Author : Soumya Awasthi

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Published on Nov 14, 2025 Updated 0 Hours ago

जैश-ए-मोहम्मद का नया ऑनलाइन कोर्स ‘तुहफ़त-उल-मोमिनात’ सिर्फ़ मज़हबी तालीम नहीं बल्कि एक नई डिजिटल जिहाद रणनीति का चेहरा है. 10 नवंबर को दिल्ली लाल किले के पास हुए कार धमाके जैसे घटनाओं के बाद यह कोर्स और भी खतरनाक रूप ले चुका है, यह दिखाते हुए कि आतंक का मोर्चा अब मैदान से सीधे मोबाइल स्क्रीन पर बदल गया है.

लाल किला धमाका और डिजिटल जिहाद: खतरा अब स्क्रीन पर

अक्टूबर 2025 के अंत में, पाकिस्तान-परस्त और संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रतिबंधित आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद (JeM) ने ‘तुहफ़त-उल-मोमिनात’ नाम से एक ऑनलाइन कोर्स शुरू किया, जिसका अर्थ है- महिला जाहिदों के लिए सौगात. यह कोर्स ख़ास तौर से महिलाओं के लिए बनाया गया है और इसका प्रचार-प्रसार एन्क्रिप्टेड टेलीग्राम ग्रुप, जैश के मीडिया विंग से जुड़े सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म और विशेष मदरसों के माध्यम से किया जा रहा है. इस कोर्स में दाख़िले के लिए महिलाओं से 500 पाकिस्तानी रुपये (150 भारतीय रुपये) लिए जा रहे हैं ताकि वे ‘जिहाद, बलिदान और पाक-दामनी को समझने’ के लिए ‘रूहानी सफ़र’ की ओर बढ़ सकें.

  • तुहफ़त-उल-मोमिनात से पता चलता है कि आतंक का मोर्चा अब मैदान से मोबाइल स्क्रीन पर स्थानांतरित हो चुका है.
  • अक्टूबर 2025 में जैश-ए-मोहम्मद ने महिलाओं के लिए ‘तुहफ़त-उल-मोमिनात’ नामक ऑनलाइन कोर्स लॉन्च किया.
  • कोर्स का उद्देश्य वैचारिक ट्रेनिंग देने के साथ-साथ फंडिंग जुटाना भी है

इसी महिला ब्रिगेड, जमात-उल-मोमिनात पर दिल्ली लाल किले के पास 10 नवंबर, 2025 को हुए कार धमाके में शामिल होने का शक है. डॉ शाहीन शाहिद इसी विंग से जुड़ी थी और माना जा रहा है कि भारत में इसकी कार्रवाइयों को अंजाम देने की ज़िम्मेदारी उसी को मिली है. कुछ महीने पहले जैश-ए-मोहम्मद ने ‘डिजिटल हवाला’ को आसान बनाने के लिए ईज़ीपैसा व सदापे जैसे डिजिटल वॉलेट के माध्यम से सदक़ा (दान) लेने और अपनी गतिविधियों के लिए फंड जुटाने की घोषणा की थी. यह ऑनलाइन कोर्स उसके बाद ही शुरू किया गया है, जब ऑपरेशन सिंदूर में जैश के कई ठिकानों को ख़त्म कर दिया गया था. इस गुट के नाम पर 2,000 से अधिक सक्रिय डिजिटल वॉलेट अकाउंट हैं, जिनके माध्यम से हर साल करीब 28 से 32 लाख अमेरिकी डॉलर का लेन-देन होता है. इनमें से ज़्यादातर पैसा कथित तौर पर हथियारों की ख़रीद और आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने में ख़र्च किया जाता है. कुछ विशेषज्ञों का यहां तक मानना है कि हथियारों की ख़रीद पर यह आधा से अधिक हिस्सा ख़र्च करता है. फिर भी, FATF की जांच से जैश-ए-मोहम्मद बचा रह जाता है जो पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान की मदद के बिना संभव नहीं है.

“जैश-ए-मोहम्मद विश्वास, तकनीक और जेंडर को हथियार बनाकर अपना वैचारिक प्रभाव बढ़ा रहा है.”

