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प्रतिक्रियाशील मौद्रिक नीति और जवाबदेह राजकोषीय नीति- दोनों के लिए 4 प्रतिशत के नीचे महंगाई को दबाए रखना एक उपयुक्त मानक है.
एक मौद्रिक नीति जो मुश्किल परिस्थितियों में भी विकसित अर्थव्यवस्था का पीछा करती है- पिछले साल से नीतिगत ब्याज़ दर में एक समान बढ़ोतरी करके- और इसके साथ-साथ विकासशील देशों के साथ चलती है- हताशा में रुके हुए विकास दर को फिर से उत्पन्न करके- उसमें ऐसा अंतर्विरोध है जो बसेरा बनाने के लिए तैयार है.
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) का अनुमान है कि “अगले पांच वर्षों के दौरान वैश्विक विकास दर 3 प्रतिशत के आसपास रहेगी जो कि 90 के दशक से अब तक हमारा न्यूनतम मध्यकालीन विकास पूर्वानुमान है और ये पिछले दो दशकों के दौरान 3.8% की औसत विकास दर से काफ़ी नीचे है.”
भारत में विकास रुका हुआ है, ये तथ्य 6 अप्रैल 2023 को RBI के मौद्रिक ब्यौरे से स्पष्ट है. जनवरी 2023 में सरकार के पहले अग्रिम अनुमान के अनुसार 2022-23 में विकास दर 7 प्रतिशत होने का आकलन किया गया था. 2023-24 के लिए RBI का पूर्वानुमान 6.5 प्रतिशत है जिसमें घटता रुझान है जो इस वित्तीय वर्ष की चौथी तिमाही में कम होकर 5.8 प्रतिशत होने का अनुमान है.
इस बात में कोई दो मत नहीं है कि भारत ज़्यादातर अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में अच्छा प्रदर्शन कर रहा है. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) का अनुमान है कि “अगले पांच वर्षों के दौरान वैश्विक विकास दर 3 प्रतिशत के आसपास रहेगी जो कि 90 के दशक से अब तक हमारा न्यूनतम मध्यकालीन विकास पूर्वानुमान है और ये पिछले दो दशकों के दौरान 3.8% की औसत विकास दर से काफ़ी नीचे है.” कम वैश्विक विकास की वजह से आयात के लिए कम वैश्विक मांग उत्पन्न होती है जो निर्यात आधारित विकास के लिए अवसरों पर दबाव बनाती है. भारत की आकांक्षा 2022-23 में 447 अरब अमेरिकी डॉलर (अंतिम आंकड़े उपलब्ध होने के बाद पुष्टि हो पाएगी) के निर्यात वाली अर्थव्यवस्था से अगले सात वर्षों में यानी 2030 तक 2 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का निर्यात (1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की वस्तुएं और 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की सेवाएं) करने वाली अर्थव्यवस्था बनना है. इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए अगले सात वर्षों तक औसतन 24 प्रतिशत की वार्षिक विकास दर हासिल करनी होगी लेकिन शुरुआती कुछ वर्षों के दौरान इसे पाना अनिश्चित लगता है. विशाल चालू खाते के घाटे को स्थिरता के लिए ध्यान में रखा जाना चाहिए, पर्याप्त विदेशी मुद्रा भंडार से इसको सहारा मिलता है जो कि 31 मार्च 2023 को 578 अरब अमेरिकी डॉलर था.
समस्या ये है कि अगर भारत अमेरिका के फेडरल रिज़र्व के साथ ब्याज़ दरों में बढ़ोतरी के समायोजन से अलग होता है और ब्याज़ दरों में अंतर- जो वर्तमान में 1.6 प्रतिशत है (अप्रैल 2022 में 3.5 प्रतिशत के अंतर से कम)- को घटाकर 1 परसेंटेज प्वाइंट या उससे भी कम करने की अनुमति देता है तो निवेशकों के उत्साह पर असर के बारे में पता नहीं है. अगस्त 2019 से लेकर फरवरी 2022 तक फेडरल रिज़र्व ने सस्ते पैसे का जो रवैया अपनाया था, उसके पहले फेडरल रिज़र्व और RBI के रेपो रेट के बीच ब्याज़ दरों में अंतर न्यूनतम 3 परसेंटेज प्वाइंट से लेकर अधिकतम 5 परसेंटेज प्वाइंट तक था. ब्याज़ दरों में काफ़ी कम अंतर के कारण भारत में निवेश के बाद जोख़िम से भरे अपर्याप्त मुनाफ़े को लेकर निवेशकों का उत्साह प्रभावित हो सकता है.
