Published on May 07, 2021 Updated 0 Hours ago

पेटेंट क़ानूनों में जैसे ही आधिकारिक रूप से छूट मिलती है, हमें उसका फ़ायदा उठाना शुरू कर देना चाहिए.

वैक्सीन पेटेंट छूट से मिलेगी राहत

महामारी से दुनिया को बचाने के लिए समुचित मात्रा में और सहजता से सभी देशों को वैक्सीन उपलब्ध कराने के इरादे से भारत और दक्षिण अफ्रीका कई महीनों से विश्व व्यापार संगठन में बौद्धिक संपदा अधिकार (आईपीआर) नियमों में छूट देने की मांग कर रहे थे. एक साल से अधिक समय से जारी महामारी से बचाव के लिए टीकों की उपलब्धता अधिकतर देशों में नहीं है.

अब अमेरिका ने वैश्विक दबाव के कारण इस मांग का समर्थन करने की घोषणा की है. यह एक स्वागतयोग्य पहल है, पर इस मामले से जुड़े विभिन्न पहलुओं को समझना ज़रुरी है. जो आस्त्राजेनेका-ऑक्सफोर्ड वैक्सीन (हमारे देश में कोविशील्ड के नाम से उपलब्ध है) है, उसका मामला और फाइजर, मॉडेरना, जॉनसन एंड जॉनसन जैसे वैक्सीनों का मामला अलग-अलग है.

आस्त्राजेनेका का विकास लगभग पूरी तरह से सार्वजनिक पूंजी के सहारे किया गया है. इसे विकसित करने के पीछे ऑक्सफोर्ड के वैज्ञानिकों का इरादा व्यवसायीकरण का नहीं था. वे सस्ता टीका विकसित करना चाहते थे ताकि महामारी की रोकथाम हो सके. इसमें एक अकादमिक पहलू भी था. दूसरी तरफ बड़ी दवा कंपनियों की नज़र अरबों डॉलर के मुनाफे पर थी और अब भी है. इसी वजह से इनके टीकों के आइपीआर की रक्षा की पैरोकारी करने में अमेरिका के अलावा यूरोपीय संघ और ब्रिटेन आगे थे. पर यह स्थिति कुछ बदलती हुई दिख रही है.

जो देश या समूह वैक्सीनों के आइपीआर बचाने की पैरोकारी कर रहे थे, उनका तर्क यह था कि दुनिया में टीकों की कमी और आपूर्ति में अवरोध अन्य कारणों से है, न कि पेटेंट अधिकारों की वजह से. हालांकि, वे अपने तर्क को स्पष्ट नहीं कर पा रहे थे, लेकिन उनका कहना था कि अगर पेटेंट नियम हटा भी दिये जाये, तो भी आपूर्ति सुचारु नहीं हो सकेगी.

लेकिन यह सही बात नहीं है. भारत में टीकों की आपूर्ति में आ रही परेशानियों की कुछ अन्य वजहें भी हो सकती हैं, जिन पर हम आगे चर्चा करेंगे, पर कुछ अन्य देश हैं, जो आइपीआर हटाये जाने के बाद बड़े पैमाने पर टीके मुहैया करा सकते हैं. इनमें क्यूबा, थाईलैंड, सेनेगल, इंडोनेशिया आदि देश हैं.

अगर यह वायरस ऐसे ही फैलता रहेगा, तो उसके अलग-अलग वैरिएंट भी पैदा होते रहेंगे.

इन देशों के पास वैक्सीन उत्पादन की अच्छी क्षमता है, लेकिन पेटेंट नियमों के लागू रहने से ये टीके नहीं बना सकते हैं. आइपीआर संबंधी बाधाएं हटाने के पीछे एक और अहम तर्क है, जिस पर बहुत लोग चर्चा नहीं कर रहे हैं, किंतु आगामी दिनों में इस पर भी विचार किया जायेगा. वह तर्क यह है कि अगर महामारी पर प्रभावी ढंग से अंकुश नहीं लगाया गया, तो यह वायरस किसी-न-किसी देश में अलग-अलग समय पर कहर ढाता रहेगा, जैसा हमने पहले इटली, स्पेन, अमेरिका जैसे देशों में देखा और अब भारत समेत कुछ देशों में देख रहे हैं.

अगर यह वायरस ऐसे ही फैलता रहेगा, तो उसके अलग-अलग वैरिएंट भी पैदा होते रहेंगे. एक बड़ी चिंता यह है कि हमें यह नहीं मालूम है कि कौन-सा वैरिएंट कितना जानलेवा और संक्रामक हो सकता है. इस समस्या के समाधान के लिए अगर आपको मौजूदा वैक्सीन में बदलाव करना है, तो आप नहीं कर सकते हैं क्योंकि आपके पास पेटेंट नियमों की छूट नहीं है. ये सारे तर्क पहले विकसित देश मान नहीं रहे थे.

