Author : Gaurav Dalmia

Published on Dec 21, 2020 Updated 0 Hours ago

2020 के बारे में जाने-माने फिजिसिस्ट रॉबर्ट ओपेनहाइमर का नजरिया शायद आपको सबसे सही लगे, जो कहते हैं- ‘एक आशावादी शख्स को लगता है कि संभावित दुनिया में आज का दौर सबसे अच्छा है, जबकि निराशावादी इंसान को लगता है कि यही बात सच है.’ तो यह आप पर है, आप इनमें से कौन हैं! निराशावादी या आशावादी?

2020 के पांच सबक

यह बदलावों का साल रहा. इस दौरान कई ऐसे बदलाव हुए हैं, जिनका असर हमारे भविष्य पर पड़ने वाला है

व्लादिमीर लेनिन ने कहा था, ‘कभी-कभी दशकों गुजर जाते हैं और कुछ नहीं होता. कभी-कभी हफ्तों में दशकों की घटनाएं हो जाती हैं.’ साल 2020 की सच्चाई यही है. कोविड-19 महामारी के आने के बाद से दुनिया में भारी बदलाव हुआ. कई ग्लोबल ट्रेंड अपने शिखर पर पहुंच गए और दुनिया बदलने वाली कुछ ताकतों का दौर खत्म हो गया. अगर उथल-पुथल का कोई सूचकांक (इंडेक्स) होता तो यकीन मानिए, 2020 में वह अपने शिखर पर होता.

कोई आम दिन हो तो, हम अपना ध्यान उन चीजों पर लगाते हैं, जिनसे हमारी ज़िंदगी पर यहां-वहां असर पड़ता है. लेकिन आज कुछ ऐसी चीजें हो रही हैं, जो हमारा भविष्य तय करने जा रही हैं. इनमें से कुछ पर अभी तक लोगों का ध्यान नहीं गया है, कुछ सामने दिख रही हैं, लेकिन उनका अंजाम क्या होगा, पता नहीं. यहां मैं पांच ऐसी बातों का जिक्र कर रहा हूं, जिनके लिए 2020 को मेरे ख्याल से याद रखा जाएगा.

1. कोविड की दस्तक

कोविड-19 की लहर ऐसी नहीं थी, जिसका पहले से किसी को अंदाजा न हो. 2018 में बिल गेट्स ने भविष्यवाणी की थी कि किसी अनजाने विषाणु से दुनिया में जल्द या कुछ देर से महामारी फैल सकती है. यह बात मायने रखती है क्योंकि गेट्स 20 बरस से भी अधिक समय से संक्रमण फैलाने वाली बीमारियों को समझने की कोशिश रहे हैं. उन्होंने यह बात यूं ही नहीं कही थी. इसका आधार सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (सार्स) जैसी संक्रामक बीमारी थी, जो साल 2003 में फैली थी. 2009 की स्वाइन फ्लू, 2012 की मिडल ईस्ट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (मर्स) और 2014 की इबोला जैसी बीमारियां भी इन वजहों में शामिल थीं. इन संक्रामक बीमारियों को क़रीब से समझने पर गेट्स को लगा कि दुनिया महामारियों पर उतना ध्यान नहीं दे रही है, जितना दिया जाना चाहिए. इसकी वजह यह थी कि ये अमीर देशों में नहीं फैल रही थीं. इसलिए वहां के लोग इनसे बेपरवाह थे.

कोविड-19 की लहर ऐसी नहीं थी, जिसका पहले से किसी को अंदाजा न हो. 2018 में बिल गेट्स ने भविष्यवाणी की थी कि किसी अनजाने विषाणु से दुनिया में जल्द या कुछ देर से महामारी फैल सकती है. यह बात मायने रखती है क्योंकि गेट्स 20 बरस से भी अधिक समय से संक्रमण फैलाने वाली बीमारियों को समझने की कोशिश रहे हैं. 

दिसंबर 2019 में चीन के वुहान में कोविड-19 की पहचान हुई. जनवरी 2020 आते-आते विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने इसे दुनिया के लिए पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी घोषित कर दिया. मैं तब दावोस में था, जहां दुनिया जहान के नेता आए हुए थे, लेकिन उस वक्त उन्हें यह बात समझ नहीं आई कि नोवेल कोरोना वायरस क्या सितम ढा सकता है. यह बात और है कि मार्च 2020 तक कोविड-19 को आधिकारिक तौर पर महामारी घोषित किया जा चुका था. नवंबर आते-आते तो यह वायरस 6.2 करोड़ लोगों को बीमार कर चुका था और उसने 14 लाख की जान ले ली थी.[i]

वक्त के साथ यह वायरस हमारी जिंदगी बदलता गया. इनमें से कुछ बदलाव तो ऐसे हैं, जो ताउम्र हमारे साथ रहने वाले हैं. वर्क फ्रॉम होम आज कोई अस्थायी सच नहीं बल्कि कई कंपनियों की लंबी अवधि के प्लान का हिस्सा बन चुका है. कुछ देशों में तो कानून बनाकर इसका लोगों को अधिकार तक दिया गया है.[ii] कोविड-19 ने समाज की बंद खिड़की भी खोल दी है. आज लोग नए आइडियाज को लेकर नाक-भौंह नहीं सिकोड़ते. मिसाल के लिए, सरकार के सामर्थ्य पर फिर से बहस होने लगी है. एशियाई देशों में लंबे समय तक सरकार का साइज छोटा रखने का ट्रेंड चला आ रहा था, अब उनका इसे लेकर रुख बदल गया है. उन्होंने महामारी के दौरान 7 लाख करोड़ डॉलर खर्च करने की घोषणा की है, जो एशिया के इतिहास में अब तक का सबसे अधिक सरकारी खर्च होगा.

कोविड-19 के कारण दुनिया के नेताओं के सामने एक चीज़ की खातिर दूसरे की कुर्बानी देने का प्रश्न भी खड़ा हो गया है. क्या इन लोगों को रॉलसियन व्यू को अपनाना चाहिए, जिसमें सबके लिए समान बुनियादी अधिकार, समान अवसर और समाज के सबसे कमजोर तबके के हितों को बढ़ावा देने की बात कही गई है. इस सोच को अपनाते हुए क्या सबसे पहले वंचित तबके पर ध्यान दिया जाए? या दुनिया के नेताओं को वैसा रुख अपनाना चाहिए, जिससे ज्य़ादा से ज्य़ादा नागरिकों को फ़ायदा हो. इन दोनों सवालों के जवाब अलग-अलग होंगे. क्या समाज को अधिक उदारवादी रुख अपनाना चाहिए और ऊपर से थोपी गई चीजों का प्रतिरोध करना चाहिए या उसे तानाशाही को इस उम्मीद में स्वीकार कर लेना चाहिए कि उससे व्यवस्था कहीं बेहतर होगी. साल 2020 में ऐसी राजनीतिक बहसें भी खुलकर होने लगी हैं. आने वाले वर्षों में खुद को इसी आधार पर बेहतर बताया जाएगा कि किस तरह की व्यवस्था में महामारी को नियंत्रित करने में अधिक कामयाबी मिली.

