Author : Aditya Bhan

Published on Oct 04, 2023 Updated 19 Days ago

ब्रिक्स का विस्तार चीन के लिए एक बड़ी जीत है क्योंकि अर्जेंटीना, मिस्र, इथियोपिया, ईरान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के समूह में शामिल होने से वह उनके ज़रिए अपने भू-राजनीतिक प्रभाव को बढ़ाने में सक्षम होगा. 

ब्रिक्स में नए सदस्यों का प्रवेश: प्रभाव में वृद्धि या प्रासंगिकता का संघर्ष?

दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग में 15वें ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) शिखर सम्मेलन का आयोजन किया गया था. इस सम्मेलन के बाद समूह की सदस्य संख्या पांच से बढ़कर ग्यारह हो गई है. इन छह नए सदस्यों में खाड़ी और पश्चिम एशिया के चार देश शामिल हैं: मिस्र, ईरान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात. अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका से क्रमशः इथियोपिया और अर्जेंटीना भी समूह में शामिल हुए. ख़ासकर वैश्विक दक्षिण के 40 से ज़्यादा देशों ने समूह में शामिल होने की इच्छा जताई है, जहां कम से कम 22 देश औपचारिक रूप से आवेदन भी कर चुके हैं. यह लेख समूह की घटती हुई प्रासंगिकता को देखते हुए इसके विस्तार से जुड़े संदर्भ को पेश करता है.

कुछ विश्लेषकों के अनुसार, ब्रिक्स ने कई बाधाओं को पार कर लिया है और इसे पश्चिमी नेतृत्व वाले G7 संगठन के एक विकल्प के रूप में देखा जा रहा है.

“ब्रिक्स” समूह 

हालांकि, मूल रूप से ऐसे किसी समूह की स्थापना का विचार 2001 में गोल्डमैन सैक्स एसेट मैनेजमेंट कंपनी के तत्कालीन अध्यक्ष जिम ओ नील द्वारा दिया गया था, लेकिन  2006 में ब्राजील, रूस, भारत और चीन के विदेश मंत्रियों की एक बैठक के साथ ब्रिक्स की अवधारणा के जुड़े होने का संकेत मिलता है. 2009 में समूह की ज़्यादा से ज़्यादा बैठकें होने लगीं, और 2010 में दक्षिण अफ्रीका के समूह में शामिल होने के बाद यह BRIC से BRICS के रूप में सामने आया.

कुछ विश्लेषकों के अनुसार, ब्रिक्स ने कई बाधाओं को पार कर लिया है और इसे पश्चिमी नेतृत्व वाले G7 संगठन के एक विकल्प के रूप में देखा जा रहा है. ब्रिक्स जलवायु कार्रवाई लक्ष्य, संयुक्त राष्ट्र सुधार और ईरान, रूस और वेनेजुएला के खिलाफ़ पश्चिम द्वारा लगाए गए एकतरफा वित्तीय प्रतिबंधों जैसे कई मुद्दों पर अपने रुख़ को लेकर काफ़ी स्पष्ट है और अपनी पक्षधरता का प्रदर्शन भी किया है. ब्रिक्स ने 2015 में न्यू डेवलपमेंट बैंक (NDB) की स्थापना (जिसने अब तक लगभग 100 कार्यक्रमों को वित्त पोषित किया है) के अलावा एक आपातकालीन वित्तीय कोष की व्यवस्था, विभिन्न संस्थागत तंत्रों की स्थापना की है, जिसके ज़रिए सदस्य देशों ने व्यावहारिक समाधानों को पेश करने की अपनी मंशा का प्रदर्शन किया है.

औसत दर्जे की उपलब्धियां 

उपरोक्त तथ्य एक तरफ़, लेकिन ब्रिक्स अपनी सालाना बैठकों के बावजूद अब तक कुछ ख़ास उपलब्धि हासिल करने में असफल रहा है. NDB ने अपनी स्थापना के बाद से अब तक विभिन्न कार्यक्रमों में केवल 33 अरब अमेरिकी डॉलर का निवेश किया है. इसके ठीक विपरीत, विश्व बैंक का सालाना निवेश इससे तीन गुना अधिक है. इसमें कोई आश्चर्य नहीं है क्योंकि आर्थिक रूप से ब्रिक्स एक मज़बूत संगठन नहीं है. इस संगठन में चीन अकेला आर्थिक रूप से ताकतवर देश है, भारत एक उभरती हुई शक्ति है और बाकी तीनों देश की अर्थव्यवस्थाएं छोटे आकार की हैं और वस्तुओं के निर्यात पर निर्भर हैं.

वास्तव में, एक मौद्रिक संगठन के रूप में ब्रिक्स की भूमिका व्यावहारिक नहीं है. विदेशी व्यापार, आर्थिक विकास और वैश्विक पूंजी बाजार के मामले में विभिन्न सदस्य देशों के हालात भिन्न-भिन्न हैं.

