Author : Prem Mahadevan

Published on Mar 17, 2021 Updated 0 Hours ago

आज यूरोप के उदारवादी लोकतांत्रिक देशों के सामने सबसे बड़ी दुविधा ये है कि उन्हें अपनी कम आबादी और राष्ट्रीय हितों की अलग अलग परिकल्पनाओं के साथ चीन के उभार के विपरीत प्रभावों से कैसे निपटना चाहिए?

चीन को लेकर यूरोप की दुविधा

कोविड-19 की महामारी ने हमें दिखाया है कि चीन से निकलने वाली चीज़ों के वास्तविक और गंभीर प्रभाव हो सकते हैं. मौजूदा अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था पर ये प्रभाव सकारात्मक होने के साथ साथ नकारात्मक भी हो सकते हैं. चूंकि चीन का आकार बेहद विशाल है, ऐसे में उसके नकारात्मक प्रभावों की अनदेखी करना या फिर उन पर क़ाबू पाना बेहद मुश्किल काम हो सकता है. लेकिन, चीन के साथ काम करना भी एक बड़ी चुनौती है. ख़ासतौर से जब हम ये देखते हैं कि चीन का अहं बहुत जल्दी आहत हो जाता है. उसकी वास्तविक और काल्पनिक ऐतिहासिक शिकायतें ऐसी हैं, जो अक्सर अंतरराष्ट्रीय सहयोग की राह में बाधा बन जाती हैं. जैसे कि चीन ने कोरोना वायरस की महामारी की शुरुआत अपने यहां से होने की बात मानने से ही इनकार कर दिया है.

यूरोप के उदारवादी लोकतांत्रिक देश चीन से कैसे निपटें

इन हालात में यूरोप के उदारवादी लोकतांत्रिक देशों के सामने सबसे बड़ा सवाल यही है कि चीन की तुलना में अपनी बेहद कम आबादी और राष्ट्रीय हितों की अपनी अलग अलग परिकल्पनाओं के साथ वो चीन के उभार से उत्पन्न हो रहे नकारात्मक प्रभावों से कैसे निपटें. वो चीन जैसी एक तानाशाही महाशक्ति से किस तरह के संबंध रखें. ये सवाल तब और प्रासंगिक हो जाता है जब चीन अपनी बढ़ती ताक़त के साथ ये तर्क सामने रखता है कि अंतरराष्ट्रीय नियम और दूसरे देशों के अधिकारों को उसकी शक्ति के आगे सिर झुकाना होगा. ये एक ऐसा सवाल है जो एक जियोपॉलिटिकल ताक़त के तौर पर यूरोपीय संघ की विश्वसनीयता को आकार देगा. यूरोपीय संघ की विश्वसनीयता इसलिए भी दांव पर लगी है क्योंकि यूरोपीय देश अपने धीमे आर्थिक विकास को नई धार देने के लिए चीन के ही नहीं, अन्य अनुदारवादी देशों के भरोसे हैं.

यूरोप के उदारवादी लोकतांत्रिक देशों के सामने सबसे बड़ा सवाल यही है कि चीन की तुलना में अपनी बेहद कम आबादी और राष्ट्रीय हितों की अपनी अलग अलग परिकल्पनाओं के साथ वो चीन के उभार से उत्पन्न हो रहे नकारात्मक प्रभावों से कैसे निपटें.