2. चीन अपना शिखर छू चुका है

चीन का उभार यूं तो पिछले दो दशक की घटना लगता है, लेकिन असल में ऐसा है नहीं.

लाफकाडियो हर्न ने 1896 में अमेरिकी पत्रिका द अटलांटिक के एक लेख में भविष्यवाणी की थी- चीन एक दिन पश्चिम के सामने जबरदस्त आर्थिक ताकत बनकर उभरेगा.[iii] वह पत्रकार थे, जापान में रहते थे. हर्न पूर्वी एशिया की संस्कृति पर लिखने के लिए मशहूर हैं. पश्चिमी देशों का मानना था कि 1950 के दशक तक दुनिया में वर्चस्व कायम करने के खेल में चीन एक महत्वपूर्ण फैक्टर बन चुका था. 1970 के दशक तक चीन की आर्थिक ताकत रणनीतिकारों के सामने आ चुकी थी. यह बात और है कि आम लोगों के मन में इस बात को बैठने में और कुछ दशक लग गए. आज जब चीन की आर्थिक ग्रोथ एक जगह जाकर ठहर गई है तो उसे समझने में भी वैसी ही देरी हो रही है.

लाफकाडियो हर्न ने 1896 में अमेरिकी पत्रिका द अटलांटिक के एक लेख में भविष्यवाणी की थी- चीन एक दिन पश्चिम के सामने जबरदस्त आर्थिक ताकत बनकर उभरेगा.

इस मामले में जापान के साथ जो हुआ, दुनिया उससे सबक ले सकती है. 1980 और 1990 के दशक की शुरुआत में शायद ही किसी को शक रहा होगा कि जापान का दुनिया पर दबदबा नहीं बनेगा. ऐसा अनुमान लगाया गया था कि टोक्यो में जिस 1.5 वर्ग किलोमीटर ज़मीन पर राजा का महल बना था, उसे बेचने से जो पैसा मिलता, उतने में समूचे कैलिफोर्निया की ज़मीन खरीदी जा सकती थी. तब जापान की कंपनियां हॉलीवुड के स्टूडियो को खरीद रही थीं. जापानी कारों और कंज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक्स ब्रांड्स का पूरी दुनिया में दबदबा था.

बिजनेस स्कूल में हम जापानी मैनेजमेंट प्रैक्टिस पर केनिची ओहमे की ‘द माइंड ऑफ द स्ट्रैटिजिस्ट’ पढ़ रहे थे. इस क़िताब में जापान की जिन कंपनियों की तारीफ की गई थी, उसके बाद से उनका जलवा बहुत कम हो गया. टोक्यो के गवर्नर शिनतारो इशिहारा और सोनी के चेयरमैन अकियो मोरिता ने भी एक क़िताब लिखी, जिसका नाम था ‘द जापान दैट कैन से नो’, यह जापान की हसरतों का इजहार था, अब पीछे मुड़कर देखने पर लगता है कि असल में यह तो उसका अहंकार था. अपने स्वर्णिम दौर के बाद जापान लड़खड़ाया तो संभल न सका. भले ही वह आज भी ताकतवर इकॉनमी है, लेकिन उसके एकतरफा उभार का दौर खत्म हो चुका है. बड़ी बात यह है कि इस बीच दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, जो जापान को अपना रास्ता बदलने पर मजबूर करे. अंदरूनी संघर्षों ने ही उसे कमजोर कर डाला. और ठीक भी है, आखिर क़िले भी अंदर से ही कमजोर होते हैं.

चीन ने जिस तरह से तरक्की की, उससे जापान की याद आती है. ग्रोथ रेट में अंतर हो तो लंबी अवधि के बाद यह फर्क बहुत बड़ा लगने लगता है. 1989 के बाद से चीन की इकॉनमी 14.12 गुना बढ़ी है, जबकि इस बीच समूची दुनिया की ग्रोथ 2.32 गुना रही.[iv] आज चीन न सिर्फ दुनिया की फैक्ट्री बन चुका है बल्कि वैश्विक खपत में बढ़ोतरी भी वहीं से आ रही है. इतिहास में ग़रीबी कम करने में भी सबसे बेहतर रिकॉर्ड चीन का ही रहा है. 1978 से 2018 के बीच चीन के ग्रामीण इलाकों में 70 करोड़ लोग ग़रीबी की दलदल से बाहर निकले.[v] दुनिया के बड़े बैंकों में से आज कुछ चीन में हैं. फार्मास्युटिकल इंग्रेडिएंट बनाने और टेक्नोलॉजी में चीन की कंपनियों का दबदबा है. उसकी प्रोडक्टिविटी ग्रोथ का कोई मुक़ाबला नहीं है. इसके बावजूद आज चीन की स्थिति बहुत अच्छी नहीं दिखती. कर्ज के दबाव से उसकी इकनॉमी सुस्त पड़ गई है. उसके तटीय इलाकों और अंदरूनी इलाकों के बीच जो क्षेत्रीय असंतुलन है, उससे संघर्ष की स्थिति बन रही है. वहां उम्रदराज लोग बढ़ रहे हैं और युवाओं की आबादी घट रही है. इन चुनौतियों के बीच चीन की वैश्विक महत्वाकांक्षा में कमी नहीं आई है. वह इस पर काफी पैसा खर्च कर रहा है. वह भी ऐसे वक्त में जब सरकारी खजाने पर दबाव बढ़ रहा है.

ऐसा लगता है कि चीन अपने शिखर पर पहुंच चुका है. आर्थिक आंकड़ों को देखने से चीन को लेकर चिंता बढ़ रही है. साथ ही, दुनिया से उसके रिश्तों में भी बदलाव आ रहा है. प्यू रिसर्च के 14 देशों के हालिया पोल से पता चला कि चीन की निगेटिव छवि बढ़ रही है. जिन देशों में सर्वे हुआ, वहां अधिकांश लोगों की चीन को लेकर राय अच्छी नहीं थी. ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, जर्मनी, नीदरलैंड, स्वीडेन, अमेरिका, दक्षिण कोरिया, स्पेन और कनाडा में यह 10 साल पहले सर्वे शुरू होने के बाद से पीक पर पहुंच गई है.

