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अपने दूसरे कार्यकाल में ट्रम्प ट्रांस-अटलांटिक संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करना चाहते हैं. यूरोप को अमेरिका से कम समर्थन मिलने की संभावना है. ऐसे में अब यूरोप को अपने राजनीतिक मतभेदों, सुरक्षा और चीन नीति को अपने हाथ में लेने पर मज़बूर होना पड़ रहा है.
Image Source: Getty
यह लेख रायसीना एडिट - 2025 सीरीज़ का हिस्सा है.
फरवरी 2024 में डोनाल्ड ट्रंप ने दक्षिण कैरोलिना के कोन्वे इलाके में एक चुनावी रैली की. सामने समर्थकों की भीड़ थी. जोशीले समर्थकों के बीच ट्रंप ने एक 'बड़े यूरोपीय देश' के राष्ट्रपति के साथ अपनी बातचीत की कहानी सुनाई. उस राष्ट्रपति ने ट्रम्प से पूछा कि अगर उनका देश उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) में अपने हिस्से की तय राशि नहीं चुका पाए, क्या तब भी अमेरिका उनके देश की रक्षा करेगा. ट्रंप ने कहा कि उन्होंने इसका जवाब "नहीं" में दिया. इतना ही नहीं ट्रंप ने ये भी कहा कि वो रूस के राष्ट्रपति पुतिन से कहेंगे कि नाटो के उन देशों के ख़िलाफ रशिया को "जो कुछ भी वो चाहता है" करने के लिए प्रोत्साहित करेंगे, जो "अपने बिल नहीं चुकाते" हैं. ट्रंप के इस बयान ने अमेरिका और यूरोप में काफ़ी अफरातफरी पैदा की. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन और यूरोपीय नेताओं ने इसका उदाहरण देते हुए कहा कि अगर ट्रंप जीत गए तो कैसे वो अपने सहयोगियों को छोड़ देंगे. ट्रांस-अटलांटिक संबंध को ख़त्म कर देंगे. हालांकि अमेरिका और यूरोप के संबंधों के नष्ट होने का डर तो शायद बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया हो, लेकिन ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में सिर्फ कुछ महीनों की नीतियों का बाद ये स्पष्ट है बहुत कुछ बदलने वाला है. ट्रंप और उनकी टीम नए नियमों और अपेक्षाओं के तहत अमेरिका-यूरोप संबंधों को आधारभूत बदलाव लाएंगे और संबंधों को नया आकार देंगे.
यूरोप की सुरक्षा पर अमेरिका बहुत खर्च करता है और इसकी वजह से अमेरिका दूसरी जगहों पर अपनी शक्ति नहीं दिखा पा रहा, जबकि यूरोपीय देशों को अमेरिकी गारंटी की वजह से अपनी सुरक्षा पर ज़्यादा खर्च नहीं करना पड़ता. इन बचे हुए पैसों को यूरोप के देश अपने सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों पर खर्च करते हैं.
द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति और शीत युद्ध के अंत के बाद अमेरिका और यूरोप ने काफ़ी करीबी सहयोग के तहत काम किया. यूरोपीय लोग ये मानते रहे कि यूरोप की सुरक्षा की अंतिम गारंटी की जिम्मेदारी अमेरिका की है. अमेरिका की सुरक्षा गारंटियां और यूरोपीय महाद्वीप पर इसकी भौतिक सैन्य उपस्थिति ने ना सिर्फ अमेरिका को रूस का मुकाबला करने में सक्षम बनाया, बल्कि इसी बहाने अमेरिका दुनियाभर में खुद को महाशक्ति के तौर प्रदर्शित कर पाया. हालांकि, इसने यूरोप को किसी भी ख़तरे से निपटने की प्रतिरोधक क्षमता दी लेकिन साथ ही अमेरिका को भी ये फायदा हुआ कि यूरोप की विदेश नीति पर उसका काफ़ी असर बना रहा. ट्रांस-अटलांटिक यानी अमेरिकी और यूरोपीय नेताओं की नज़रों में ये अनुबंध अब तक सफल रहा है. यूरोप के देश अमेरिका के साथ लोकतांत्रिक मूल्यों को साझा करता है. यूरोपीय संघ, अमेरिका का सबसे बड़ा द्विपक्षीय व्यापार और निवेश भागीदार है. अमेरिका को एक 'उदार अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था' का प्रबंधन करने में यूरोप मदद करता है. इस लिहाज से देखें तो यूरोप को अमेरिका द्वारा दी जा रही सुरक्षा की गारंटी इन सब कामों की एक छोटी सी कीमत है.
अब ये स्पष्ट हो गया है कि अगले चार साल तक ट्रंप के राष्ट्रपति रहने के दौरान यूरोप की सुरक्षा को लेकर अमेरिका का ये रवैया बरकरार रहेगा. ऐसे में यूरोप को अपनी सुरक्षा की तैयारी खुद शुरू करनी चाहिए.