यूरोपीय संघ, जो ख़ुद को मानवीय मूल्यों का गढ़ कहता है, वो चीन को मानव अधिकारों और आर्थिक लाभ के दो अलग अलग नज़रियों से देखता है. बल्कि यूं कहें कि वो चीन के साथ अपने आर्थिक संबंधों को मानव अधिकार संबंधी सिद्धांतों पर अधिक तरज़ीह देता है. यूरोपीय संघ के तमाम देशों में से शायद जर्मनी है, जो चीन के साथ संघ के संबंधों को परिभाषित करने की क्षमता रखता है. यूरोपीय संघ में जर्मनी, चीन का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है. यूरोपीय संघ से चीन को होने वाले कुल निर्यात में से आधे से भी अधिक हिस्सा जर्मनी का ही है. वर्ष 2005 में जर्मनी को यूरोप के बीमार देश का दर्जा दिया गया था. तब से लेकर अब तक जर्मनी ने जो आर्थिक तरक़्क़ी की है, वो वाक़ई गर्व करने लायक़ कही जाएगी. एंगेला मर्केल के शासनकाल में जर्मनी ने काफ़ी असरदार आर्थिक उपलब्धि हासिल की है. लेकिन, जर्मनी का ये आर्थिक विकास, काफ़ी हद तक चीन की मेहरबानी का नतीजा रहा है. जर्मनी के निर्यात की दरों में तेज़ गति से वृद्धि, चीन की बढ़ती मांग के नतीजे में हासिल हुई है. ये चीन को जर्मनी का निर्यात ही था जिससे जर्मनी ने 2008-09 के आर्थिक संकट से उबरते हुए V के आकार की आर्थिक विकास की गति को दोबारा प्राप्त किया. वर्ष 2020 में कोविड महामारी के कारण आई आर्थिक सुस्ती के चलते जर्मनी के उत्पादों की अमेरिका (जो जर्मनी का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है) में मांग कम हो गई. वहीं, चीन को जर्मनी का निर्यात अबाध गति से बढ़ता रहा.

चीन को नाराज़ करने का मतलब कहीं जोख़िम मोल लेना तो नहीं?

इसका मतलब ये है कि आज जर्मनी को अपने यहां नौकरियों में कटौती करने से बचने के लिए चीन के बाज़ार की ज़रूरत है. अपनी इस आर्थिक ज़रूरत को देखते हुए जर्मनी, चीन को नाराज़ करने का जोखिम मोल नहीं ले सकता है. जिस समय अमेरिका अपने सुरक्षा साझीदारों पर इस बात का दबाव बना रहा है कि वो चीन की दूरसंचार कंपनी हुआवेई को अपने यहां के संचार नेटवर्क का हिस्सा न बनाएं, क्योंकि इससे चीन के जासूसी करने का ख़तरा है, उस समय जर्मनी ने चीन और अमेरिका के इस विवाद की ओर से ख़ुद को अलग रखा है. यहां तक कि जर्मनी की चांसलर एंगेला मर्केल ने चीन के साथ साइबर सुरक्षा पर एक दूसरे की जासूसी न करने का समझौता करने पर भी विचार किया. वो शायद इस बात से अनजान थीं, या जान-बूझकर इस हक़ीक़त की अनदेखी की कि 2015 में ख़ुद अमेरिका ने चीन के साथ ऐसा ही समझौता करने की कोशिश की थी (ये बात और है कि चीन ने साइबर दुनिया में आर्थिक जासूसी करने का वादा करने में आनाकानी शुरू कर दी. वैसे भी चीन ने अपने राष्ट्रीय सुरक्षा हितों के मद्देनज़र ऐसी कंपनियों और संस्थाओं को निशाना बनाने से कभी परहेज़ नहीं किया था).

आज जर्मनी को अपने यहां नौकरियों में कटौती करने से बचने के लिए चीन के बाज़ार की ज़रूरत है. अपनी इस आर्थिक ज़रूरत को देखते हुए जर्मनी, चीन को नाराज़ करने का जोखिम मोल नहीं ले सकता है.