चीन और भारत के बीच भू-राजनीतिक तनाव के कारण दोनों देशों के बीच सीमा संघर्ष की स्थिति पैदा होती रही, जो एक बड़ी वजह है जिसके कारण ब्रिक्स एक समूह के रूप में असफल रहा है. भारत चीन को अपने सबसे प्रतिद्वंदी के रूप में देखता है. दुनिया की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में चीन को वैश्विक दक्षिण की वकालत करते हुए देखना कठिन है. इसके अलावा, ज़्यादातर विकासशील देश ये नहीं चाहेंगे कि उन्हें चीन और अमेरिका के बीच संघर्ष की स्थिति में दोनों में से किसी का पक्ष चुनना पड़े.

यहां तक कि मुद्रा के मामले में, जहां कई देश अपनी अर्थव्यवस्था को अमेरिकी डॉलर के नियंत्रण से दूर रखना चाहेंगे क्योंकि फेडरल रिज़र्व के बदलते नियमों के कारण उनकी अर्थव्यवस्थाओं को अस्थिरता का सामना करना पड़ा है. इसके अलावा, स्विफ्ट भुगतान प्रणाली से रूस को बाहर रखे जाने के कारण वे अपने विदेशी परिसंपत्तियों को सुरक्षित रखने के लिए वैकल्पिक साधनों की तलाश कर रहे हैं. लेकिन न चीन और न ही भारत के पास पूरी तरह परिवर्तनीय मुद्रा है, इसलिए रॅन्मिन्बी और भारतीय रुपए दोनों ही सीमित सुविधाएं देते हैं.

अन्य देशों के लिए, ब्रिक्स की सदस्यता का मतलब राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ सालाना द्विपक्षीय बैठकों में शामिल होने का मौका है.

वास्तव में, एक मौद्रिक संगठन के रूप में ब्रिक्स की भूमिका व्यावहारिक नहीं है. विदेशी व्यापार, आर्थिक विकास और वैश्विक पूंजी बाजार के मामले में विभिन्न सदस्य देशों के हालात भिन्न-भिन्न हैं. जबकि आर्थिक विकास के मोर्चे पर रूस 2022 में अन्य ब्रिक्स देशों की तुलना में सबसे पीछे रहा है, वहीं ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका भी वस्तुओं की कीमतों में अस्थिरता, उचित ब्याज दरों के अभाव और घरेलू पूंजी की कमी जैसे कारकों के चलते कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं.

घटती प्रासंगिकता

साझे लक्ष्यों के आधार पर गठित किए गए एक संगठन के तौर पर ब्रिक्स अपनी प्रासंगिकता को बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहा है. सदस्य देशों के अपने अलग-अलग लक्ष्य हैं, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय भू-राजनीतिक बहसों में वे अपने दृष्टिकोणों में एक किस्म की सामूहिकता रखने का प्रयास कर रहे हैं.

वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए, जहां चीन और अमेरिका के बीच तनाव और रूस और यूक्रेन के बीच लंबे समय से युद्ध की स्थिति ने ब्रिक्स की तरफ़ दुनिया का ध्यान खींचा है. हालांकि, समूह में दिखाई गई यह रुचि उनकी आंतरिक बहसों से परे अन्य कारणों पर आधारित है. जबकि समूह का हिस्सा बने रहने के लिए सभी देशों के पास अपनी वजहें हैं, लेकिन सवाल ये है कि ये वजहें इसे एक प्रभावी संगठन के तौर पर स्थापित करने के लिहाज़ से अपर्याप्त हैं. इसलिए इससे वैश्विक व्यवस्था में बदलाव की उम्मीद करना बेकार है.

संगठन की स्थापना के समय, चीन का लक्ष्य अपने अंतर्राष्ट्रीय कद को मज़बूत करना और साथ ही, अपने मुख्य प्रतिद्वंदी भारत के साथ नजदीकी संबंध बनाए रखना था. वहीं दूसरी ओर, चीन के वर्तमान राष्ट्रपति शी जिनपिंग इसे शंघाई सहयोग संगठन (SCO) और बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) जैसे समूहों की तरह बनाने की कोशिश कर रहे हैं, जिसका मुख्य एजेंडा चीन के अंतर्राष्ट्रीय दबदबे को बढ़ावा देना है, जिसने संगठन के उद्देश्यों को काफ़ी हद तक कम कर दिया है. इसके अलावा, बीजिंग ने विकासशील देशों के साथ द्विपक्षीय विकास समझौते करके संगठन के उद्देश्यों को हल्का कर दिया है.

समूह का विस्तार

नए सदस्यों के प्रवेश के बावजूद ब्रिक्स प्रासंगिकता के सवाल से जूझता रहेगा. यह केवल चीन है जो अर्जेंटीना, मिस्र, इथियोपिया, ईरान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात की सदस्यता को अपने लिए एक अवसर के रूप में देख रहा है, जहां वो इन देशों की मदद से अपने भू-राजनीतिक प्रभाव का विस्तार करना चाहता है.