अब विश्व स्वास्थ्य संगठन में अमेरिका की वाणिज्य प्रतिनिधि कैथरीन ताइ ने बौद्धिक संपदा अधिकारों में छूट देने का समर्थन किया है और इससे यह उम्मीद बंधी है कि आने वाले समय में दुनिया की बहुत बड़ी आबादी को सस्ता टीका आसानी से मुहैया कराया जा सकेगा. उन्होंने यह भी कहा है कि अमेरिका इन अधिकारों का समर्थक है, लेकिन व्यापक हित में अभी वह छूट देने के पक्ष में है. इस बयान में लिखित समझौते की बात कही गयी है, जिस पर ध्यान देने की ज़रुरत है.

भारत और दक्षिण अफ्रीका का प्रस्ताव पहले से ही लिखित रूप में है. अब यह देखना होगा कि छूट के बदले अमेरिका और अन्य देश क्या शर्तें लगाते हैं और समझौते का अंतिम रूप क्या होगा. बहरहाल, यह उम्मीद लगायी जा सकती है कि लोगों के जीवन को मुनाफे पर प्राथमिकता दी जायेगी. अमेरिकी बयान के बाद वैक्सीन बनानेवाली कई कंपनियों के शेयरों के भाव में गिरावट आयी है. कुछ अमेरिकी राजनेताओं ने कोरोना टीकों के पेटेंट में छूट का स्वागत करते हुए यह भी कहा है कि इसके बाद इंसुलिन में भी ऐसी छूट दी जानी चाहिए क्योंकि यह अमेरिका और अनेक देशों में बहुत महंगी है, जबकि कई देशों में इसकी कीमत बहुत कम है.

भारत में दो कंपनियां टीके बना रही हैं. समय रहते अपनी ज़रुरत और अन्य देशों के भेजे जाने की जिम्मेदारी को समझते हुए उत्पादन क्षमता पर ध्यान केंद्रित किया जाना था, जो नहीं हुआ.

लगभग एक सदी पहले महज एक डॉलर में इंसुलिन का पेटेंट हुआ था, जबकि आज अमेरिका में ही एक व्यक्ति को बीमा के साथ हजार गुना कीमत देनी पड़ती है. कंपनियों की नजर ज्यादा मुनाफे पर है. भारत में टीकों की कमी के संबंध में कुछ अन्य कारकों का ध्यान भी रखना जाहिर है कि चाहिए. भारत में दो कंपनियां टीके बना रही हैं. समय रहते अपनी ज़रुरत और अन्य देशों के भेजे जाने की जिम्मेदारी को समझते हुए उत्पादन क्षमता पर ध्यान केंद्रित किया जाना था, जो नहीं हुआ.

खैर, इससे सीख लेते हुए अब भी उत्पादन में बढ़ोतरी की जा सकती है. अन्य टीकों के आने से भी राहत मिलने की उम्मीद है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के तहत बने कोवैक्स योजना में शामिल होने के नाते भारत को भी अन्य देशों को आपूर्ति करना है और भारत ने ऐसा किया भी है. कोविशील्ड के मामले में पेटेंट छूट पहले से मिली हुई है और भारत में ही विकसित होने के कारण कोवैक्सीन में भी ऐसी कोई बाध्यता नहीं है.

भारतीय कंपनियों के ऐसे प्रदर्शन से ‘फार्मेसी ऑफ द वर्ल्ड’ (दुनिया का दवाखाना) होने की देश की छवि को भी इससे नुकसान हुआ है, जिसे दुरुस्त किया जाना चाहिए. यदि आईपीएल में छूट मिलती है, तो विभिन्न देशों में भी उत्पादन बढ़ेगा और भारत में भी. यह दुनिया की वायरस से सुरक्षा के लिहाज से भी अच्छा होगा और भारत को भी राहत मिलेगी.

महामारी से जूझते भारत को अन्य वैक्सीनों के इस्तेमाल को भी जल्दी मंजूरी देने पर विचार करना चाहिए. जो वैक्सीन अन्य देशों- खासकर विकसित देशों- में लगाये जा रहे हैं और उनके अच्छे नतीजे हमारे सामने हैं, उनको देश में लाने में देरी का कोई मतलब नहीं है. इस संबंध में बहुत देर हो चुकी है और स्थानीय उत्पादन की मौजूदा क्षमता से इतनी बड़ी आबादी को कम समय में टीका दे पाना बहुत कठिन होगा. इसलिए पेटेंट क़ानूनों में जैसे ही आधिकारिक रूप से छूट मिलती है, हमें उसका फ़ायदा उठाना शुरू कर देना चाहिए.

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