डोनाल्ड ट्रंप और उनके प्रशासन में काम करने वाले लोगों ने अब इसे देखने का नज़रिया बदल लिया है. यही लोग अब अमेरिका की प्राथमिकता तय कर रहे हैं. उनकी इस सोच से ही ये समझा जा सकता है कि ट्रंप के दूसरे कार्यकाल के दौरान अमेरिका-यूरोप संबंध कैसे विकसित हो सकते हैं. ट्रंप के सहयोगियों के मुताबिक अमेरिका ने यूरोप को काफ़ी लाड़-प्यार दिया है. पिछले 35 साल में यूरोप को लेकर अमेरिका का रवैया बहुत नरम रहा है और यूरोपीय देशों को इसका एकतरफा फायदा मिलता रहा है. यूरोप की सुरक्षा पर अमेरिका बहुत खर्च करता है और इसकी वजह से अमेरिका दूसरी जगहों पर अपनी शक्ति नहीं दिखा पा रहा, जबकि यूरोपीय देशों को अमेरिकी गारंटी की वजह से अपनी सुरक्षा पर ज़्यादा खर्च नहीं करना पड़ता. इन बचे हुए पैसों को यूरोप के देश अपने सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों पर खर्च करते हैं.
यूरोपीय लोगों को अब ये उम्मीद नहीं रखनी चाहिए कि ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में भी अमेरिका और यूरोप के रिश्ते पहले की तरह बने रहेंगे. फरवरी में नाटो की अपनी पहली यात्रा के दौरान अमेरिकी रक्षा सचिव पीट हेगसेथ ने दो-टूक शब्दों में ये बात स्पष्ट भी कर दी थी. उन्होंने अपने यूरोपीय सहयोगियों से कहा कि वो "सीधे और स्पष्ट रूप से ये बात कहने यहां आए हैं कि कुछ कठोर रणनीतिक वास्तविकताएं अमेरिका को मुख्य रूप से यूरोप की सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित करने से रोकती हैं". उन्होंने ये भी कहा कि अपनी सुरक्षा के लिए "यूरोपीय देशों को आगे आकर नेतृत्व करना चाहिए". अमेरिका के इस दो-टूक संदेश ने यूरोपीय लोगों को हैरान कर दिया, लेकिन ये विचार नए नहीं हैं। ड्वाइट डी. आइजनहॉवर और उनसे पहले के अमेरिकी राष्ट्रपति भी ये शिकायत करते रहे हैं कि यूरोप को अमेरिका की पीठ पर सवारी करने की आदत पड़ गई है. अब बड़ा सवाल ये है कि इन सब बदलावों को वास्तविकता का जामा पहनाकर ट्रांस-अटलांटिक संबंधों को कैसे सुधारा जाए.
ट्रंप के दूसरे कार्यकाल के दौरान यूरोपीय देशों को इस बात के लिए तैयार रहना चाहिए यूरोप की सुरक्षा के लिए अमेरिकी के समर्थन में थोड़ी कमी आएगी. यूरोपीय महाद्वीप में अमेरिकी सैनिकों की मौजूदगी में भी कमी आ सकती है. ट्रंप ने पहले ही कहा था कि वो यूरोप में अमेरिकी सैनिकों की संख्या में कमी लाकर इसे 20 हज़ार तक करना चाहते हैं. इतना ही नहीं ट्रंप ने ये भी कहा कि वो यूरोप में तैनात बाकी बचे सैनिकों के लिए भी अपने यूरोपीय सहयोगियों से सब्सिडी की मांग करना चाहते हैं. यूरोपीय देशों से सब्सिडी हासिल करना व्यवहारिक नहीं लगता. सैनिकों की संख्या में प्रस्तावित कटौती की बात ज़रूर तार्किक नज़र आती है. यूरोपियन यूनियन के पास कुल मिलाकर 1.9 मिलियन यानी 19 लाख सैनिक हैं. ऐसे में ये बात मानी जा सकती है कि वो यूरोप की रक्षा का ज़्यादा बोझ उठाएं. हालांकि अगर कुछ महीने पहले तक कोई ये कहता कि यूरोप में अमेरिका की सैनिक उपस्थिति कम होगी तो इससे यूरोपीय देशों में घबराहट की स्थिति पैदा हो जाती. लेकिन अब ये स्पष्ट हो गया है कि अगले चार साल तक ट्रंप के राष्ट्रपति रहने के दौरान यूरोप की सुरक्षा को लेकर अमेरिका का ये रवैया बरकरार रहेगा. ऐसे में यूरोप को अपनी सुरक्षा की तैयारी खुद शुरू करनी चाहिए. हालांकि ट्रंप और उनकी टीम को भी ये सुनिश्चित करना होगा कि उनके द्वारा की जा रही योजनाएं व्यवस्थित हों और यूरोप के साथ उनका तालमेल हो.