वर्तमान में, अयातुल्ला के नेतृत्व वाले ईरान के लिए चीन एक महत्वपूर्ण साझेदार है. बीजिंग ने ईरानी अर्थव्यवस्था को फिर से अपने पैरों पर खड़े होने का मौका दिया है, जहां उसने ईरान तेल आपूर्ति के ज़रिए चीनी ऋण का भुगतान करता है. ब्रिक्स की सदस्यता ईरान को खुद को अभिव्यक्त करने और अपनी घरेलू नीतियों का बचाव करने का अवसर प्रदान करती है.

नए देशों के संगठन में शामिल होने के बावजूद भारत ही अकेला देश है जिसने संगठन के भीतर अपने स्वतंत्र अस्तित्व को बरक़रार रखा है, जहां उसने BRI में शामिल होने से इनकार कर दिया है

जबकि सऊदी अरब ईरान की तरह आर्थिक संकट और भू-राजनीतिक अलगाव जैसी समस्याओं का सामना नहीं कर रहा है, लेकिन जिन मुद्दों को लेकर रियाद और वॉशिंगटन के संबंधों में दूरियां आई हैं, उनका बीजिंग ने पूरा फ़ायदा उठाया है. मानवाधिकारों के दमन के मुद्दे पर पश्चिम द्वारा व्यक्त की गई चिंता और असहमति ने बीजिंग और रियाद को एक साझे सूत्र में बंधने का मौका दिया है. इसके अलावा, सऊदी अरब के आर्थिक विविधीकरण कार्यक्रम में चीनी सहयोग (जिसमें यूरेनियम भंडार की खोज शामिल है) ने ब्रिक्स की सदस्यता को सऊदी अरब के लिए उपयोगी बना दिया है.

ब्रिक्स की सदस्यता अर्जेंटीना को उसके घरेलू संकट से उबरने का अवसर प्रदान करती है. हाल ही में ब्यूनस आयर्स में सुपरमार्केट और खुदरा बाजारों में तोड़-फोड़ और लूटपाट की घटनाओं को देश में आर्थिक अराजकता की स्थिति के रूप में देख सकते हैं. जबकि देश संकट का सामना कर रहा है, ऐसे में वह प्रभावशाली देशों के वैश्विक समूह में शामिल होने के अवसर को ठुकरा नहीं सकता.

अन्य देशों के लिए, ब्रिक्स की सदस्यता का मतलब राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ सालाना द्विपक्षीय बैठकों में शामिल होने  का मौका है. हाल के वर्षों में, वास्तव में, ऐसी उच्च-स्तरीय द्विपक्षीय बैठकें ब्रिक्स शिखर सम्मेलनों में आकर्षण के केंद्र में रही हैं, और इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि ब्रिक्स नेटवर्किंग के लिए एक आकर्षक मंच प्रदान करता है.

निष्कर्ष

ब्रिक्स सम्मेलन में पेश किए गए सभी प्रस्तावों जैसे डॉलर पर निर्भरता कम करने और युआन पर भरोसा करने, विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के विकल्प के रूप में नए ऋण स्रोतों की तलाश जैसे मुद्दों को लेकर चीन द्विपक्षीय सहयोग के माध्यम से पहले से ही अन्य देशों के साथ मिलकर काम कर रहा है. चीन, बड़ी चतुराई से उन पहलों को सामूहिक कार्यक्रमों के रूप में पेश कर रहा है जिन पर बीजिंग पहले से ही काम कर रहा है.

ब्रिक्स से इतर युआन के प्रसार को बढ़ावा दिया जा रहा है. रूस ने अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए युआन को अपनाया है. ईरान और चीन के बीच व्यापार में युआन को एक आधार मुद्रा के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, वहीं ब्यूनस आयर्स और बीजिंग के बीच ऋण समझौतों में भुगतान के लिए अन्य मुद्राओं के साथ युआन को भी शामिल किया गया है.

जहां ऋण का सवाल है, बीजिंग बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव और एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक के ज़रिए बड़े पैमाने पर ऋण की सुविधाएं प्रदान कर रहा है. NDB इन संस्थाओं के ऋण कार्यक्रमों की बराबरी नहीं कर सकता और इसलिए वह केवल सहयोगी ऋण के रूप में सुविधाएं प्रदान कर सकता है, जो काफ़ी हद तक बीजिंग द्वारा प्रभावित है.

नए देशों के संगठन में शामिल होने के बावजूद भारत ही अकेला देश है जिसने संगठन के भीतर अपने स्वतंत्र अस्तित्व को बरक़रार रखा है, जहां उसने BRI में शामिल होने से इनकार कर दिया है, जबकि अन्य सभी देश चीन पर और अधिक निर्भर होते जा रहे हैं. यह अपने आप में संगठन की प्रभावशीलता और प्रासंगिकता पर सवाल खड़े करता ह

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