इस ऑनलाइन कोर्स का मक़सद मज़हबी और वैचारिक ट्रेनिंग देने के साथ-साथ संगठन की गतिविधियों के लिए पैसे जुटाना है. जैश-ए-मोहम्मद के वरिष्ठ कमांडरों की महिला रिश्तेदारों पर इस ऑनलाइन कोर्स का ज़िम्मा है, जिनमें मसूद अज़हर की बहनें सादिया अज़हर, समीरा अज़हर और शिया अज़हर तो हैं ही, पहलगाम के हमलावरों में से एक- उमर फारूक की पत्नी अफ़ीरा फारूक भी हैं. इस कोर्स का प्रचार पहले से ही जैश के अंदरूनी टेलीग्राम और वाट्सएप ग्रुप के साथ-साथ सदस्यता-प्रतिबंधित वाले ऑनलाइन मज़हबी मंचों पर गुपचुप किया जा चुका है.

 

चित्र- ऑनलाइन कोर्स तुहफ़त-उल-मोमिनात का एलान

From Hawala To Digital Wallets Jaish E Mohammed S Tech Savvy Terror

Source: NDTV online, October 2025.

फिर भी, इस ख़ुदा-परस्ती के पीछे एक सोची-समझी रणनीति छिपी है, जो है- जैश-ए-मोहम्मद के वैचारिक प्रभाव को बढ़ाने के लिए विश्वास, तकनीक और जेंडर को हथियार बनाना. इस्लामाबाद इस ओर आंखें मूंदे हुए है, जबकि उसे आतंकवाद से लड़ने के लिए अंतराष्ट्रीय मदद मिल रही है.

“दक्षिण एशिया में जेहाद का विकास मदरसों से डिजिटल प्लेटफॉर्म तक पहुंच गया है.”

यह संकेत है कि पाकिस्तान का उदार रवैया और आतंकवाद-रोधी अंतरराष्ट्रीय आर्थिक मददों का दुरुपयोग किस तरह से मज़हबी तालीम की आड़ में चरमपंथी सोच को प्रोत्साहित कर रहा है. जैश-ए-मोहम्मद का ऑनलाइन कोर्स बता रहा है कि आधुनिक जिहादी आंदोलन अब डिजिटल हो गया है और आतंकवाद-विरोधी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में इस्लामाबाद लगातार विफल साबित हो रहा है.

 

भौतिक जिहाद से डिजिटल कट्टरपंथ की ओर

दक्षिण एशिया में जिहादी आंदोलन बने-बनाए रास्ते पर ही आगे बढ़ा है- 1990 के दशक में मदरसा-आधारित विचारधारा व आतंकवादी ट्रेनिंग कैंप से लेकर 2020 के दशक में डिजिटल कट्टरपंथ व ऑनलाइन प्रचार तक. साल 2000 में मसूद अज़हर ने जैश-ए-मोहम्मद का गठन किया था, और यह उन शुरुआती गुटों में एक है, जिसने सूचना प्रौद्योगिकी को संगठन को संगठित करने के एक औज़ार के रूप में इस्तेमाल किया. ‘अल-कलम’ जैसे अपने साप्ताहिक प्रकाशनों से लेकर ‘ज़र्ब-ए-मोमिन’ जैसी ऑनलाइन पत्रिकाओं तक इस संगठन ने साइबर उग्रवाद का एक तंत्र खड़ा कर दिया है.

“जैश की पहल दिखाती है कि जेंडर-आधारित जेहाद अब व्यापक रूप ले चुका है.”

तुहफ़त-उल-मोमिनात की शुरुआत एक बड़े बदलाव का संकेत है, क्योंकि यह महिलाओं को निष्क्रिय समर्थक के बजाय वैचारिक भागीदार बनने को प्रेरित करता है. यह कोर्स जिहादी सोच और डिजिटल संचार का संगम है, यानी यह एक ऐसा मिश्रित मॉडल है, जिसमें वाट्सएप, फेसबुक, यू-ट्यूब और टेलीग्राम जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म अभासी मदरसों के रूप में काम करते हैं. कहा जाता है कि निजी ऑनलाइन ग्रुपों के माध्यम से साझा की जाने वाली इसकी पाठ्य सामग्रियों में कुरान की आयतों की मनमाफ़िक व्याख्या की जाती है और उग्रवाद, शहीदी व भारत-विरोधी भावनाओं को सही बताया जाता है.

