तुर्किए में राष्ट्रपति और संसदीय चुनाव 14 मई 2023 को हुए. ये चुनाव तुर्किए के लिए एक निर्णायक समय पर हुए हैं क्योंकि ये देश इस समय बढ़ती महंगाई, कोविड के बाद रिकवरी और फरवरी 2023 में आए तबाह करने वाले भूकंप से जूझ रहा है. चूंकि सरकार की तरफ़ से जवाबी कार्रवाई को कम माना गया था, ऐसे में इस चुनाव को राष्ट्रपति अर्दोआन के कार्यकाल को लेकर जनमत संग्रह (रेफरेंडम) के तौर पर देखा गया था. वैसे तो शुरुआती पोल से लग रहा था कि विपक्ष के नेता कमाल कलचदारलू आगे हैं लेकिन जब पहले चरण के नतीजे आए तो रेचेप तय्यब अर्दोआन को 49.5 प्रतिशत वोट मिले जबकि कमाल कलचदारलू को 44.8 प्रतिशत वोट मिले. चूंकि दोनों में से कोई भी उम्मीदवार सरकार बनाने के लिए ज़रूरी बहुमत हासिल करने में नाकाम रहे, इसलिए चुनाव का दूसरा चरण 28 मई 2023 को हुआ. दूसरे चरण में अर्दोआन को 52 प्रतिशत से ज़्यादा वोट मिले और इस तरह उनके शासन का तीसरा दशक शुरू हुआ.
स्रोत: अल जज़ीरा
चूंकि यूरोपियन यूनियन के साथ तुर्किए के संबध पिछले कुछ वर्षों से तनावपूर्ण हैं, इसलिए ये चुनाव इनके बीच साझेदारी के भविष्य के लिए एक लिटमस टेस्ट भी बन गया.
EU-तुर्किए संबंधों की स्थिति
पिछले दशक में EU-तुर्किए के संबंधों में गिरावट आई है. 1963 में एक समझौते के तहत इनकी साझेदारी को तय किया गया था जिसके कारण 1995 में एक कस्टम्स यूनियन एग्रीमेंट पर दस्तख़त किए गए. वैसे तो तुर्किए ने 1987 में यूरोपियन इकोनॉमिक कम्यूनिटी (यूरोपीय आर्थिक समुदाय) में शामिल होने के लिए आवेदन दिया और 1999 में उसे उम्मीदवार घोषित किया गया लेकिन 2005 में जाकर तुर्किए को शामिल करने को लेकर बातचीत की शुरुआत हुई. चूंकि, राष्ट्रपति अर्दोआन ने अपनी नीति को ज़्यादा केंद्रीकृत (सेंट्रलाइज़्ड) नेतृत्व की तरफ़ मोड़ दिया, इसलिए तुर्किए को शामिल करने की प्रक्रिया 2018 में क़ानून के शासन, मानवाधिकार और न्यायपालिका की स्वतंत्रता को लेकर चिंता की वजह से रुक गई. 2021 में यूरोपीय संसद ने EU आयोग को तुर्किए के साथ बातचीत को औपचारिक तौर पर निलंबित करने के लिए कहा. इसके पीछे “राष्ट्रपति प्रणाली की तानाशाही व्याख्या, न्यायपालिका की स्वतंत्रता में कमी और राष्ट्रपति के पद में सत्ता के बहुत ज़्यादा केंद्रीकरण के जारी रहने” को बताया गया.
वैसे तो यूरोपियन यूनियन का विस्तार दोनों के बीच बातचीत का एक प्रमुख मुद्दा बना हुआ है लेकिन माइग्रेशन (प्रवासन) भी विवाद के एक विषय के तौर पर उभरा है. 2015 के माइग्रेशन संकट के दौरान 10 लाख से ज़्यादा लोग यूरोप के तटों पर पहुंचे. EU और तुर्किए ने 2016 में एक माइग्रेशन समझौते पर दस्तख़त किया जिसके तहत अवैध प्रवासियों को पहले तुर्किए छोड़ा जाएगा और फिर तुर्किए प्रवासियों को यूरोप जाने से रोकने के लिए क़दम उठाएगा. इसके बदले में EU सबसे पहले एक-एक मामले के आधार पर सीरिया के शरणार्थियों को फिर से बसाएगा; दूसरा, तुर्किए को EU सीरिया के शरणार्थियों के लिए सहायता के तौर पर 7 अरब यूरो का भुगतान करेगा; तीसरा, तुर्किए के नागरिकों के लिए EU वीज़ा नियमों में बदलाव करेगा; और चौथा, कस्टम्स यूनियन एग्रीमेंट पर EU फिर से विचार और उसे अपडेट करेगा. वैसे तो माइग्रेशन समझौते का नतीजा यूरोप जाने वाले प्रवासियों की संख्या में गिरावट के तौर पर सामने आया लेकिन तुर्किए यूरोप के जवाब से असंतुष्ट रहा है और उसने समझौते की समीक्षा की मांग की है. 2020 में उस वक़्त तनाव की स्थिति बनी जब तुर्किए ने ग्रीस के साथ अपनी सीमा को खोला और प्रवासियों को यूरोप जाने की मंज़ूरी दे दी. EU ने तुर्किए के इस क़दम पर कहा कि “तुर्किए प्रवासियों के दबाव का इस्तेमाल राजनीतिक मक़सदों के लिए कर रहा है.”
