Author : Swati Prabhu

Expert Speak Raisina Debates
Published on Sep 16, 2024 Updated 0 Hours ago

भारत में इस बात की काफ़ी संभावनाएं हैं कि वो विकसित और विकासशील देशों के बीच सहयोग के पुल का काम करे. और 2030 के बाद की दुनिया का एजेंडा तय करने के लिए विकास के नए और सबको स्वीकार्य मॉडल को पेश कर सके.

वर्ष 2030 के बाद वैश्विक एजेंडा:विकासशील देशों के बीच सहयोग की संभावनाएं

आज जब दुनिया बड़ी तेज़ी से 2030 तक टिकाऊ विकास के लक्ष्यों (SDGs) को हासिल करने की दिशा में आगे बढ़ रही है,तब ये स्पष्ट है कि विकसित देशों समेत कई देश, स्थायित्व के लक्ष्य को हासिल करने के मामले में काफ़ी पीछे चल रहे हैं. 2015 में जिस उत्साह के साथ,मिलिनेयिम डेवेलपमेंट गोल्स (MDGs) की जगह संयुक्त राष्ट्र के एजेंडा 2030 को संस्थागत बनाया गया था,वो उत्साह शायद अब कई कारणों के चलते घट गया है. मिसाल के तौर पर पूरी दुनिया में एक साथ चल रहे कई संकट,आने वाले दशक या फिर उसके आगे के समय की एक निराशाजनक तस्वीर पेश करते हैं. राजनीति की वजह से पैदा हुए संघर्ष आर्थिक,सामाजिक और पर्यावरण के क्षेत्रों पर असर डाल रहे हैं,जिसकी वजह से अब तक हासिल किए जा चुके लक्ष्यों के मामले में भी देश पीछे की ओर जा रहे हैं. ऐसे में ये ज़रूरी हो जाता है कि अब 2030 के बाद की रणनीति के बारे में सोचा जाए,जो मौजूदा भू-राजनीतिक संदर्भ के लिहाज से ज़रूरी हो जाती है. ये ऐसी रणनीति हो जो सभी देशों के लिए स्वीकार्य हो और सबसे ज़रूरी बात ये कि लंबी अवधि में वो स्थायित्व लाने वाली हो.

विकासशील देशों के बीच आपसी सहयोग का इतिहास

दूसरे विश्व युद्ध के बाद, विशेष रूप से 1960 और 1970 के दशक में बहुत से देशों को उपनिवेशवाद के शिकंजे से आज़ादी मिली. इस दौरान, एशिया और अफ्रीका के लगभग तीन दर्जन देशों ने स्वतंत्रता हासिल की (चित्र 1).

 

चित्र 1: उपनिवेशवाद से मुक्ति की भौगोलिक तस्वीर

स्रोत: काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस (CFR) एजुकेशन

ताज़ा ताज़ा मिली इस स्वतंत्रता का लाभ उठाने की ताक़त न होने की वजह से इन देशों को प्रशासन,आर्थिक सुरक्षा,राजनीतिक अधिकार सुरक्षित करने और बुनियादी संसाधन और सुविधाओं का लाभ अपने नागरिकों को मुहैया कराने के मामले में तमाम चुनौतियों का सामना करना पड़ा. जैसा कि उम्मीद थी,पारंपरिक दानदाता (या पूर्व औपनिवेशिक ताक़तों) ने इन चुनौतियों को आर्थिक,राजनीतिक और सामाजिक माध्यमों से अपना दबदबा क़ायम करने के मौक़े के तौर पर देखा. आर्थिक सहायता भी इन्हीं में से एक ज़रिया थी. उपनिवेशवाद के बोझ ने पूर्व साम्राज्यवादी ताक़तों और ताज़े ताज़े स्वतंत्रत हुए देशों के बीच दबाव राजनीतिक तनाव और आपसी आर्थिक निर्भरता को जन्म दिया. 

