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Published on Oct 19, 2024 Updated 0 Hours ago

अमेरिका में चुनाव के बाद आने वाले नए प्रशासन के दौर में हिंद प्रशांत क्षेत्र को लेकर अमेरिका की प्रतिबद्धता पर बाहरी तत्वों के गहरा असर डालने की संभावना है. और फिर इसका प्रभाव भारत और अमेरिका की सुरक्षा साझेदारी पर भी पड़ेगा.

अगले अमेरिकी राष्ट्रपति के दौर में भारत-अमेरिका सुरक्षा साझेदारी: क्या बदलेगा समीकरण?

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भारत के साथ अमेरिका की सुरक्षा संबंधी साझेदारी के पीछे मुख्य वजह सामरिक समीकरण हैं, जिनकी जड़ें हिंद प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका और चीन के बीच लगी होड़ से जुड़ी हैं. अमेरिका के लिए इस इलाक़े में भारत का दर्जा उठाकर एक संभावित नीति निर्माता बनाने की कोशिशें, साझा मूल्यों और मक़सदों को बढ़ावा देने के उसके हितों से मेल खाती हैं. इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते दबदबे को देखते हुए भारत को यहां एक संतुलन बनाने और मुक़ाबला कर सकने वाली ताक़त के तौर पर देखा जाता है. आज जब भारत अपनी क्षेत्रीय क्षमताओं का विस्तार कर रहा है, तो उससे बात की अपेक्षाएं बढ़ती जा रही हैं कि वो एक वैश्विक शक्ति के तौर पर अधिक से अधिक ज़िम्मेदारियां उठाएगा. हालांकि, इस साझेदारी की दशा दिशा बहुत हद तक इसी साल होने जा रहे अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के नतीजों पर निर्भर करेगी. अहम बात ये है कि दोनों देशों के बीच मतभेद ही इस द्विपक्षीय साझेदारी को भविष्य के सांचे में ढालना जारी रखेंगे. ख़ास तौर से इसलिए और क्योंकि भारत वैश्विक अर्थव्यवस्था और प्रशासन में ज़्यादा बड़ी भूमिका निभाने लगा है. अमेरिका और भारत के बीच मतभेद कई भू-सामरिक मसलों को लेकर हैं. इनमें रूस के साथ भारत के संबंध, चीन को लेकर अमेरिका का रुख़ और दक्षिण एशिया समेत अपने पूरे पड़ोसी क्षेत्र को लेकर भारत की नीतियां शामिल है.

 

नज़रिया

 

भारत और अमेरिका की सुरक्षा संबंधी साझेदारी अंदरूनी और बाहरी कारणों से संचालित होती है. अंदरूनी तौर पर, दोनों ही देश सार्वजनिक और निजी माध्यमों से रक्षा और सुरक्षा के एक स्थिर और विस्तार लेते इकोसिस्टम को बढ़ावा दे रहे हैं. इस प्रयास को रक्षा क्षेत्र के अहम समझौतों से भी आगे बढ़ाया जा रहा है. इन समझौतों में बुनियादी संधियां, भारत को मुख्य रक्षा साझीदार का दर्जा देना और व्यापक वैश्विक सामरिक साझेदारी शामिल हैं. बाहरी तत्वों की बात करें तो, हिंद प्रशांत क्षेत्र में एक लोकतांत्रिक क्षेत्रीय संतुलनवादी ताक़त के तौर पर भारत की भूमिका, अमेरिका के सामरिक हितों से मेल खाती है. हिमालय की चोटियों पर वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर चीन के साथ भारत के तनाव के मौजूदा दौर की वजह से अगर चीन के साथ भारत के रिश्ते और बिगड़ते हैं, तो उन आपात परिस्थितियों में अमेरिका के साथ भारत के संबंधों ने अतिरिक्त अवसर पैदा हुए हैं. हालांकि, भविष्य में अमेरिका और चीन के रिश्तों की डगर भारत और व्यापक हिंद प्रशांत क्षेत्र के लिए अनिश्चितताएं लेकर आई है. जबकि इस दौरान ये पूरा इलाक़ा कनेक्टिविटी, मूलभूत ढांचे के विकास और तकनीक की लगातार बढ़ती मांग का सामना कर रहा है.