जर्मनी के ख़िलाफ़ आज भी चीन वैसे ही आर्थिक जासूसी कर रहा है और उसकी ख़ुफ़िया आर्थिक जानकारियां चुरा रहा है, जैसे वो आज से एक दशक पहले करता था. कहा जाता है कि उस समय चीन की इस आर्थिक जासूसी से जर्मनी की कंपनियों को सालाना लगभग 50 अरब यूरो और 30 हज़ार नौकरियों का नुक़सान होता था (और जर्मनी की कंपनियों को ये नुक़सान केवल चीन की गोपनीय हरकतों से नहीं होता था). जिन लोगों ने ये उम्मीदें लगा रखी थीं कि चीन की ऐसी हरकतों को नज़रअंदाज़ करके और दूरगामी हितों को देखते हुए दुनिया के सबसे विशाल बाज़ार पर ध्यान केंद्रित करने से चीन अपने बाज़ार तक पहुंच बनाने में उन्हें तरज़ीह देगा, उन्हें बाद में निराशा ही हाथ लगी थी. ऐसी अपेक्षाएं करने वालों को बहुत बाद में ये पता चला की चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की प्रवृत्ति तो ऐसी है कि वो अन्य देशों की कंपनियों को अपने यहां के बाज़ार में बराबरी से कारोबार करने का मौक़ा देने के बजाय ख़ुद को ही अपने यहां के कॉरपोरेटर सेक्टर में अच्छे से स्थापित करने में जुट जाएगी. वर्ष 2017 में चीन ने दो नए क़ानून बनाए थे. इनमें से एक था राष्ट्रीय ख़ुफ़िया क़ानून और एक साइबर सुरक्षा का क़ानून. इन दोनों क़ानूनों की मदद से चीन की सरकारी ख़ुफ़िया एजेंसियों और उसके निजी क्षेत्र की कंपनियों (ख़ास तौर से सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र की कंपनियों) के बीच संबंध और प्रगाढ़ हो गए. चूंकि चीन में कारोबार करने के लिए विदेशी कंपनियों को लंबे समयह से एक स्थानीय साझीदार बनाने की शर्त पूरी करनी पड़ती थी (ये एक ऐसी शर्त थी, जो बहुत से लोगों के अनुसार विदेशी कंपनियों की गोपनीय व्यापारिक जानकारियां चीन को हासिल करने में मदद करती थी). ऐसे में जब नए क़ानून बने, तो इनसे विदेशी कंपनियों के लिए चीन में अपने डेटा की सुरक्षा कर पाना और भी मुश्किल हो गया.

कंपनियों के गोपनीय व्यापारिक राज़ की चोरी इतना बड़ा मुद्दा

आज कंपनियों के गोपनीय व्यापारिक राज़ की चोरी इतना बड़ा मुद्दा बन चुका है कि जर्मनी के कई नीति निर्माता ये सवाल उठा रहे हैं कि क्या आज चीन के साथ साझेदारी को बढ़ाकर जर्मनी अपने लिए भविष्य का प्रतिद्वंदी खड़ा कर रहा है. वर्ष 2016 के दौरान जर्मनी की कई तकनीकी कंपनियों को चीन के पूंजीपतियों ने ख़रीद लिया था. चीन की ये रणनीति उसकी उन चालों से काफ़ी मिलती थी, जो चीन ने अमेरिका के सिलिकॉन वैली में आज़माया था:  यानी अमेरिका की किसी स्थानीय आई टी कंपनी को चीन के पूंजीपतियों द्वारा ख़रीद लेना, जिससे कि वो वैधानिक तरीक़े से उनके अत्याधुनिक तकनीकी उत्पादों और डिज़ाइन को हासिल कर सकें और फिर उसकी नक़ल अपने देश में कर सकें. वर्ष 2017 में जर्मनी की घरेलू ख़ुफ़िया सेवा ने भी चीन द्वारा औद्योगिक जासूसी करके जर्मन कंपनियों के राज़ चुराने को लेकर चिंताएं ज़ाहिर की थीं. आरोप है कि चीन के ये जासूस पेशेवर नेटवर्किंग का काम करने वाली कंपनी लिंक्डइन का इस्तेमाल करके कम से कम दस हज़ार जर्मन नागरिकों को अपने जासूसी के जाल के निशाने पर लिए हुए थे. कई मामलों में तो जर्मनी के इन नागरिकों को भी आर्थिक जासूसी के जाल का हिस्सा बना लिया गया था. चीन द्वारा की जाने वाली आर्थिक जासूसी के निशाने पर पारंपरिक रूप से जर्मनी के वो उद्योग थे, जिनसे चीन की कंपनियों को कड़ी टक्कर मिल रही थी. जैसे कि ऑटोमोबाइल, दवा और मशीन तकनीक से जुड़ी कंपनियां.