प्यू रिसर्च के 14 देशों के हालिया पोल से पता चला कि चीन की निगेटिव छवि बढ़ रही है. जिन देशों में सर्वे हुआ, वहां अधिकांश लोगों की चीन को लेकर राय अच्छी नहीं थी. ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, जर्मनी, नीदरलैंड, स्वीडेन, अमेरिका, दक्षिण कोरिया, स्पेन और कनाडा में यह 10 साल पहले सर्वे शुरू होने के बाद से पीक पर पहुंच गई है. 

मैं चीन को लेकर कोलंबिया यूनिवर्सिटी में आर्नल्ड ए सैल्जमैन इंस्टिट्यूट ऑफ वॉर एंड पीस स्टडीज के जाने-माने विद्वान ग्रेगरी मित्रोविच की बात से सहमत हूं. वह कहते हैं कि चीन ने अमेरिका के वैश्विक नेतृत्व तक पहुंचने के सफर से कुछ नहीं सीखा है. अमेरिका द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ग्लोबल लीडर बना, जब कोई और देश उसके लिए दावेदार नहीं था. इसलिए उसे दूसरे देशों ने हाथोंहाथ लिया. उसने युद्ध के बाद यूरोप और जापान की फिर से खड़ा होने में मदद की. इसलिए अमेरिका को ऐसी वैधता मिली, जो दुनिया के किसी और देश को नहीं मिली है. इसका फायदा उठाकर अमेरिका ने ग्लोबल लीडर की अपनी पहचान और पुख्ता की.

चीन के साथ ऐसा नहीं है. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप को खड़ा करने के लिए मार्शल प्लान के तहत अमेरिका ने 1945 में सिर्फ खाद्य राहत के लिए 3.2 अरब डॉलर दिए. इसकी तुलना में चीन को देखें तो वह ‘वुल्फ वॉरियर’ डिप्लोमेसी पर चल रहा है. इसमें वह बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (बीआरटी) जैसे प्रोजेक्ट चला रहा है, जिसकी शर्तें उसके पक्ष में हैं. चीन के नेतृत्व की और भी खामियां हाल में सामने आई हैं. मिसाल के लिए, वह मेडिकल प्रोडक्ट्स बनाने में अव्वल देश है, लेकिन महामारी के दौरान वह इसका राजनयिक लाभ नहीं ले सका और न ही उसे अपनी सॉफ्ट पावर बढ़ाने में कामयाबी मिली.

इन सबका मिला-जुला असर यह हुआ कि आज ग्लोबल लीडर बनने के चीन के दावे पर सवालिया निशान लग गया है. यह सूरत आगे भी बनी रहेगी, भले ही फिर से ग्लोबलाइजेशन (उदारीकरण) में दुनिया की दिलचस्पी बढ़ने लगे. इन वजहों से भी चीन के उभार पर अंकुश लगेगा और पिछले दशक में हुए लाभ भी उसके हाथ से निकल सकते हैं.

3. ग्रीन मूवमेंट

पर्यावरण आंदोलन को इस साल आधिकारिक तौर पर 50 साल हो गए. पहला पृथ्वी दिवस 22 अप्रैल 1970 को मनाया गया था और उसी साल यूएस एनवायरमेंटल एजेंसी की स्थापना हुई थी. पृथ्वी दिवस की शुरुआत पोलर बेयर और दूसरी खत्म हो रहीं प्रजातियों को बचाने से हुई थी. अगले 50 वर्षों में इसने टिकाऊ विकास के जरिये समुदायों की रक्षा की चुनौती अपने हाथों में ली. नीति-निर्माताओं ने शुरुआत प्रदूषण कम करने से की थी, जो 90 के दशक में जलवायु परिवर्तन से निपटने तक पहुंची.

अगर आप इंसानी इतिहास पर सरसरी नज़र डालें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि हमारे जीने का तरीका पर्यावरण को स्थायी नुकसान पहुंचा सकता है. सिंधु घाटी, मेसोपोटामिया या मध्य अमेरिका की प्राचीन सभ्यताएं नदियों के किनारे बसी थीं, जहां उस दौर की सबसे उपजाऊ ज़मीन थी. आज इन सभी इलाकों में ज़मीन ऊसर हो गई है या वहां पानी की कमी है. इसका मतलब यह है कि इंसानों ने लंबी अवधि में पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया है.

आपको जानकर हैरानी होगी कि समुद्र विज्ञानी वॉलेस स्मिथ ब्रोकर ने 1975 में ही ‘क्लाइमेट चेंज’ यानी यानी जलवायु परिवर्तन शब्द गढ़ा था, लेकिन इस आइडिया को जड़ें जमाने में करीब एक पीढ़ी का वक्त लगा. जब इसकी बात शुरू हुई थी, तब कम ही लोग इसे गंभीरता से लेते थे, लेकिन आज लोग इसकी चुनौती को अच्छी तरह समझते हैं.

अगर आप इंसानी इतिहास पर सरसरी नज़र डालें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि हमारे जीने का तरीका पर्यावरण को स्थायी नुकसान पहुंचा सकता है. सिंधु घाटी, मेसोपोटामिया या मध्य अमेरिका की प्राचीन सभ्यताएं नदियों के किनारे बसी थीं, जहां उस दौर की सबसे उपजाऊ ज़मीन थी. आज इन सभी इलाकों में ज़मीन ऊसर हो गई है या वहां पानी की कमी है. इसका मतलब यह है कि इंसानों ने लंबी अवधि में पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया है.

इसके साथ मौसम में अप्रत्याशित बदलाव के मामले भी बढ़ रहे हैं. हवा में महीन पार्टिकल्स से होने वाला प्रदूषण, सूखा, तापमान में बहुत उतार-चढ़ाव और समुद्र के गर्म होने से चक्रवात के मामले बढ़ रहे हैं. मिट्टी में खारापन बढ़ना, तटीय इलाकों में मिट्टी का कटाव और समुद्र में अम्लीय तत्वों में धीरे-धीरे बढ़ोतरी हो रही है. इंटरनल डिस्प्लेसमेंट मॉनिटरिंग सेंटर के मुताबिक, पर्यावरण बदलाव से पैदा हुए आर्थिक दबाव के कारण पिछले साल 1.72 करोड़ लोगों को अपना घर छोड़ने को मजबूर होना पड़ा.[vi] वर्ल्ड बैंक ने अनुमान लगाया है कि 2050 तक इंटरनल क्लाइमेट माइग्रेशन 14.3 करोड़ तक पहुंच सकता है. जाहिर तौर पर धरती हमसे कह रही है, ‘आप हमारे मेहमान हैं, मालिक नहीं.’ यह भी सच है कि सारे बदलाव तकलीफदेह होते हैं, उनसे उथल-पुथल मचती है.