पहले होने वाले दुष्प्रचारों से उलट, जिनमें अग्रिम मोर्चे पर जान गंवाने वाले की ‘वीरता का महिमामंडन’ किया जाता था, यह डिजिटल जिहाद बौद्धिक और घरेलू है. यह महिलाओं को ‘घर से ही जिहाद का समर्थन करने’, सोशल मीडिया पर दुष्प्रचार को आगे बढ़ाने और ‘मज़हबी विचारों को जीने वाली संतानों’ को तैयार करने के लिए प्रोत्साहित करता है. यह उसी वैचारिक कट्टरता का आधुनिक रूप है, जिसने कभी हजारों पाकिस्तानी नौजवानों को कश्मीर और अफ़गानिस्तान की ओर धकेला था.

 

जेंडर और ईमान हैं हथियार

जैश-ए-मोहम्मद की यह पहल बताती है कि लिंग आधारित जिहाद कितना व्यापक हो गया है. दुनिया का ध्यान भले ही इस्लामिक स्टेट द्वारा महिलाओं की होने वाली भर्ती पर रहा हो, मगर पाकिस्तान के देवबंदी आतंकी गुटों ने चुपचाप IS की तरह एक पारिस्थितिकी तंत्र बना लिया है. जैश की महिला विंग- ख़ातून-ए-इल्म, वैचारिक तौर पर औरतों को जोड़ने के लिए लंबे समय से अनौपचारिक अध्ययन मंडलियां, प्रकाशन और मज़हबी तक़रीरें आयोजित करती रही है. यह ऑनलाइन कोर्स वास्तव में, इसी प्रयास को संस्थागत रूप देना है.

साफ़ है, महिलाएं अब गैर-ज़रूरी भूमिकाओं के बजाय एक ताक़त के रूप में देखी जा रही हैं. वे अपने परिजनों के बीच और आसपास के समुदायों में चरमपंथी सोच को आगे बढ़ाने में काम कर सकती हैं, जहां उनका प्रभाव गहरा हो सकता है और अमूमन उन पर शक भी नहीं जाएगा. जैश जिस तरह का दुष्प्रचार कर रहा है, उसमें जान-बूझकर घरेलू जीवन को मज़हबी आस्था के साथ जोड़ा गया है. इसमें किसी जिहाद को लेकर मिलने वाले हुक्म को महिला के लिए ईमान बताया जाता है. यह वैचारिक तंत्र न सिर्फ़ अतिवाद को सामान्य मानता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि जिहादी मूल्य पीढ़-दर-पीढ़ी कायम रहें.

 

चित्र- ऑनलाइन कोर्स तुहफ़त-उल-मोमिनात का एलान

From Hawala To Digital Wallets Jaish E Mohammed S Tech Savvy Terror

Source: NDTV online, October 2025.

मदरसे से मेटावर्स तक

दरअसल, डिजिटलीकरण की प्रक्रिया कोविड-19 महामारी ने तेज़ की है. इसके बाद से ही आलिम-फ़ाज़िलों ने यू-ट्यूब पर तक़रीरें पढ़ना और ज़ूम पर फतवे देना शुरू किया है. जैश-ए-मोहम्मद का ऑनलाइन कोर्स इसी की अगली कड़ी है. यह पुरानी वैचारिक सामग्रियों का नए डिजिटल माध्यमों के साथ मिश्रण है. जैश का नया अभियान बताता है कि आतंकी संगठन आधुनिक इंटरनेट में पूरी तरह रम गए हैं.

इस नए कोर्स के लिए कई ऑनलाइन प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल किया जा रहा है-

  • मज़हबी नशीदों और प्रेरक चर्चाओं वाले प्रचार क्लिप के लिए यू-ट्यूब और फेसबुक.
  • एन्क्रिप्टेड समूह चर्चाओं और कोर्स सामग्री के वितरण के लिए टेलीग्राम.
  • रजिस्ट्रेशन, असाइनमेंट और सहकर्मियों के समूह से बातचीत के लिए वाट्सएप.
  • और, सदस्यता-प्रतिबंधित विशेष शिक्षण पोर्टल, जहां महिलाएं रिकॉर्ड की गई तक़रीरों और लाइव सत्रों को देख-सुन सकती हैं.

 

सोशल मीडिया का इस तरह इस्तेमाल इस्लामिक स्टेट के अल-खांसा ब्रिगेड की याद दिलाता है, जिसने महिलाओं को ऑनलाइन और सक्रिय जिहादी गतिविधियों के लिए संगठित किया. हालांकि, जैश-ए-मोहम्मद का ध्यान दक्षिण एशिया पर है. वह कश्मीर के प्रति भावनात्मक आकर्षण, भारत-विरोधी भावना और इस्लामी पहचान की कथित सुरक्षा के साथ आगे बढ़ रहा है.