 भविष्य में अमेरिका और चीन के रिश्तों की डगर भारत और व्यापक हिंद प्रशांत क्षेत्र के लिए अनिश्चितताएं लेकर आई है. जबकि इस दौरान ये पूरा इलाक़ा कनेक्टिविटी, मूलभूत ढांचे के विकास और तकनीक की लगातार बढ़ती मांग का सामना कर रहा है.

आज, भारत और अमेरिका साझा हितों के इन अवसरों का लाभ उठाते हुए सुरक्षा पर केंद्रित सहयोग के नेटवर्क का निर्माण कर रहे हैं. इनमें गोपनीय सूचनाएं साझा करना, समुद्री क्षेत्र में सहयोग, रक्षा उद्योगों के बीच मज़बूत रिश्ते, सामरिक व्यापार और तकनीकी साझेदारियां शामिल हैं. आपसी सहयोग वाले सीमित बहुपक्षीय प्रयास जैसे कि ऑस्ट्रेलिया और जापान के साथ क्वाड ने इस साझेदारी को और मज़बूती प्रदान की है. भारत के लिए, हिंद महासागर एक अहम मोर्चा बन गया है, जहां पर हिंद प्रशांत क्षेत्र की क्षेत्रीय स्थिरता और सुरक्षा की बुनियाद रखी जा सकती है. पिछले एक दशक के दौरान मुख्य तौर पर अमेरिका ने ही हिंद महासागर में सुरक्षा क़ायम रखने की ज़िम्मेदारी उठाई है. ऐसे में अगली अमेरिकी सरकार के लिए, इस इलाक़े में भारत का बढ़ता क़द काफ़ी महत्वपूर्ण होगा. पश्चिमी हिंद महासागर इस बात का मॉडल बन सकता है कि अमेरिका और भारत सुरक्षा कनेक्टिविटी और बुनियादी ढांचे के विकास की चुनौतियों से किस तरह निपट सकते हैं.

 

बड़ी ताक़तों के बीच होड़ के नज़रिए से अमेरिका चाहता है कि भारत एक अहम इलाक़ाई ताक़त के तौर पर हिंद महासागर क्षेत्र (IOR) में, और विशेष रूप से प्रशांत क्षेत्र के बाहर चीन के समुद्री दबदबे के संभावित विस्तार का मुक़ाबला करने के लिए बड़ी भूमिका अदा करे. वैसे तो भारत, पूर्वी और पश्चिमी हिंद महासागर क्षेत्र में अपनी सुरक्षा के ढांचे को बड़ी सक्रियता से विस्तार दे रहा है. लेकिन, इस इलाक़े में भारत और अमेरिका की उभरती सुरक्षा साझेदारी की दशा दिशा अनिश्चित लग रही है. मिसाल के तौर पर ये स्पष्ट नहीं है कि ताइवान में संकट पैदा हुआ, तो दोनों देश किस तरह एक दूसरे से सहयोग करेंगे. यही बात प्रशांत क्षेत्र में चीन की बढ़ती दादागिरी से निपटने को लेकर अमेरिका के प्रयासों को लेकर भी कही जा सकती है.

 

हिंद प्रशांत क्षेत्र के नियमन और सुरक्षा के साझा दृष्टिकोण को आगे बढ़ाने में क्वाड की भूमिका आगे भी अहम रहने वाली है. इसके अलावा भी भारत समान विचारधारा वाले साझीदारों के साथ कई अन्य छोटे बहुपक्षीय और त्रिपक्षीय संगठनों के माध्यम से सहयोग कर रहा है. ये संगठन आर्थिक हितों, विनियमन और अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों को लागू करने की संभावनाओं में सुरक्षा क्षेत्र में सहयोग का आयाम भी जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं. क्वाड की भूमिका का दर्जा उठाया गया है और विदेश मंत्रियों के स्तर की नियमित बैठकों और शीर्ष नेताओं के वार्षिक शिखर सम्मेलनों के ज़रिए इसके उद्देश्यों को लगातार विस्तार दिया जा रहा है. दक्षिणी चीन सागर को लेकर ख़ुद भारत के रुख़ और उसकी भूमिका में लगातार परिवर्तन आ रहा है. ये बात 2019 में अमेरिका और अन्य देशों की नौसेनाओं के साथ नौसैनिक अभ्यास और मई 2023 में आसियान के साथ युद्धाभ्यास के ज़रिए साफ़ दिखाई दी. इस दौरान भारत ने पहली बार अपने जंगी जहाज़ साउथ चाइना सी में भेजे थे.