ग्लोबल कार्बन प्रॉजेक्ट के तहत हर साल दुनिया भर में कार्बन एमिशन की जानकारी दी जाती है. अच्छी बात यह है कि 2014 से 2016 के बीच इसमें बढ़ोतरी नहीं हुई, लेकिन 2017 में कार्बन एमिशन में 1.6 फ़ीसदी, 2018 में 2.7 फ़ीसदी, 2019 में 0.6 फ़ीसदी का इजाफा हुआ. एक्सपर्ट्स का मानना है कि 2020 में यह निगेटिव ट्रेंड बदल जाएगा, भले ही इसमें महामारी के कारण ग्लोबल स्लोडाउन का असर शामिल कर लिया जाए. अगर यह हमारी इच्छाशक्ति का इम्तहान है तो समाज ने दिखाया है कि उसके पास यह है.

इस मामले में चुनौती चारों तरफ से एमिशन को काबू में करने की है. जहां तक डिमांड यानी मांग का प्रश्न है, कंज्यूमर टेस्ला जैसी इलेक्ट्रिक गाड़ियां खरीदकर अपने इरादे जाहिर कर रहे हैं. इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के आंकड़े भी बताते हैं कि 2019 में दुनिया में इलेक्ट्रिक गाड़ियों की बिक्री 21 लाख के साथ अब तक सबसे अधिक रही और अब ऐसी 72 लाख गाड़ियां सड़कों पर हैं.[vii]

ब्रिटिश सरकार की मौजूदा नीति कहती है कि 2040 तक देश में बिकने वाली हर कार जीरो एमिशन वाली होनी चाहिए यानी उससे बिल्कुल प्रदूषण नहीं होना चाहिए. इसका मतलब है कि तब वहां सिर्फ बैटरी इलेक्ट्रिक, प्लग-इन हाइब्रिड इलेक्ट्रिक या हाइड्रोजन कारें ही बिकेंगी.

दुनिया में जितनी कारें बिकती हैं, उनमें से 2.6 फ़ीसदी इलेक्ट्रिक कारें हैं और जितनी कारें सड़कों पर हैं, उनमें से 1 फ़ीसदी इलेक्ट्रिक हैं. इनके रजिस्ट्रेशन में सालाना 40 फ़ीसदी का इजाफा हो रहा है. सरकार के इलेक्ट्रिक गाड़ियों को अनिवार्य करने और चार्जिंग स्टेशंस बढ़ाने से इस ट्रेंड में और तेज़ी आएगी. मिसाल के लिए, ब्रिटिश सरकार की मौजूदा नीति कहती है कि 2040 तक देश में बिकने वाली हर कार जीरो एमिशन वाली होनी चाहिए यानी उससे बिल्कुल प्रदूषण नहीं होना चाहिए. इसका मतलब है कि तब वहां सिर्फ बैटरी इलेक्ट्रिक, प्लग-इन हाइब्रिड इलेक्ट्रिक या हाइड्रोजन कारें ही बिकेंगी.

डिमांड साइड से ऐसी पहल हो रही है तो सप्लाई साइड से भी इसे बढ़ावा देने में कोताही नहीं बरती जा रही. इस पहल से अब पेंशन फंड और मनी मैनेजर भी जुड़ रहे हैं. इसी साल दुनिया के सबसे बड़े प्राइवेट इक्विटी फंड ब्लैकरॉक, क्लाइमेट एक्शन 100+ नाम के निवेशकों के नेटवर्क से जुड़ा, जो पेट्रोल-डीजल क्षेत्र से जुड़ी कंपनियों पर अधिक डिस्क्लोजर और कार्बन एमिशन घटाने का दबाव बनाता है. यह नेटवर्क आज 41 लाख करोड़ डॉलर की संपत्ति मैनेज करता है. इसमें कैल्पर्स, आलियांज और यूबीएस जैसे जाने-माने नाम भी शामिल हैं.

क्लाइमेट एक्शन 100+ ग्रुप का दबाव रंग भी लाने लगा है. वह शेल और बीपी जैसी हाइड्रोकार्बन सेक्टर से जुड़ी कंपनियों से भी रियायत हासिल करने में सफल रहा है. ऐसे में इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के इस अनुमान से हैरानी नहीं होती कि 2020 में 200 गिगावॉट रिन्यूएबल पावर (अक्षय ऊर्जा) की क्षमता जुड़ेगी, जिसमें चीन और अमेरिका का योगदान सबसे अधिक रहेगा. साथ ही, दुनिया अब जो भी बिजली उत्पादन क्षमता जोड़ेगी, उसमें रिन्यूएबल एनर्जी की भागीदारी क़रीब 90 फ़ीसदी होगी.

ऐसे पावर प्रॉजेक्ट्स पर सरकारें टैक्स छूट दे रही हैं, बेशक नई क्षमता में उसका भी योगदान होगा. इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी का यह भी कहना है कि 2025 तक वैश्विक बिजली उत्पादन क्षमता में 95 फ़ीसदी बढ़ोतरी रिन्यूएबल एनर्जी से होगी. 2023 तक विंड और सोलर एनर्जी की क्षमता नेचुरल गैस और 2024 में कोयले से बनने वाली बिजली से अधिक हो जाएगी. इस दशक की शुरुआत में ऐसी बातें या अनुमानों को सिर्फ कयास माना जाता था.

मैं उम्मीद करता हूं कि जलवायु परिवर्तन आंदोलन का दायरा बढ़ेगा और इसमें फूड सप्लाई को भी शामिल किया जाएगा. दुनिया के 7.8 अरब लोगों का पेट भरने से जो एमिशन होता है, उसका कुल वैश्विक एमिशन में 25 फ़ीसदी योगदान है. इसके लिए सबसे बड़ा कसूरवार मीट की खपत है. कई साल पहले बिल गेट्स ने एक ब्लॉग में माना था कि पारंपरिक मीट उत्पादन से दुनिया का पेट भरना टिकाऊ नहीं होगा. [viii] पिछले कुछ वर्षों से लैब में बनाए गए मीट की पहल ने जोर पकड़ा है. इसका पर्सनल और पब्लिक हेल्थ दोनों पर असर होगा. हम टेक्नोलॉजी सॉल्यूशंस को अपना काम कर दें, साथ ही मीट के कारण जलवायु परिवर्तन, आर्थिक अक्षमता और स्वास्थ्य पर पड़ने वाले बुरे असर जैसी समस्याओं को कम करने के लिए हफ्ते में कुछ दिन शाकाहारी भोजन करें. हम धरती पर मेहमान हैं और हमें अपनी ज़िम्मेदारी बखूबी निभानी चाहिए.