जिस तरह से संवेदनशील कहानियों को मल्टीमीडिया सामग्रियों पर प्रसारित किया जा रहा है, वह बताता है कि डिजिटल दुनिया में ध्यान किस तरह खींचा जा सकता है, यह जैश समझ गया है. उसका दुष्प्रचार केवल हिंसा तक सीमित नहीं है, बल्कि उसका मक़सद मानसिक रूप से लोगों को भ्रमित करना भी है, जिसमें बताया जाता है कि कट्टरपंथ को आगे बढ़ाना उनका नैतिक कर्तव्य है.

इन वीडियो को बनाने में उन्नत तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है- बैकग्राउंड में धीमे-धीमे नशीद बजता है, कश्मीर की उन्नत तस्वीरें दिखती हैं, और भावनात्मक कहानियां सुनाई जाती हैं. ये इसलिए तैयार किए जाते हैं, ताकि मज़हबी तौर पर अपनापन दिख सके और भारत के प्रति नाराज़गी पैदा हो सके. मूल स्रोत का पता न लगे, इसके लिए इन वीडियो को आमतौर पर कई अकाउंट से दोबारा अपलोड किया जाता है.

जैश से जुड़े टेलीग्राम चैनल एन्क्रिप्टेड तरीके से कोर्स की सामग्री साझा करते हैं. इसके साथ ही, एक्स के अकाउंट मुस्लिम पहचान और महिला सशक्तिकरण से जुड़े हैशटैग का उपयोग करके उन सामग्रियों का प्रचार करते हैं. इन हैशटैग के माध्यम से जान-बूझकर प्रगतिशील विमर्शों को नकारात्मक रूप से बदलने की कोशिशें की जाती हैं, ताकि उग्रवाद को एक सामान्य विचारधारा बताया जा सके. सशक्तिकरण की भाषा में लिपटा मज़हबी कट्टरपंथ- अब प्रभाव जमाने का नया तरीका है.

इस तरह, तुहफ़त-उल-मोमिनात न केवल एक वैचारिक परियोजना है, बल्कि सूचना युद्ध भी है, जिसमें मज़हब व कट्टरता, और शिक्षा व विचारधारा के बीच की महीन रेखाओं को ख़त्म किया गया है.

 

आतंकवाद पर पाकिस्तान को दोहरा रवैया

तुहफ़त-उल-मोमिनात की शुरुआत ने एक बार फिर भारत के ख़िलाफ़ जैश-ए-मोहम्मद के दुर्भावनापूर्ण इरादों को उजागर किया है. जैश के मुखौटा संगठनों में सबसे प्रमुख है- अल-रहमत ट्रस्ट. यह एक चैरिटेबल संस्था है, जो पंजाब व ख़ैबर पख़्तूनख़्वा में खुलेआम काम करती है. संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित एक आतंकी संगठन से ताल्लुक़ात रखने के बावजूद, इस ट्रस्ट को कर में छूट दी जाती है, सार्वजनिक मदद मिलती है और कुछ मामलों में परोक्ष रूप से राज्य भी इसे समर्थन देता है, जैसे ‘मज़हबी कामों’ के नाम पर अनुदान देकर.

“तुहफ़त-उल-मोमिनात सिर्फ़ कोर्स नहीं, बल्कि एक मनोवैज्ञानिक-डिजिटल युद्ध है.”

इसके साथ-साथ, ऑनलाइन जिहादी प्रचार तंत्र, भर्ती करने वाली वेबसाइट और दान अभियान भी लगातार फल-फूल रहे हैं. जैश का डिजिटल तंत्र बेख़ौफ़ काम करता है, जिसमें वर्चुअल कक्षाएं और एन्क्रिप्टेड संचार प्लेटफॉर्म भी शामिल हैं.

रिपोर्ट यह भी बताती है कि ऑपरेशन सिंदूर के दौरान ध्वस्त हुए जैश-ए-मोहम्मद के कई ठिकाने अब पाकिस्तान के बलूचिस्तान व ख़ैबर पख़्तूनख़्वा के सुदूर इलाकों में बनाए गए हैं. इसीलिए, तुहफ़त-उल-मोमिनात का गठन उसकी सामरिक तैयारी से कहीं बड़ा मुद्दा है, जो बता रहा है कि जैश अपनी नीतियों को नए जमाने के अनुकूल बनाने और इस्लामी शिक्षाओं को विकृत करने के मिशन में लगातार लगा हुआ है. वह भारत को भौतिक व वैचारिक, दोनों तरह से निशाना बनाना चाहता है. महिलाओं को इस तरह संगठित करना बता रहा है कि वैश्विक जिहादी ख़तरा अब डिजिटल रूप में बढ़ रहा है, और पाकिस्तान उसकी मदद करके आतंकवाद-विरोधी आर्थिक सहायता का इस्तेमाल उसी चरमपंथ को खाद-पानी देने में कर रहा है, जिससे लड़ने का वह दावा करता है.