रक्षा और सुरक्षा के अलावा अमेरिका और यूरोप में राजनीतिक परिदृश्य भी अलग-अलग मानदंडों और मूल्यों के दबाव में दरकने लगा है. अमेरिका के उप राष्ट्रपति जेडी. वेंस ने फरवरी में म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन में अपने भाषण के दौरान इसे स्पष्ट शब्दों में ज़ाहिर भी कर दिया. वेंस के मुताबिक ट्रंप की टीम का मानना है कि यूरोप का ख़तरा आंतरिक है. उन्होंने यूरोप पर उन पारंपरिक लोकतांत्रिक मूल्यों से पीछे हटने का आरोप लगाया, जो ऐतिहासिक रूप से अमेरिका के साथ साझा थे. इसमें मुख्य रूप से स्वतंत्र अभिव्यक्ति, धार्मिक स्वतंत्रता और माइग्रेशन का मुद्दा शामिल है. इस तरह की टिप्पणियों का क्या असर होगा, अगर इस बात को छोड़ भी दिया जाए तब भी ये सवाल तो उठता है कि संभावित भू-राजनीतिक बदलावों का व्यापक ट्रांस-अटलांटिक गठबंधन पर क्या प्रभाव पड़ेगा. पहला बदलाव तो ये दिख सकता है कि ट्रंप टीम शायद विदेशी चुनावों में शामिल न होने की अमेरिका की ऐतिहासिक प्रथा को दरकिनार करे और उन यूरोपीय पार्टियों का समर्थन करना शुरू कर दे, जिनका राजनीतिक दृष्टिकोण वो अपनी नीतियों के अनुकूल पाते हैं. ट्रंप के करीबी सहयोगी एलोन मस्क जर्मनी में चरमपंथी एएफडी पार्टी, स्पेन में वोक्स पार्टी और इटली में जॉर्जिया मेलोनी के फ्रातेली डी'इटालिया पार्टी का समर्थन कर पहले ही अपने इरादे साफ कर चुके हैं. इसका एक मतलब ये भी है कि यूरोप के प्रति ट्रंप अब एक अत्यधिक व्यापारिक दृष्टिकोण अपनाएं, विशेष रूप से उन देशों के साथ जो राजनीतिक रूप से उनके साथ नहीं हैं. चीन पर यूरोप की आर्थिक निर्भरता के मामले में ट्रंप का ये रुख़ स्पष्ट रुप से दिख सकता है. ट्रंप और उनकी टीम का मानना है कि यूरोप के मामले में चीन दोनों तरफ का फायदा उठाता है. चीन की यूरोपीय बाज़ारों और उसके महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे तक सीधे पहुंच है. इससे चीन को अपनी वैश्विक आर्थिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने की ताक़त मिलती है. हालांकि ये भविष्यवाणी करना मुश्किल है कि इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे, लेकिन इतना तय है कि यूरोपीय संघ (और विभिन्न यूरोपीय देशों) को अगले चार साल तक चीन नीति के संबंध में अमेरिका के दबाव का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए. इस दौरान यूरोप को ऐसा महसूस हो सकता है कि उसे एक पक्ष चुनने के लिए मज़बूर किया जा रहा है. चीन नीति को लेकर यूरोप के देशों का नज़रिया पहले से ही खंडित यानी अलग-अलग है, ऐसे में अमेरिका दबाव पहले से ही टूटे हुए इस दृष्टिकोण को और कमज़ोर कर सकता है.
यूरोपीय देश अब ये समझने की कोशिश कर रहे हैं कि अगले चार साल तक उन्हें अमेरिका के साथ कैसे निपटना है.
ट्रंप के दूसरे कार्यकाल के शुरुआती महीनों ने ही ट्रांस-अटलांटिक साझेदारी को संकट में डाल दिया है. म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन में अमेरिका नेताओं ने यूरोप को जो कड़े संदेश दिए, उससे ये देश हैरान हैं. हालांकि उन्हें इसे लेकर आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए था. 2020 में राष्ट्रपति बनने के बाद जब बाइडेन ने "अमेरिका इज बैक" नारा दिया था, उसी समय यूरोपीय देशों को इसके निहितार्थ समझ लेने चाहिए थे. ये संदेश बुनियादी भू-राजनीतिक वास्तविकताओं को अनदेखा करता है और यूरोप को सुरक्षा भावना को लेकर एक खुशफहमी में डाल देता है. यूरोप एक बार फिर से पहले की स्थिति में आ गया है. यूरोपीय देश अब ये समझने की कोशिश कर रहे हैं कि अगले चार साल तक उन्हें अमेरिका के साथ कैसे निपटना है. ट्रंप और उनकी टीम 80 वर्षों के ऐतिहासिक परिपाटी को नए सिरे से गढ़ने की कोशिश कर रही है. हालांकि मौजूदा सूरत में ये कहा जा सकता है कि अमेरिका और यूरोप के संबंध कायम रहेंगे, लेकिन इन संबंधों में कुछ मौलिक बदलाव हो सकते हैं. अब यूरोप को अपने पैरों पर खड़ा होने की तैयारी करनी होगी.
रेचल रिज़ो अटलांटिक काउंसिल के यूरोप सेंटर में नॉन रेज़िडेंट सीनियर फेलो हैं.
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Rachel Rizzo is Nonresident Senior Fellow, Europe Center, Atlantic Council. ...
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