4. अंतरिक्ष में निजी कंपनियां

पहले अंतरिक्ष में देशों और उनमें भी अमीर मुल्कों का दखल था. अब धीरे-धीरे इस क्षेत्र में निजी कंपनियों का प्रवेश बढ़ रहा है और वह दिन दूर नहीं, जब उनका दबदबा होगा. अंतरिक्ष अभियान महंगे होते हैं और इसमें पैसे की बर्बादी भी होती है. स्पेस एक्स ने यह ग़लतफ़हमी भी खत्म कर दी है कि एक रॉकेट का फिर से इस्तेमाल नहीं हो सकता. इस साल नवंबर में उसने फैल्कॉन 9 फर्स्ट स्टेज रॉकेट बूस्टर को सातवीं ट्रिप के लिए बचाकर अपना ही पुराना रिकॉर्ड तोड़ डाला.[ix] रॉकेट का हालिया अभियान इसका पहला कमर्शियल क्रू मिशन भी था. इस रॉकेट पर सवार होकर चार अंतरिक्ष यात्री इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन पहुंचे. नासा ने शुरू में अनुमान लगाया था कि स्पेस एक्स को एक उड़ान पर 9.5 करोड़ डॉलर खर्च करने होंगे, जबकि आज यह कंपनी 3 करोड़ डॉलर में एक रॉकेट लॉन्च कर रही है. अब जरा इसे अंतरिक्ष अभियान के मूर्स लॉ की तरह देखिए. तब तो इस ट्रेंड के जारी रहने से जबरदस्त उथल-पुथल मचने वाली है.

आजकल साइंस फिक्शन और वास्तविकता में फर्क करना मुश्किल होता जा रहा है. नोकिया ने हाल ही में नासा से चांद पर सेलुलर नेटवर्क बनाने की बोली जीती है. नोकिया की एलटीई/4जी टेक्नोलॉजी आज की 5जी टेक्नोलॉजी से एकदम पहले वाली तकनीक थी, जिसका इस्तेमाल चांद पर 2022 के आखिर तक किया जाएगा. इससे वहां संचार के क्षेत्र में क्रांति आएगी. चांद पर एक भरोसेमंद नेटवर्क के साथ तेज स्पीड डेटा मिलेगा, वह भी कम बिजली और लागत के साथ. नासा के आर्टेमिस प्रोग्राम का कम्युनिकेशन अहम पहलू है. इसके जरिये वह आने वाले दशक के आखिर तक चांद पर टिकाऊ मौजूदगी कायम करना चाहता है.

कई बरस पहले मैंने एक टेक्नोलॉजी प्रजेंटेशन देखा था, जो आउटर स्पेस में सोलर एनर्जी के उत्पादन पर था. ऐसा इसलिए क्योंकि वहां सोलर रेडिएशन (विकिरण) की तीव्रता अधिक होती है. अंतरिक्ष में बिजली बनाकर उसे धरती पर भेजने का जिक्र उसमें किया गया था. उस प्रजेंटेशन में अनुमान लगाया गया था कि इस रास्ते से 21वीं सदी के मध्य तक पूरी धरती की बिजली की ज़रूरत पूरी की जा सकती है. इसमें 2015 के ‘स्पेस लॉ’ को भी जोड़ लें, जो धरती के क़रीब के एस्टेरॉयड पर कंपनियों को खनिज की खोज या आउटर स्पेस में बिजली पैदा करने की बात करता है ताकि उसकी मदद से अंतरिक्ष में और दूर तक इंसान जा सके.

मस्क का मानना है कि साइंस की मदद से वातावरण में बदलाव किया जा सकता है और चांद की परिस्थितियों या किसी भी ग्रह पर हालात बदले जा सकते हैं, जिससे वे हमारे रहने लायक हो जाएंगे. 1960 के दशक में सबसे पहले ऐसे आइडिया कार्ल सेगन ने दिए थे. इसमें कोई शक नहीं है कि मस्क जो कह रहे हैं, उन पर अमल हुआ तो कई सवाल भी खड़े होंगे. इनमें एथिक्स, इकॉनमिक्स और जियोपॉलिटिक्स की निर्णायक भूमिका होगी.

गूगल के संस्थापकों के निवेश से चल रही प्लेनेटरी रिसोर्सेज जैसी कंपनियां पहले से इस रेस में शामिल हैं. अब आप इस लिस्ट में और कई कंपनियों के नाम जोड़े जाने के लिए तैयार रहिए. ईलॉन मस्क ने भविष्यवाणी की है कि आउटर स्पेस में इंसानी बस्तियां कैसी दिखेंगी.[x] ‘पहले ज़िंदगी शीशे से बने गुंबदों में गुजरेगी. आखिरकार, वहां लाइफ को सपोर्ट करने के लिए धरती जैसी स्थितियां बनाई जाएंगी.’[xi] मस्क का मानना है कि साइंस की मदद से वातावरण में बदलाव किया जा सकता है और चांद की परिस्थितियों या किसी भी ग्रह पर हालात बदले जा सकते हैं, जिससे वे हमारे रहने लायक हो जाएंगे. 1960 के दशक में सबसे पहले ऐसे आइडिया कार्ल सेगन ने दिए थे. इसमें कोई शक नहीं है कि मस्क जो कह रहे हैं, उन पर अमल हुआ तो कई सवाल भी खड़े होंगे. इनमें एथिक्स, इकॉनमिक्स और जियोपॉलिटिक्स की निर्णायक भूमिका होगी. हालांकि, अगर हम सिंथिया स्टोक्स ब्राउन की 3.5 अरब वर्ष पहले धरती पर जीवन शुरू होने और वहां से मॉडर्न वर्ल्ड तक पहुंचने की बातें सुनें तो हमारे पास एक नजीर तो है ही. इसमें साइंस, क्रिएटिविटी और एंबिशन शामिल हैं. हम देख सकते हैं कि इनमें से कितनी चीज़ों को दोहराया जा सकता है और उनकी मदद से दूसरे ग्रहों पर इंसानों को बसाने के काम में तेज़ी लाई जा सकती है.

कई मामलों में मंगल हमारे सोलर सिस्टम में पृथ्वी जैसा ग्रह है. साइंटिस्टों का मानना है कि मंगल पर कभी धरती जैसा ही वातावरण था. वहां पानी की भी कमी नहीं थी, लेकिन वह करोड़ों वर्षों के दौरान खत्म हो गई, वातावरण भी बदल गया. इस पर शोध किया जा रहा है कि फिर से वहां वैसी ही स्थितियां कैसे पैदा की जा सकती हैं. इस बीच जो लोग अंतरिक्ष की सैर करना चाहते हैं, वे वर्जिन गैलेक्टिक के जरिये अपनी सीटें बुक कर लें.