अगर विकास मज़बूत होता तो इसके मायने भी कम होते. लेकिन ये संभावना अनिश्चित दिखती है. RBI के अनुमान के अनुसार 2023-24 के लिए महंगाई का स्तर 5.2 प्रतिशत है जो कि अपर्याप्त है. बेहतर राजकोषीय मानक- 6 प्रतिशत सम्मिलित राजकोषीय घाटा (केंद्र और राज्यों का राजकोषीय घाटा), राजस्व सरप्लस लगातार बनाए रखना और 2 से 4 प्रतिशत के बीच मुद्रास्फीति- भी मदद कर सकते हैं. राजकोषीय घाटे में कमी की योजना के तहत 4.5 प्रतिशत से नीचे का स्तर 2025-26 तक ही निर्धारित किया गया है.
अमेरिका आर्थिक विकास और पूर्ण रोज़गार से ज़्यादा आनंद लगातार उठा रहा है. कई विकासशील देशों की तरह भारत एक अनिश्चित विकास का सामना कर रहा है. ब्याज़ दरों में बढ़ोतरी के ज़रिए महंगाई को भगाने के लिए अमेरिका के साथ क़दम उठाने की कोशिश उस समय असंभव होती जा रही थी जब फेडरल रिज़र्व के द्वारा ब्याज़ दरों में बढ़ोतरी अनंत लगने लगी थी, संभावना थी कि पूरे 2023-24 के दौरान भी ब्याज़ दरों में बढ़ोतरी होती. फेडरल रिज़र्व के अध्यक्ष जीरोम पॉवेल को ये श्रेय जाता है कि उन्होंने लगातार ये रुख़ बनाए रखा कि वो भविष्यवक्ता नहीं हैं और वो पहले से नहीं बता सकते कि ब्याज़ दरों में बढ़ोतरी कब ख़त्म होगी. उनके पास एक काम है और ये काम है मौद्रिक नीति का तब तक उपयोग करना जब तक महंगाई सिमटकर 2 प्रतिशत के स्तर पर न आ जाए. अप्रैल 2022 से 2023 के बीच एक साल में 4.65 प्रतिशत की ब्याज़ दर में बढ़ोतरी के बावजूद निस्संदेह जब विकास अच्छा बना रहे और रोज़गार पूर्ण हो तो कठोर रवैया अपनाना आसान है. फिर भी अमेरिका के भीतर महंगाई पर नियंत्रण के बाद “आर्थिक सुस्ती” की आशंका को लेकर विरोध बढ़ता जा रहा है. ये भरोसा बढ़ता जा रहा है कि महत्वपूर्ण आर्थिक नुक़सान ऊंचे ब्याज़ दर की बढ़ी हुई अवधि का एक स्वाभाविक नतीजा है.
दुख़ की बात ये है कि भारत के पास ये आर्थिक आधार नहीं है कि मुद्रास्फीति के 4 प्रतिशत से नीचे होने तक वो मौद्रिक नीति को अडिग होकर लागू कर सके. मूल मुद्रास्फीति- जो कि असली उपभोक्ता मूल्यों का एक बेहतर सूचक है और जिसे अच्छी या ख़राब फसल की वजह से मौसमी परिवर्तन को हटाने के बाद प्रणाली में शामिल किया जाता है- 6 प्रतिशत के ऊपर है.
ख़राब ट्रेज़री संचालन की वजह से अमेरिका में मध्यम आकार के बैंकों की नाकामी और मशहूर स्विस बैंक क्रेडिट सुइस का UBS के साथ विलय एक अशांत कर देने वाला संकेत है कि बैंकिंग सिस्टम में केवल गहरी, पेशेवर निगरानी ही उन खामियों के बारे में बता सकती है जिनके ज़रिए जोख़िम बैंकिंग प्रणाली में घुसपैठ करता है. भारतीय बैंकिंग प्रणाली कागज़ों पर तो ज़रूरत से ज़्यादा विनियमित है लेकिन क्या निगरानी गहन और इतनी सक्रिय है कि संकट की शुरुआत से पहले खामियों का पता लगा सके, इसकी केवल उम्मीद की जा सकती है. चुनावों से पहले उन योजनाओं को पसंद किया जाता है जो मतदाताओं के हाथ में पैसे देती हैं और उन परियोजनाओं को शुरू करती हैं जिनसे नई नौकरियां मिलती हैं.
