभग बराबर है. हर 10 मिनट से भी कम समय में दुनिया के हर इंच को स्कैन करने की अपार क्षमता; पोज़िशनिंग, नेविगेशन एंड टाइमिंग (PNT) डेटा पर सेंटीमीटर के हिसाब से सटीक निशाना, जैमिंग और स्पूफिंग (धोखा देने) अटैक के ख़िलाफ़ प्रमाणित क्वॉन्टम टेक्नोलॉजी एन्क्रिप्शन हासिल करके चीन अपनी ही PDC[ii] और स्टैंडर्ड को मात दे रहा है और इसलिए भारत के लिए एक चिंता का कारण है. अंतरिक्ष के मामले में दोनों प्रतिद्वंद्वियों के बीच आज कम-से-कम ‘10 गुना’ का अंतर है चाहे सालाना बजट हो या लॉन्च या फिर रिसर्च, ट्रेनिंग, एकेडमिक सुविधाएं, प्राइवेट सेक्टर की भागीदारी या अंतरिक्ष में प्रदर्शन के साथ ताकत की नुमाइश.

मुद्दे की हकीकत

भारत ने लोगों के इस्तेमाल और अंतरिक्ष में छानबीन के मामले में स्पेस टेक्नोलॉजी की संभावना का पर्याप्त उपयोग किया है लेकिन जब बात राष्ट्रीय सुरक्षा की आती है तो इसके सही इस्तेमाल के मामले में भारत काफी पीछे है. बजट, जो कि निश्चित रूप से प्राथमिक बाधा बना हुआ है, के अलावा रक्षा ज़रूरतों के लिए अंतरिक्ष को बेहतर ढंग से इस्तेमाल करने के नज़रिए को भी झटका लगा है. सबसे पहले तो रक्षा की भारी और न्यूनतम आवश्यकताओं को टुकड़ों में पूरा करने में और उसके बाद उम्रदराज एसेट्स/कोशिशों को सिर्फ़ जिंदा रखने में नज़रिया मुख्य रूप से प्रतिक्रियाशील (रिएक्टिव) और सहायक था.

वैसे तो ऊपर बताए गए दृष्टिकोण के कारण रक्षा के लिए अंतरिक्ष का अच्छा उपयोग नहीं हो पाया है लेकिन पिछले कुछ वर्षों के दौरान राष्ट्रीय सामाजिक-आर्थिक एवं सुरक्षा के हालात पर विचार करते हुए ये कामचलाऊ ढंग से उचित पाया गया है. हालांकि ये देखा गया है कि अंतरिक्ष के ज़रिए रक्षा के लिए क्षमता निर्माण पर ज़ोर बाहरी सुरक्षा ख़तरों के आने के बाद काफी हद तक एक प्रतिक्रियावादी उपाय था. उदाहरण के लिए, ये संयोग नहीं है कि नाविक (भारत का सैटेलाइट नेविगेशन सिस्टम), PNT रेस्ट्रिक्टेड सर्विस (RS) प्रोजेक्ट और सामरिक अंतरिक्ष आधारित निगरानी (SBS) कार्यक्रम की शुरुआत करगिल संकट के बाद ही हुई थी. यही बात रिसात सैटेलाइट के मामले में भी है. वैसे तो दोनों दोहरे इस्तेमाल वाले प्रोजेक्ट सक्रिय और काम कर रहे हैं लेकिन अच्छे प्रोडक्ट की कमी और यूज़र एवं स्पेस सेगमेंट में विकास होने में लगने वाले लंबे समय की वजह से सामरिक इस्तेमाल में असरदार प्रयोग में दिक्कत आ रही है. इस संकट से प्रेरित दृष्टिकोण से संकेत लेते हुए रक्षा अंतरिक्ष नीति की गाइडलाइन, डॉक्ट्रिन, रणनीति, सांगठनिक संरचना, तकनीकी समर्थन एवं इंफ्रास्ट्रक्चर के मामले में व्यापक योजना बनाने की अहम ज़रूरत है.

जैसे-जैसे भारत अपने स्पेस एंटरप्राइज़ का विकास और विस्तार कर रहा है, वो तेज़ी से परिपक्व हो रहे अंतरिक्ष के क्षेत्र में सफलता हासिल करने के लिए व्यावसायिक अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था की तरक्की का लाभ उठा सकता है.