5. दो गति वाला विश्व

बरसों से हम ‘दो गतियों वाली दुनिया’ देखते आ रहे थे, जिसे 2020 ने और उभार दिया. आप जिधर भी देखिए, यह फर्क नजर आएगा. आज विश्व में बेरोज़गारी बढ़ रही है, लेकिन शेयर बाज़ार भी भाग रहा है. महामारी के बाद इकॉनमी को उबारने के लिए सरकारों ने जो राहत पैकेज दिए, उसका बड़ा हिस्सा रियल इकॉनमी तक नहीं पहुंचा. उलटे उसका इस्तेमाल शेयर बाज़ार जैसे माध्यमों में निवेश के लिए हुआ, जिससे वहां तेजी आई और बुलबुला बन गया.

परंपरागत तौर पर अमीर देशों और उभरते हुए देशों (इमर्जिंग मार्केट्स) के जीडीपी ग्रोथ में अंतर बताने के लिए टू स्पीड वर्ल्ड यानी दो गतियों वाली दुनिया का इस्तेमाल होता है. अमीर देश, जिनकी ग्रोथ रेट कम होती है, जबकि तुलनात्मक तौर पर ग़रीब माने जाने वाले देशों की कहीं तेज़. समय के साथ समाज में ऐसा अंतर दिखता आया है. अमीर और ग़रीब के बीच, देशों के अलग-अलग क्षेत्रों के बीच, पढ़े-लिखे और अशिक्षित लोगों के बीच भी. पिछले कुछ दशकों में जो समृद्धि आई है, उसमें एक विरोधाभास रहा है कि जहां देशों के बीच असमानता (जिसे गिनी कोएफिशिएंट से मापा जाता है)

में कमी आ रही है, वहीं देशों के अंदर गैर-बराबरी बढ़ रही है.

अमेरिका का गिनी कोएफिशिएंट अभी 0.48 है, जो 1990 में 0.43 और 1970 में 0.37 था. इससे पता चलता है कि पिछले 50 वर्षों में अमेरिका में गैर-बराबरी बढ़ी है. यूरोप का भी हाल ऐसा ही है. दूसरी तरफ, पूरी दुनिया के लिए यह साल 2000 के 0.71 से घटकर 0.63 पर आ गया है. इसका मतलब है कि देशों के बीच असमानता घट रही है. इसके साथ यह भी सच है कि ‘फ्लैट वर्ल्ड’ की इस धारणा और इन आंकड़ों की सच्चाई पर कइयों को संदेह है.

एक वर्ग मौजूदा सामाजिक और राजनीतिक ढांचे को नाकाफी मानता है. उसका कहना है कि इसमें कई खामियां हैं, जिससे इन पर अमीरों के कब्जा करने का डर बना रहता है. ब्रिटेन में 2016 में ब्रेक्जिट के पक्ष में बहुमत का होना और बाद में उसी साल अमेरिका में ट्रंप की जीत को इन्हीं आर्थिक परेशानियों का नतीजा बताया गया. पश्चिम में एक ही परिवार की अलग-अलग पीढ़ियों के बीच के स्टेटस यानी दर्जे में काफी गिरावट आई है, तुलनात्मक तौर पर जीवनस्तर गिरा है और सामाजिक ताना-बाना टूटा है.

इसलिए आर्थिक नीतियों के प्रति लोगों की नाराजगी बढ़ी है. इसी वजह से ग्लोबलाइजेशन की पहचान माने जाने वाले प्रवास, व्यापार और वित्तीय बाज़ार की आलोचना और निगरानी तेज़ हुई है. अफसोस की बात यह है कि जिन लोगों पर दुनिया का नेतृत्व करने की ज़िम्मेदारी थी यानी अमीर, बुद्धिजीवी और उच्च मध्य वर्ग का एक तबका, वह समाज में पनप रहे असंतोष से अनजान बना रहा. इसी वजह से ब्रेक्जिटऔर ट्रंप की लहर आई तो उसने सबको हैरान कर दिया.

कोविड-19 महामारी के बाद एक फर्क और स्पष्ट हो गया है. जो लोग ऑफिस के बाहर से काम नहीं कर सकते, उनकी पगार घर से काम करने वालों की तुलना में काफी कम रहने की आशंका है. ऐसा ही युवाओं और अल्पसंख्यकों के साथ है. 

इस साल के कुछ तथ्यों पर गौर कीजिए. आईएमएफ ने चेतावनी दी है कि इस साल भयानक ग़रीबी के शिकार लोगों की संख्या में अच्छी-खासी बढ़ोतरी होगी. ऐसा 20 साल में पहली बार होने जा रहा है. उभरते हुए और विकासशील देशों में आय असमानता बढ़कर साल 2008 के स्तर तक जा सकती है यानी वैश्विक वित्तीय संकट के बाद जो भी लाभ हुए थे, वे सभी छिन जाएंगे.[xii] कोविड-19 महामारी के बाद एक फर्क और स्पष्ट हो गया है. जो लोग ऑफिस के बाहर से काम नहीं कर सकते, उनकी पगार घर से काम करने वालों की तुलना में काफी कम रहने की आशंका है. ऐसा ही युवाओं और अल्पसंख्यकों के साथ है.

हेल्थ, एंप्लॉयमेंट और इनकम लॉस, इन सबके लिहाज से उनकी स्थिति कमजोर रह सकती है. अमेरिकी सरकार के आंकड़े दिखाते हैं कि थैंक्सगिविंग (अमेरिका में भोज का सबसे बड़ा दिन) से पहले वाले हफ्ते में 56 लाख परिवारों के पास पर्याप्त खाना नहीं था.[xiii] वहीं, आज तक जितने अमेरिकी नोट छापे गए हैं, नमें से 21 फ़ीसदी की छपाई साल 2020 में हुई. इस साल अमेरिका के शीर्ष 644 अरबपतियों की संपत्ति में कुल मिलाकर 1 लाख करोड़ डॉलर का इजाफा हुआ. इसी वजह से खराब रिकॉर्ड के बावजूद साल 2020 में ट्रंप को 2016 चुनाव के मुकाबले 83 लाख अधिक वोट मिले.

बिजनेस डेटा में भी यह अंग्रेजी के K अक्षर जैसी रिकवरी दिख रही है. भारत में छोटे कारोबारी संघर्ष कर रहे हैं, जबकि यहां का शेयर बाज़ार दुनिया में सबसे महंगा बना हुआ है. ब्रोकरेज हाउस मोतीलाल ओसवाल ने एक रिपोर्ट में बताया कि निफ्टी 50 इंडेक्स में शामिल 50 में से 34 कंपनियों के ऑपरेटिंग मार्जिन में जुलाई-सितंबर तिमाही में बढ़ोतरी हुई, जबकि इस दौरान उनकी बिक्री (वॉल्यूम यानी मात्रा के लिहाज से) घटी थी. दूसरी तरफ, इसी तिमाही में छोटी कंपनियां कैश फ्लो के लिए संघर्ष करती नजर आईं.