एक और महत्वपूर्ण मुद्दा साइप्रस की संप्रभुता का है जिसका 1974 में ग्रीस की साइप्रस सरकार और तुर्किए की साइप्रस सरकार के बीच बंटवारा कर दिया गया था. 2019 में उस वक़्त तनाव बढ़ गया जब तुर्किए की सरकार ने पूर्वी भू-मध्यसागर में ऊर्जा के संसाधनों की खोजबीन और ड्रिल करना शुरू कर दिया. ग्रीस और साइप्रस- दोनों ने अपने समुद्री क्षेत्र और विशेष आर्थिक क्षेत्र (एक्सक्लूज़िव इकोनॉमिक ज़ोन) का उल्लंघन करने के लिए तुर्किए की निंदा की. इस तनाव की वजह से EU और तुर्किए के बीच एसोसिएशन काउंसिल की बैठक और दूसरी उच्च-स्तरीय बातचीत को निलंबित करना पड़ा.
नेटो के साथ भी तुर्किए के संबंध में गिरावट आई है. लोगों के बीच ओपिनियन पोल के मुताबिक़ तुर्किए की ज़्यादातर आबादी को ये भरोसा नहीं है कि किसी संघर्ष की स्थिति में नेटो उनके देश का साथ देगा. संबंधों में सबसे ज़्यादा तल्खी 2017 में उस वक़्त आई जब तुर्किए ने रूस के S-400 मिसाइल सिस्टम को ख़रीदने का फ़ैसला लिया. इस मिसाइल सिस्टम को इंटरऑपरेबिलिटी के आधार पर नेटो के डिफेंस सिस्टम के साथ बेमेल पाया गया. रूस का मिसाइल सिस्टम ख़रीदने के तुर्किए के इस फ़ैसले की वजह से अमेरिका ने अपने F-35 प्रोग्राम में तुर्किए की भागीदारी को सस्पेंड कर दिया और उस पर आर्थिक प्रतिबंध भी लगा दिए. नेटो के साथ संबंध ख़राब होने का एक और कारण है तुर्किए के द्वारा फिनलैंड और स्वीडन की नेटो सदस्यता को मंज़ूर करने से इनकार. तुर्किए के मुताबिक़, दोनों नॉर्डिक देशों ने आतंकियों और आतंकी संगठनों को पनाहगाह मुहैया कराई है और तुर्किए चाहता है कि दोनों देश इनके ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई करें. इस कार्रवाई के तहत कथित कुर्दिश लड़ाकों का प्रत्यर्पण भी शामिल है. हालांकि, अप्रैल 2023 में तुर्किए ने फिनलैंड की सदस्यता का रास्ता साफ़ कर दिया लेकिन स्वीडन की अर्ज़ी अभी भी लंबित है.
साथ ही, तुर्किए यूक्रेन संकट में एक दखल देने वाली भूमिका निभाने की स्थिति में आ गया है. एक तरफ़ तो तुर्किए ने यूक्रेन को हथियारों, ख़ास तौर पर बेरक्तार ड्रोन, की सप्लाई की है और दूसरी तरफ़ रूस के ख़िलाफ़ पश्चिमी देशों के आर्थिक प्रतिबंधों में शामिल होने से इनकार कर दिया है. तुर्किए ने यूक्रेन संकट की शुरुआत में रूस और यूक्रेन के बीच बातचीत की मेज़बानी भी की है. संतुलन बैठाने की इस कोशिश ने तुर्किए को राष्ट्रपति पुतिन और राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की - दोनों तक अपनी बात पहुंचाने की इजाज़त दी है ताकि रूस और यूक्रेन के बीच बातचीत का ज़रिया खुला रखते हुए कूटनीतिक कामयाबी हासिल की जाए जैसे कि अनाज के निर्यात का समझौता और युद्धबंदियों का आदान-प्रदान.
क्या चुनाव के नतीजों से कुछ बदलेगा?