सबसे ज़्यादा चिंता

सबसे ज़्यादा चिंता तो यूनाइटेड फ्रंट नाम के संगठन को लेकर जताई जा रही है. बीजिंग स्थित ये संगठन दूसरे देशों में बसे चीनी मूल के लोगों का इस्तेमाल चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) के हित साधने के लिए करता है. जर्मनी में यूनाइटेड फ्रंट ऐसे लगभग 230 सांस्कृतिक, व्यापारिक और वैज्ञानिक संगठनों से जुड़ा है, जहां पर चीनी मूल के पेशेवर काम करते हैं. माना जाता है कि यूनाइटेड फ्रंट चीन के ऐसे तमाम संगठनों में से एक है, जो असर बढ़ाने से लेकर दख़लंदाज़ी करने के व्यापक क्षेत्र में सक्रिय हैं. ऐसे संगठनों का मक़सद पश्चिमी देशों में चीन को लेकर हो रही परिचर्चाओं को प्रभावित करना और उन्हें चीन के हितों के अनुरूप ढालना है. पर, जर्मनी के विश्वविद्यालयों में सक्रिय चीनी मूल के 80 छात्र संगठनों का भी शायद यही मक़सद है. चीन द्वारा चलाए जाने वाले कन्फ्यूशियस इंस्टीट्यूट का भी यही लक्ष्य हो सकता है. हज़ार प्रतिभा नाम की एक योजना के लिए जर्मनी ही यूरोप का सबसे बड़ा स्रोत देश है. ये एक ऐसी योजना है जिसके अंतर्गत चीनी मूल के अत्यंत प्रतिभाशाली रिसर्चरों को स्वदेश वापस आकर अपने ज्ञान का इस्तेमाल चीन के विकास में करने के लिए प्रेरित करने का काम किया जाता है. देशभक्ति से ओत-प्रोत ये भावना तारीफ़ के क़ाबिल ज़रूर है. लेकिन, ये भी हो सकता है कि चीन अपने इस कार्यक्रम के ज़रिए चीन, विदेशी कंपनियों में काम करने वाले चीनी मूल के तकनीकी विशेषज्ञों को अपने यहां काम करने के लिए लुभाता हो, जिससे कि वो इन कंपनियों से जुड़ी गोपनीय कारोबारी जानकारियां हासिल कर सके. माना जाता है कि थाउज़ैंड्स प्लान के तहत, दुनिया भर में चीनी मूल के लोगों को भर्ती करने के लिए खोले गए क़रीब 600 केंद्रें में से अकेले जर्मनी में ही कम से कम 57 भर्ती केंद्र हैं.

आरोप है कि चीन के ये जासूस पेशेवर नेटवर्किंग का काम करने वाली कंपनी लिंक्डइन का इस्तेमाल करके कम से कम दस हज़ार जर्मन नागरिकों को अपने जासूसी के जाल के निशाने पर लिए हुए थे.