वित्तीय क्षेत्र को हटा दें तो जुलाई-सितंबर तिमाही में निफ्टी में शामिल कंपनियों के ऑपरेटिंग मार्जिन में सालाना आधार पर 3.1 फ़ीसदी का इजाफा हुआ. एशिया के जाने-माने अर्थशास्त्रियों में से एक और प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य व जेपी मॉर्गन के साजिद चिनॉय हाल ही में अख़बार में लिखे एक लेख में बताया कि भारत की आर्थिक रिकवरी मुनाफे में बढ़ोतरी के कारण है, न कि पगार में बढ़ोतरी की वजह से. उनका कहना है कि इसका डिमांड, असमानता और नीति-निर्माण पर असर पड़ेगा.[xiv]

यह असमानता कोई एक बार की बात नहीं है. मार्सेलियस इनवेस्टमेंट्स ने हाल में निवेशकों को एक नोट भेजा, जिसमें एक डराने वाला आंकड़ा दिया गया था. इसमें बताया गया कि देश की 20 सबसे बड़ी कंपनियों का मुनाफा बाकी कंपनियों के मुनाफे के मुकाबले पिछले 30 साल में 15 फ़ीसदी से बढ़कर 70 फ़ीसदी पहुंच गया है. यह बहुत ही तेज़ बढ़ोतरी है.

पिछले साल ‘हार्वर्ड बिजनेस रिव्यू’ के एक लेख में विजय गोविंदराजन और अन्य ने एक खुलासा किया था, जिसे उन्होंने ‘द स्मॉल साइज ट्रैप’ का नाम दिया.[xv] उन्होंने लिखा कि पिछले दो दशकों में अमेरिका में छोटी कंपनियों के लिए अपने वर्ग से बाहर निकलना मुश्किल हुआ है. वहीं, साल 2000 तक 15 से 20 फ़ीसदी छोटी कंपनियां हर साल मीडियम साइज या यहां तक कि बड़ी कंपनियों में शामिल होती थीं. लेकिन 2017 में इन कंपनियों की संख्या घटकर आधी रह गई. बड़ी कंपनियों को लेकर भी ऐसे ही सबूत दिखे हैं. साल 2000 तक 75 से 80 फ़ीसदी बड़ी कंपनियां अगले साल भी अपने ग्रुप में बनी रहती थीं, लेकिन हाल ही में यह बढ़कर 89 फ़ीसदी हो गया. इसका अर्थ यह है कि उद्यमिता, स्टार्टअप्स और डिसरप्शन (ऐसी पहल, जिससे उस सेग्मेंट में खलबली मच जाए) अब पूंजीवाद का समान लाभ उठाने के लिए काफी नहीं रहे.

इन सबका असर है कि टॉमस पिकेटी जैसे बुद्धिजीवी फिर से केंद्र में आ रहे हैं. अगर आपको पिकेटी कुछ ज्यादा ही वामपंथी लगते हैं तो हार्वर्ड के माइकल सैंडल की सुनिए, जिनके कोर्स का नाम ‘जस्टिस’ यानी न्याय है. उनके कोर्स में 15 हज़ार से अधिक छात्रों ने एनरोलमेंट कराया है. इससे यह हार्वर्ड के इतिहास में सबसे अधिक छात्रों वाले कोर्स में शामिल हो गया है. उनकी क़िताब ‘द टिरेनी ऑफ मेरिट’ कुछ महीने पहले छपी है. इसमें बताया गया है कि विजेताओं में मेरिटोक्रेसी से अहंकार पैदा होता है. यह उन लोगों के साथ न्याय नहीं करता, जो पीछे छूट जाते हैं. सैंडल कहते हैं, मेरिटोक्रेसी से तब भी मसला न खड़ा होता, अगर हम कामयाबी, तनख्वाह, प्रतिभा और समाज के लिए किसी शख्स का मोल न लगाते. यह एक ऐसा विचार है, जिस पर आप आने वाली छुट्टियों के दौरान गौर कर सकते हैं.

आखिर में…

चलिए कुछ हल्की बातें भी हो जाएं. इस महीने की दो हेडलाइंस काबिल-ए-गौर हैं. पहली, एडॉल्फ हिटलर ने चुनाव जीता और दूसरी, विलियम शेक्सपीयर को लगाई गई कोरोना वैक्सीन. अब इन हेडलाइंस के पीछे की असली ख़बर का पता आप खुद लगाइए और मैं संजीदा मुद्दों पर लौटता हूं. मुझे लगता है कि 2020 में ऐसी कई बातें हुई हैं, जिनका कई वर्षों तक हम पर असर होगा. बाइडेन की जीत एक ऐतिहासिक घटना है, न सिर्फ अमेरिका के लिए बल्कि दुनिया के लिए. वैसे, बाइडेन सरकार के हाथ सीनेट में रिपब्लिकन पार्टी के बहुमत के कारण बंधे होंगे. और अगर ट्रंप का राजकाज असामान्य था तो बाइडेन सरकार अमेरिका को ‘सामान्य’ रास्ते पर ले आएगी, इसकी उम्मीद दुनिया वाइट हाउस में जाने वाले इस मध्यमार्गी डेमोक्रेट से की जा रही है. उधर, बोरिस जॉनसर सरकार का ध्यान जहां ब्रिटेन के फिशिंग कोटा जैसे मुद्दों और ‘नो-डील’ ब्रेक्जिट पर अटका हुआ है, वह अगले साल की पहली तारीख को हकीकत में बदलने जा रहा है. याद रहे कि ये मुद्दे पहले ही ब्रिटेन के दो प्रधानमंत्रियों की कुर्बानी ले चुके हैं.

बाइडेन की जीत एक ऐतिहासिक घटना है, न सिर्फ अमेरिका के लिए बल्कि दुनिया के लिए. वैसे, बाइडेन सरकार के हाथ सीनेट में रिपब्लिकन पार्टी के बहुमत के कारण बंधे होंगे. और अगर ट्रंप का राजकाज असामान्य था तो बाइडेन सरकार अमेरिका को ‘सामान्य’ रास्ते पर ले आएगी, इसकी उम्मीद दुनिया वाइट हाउस में जाने वाले इस मध्यमार्गी डेमोक्रेट से की जा रही है.