रक्षा के लिए अंतरिक्ष के उपयोग के क्षेत्र में हाल के सैन्य घटनाक्रम दिखाते हैं कि अंतरिक्ष की खोज में शामिल बड़े देशों ने पिछले पांच से सात वर्षों में अपने रक्षा अंतरिक्ष संगठनों को बढ़ाया है. रशियन एरोस्पेस फोर्सेज़ (2015), चाइनीज़ स्ट्रैटजिक सपोर्ट फोर्स (2016), US स्पेस फोर्स (2019), फ्रेंच स्पेस कमांड (2019), UK स्पेस कमांड (2021) और ऑस्ट्रेलियन डिफेंस स्पेस कमांड (2022) इसके उदाहरण हैं. इस ज़रूरत को स्वीकार करते हुए भारत ने अक्टूबर 2018 में इंटीग्रेटेड डिफेंस स्टाफ हेडक्वार्टर (HQ IDS) के तहत अपनी रक्षा अंतरिक्ष एजेंसी तैयार की है जबकि इसके तकनीकी समकक्ष डायरेक्टोरेट ऑफ स्पेशल प्रोजेक्ट्स का गठन रक्षा अनुसंसधान एवं विकास संगठन (DRDO) के तहत किया गया है. इन्हें जून 2019 से काम-काज में लाया गया है. 2020 में प्राइवेट स्पेस इंडस्ट्री को खोलने के साथ ये कदम वैसे तो साफ तौर पर गंभीरता से रक्षा अंतरिक्ष क्षेत्र को विकसित करने के दांव हैं लेकिन ज़्यादा-से-ज़्यादा लाभ हासिल करने के लिए मक़सद को अच्छी तरह परिभाषित करने और उसके लिए योजना बनाने की ज़रूरत है.

रक्षा के लिए अंतरिक्ष क्षमताओं की बेहतरीन संभावना का उपयोग करने के लिए एक बहु-आयामी रणनीति को लाने की तुरंत आवश्यकता है ताकि पारंपरिक दृष्टिकोण, धुंधली नीतियों और गायब संरचना एवं रोडमैप में ज़रूरी बदलाव किया जा सके.

भारत के द्वारा अंतरिक्ष का इस्तेमाल रक्षा अंतरिक्ष के क्षेत्र में चुनौतियों को पूरा करने और मौके का फायदा उठाने के हिसाब से विकसित होना चाहिए. लचीलापन और इंटरऑपरेबिलिटी जैसी विशेषताओं को अपनाकर भारत असरदार, जवाबी और मज़बूत स्थिति को सुनिश्चित करके रक्षा अंतरिक्ष की संरचना का बेहतरीन इस्तेमाल कर सकता है. सहयोगियों और व्यावसायिक संस्थाओं के साथ तालमेल से भारत की अंतरिक्ष क्षमताओं में और बढ़ोतरी हो सकती है और इससे राष्ट्रीय सुरक्षा के उद्देश्यों में समर्थन मिल सकता है. जैसे-जैसे भारत अपने स्पेस एंटरप्राइज़ का विकास और विस्तार कर रहा है, वो तेज़ी से परिपक्व हो रहे अंतरिक्ष के क्षेत्र में सफलता हासिल करने के लिए व्यावसायिक अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था की तरक्की का लाभ उठा सकता है. रक्षा के क्षेत्र में अब एकीकरण (थियेटराइज़ेशन) होने के साथ भारत की रक्षा ज़रूरतों के लिए अंतरिक्ष की क्षमता का इस्तेमाल करने का ये सही समय है.


कर्नल बालक सिंह वर्मा, VSM, आर्मी एयर डिफेंस ऑफिसर हैं. IMA से 1997 में उन्हें शिल्का रेजिमेंट में कमीशन मिला था.

[i] C4ISR is an acronym that stands for Command, Control, Communications, Computers, Intelligence, Surveillance, and Reconnaissance. This term is commonly used in military and defence contexts to refer to integrated systems and technologies that support various aspects of military operations, including decision-making, communication, data analysis, and situational awareness. These systems are essential for coordinating and conducting military activities efficiently and effectively.

[ii] Probable Date of Completion

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