महामारी के पूरे समय के दौरान वित्त मंत्रालय ने इस बात पर ध्यान दिया कि कर राजस्व में कटौती न हो. ये सामाजिक संरक्षण पर खर्च बढ़ाने के लिए और ये सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक था कि धीरे-धीरे कर्ज़ का बोझ बहुत अधिक न हो जाए. इस मुश्किल चुनौती के मामले में वित्त मंत्रालय ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया. अब अर्थव्यवस्था के सामान्य होने के साथ अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था (आयात शुल्क, पेट्रोलियम उत्पादों पर उत्पाद कर और उत्पादित सामानों पर GST) में उचित कमी पर विचार किया जाना चाहिए ताकि उपभोक्ता मूल्यों को स्थायी रूप से कम किया जा सके.
केंद्र सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों पर कर लगाकर लगभग 4.3 ट्रिलियन रुपये (2021-22) या GDP का 1.8 प्रतिशत अर्जित किया. लेकिन ऊर्जा आधारित मंत्रालयों (पेट्रोलियम, बिजली और नवीकरणीय ऊर्जा) को सिर्फ़ 0.35 ट्रिलियन रुपये या उनके द्वारा अर्जित राजस्व प्राप्तियों का केवल 8 प्रतिशत आवंटित किया गया. भारत में कोयले के प्राथमिक उत्पादक कोल इंडिया ने 2021-22 में उत्पाद कर और दूसरे शुल्कों के तौर पर केंद्र और राज्य सरकारों को 0.58 ट्रिलियन रुपये प्रदान किए. लेकिन इसके बावजूद कोयला मंत्रालय को सिर्फ़ 0.5 अरब रुपये का आवंटन किया गया, वो भी तब जब ऊर्जा परिवर्तन के अधिकतर आघात- केवल एक दशक बाद- का बोझ कोयला ही उठाएगा जब तक कि एक “न्यायसंगत” परिवर्तन के लिए विस्तृत योजना विकसित नहीं की जाती है.
भारत में कोयले के प्राथमिक उत्पादक कोल इंडिया ने 2021-22 में उत्पाद कर और दूसरे शुल्कों के तौर पर केंद्र और राज्य सरकारों को 0.58 ट्रिलियन रुपये प्रदान किए. लेकिन इसके बावजूद कोयला मंत्रालय को सिर्फ़ 0.5 अरब रुपये का आवंटन किया गया
जीवाश्म ईंधन पर करों एवं शुल्कों को एक परोक्ष कार्बन कर समझा जाता है. लेकिन एक कार्बन कर, जो कि एक विशेष उपयोग के लिए अलग कर दिया जाता है, से हटकर पेट्रोलियम कर का इस्तेमाल उसके अस्थिर आपूर्ति के स्वरूप के बावजूद ऊर्जा प्रणाली में कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन कम करने या नवीकरणीय ऊर्जा को किफ़ायती बनाने के लिए नहीं किया जाता है. इसी तरह रिएक्टिव पावर (फ्रीक्वेंसी को नियंत्रित करने के लिए) के बेहतर प्रबंधन और “ग्रिड फॉलोइंग” बैलेंसिंग उपकरण के मुक़ाबले “ग्रिड फॉर्मिंग”, जो कि अपने आप आपूर्ति एवं मांग में अंतर की भरपाई करता है, पर रिसर्च के साथ ग्रिड में सुधार के लिए बहुत ज़्यादा रिसर्च और निवेश की आवश्यकता है. ये निवेश इस तरह की अग्रिम पंक्ति के उपक्रमों का उत्तरदायित्व लेने वाले निवेशकों को सब्सिडी के रूप में दी जा सकती है. ये व्यावहारिक निवेश ही 2035 या उससे आगे हाइड्रोजन आधारित ऊर्जा व्यावसायिक तौर पर उपलब्ध होने तक सहज ऊर्जा परिवर्तन को सुनिश्चित कर सकते हैं.