राजनीति की वजह से पैदा हुए संघर्ष आर्थिक,सामाजिक और पर्यावरण के क्षेत्रों पर असर डाल रहे हैं,जिसकी वजह से अब तक हासिल किए जा चुके लक्ष्यों के मामले में भी देश पीछे की ओर जा रहे हैं.

2000 के दशक में विकास में मदद मुहैया कराने वाली ताक़तों का (फिर से) उभार हुआ, जिसकी मिसाल ब्रिक्स (BRICS),और विशेष रूप से चीन और भारत हैं. इसने पश्चिमी देशों की अगुवाई में सहायता वाले मॉडल के दबदबे को चुनौती दी. शुरुआत में तो विकास के मामले में ग्लोबल साउथ के देशों के उभार को लेकर पश्चिमी देशों ने आशंका जताई. लेकिन, आख़िरकार उन्होंने इस सच्चाई को स्वीकार किया और उन्होंने विकास के अहम कारक के तौर पर इन देशों की अहमियत को स्वीकार किया. उसके बाद से ही ग्लोबल साउथ चीख़ चीख़कर ये कह रहा है कि उसको बराबरी की हिस्सेदारी,बराबरी का दर्जा और विकास के बड़े मंचों पर बराबर की आवाज़ मिलनी चाहिए. इस तरह से दानदाता और दान पाने वाले देशों का जो पारंपरिक मॉडल था,वो वास्तविक लाभ नहीं दे रहा था,बल्कि ग्लोबल नॉर्थ या विकसित देशों के दादागीरी वाले असर को और ताक़तवर बनाता जा रहा था.

2000 के दशक में विकास में मदद मुहैया कराने वाली ताक़तों का (फिर से) उभार हुआ, जिसकी मिसाल ब्रिक्स (BRICS),और विशेष रूप से चीन और भारत हैं.

इस संदर्भ में साउथ-साउथ यानी विकासशील देशों के बीच आपसी सहयोग,‘साझा लक्ष्यों, अनुभवों और हमदर्दियों’की अभिव्यक्ति के तौर पर चर्चित होना शुरू हुआ,ताकि वो एकजुट होकर सामूहिक रूप से क़दम उठा सकें और अपनी राष्ट्रीय संप्रभुताओं और मालिकाना हक़ को संरक्षित कर सकें. वैसे तो विकासशील देशों ने बिना शर्त के सहयोग की अहमियत को समझा. लेकिन,विकासशील देशों के बीच आपसी सहयोग के पीछे जो विचार था उसका मक़सद विकसित और विकासशील देशों के बीच मौजूदा तालमेल को बेहतर बनाना था,न कि उसकी जगह लेना. इसने दुनिया की गंभीर और साझा चुनौतियों से निपटने के लिए विकसित और विकासशील देशों के बीच ज़्यादा तालमेल वाले और सहयोगात्मक ढांचे की राह निकली. ग्लोबल साउथ के बीच आपसी सहयोग नेक इरादों को दिखाता है. फिर भी ऐसी कई बातें थीं,जो लंबी अवधि में इस प्रगति को नुक़सान पहुंचा सकती थीं.

ग्लोबल साउथ के बीच आपसी सहयोग का भविष्य और भारत

विकासशील देशों के बीच सहयोग को लेकर कई आलोचनाएं की गई हैं. मसलन उपनिवेशों की विरासत को और मज़बूती देना और वास्तविक दुनिया की समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय कई मामलों में बहुत आगे बढ़ जाना. आलोचक ये भी कहते हैं कि विकास का ये मॉडल असल में विकसित देशों द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा है,ताकि वो ग्लोबल साउथ पर अपने दबदबे को जस का तस बनाए रख सकें. ग्लोबल साउथ की विविधता भरी बनावट होने की वजह से उसके हित,प्राथमिकताएं,राजनीतिक रुख़ और आर्थिक दांव भी अलग अलग हैं. ऐसे में इन सभी को एक जगह एकत्रित करके एक साझा सूची बनाना चुनौतीपूर्ण हो जाता है.