 

पाकिस्तान को जवाबदेह ठहराना

साफ़ है, अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को तुहफ़त-उल-मोमिनात को पाकिस्तान के प्रतिष्ठान की विफलता और चरमपंथ का मुक़ाबला करने मे जान-बूझकर की गई लापरवाही मानना चाहिए. पश्चिमी सरकारें, जो इस्लामाबाद को आतंकवाद से लड़ने के लिए आर्थिक मदद या रक्षा सहायता देती हैं, उनको इसके इस्तेमाल में पारदर्शिता की मांग करनी चाहिए और मज़हबी शिक्षा को लेकर चल रहे इन कार्यक्रमों की जांच करनी चाहिए.

इसके अलावा, भारत, यूरोपीय संघ और अमेरिका के बीच का डिजिटल फोरेंसिक सहयोग जैश के ऑनलाइन काम-काज पर नज़र रखने, उसके सर्वर की पहचान करने और संबंधित सोशल मीडिया ग्रुपों को ख़त्म करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. FATF जैसे बहुपक्षीय तंत्रों को अपने काम-काज का दायरा सिर्फ़ आर्थिक नेटवर्क तक सीमित नहीं रखना चाहिए, बल्कि डिजिटल प्रचार अर्थव्यवस्थाओं पर भी उसे ध्यान देना चाहिए, क्योंकि चरमपंथी गुट ऑनलाइन सामग्रियों, दान और भर्ती संबंधी कोर्स से भी पैसा कमाते हैं.

इसी तरह, क्षेत्र में एक ऐसा डिजिटल ढांचा बनाना भी महत्वपूर्ण होगा, जो कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ काम करे और जिसमें लैंगिक आधार पर होने वाली इस तरह की भर्ती का विरोध किया जाता हो. महिला-केंद्रित इन डिजिटल मंचों पर जिहाद के नाम पर होने वाले शोषण और नफ़रत को उजागर करना चाहिए, और सामान्य सुरक्षा की बातें करने के बजाय सांस्कृतिक संबंधों और समुदाय-आधारित जुड़ाव का उपयोग करना चाहिए. 

 

सोशल मीडिया बना नया मदरसा

जैश-ए-मोहम्मद का तुहफ़त-उल-मोमिनात एक ऑनलाइन मज़हबी कोर्स से कहीं अधिक एक मनोवैज्ञानिक और डिजिटल युद्ध है. यह बताता है कि आधुनिक तकनीक की मदद से आपस में जुड़ी दुनिया के साथ चरमपंथी आंदोलन किस तरह तालमेल बिठाने लगे हैं और आधुनिक उपकरणों का इस्तेमाल करके प्रतिक्रियावादी सोच को आगे बढ़ा रहे हैं.

जब तक अंतरराष्ट्रीय निगरानी कड़ी नहीं की जाएगी और इस्लामाबाद की जवाबदेही तय नहीं होगी, तब तक डिजिटल जिहाद की दुकान फलती-फूलती रहेगी. यह न सिर्फ़ उग्रवादी, बल्कि ऐसी मानसिकता वाले लड़ाके तैयार करेगी, जो अप्रत्याशित प्रभाव डालने में सक्षम होंगे. जैसे-जैसे सोशल मीडिया नया मदरसा बनता जाएगा और हैशटैग मज़हबी नसीहतों की जगह लेते जाएंगे, मज़हब और कट्टरता के बीच का अंतर ख़त्म होता जाएगा. दुनिया को यह समझना ही होगा कि आतंकवाद का मुक़ाबला सिर्फ़ ताक़त से नहीं किया जा सकता. इस जंग के ख़िलाफ़ सच्चाई, पारदर्शिता और डिजिटल सतर्कता भी हथियार होने चाहिए.


(सौम्या अवस्थी ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के सिक्योरिटी, स्ट्रैटेजी ऐंड टेक्नोलॉजी केंद्र में फेलो हैं)

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