हाल के समय में RBI और वित्त मंत्रालय ने एक टीम के तौर पर अच्छा काम किया है. टीम के तौर पर काम करना ज़रूरी है क्योंकि वित्तीय स्थिरता और राजकोषीय स्थिरता आपस में जुड़ी हुई हैं. अब RBI ने अपने मुद्रास्फीति प्रबंधन के रवैये को अधिक ब्याज़ दरों के माध्यम से सक्रिय तौर पर रोकने के बदले देखो और इंतज़ार करो का बना लिया है. ये ऐसा रवैया है जहां वो उम्मीद करता है कि महंगाई का बाघ अपने आप ही उसकी नज़रों में आ जाएगा. RBI को ऐसे ढोल पीटने वालों की आवश्यकता है जो महंगाई के बाघ को कोने में जाने के लिए तैयार कर सकें जहां से वो बचकर नहीं जा पाएगा.
क़ीमत घटाने के लिए मध्यवर्ती वस्तुओं एवं सेवाओं और उपभोक्ता सामानों पर उच्च कर दर को कम करना एक अच्छा विकल्प है. इसके परिणामस्वरूप सार्वजनिक पूंजीगत खर्च के लिए संसाधन की मजबूरी एक वरदान हो सकती है. सार्वजनिक निवेश एक खर्चीले विकास का विकल्प है जिसका भविष्य के राजस्व पर कर्ज़ अदायगी एवं ब्याज़ भुगतान के रूप में दीर्घकालीन परिणाम होता है.
वर्तमान में ब्याज़ भुगतान पहले से ही दूसरी प्राथमिकताओं पर भारी है क्योंकि राजस्व व्यय का 31 प्रतिशत ब्याज़ के रूप में जाता है. उत्पादकता में सुधार- एक मध्यम अवधि की पहल जिसे लगातार लागू करने और सभी क्षेत्रों एवं व्यवसायों में शामिल करने की आवश्यकता है- एक और लापता कड़ी है. 2023-24 के लिए प्रभावी राजस्व घाटा (राजस्व घाटा में पूंजीगत खर्च के लिए राज्य सरकारों को दिए जाने वाले अनुदान को घटाकर) 1.7 प्रतिशत है जो 2021-22 के 3.3 प्रतिशत से कम हो गया है. प्रभावी राजस्व घाटा को आने वाले समय में शून्य तक सीमित करने से महत्वपूर्ण सामाजिक खर्च को प्रभावित किए बिना बजट खर्च में शामिल कई बेकार चीज़ों को ख़त्म किया जा सकता है.
वैसे तो इस बात की संभावना कम है कि RBI ज़्यादा ब्याज़ दर की फेडरल रिज़र्व की नीति का अनुकरण करेगा लेकिन अगर ऐसा होता है तो केवल मौद्रिक नीति पर भरोसा रखने से 2024 के चुनाव में क़ीमती मतों को खोना पड़ सकता है.
महंगाई को 4 प्रतिशत के नीचे दबाए रखना प्रतिक्रियाशील मौद्रिक नीति और जवाबदेह राजकोषीय नीति- दोनों के लिए एक उपयुक्त मानक है. वैसे तो इस बात की संभावना कम है कि RBI ज़्यादा ब्याज़ दर की फेडरल रिज़र्व की नीति का अनुकरण करेगा लेकिन अगर ऐसा होता है तो केवल मौद्रिक नीति पर भरोसा रखने से 2024 के चुनाव में क़ीमती मतों को खोना पड़ सकता है. राजकोषीय नीति के लिए फ़ायदेमंद समाधान है कुछ कर राजस्व का त्याग करना, भरपाई करने वाले ग़ैर-कर राजस्व पैदा करने पर ध्यान देना एवं अप्रत्यक्ष करों में कमी करना और ग्राहकों एवं व्यवसायों, विशेष रूप से छोटे, मध्यम और लघु क्षेत्र में, को हाल के वर्षों के दंडात्मक कर निर्धारण से छुटकारा देना.
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Sanjeev S. Ahluwalia has core skills in institutional analysis, energy and economic regulation and public financial management backed by eight years of project management experience ...
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