हालांकि,वास्तविकता तो ये है कि ये आलोचनाएं आने वाले वर्षों में विकासशील देशों के बीच सहयोग को बढ़ावा दे सकती हैं. आज जब अंतरराष्ट्रीय समुदाय 2030 के बाद के एजेंडे पर सोच विचार कर रहा है, तो ग्लोबल साउथ के देशों के बीच सहयोग तमाम सवालों के जवाब दे सकता है. आज जब विकासशील देश,और विशेष रूप से भारत डिजिटल पब्लिक इन्फ्रास्ट्रक्चर (DPI),जलवायु परिवर्तन से निपटन सकने वाली खेती,आपदा के प्रति लचीले मूलभूत ढांचे के गठबंधन (CDRI)के ज़रिए आपदा बर्दाश्त कर सके वाले बुनियादी ढांचे, इंटरनेशनल सोलर एलायंस (ISA)के माध्यम से अक्षय ऊर्जा जैसे तमाम देशों पर असल डालने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए नए नए मॉडलों पर काम कर रहा है,तो निश्चित रूप से इन पहलों ने दुनिया का ध्यान अपनी तरफ़ आकर्षित किया है.

निश्चित रूप से चुनौतियां हैं और विकास की एक राह बनाना बहुत बड़ी चुनौती है. इसके बावजूद,भारत में इस बात की काफ़ी संभावनाएं हैं कि वो विकसित और विकासशील देशों के बीच सहयोग के सेतु का काम करे

इसके अलावा,भारत ने G20 अध्यक्षता के दौरान वॉयस ऑफ ग्लोबल साउथ शिखर सम्मेलन आयोजित करने की पहल की,जिसका वैश्विक समुदाय ने स्वागत किया था. यूरोपीय संघ (EU)और अमेरिका ने इसे स्वागतयोग्य क़दम बताया था. विकासशील देशों को इस तरह का मंच मुहैया कराना एक अनूठी पहल है,जिसमें सारे विकासशील देश न केवल एक जगह पर इकट्ठे हो सकते हैं,बल्कि इन बैठकों से तमाम नए विचार और आविष्कार भी निकलते हैं. हालांकि भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक चुनौतियों को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. चीन एक स्थायी चुनौती का कारण है. मूलभूत ढांचे के विकास के लिए पूंजी उपलब्ध कराने के लिए चीन की बेहद महंगी परियोजना,बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) एक अभूतपूर्व क़दम है. सच्चाई तो ये है कि ये परियोजनाएं पश्चिमी संस्थाओं के लिए ख़तरा बन गई हैं,जबकि ये पश्चिमी संस्थान दुनिया में मूलभूत ढांचे के विकास के परिदृश्य से कम-ओ-बेश नदारद ही रही हैं. हालांकि,इन परियोजनाओं के पर्यावरण और समाज पर पड़ने वाले असर वैश्विक स्थिरता और (अ)व्यवस्था को ख़तरे में डाल रहे हैं.

इस नज़र से देखें तो भारत निश्चित रूप से ग्लोबल साउथ के देशों के बीच आपसी सहयोग की रूप-रेखा के अंतर्गत टिकाऊ विकास को लेकर बातचीत आगे बढ़ाने के मामले में काफ़ी अच्छी स्थिति में है. निश्चित रूप से चुनौतियां हैं और विकास की एक राह बनाना बहुत बड़ी चुनौती है. इसके बावजूद,भारत में इस बात की काफ़ी संभावनाएं हैं कि वो विकसित और विकासशील देशों के बीच सहयोग के सेतु का काम करे और दुनिया के लिए 2030 के बाद के एजेंडे के लिए विकास के ऐसे नए मॉडल पेश कर सके, जोर सबको मंज़ूर हों.

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