दुनिया दो ध्रुवों से कई ध्रुवों वाले रास्ते पर बढ़ रही है, जिसका जियोपॉलिटिक्स पर जबरदस्त असर होगा. देशों के बीच आपसी सहयोग अब मुद्दों पर आधारित और खास रणनीति के लिए होगा. इससे भारत जैसे मझोली शक्ति के लिए वैश्विक मामलों को प्रभावित करने की ताकत बढ़ेगी. हमें ‘वेस्टलेसनेस’ जैसे शब्द की भी आदत पड़ जाएगी, जिसका जिक्र इस साल म्यूनिख में सालाना सिक्योरिटी कॉन्फ्रेंस में हुआ था.

कभी-कभार असंभव चीज़ें भी होंगी, जैसे सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस और इजरायल के प्रधानमंत्री के बीच की मुलाकात. यह मीटिंग गुपचुप ढंग से हुई, ईरान से निपटने की रणनीति को लेकर. दूसरी तरफ, हम यह भी देख रहे हैं कि किस तरह से बिजनेस को जियोपॉलिटकल संघर्षों में घसीटा जा रहा है और उनका मोहरों की तरह इस्तेमाल किया जाएगा.

धरती के गर्म होने से आर्कटिक से होकर समुद्री रास्ता खुल जाएगा, जिससे जियोपॉलिटिक्स के लिहाज से रूस की अहमियत बढ़ेगी. कुछ संयोग भी आएंगे, जो हमें आगे ले जाएंगे और ऐसा अक्सर होता भी आया है. कोविड-19 के वैक्सीन ट्रायल में जब ऑक्सफर्ड-एस्ट्राजेनेका के रिसर्चर्स ने ग़लती से एक वॉलंटियर को ग़लत डोज दे दी तो पता चला कि आधा डोज देने पर वैक्सीन 90 फ़ीसदी असर दिखाती है, जबकि पूरा यानी दो डोज देने पर यह असर घटकर 62 फ़ीसदी पर आ जाता है.

राष्ट्रवाद, लोकलुभावन नीतियों और संरक्षणवाद का दौर भले ही कुछ समय तक चलता रहेगा, आखिर में ग्लोबलाइजेशन की वापसी तय है. इससे दुनिया के फिर से क़रीब आने का दौर वापस लौटेगा. गणितज्ञ और संस्कृति मामलों के जानकार पीटर तुर्चिन के शब्दों में इस बीच दुनिया ‘एलीट ओवरप्रोडक्शन’ का शिकार हो सकती है, जिसका जिक्र द अटलांटिक के आलेख में इसी महीने हुआ है. इसमें आलेख में जो भविष्यवाणियां की गई हैं, वे अजीब और डराने वाली हैं. ऐसे में कई लोग काउंटर-एलीट बन सकते हैं और इससे जो असुरक्षा बढ़ेगी, वो समाज के लिए खर्चीली साबित हो सकती है.[xvi]

गणितज्ञ और संस्कृति मामलों के जानकार पीटर तुर्चिन के शब्दों में इस बीच दुनिया ‘एलीट ओवरप्रोडक्शन’ का शिकार हो सकती है, जिसका जिक्र द अटलांटिक के आलेख में इसी महीने हुआ है. इसमें आलेख में जो भविष्यवाणियां की गई हैं, वे अजीब और डराने वाली हैं. ऐसे में कई लोग काउंटर-एलीट बन सकते हैं और इससे जो असुरक्षा बढ़ेगी, वो समाज के लिए खर्चीली साबित हो सकती है.

इस साल से पहले दवा उद्योग से बाहर बहुत कम लोग जानते थे कि दुनिया में सबसे अधिक वैक्सीन उत्पादन की क्षमता भारत में है, दुनिया की कुल प्रोडक्शन कैपेसिटी का 60 फ़ीसदी. भारत का सिर्फ एक शहर हैदराबाद यानी ‘दुनिया की वैक्सीन राजधानी’ के पास ऐसा मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर है, जिससे वह विश्व की एक तिहाई वैक्सीन की मांग पूरी कर सकता है. मैं अपनी बात करूं तो 2020 में कोको शनेल की बात फिर से मन में घर कर गई है कि दुनिया की सबसे अच्छी चीज़ें तो फ्री हैं, उसके बाद जो दूसरे नंबर पर आने वाली चीज़ें हैं, वे बहुत महंगी हैं. 2020 के बारे में जाने-माने फिजिसिस्ट रॉबर्ट ओपेनहाइमर का नजरिया शायद आपको सबसे सही लगे, जो कहते हैं- ‘एक आशावादी शख्स को लगता है कि संभावित दुनिया में आज का दौर सबसे अच्छा है, जबकि निराशावादी इंसान को लगता है कि यही बात सच है.’ तो यह आप पर है, आप इनमें से कौन हैं! निराशावादी या आशावादी?


[i] World Health Organization, Weekly Operational Update on COVID-19, November 2020, Geneva, WHO,

[ii] David Elliot, “Germany drafting law to give people the legal right to work from home,” World Economic Forum, October 2020.

[iii] Lafcadio Hearn, “China and the Western World, The Atlantic, April,1896,

[iv] Juan Carlos, “Visualizing China’s Economic Growth in the Past 30 Years,” Howmuch.net.

[v] Gebremichael Kibreab Habtom et al., “China’s path of rural poverty alleviation through health care financing: The case of Taijiang County-Guizhou Province, Journal of Public Administration and Policy Research, 2019.

[vi] Internal Displacement Monitoring Centre, Global Report on Internal Displacement, Geneva, May 2019.

[vii] International Energy Agency, Global EV Outlook 2019, Paris, June 2019.

[viii] Bill Gates, “Future of Food,” Gates Notes, 2013.

[ix] Shashank Raj, “SpaceX breaks its own record, reuses a Falcon 9 for a seventh time for a Starlink launch, The Techportal, November 25, 2020.

[x] Nadia Drake, “Elon Musk: A Million Humans Could Live on Mars By the 2060s, National Geographic, September 27, 2016.

[xi] Elon Musk (@elonmusk), November 18, 2020.

[xii] World Economic Outlook, A Long and Difficult Ascent, International Monetary Fund, Washington DC, October 2020, pp 34.

[xiii] Joseph Llobrera, “As Thanksgiving Approaches, Fewer Than Half of Households With Kids Very Confident About Affording Needed Food,” Center on Budget and Policy Priorities, November 18, 2020.

[xiv] Sajjid Chinoy, “Making sense of the recovery, Business Standard, November 18, 2020.

[xv] Vijay Govindarajan et al., “The Gap Between Large and Small Companies Is Growing. Why?, Harvard Business Review, August 2019.

[xvi] Graeme Wood, “The Next Decade Could Be Even Worse, The Atlantic, December 2020.

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