अगर हम चीन की ऐसी तमाम ख़ुफ़िया हरकतों को मिलाकर एक बड़ी तस्वीर बनाना चाहें, तो कहा जाता है कि आज बेल्जियम में रूस से ज़्यादा चीन के जासूस सक्रिय हैं. यूरोपीय संघ के अधिकतर संगठनों के कार्यालय बेल्जियम में हैं. अगर हम इसमें ये बात भी जोड़ दें कि जहां रूस की ज़मीन और समुद्री सीमाएं यूरोपीय संघ के देशों से मिलती हैं, वहीं चीन को ये लाभ भी हासिल नहीं है, तो इस हक़ीक़त की गंभीरता का एहसास और भी शिद्दत से होता है. यूरोपीय संघ को सीप के भीतर छुपा हुआ मोती कहा जा सकता है, जिसकी हिफ़ाज़त के लिए सुरक्षा कवच की एक मोटी सी चादर भी है. ये सुरक्षा कवच उसे अमेरिका और उत्तर अटलांटिक संधि संगठन यानी नैटो (NATO)  की सूरत में हासिल है. शायद यही कारण है कि अपने आर्थिक हितों का चश्मा पहनकर जर्मनी और यूरोपीय संघ के अन्य देश चीन को ग़ैर सैन्य सुरक्षा ख़तरे के तौर पर नहीं देख पाते हैं. वो राजनीति और अर्थशास्त्र को बिल्कुल अलग करके देखते हैं. इसका एक उदाहरण यूरोपीय संघ और चीन के बीच हाल ही में घोषित किया गया निवेश संबंधी समझौता है.

चीन और यूरोपीय संघ के बीच निवेश का ये समझौता वर्ष 2020 के आख़िर में बेहद हड़बड़ी में किया गया था. उस वक़्त जर्मनी हर छह महीने में बदलने वाली यूरोपीय परिषद का अध्यक्ष था. माना जा रहा है कि यूरोपीय संघ इस समझौते पर वर्ष 2022 की शुरुआत में उस वक़्त मुहर लगा देगा, जब फ्रांस यूरोपीय परिषद का अध्यक्ष होगा. शायद यही कारण है कि 30 दिसंबर को जब चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग, वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से एंगेला मर्केल से मुख़ातिब थे, तब फ्रांस के राष्ट्रपति इमैन्युअल मैक्रों, यूरोपीय संघ के किसी भी देश के इकलौते राष्ट्राध्यक्ष या शासनाध्यक्ष थे, जिन्हें इस बातचीत का हिस्सा बनाया गया था. तीनों नेताओं के बीच इसी वार्तालाप के बाद यूरोपीय संघ और चीन के बीच निवेश संधि की घोषणा की गई थी. माना जा रहा है कि इस संधि की वार्ता से अन्य देशों को अलग रखकर चीन, यूरोपीय संघ और अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बाइडेन के बीच दरार डालने की कोशिश कर रहा है. ख़ास तौर से तब और जब एक साल पहले ख़ुद चीन ने ही ऐसे किसी समझौते को लेकर आशंकाएं ज़ाहिर की थीं. जो बाइडेन से उम्मीद की जा रही है कि वो यूरोपीय संघ के साझीदार देशों के साथ तो मिलकर काम करने को राज़ी हैं. लेकिन, चीन के ख़िलाफ़ उनका रवैया काफ़ी सख़्त रहने वाला है. ऐसे में यूरोपीय संघ को कुछ रियायतें देकर चीन की कोशिश ये है कि वो अमेरिका और यूरोपीय संघ को अपने ख़िलाफ़ कोई गठबंधन बनाने से रोक सके.

सच तो ये है यूरोपीय संघ के नेता भी चीन की इन कोशिशों की अनदेखी नहीं कर रहे हैं. यूरोपीय संघ के देश अपनी अपनी अर्थव्यवस्थाओं को चीन के साथ साझेदारी करके मज़बूत करना चाहते हैं. इसके साथ साथ वो अमेरिका के इकतरफ़ा रवैये की शिकायतें भी करते रहते हैं. लेकिन, जब तक यूरोपीय देशों को इस बात का एहसास होगा कि राजनीति और व्यापार के बीच फ़र्क़ की रेखा महज़ एक मरीचिका है और चीन अपने सामरिक हित साधने के लिए आर्थिक हितों को माध्यम बनाने का उस्ताद है, तब तक यूरोपीय देश लंबी अवधि में तो चीन के मक़सदों को लेकर आशंकित रहेंगे. फिर भी वो अपनी इस असहज स्थिति से निपटने के लिए कोई ठोस क़दम उठाने से परहेज़ करेंगे.

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