वैसे तो EU और तुर्किए के बीच संबंध एक के बाद एक संकटों से प्रभावित हुए हैं लेकिन 2020 से दोनों के रिश्ते कुछ हद तक सामान्य हो गए हैं. इसका कारण मुख्य रूप से पूर्वी भू-मध्यसागर में दुश्मनी में कमी के साथ-साथ ग्रीस और तुर्किए के बीच सकारात्मक राजनीतिक पहल हैं. रिश्ते सामान्य होने में कुछ हद तक योगदान 2021 में अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका की वापसी के बाद अमेरिका और तुर्किए के बीच तनाव में कमी और यूक्रेन संकट के दौरान यूक्रेन और रूस के बीच कुछ समझौते कराने में तुर्किए की भूमिका का भी है.
लेकिन तुर्किए में लोगों की राय पश्चिमी देशों के ख़िलाफ़ है. 58.3 प्रतिशत लोगों ने अमेरिका को सबसे बड़ा ख़तरा बताया जबकि सिर्फ़ 33.1 प्रतिशत लोगों ने पसंद के साझेदार के तौर पर EU के देशों को तरजीह दी जबकि 2021 में 37 प्रतिशत लोगों ने EU के देशों को तरजीह दी थी. EU की सदस्यता के लिए समर्थन जहां 58.6 प्रतिशत है वहीं 53 प्रतिशत लोग मानते हैं कि तुर्किए को सदस्य के तौर पर स्वीकार करने का EU का कोई इरादा नही है. इसी तरह विस्तार को लेकर EU की अनिच्छा को भी ध्यान में रखना होगा. विस्तार को लेकर बातचीत शुरू करने के मामले में फ्रांस और ऑस्ट्रिया जैसे EU के सदस्य देशों की सोच मिली-जुली है.
तुर्किए के चुनाव पर यूरोप की क़रीब से नज़र रही. इसका मुख्य कारण ये है कि इस बार का चुनाव दोनों साझेदारों के बीच संबंधों के भविष्य को तय करेगा. इस बात की उम्मीद की जा रही थी कि नेतृत्व में बदलाव से महत्वपूर्ण मुद्दों जैसे कि माइग्रेशन, सुरक्षा, ऊर्जा और रूस को लेकर नीति पर असर होगा. इसका प्रमुख कारण ये था कि विपक्ष के उम्मीदवार कमाल कलचदारलू ने अपने चुनाव अभियान के दौरान पश्चिमी देशों के साथ रिश्तों को सामान्य करने की बात की थी. इनमें तुर्किए को EU में शामिल करने की प्रक्रिया को फिर से शुरू करना और सहयोगियों के भरोसे को फिर से बहाल करना शामिल हैं. उन्होंने S-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम की ख़रीद की समीक्षा और अमेरिका के F-35 प्रोग्राम को लेकर तुर्किए का रुख़ पहले की तरह करने की बात भी की थी. इन क़दमों का EU स्वागत करता लेकिन चुनाव के नतीजों ने उम्मीदों पर पानी फेर दिया.
अब जब राष्ट्रपति अर्दोआन ने एक और कार्यकाल हासिल कर लिया है तो EU के साथ तुर्किए के संबंध काफ़ी हद तक उसी तरह रहेंगे जैसे कि पिछले कुछ वर्षों में देखे गए थे यानी तुर्किए के हितों का पूर्व और पश्चिम के साथ संतुलन बिठाना. संक्षेप में कहें तो EU में शामिल होने की तुर्किए की कोशिश में कोई प्रगति नहीं होगी, सीरिया के प्रवासियों के मुद्दे पर लेन-देन की साझेदारी जारी रहेगी और फरवरी 2023 के भूकंप से उबरने के लिए EU और अंतर्राष्ट्रीय डोनर की तरफ़ से वादा किए गए 7 अरब यूरो को हासिल करना प्राथमिकता होगी. अपनी तरफ़ से EU तुर्किए के नागरिकों के लिए वीज़ा-फ्री यात्रा को रोकना जारी रखेगा क्योंकि तुर्किए उसकी कसौटी को पूरा करने में नाकाम रहा. साथ ही कस्टम्स यूनियन समझौते को लेकर सीमित गतिविधि होगी और रूस एवं यूक्रेन के बीच अनाज समझौते को बचाने के लिए तुर्किए की कूटनीतिक कोशिशों का समर्थन जारी रहेगा. कम शब्दों में कहें तो संबंध संकटपूर्ण हालात में बने रहेंगे. इसलिए ये चुनाव EU और उसके सदस्य देशों के लिए तुर्किए के साथ साझेदारी की समीक्षा करने की ज़रूरत के बारे में बताता है. साथ ही ये भी बताता है कि दोनों पक्ष अपने संबंधों के भविष्य की राह को फिर से ठीक कैसे कर सकते हैं.
अंकिता दत्ता ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटजिक स्टडीज़ प्रोग्राम की फेलो हैं.
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