 

पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत ने ठोस क़दम उठाते हुए इस इलाक़े की सुरक्षा को लेकर अपनी भूमिका को सक्रिय करने वाले क़दम उठाए हैं. भारत ने कंबाइंड मैरीटाइम फोर्सेज (CMF) में भागीदारी की है और अब अन्य देशों की नौसेनाओं और विशेष रूप से अमेरिका के साथ मिलकर काम करने के लिए साझा मिशनों में भी हिस्सेदारी बढ़ाई है. भारत, अमेरिका की नौसेना को अपने जहाज़ों की मरम्मत और सुस्ताने के लिए आने के लिए अपने बंदरगाहों के द्वार भी खोल दिए हैं. ये प्रतिबद्धताएं इस बात का संकेत हैं कि भारत के रुख़ में परिवर्तन आ रहा है, जिससे पता चलता है कि समझौते और साझा बयानों से आगे बढ़ते हुए भारत अब ठोस वास्तविक क़दम उठा रहा है.

 

भारत के हित, उसके अपना दायरा बढ़ाने और हिंद प्रशांत क्षेत्र की एक बड़ी ताक़त के तौर पर उभरने की कोशिशों से नज़दीकी तौर पर जुड़े हुए हैं. अमेरिका चाहता है कि भारत इस इलाक़े में सुरक्षा देने वाले एक विश्वसनीय देश के तौर पर उभरे. भारत के हित अमेरिका के इस इरादे से भी मेल खाते हैं. इस मामले में चीन के मुक़ाबले भारत की सीमित क्षमताएं एक बड़ी चुनौती बनी हुई हैं. भारत के लिए अमेरिका के साथ उसकी साझेदारी, क्षमता की इस कमी को पूरा करने का एक अहम माध्यम है, ताकि अपने अन्य मक़सद हासिल करने के साथ साथ, वो चीन की महत्वाकांक्षाओं का प्रभावी ढंग से मुक़ाबला कर सके.

 

बहुत ज़्यादा अपेक्षाएं भी ठीक नहीं

 

अहम द्विपक्षीय संबंधों को लेकर हर अमेरिकी राष्ट्रपति अपना ख़ास नज़रिया लेकर आता है. आज अमेरिकी संसद में दोनों ही दल भारत की भूमिका का समर्थन करते हैं. इस वजह से दोनों देशों के रिश्तों में एक स्थिरता आई है. अमेरिका और भारत के बीच बढ़ते सहयोग की बड़ी वजह बुनियादी तौर पर सामरिक हितों का मेल खाना है. जिससे दोनों देशों के बीच क़ुदरती साझेदारी विकसित हो रही है. हालांकि, नए राष्ट्रपति के कार्यकाल संभालने तक सुरक्षा के द्विपक्षीय संपर्कों की रफ़्तार पर आंशिक तौर पर बाहरी कारणों का असर दिखेगा. वैसे तो दोनों देशों के बीच जो सहयोग चल रहा है, उसका जारी रहना तय है. लेकिन, हिंद प्रशांत क्षेत्र को लेकर अमेरिका की मौजूदा दिलचस्पी को बनाए रखना या फिर उसमें बढ़ोत्तरी करना बहुत हद तक नए अमेरिकी राष्ट्रति की इच्छा शक्ति पर निर्भर करेगा. क्योंकि, यूरोप और मध्य पूर्व में चल रहे युद्धों ने अमेरिका के संसाधनों पर दबाव बहुत बढ़ा दिया है.

 अमेरिका और भारत के बीच बढ़ते सहयोग की बड़ी वजह बुनियादी तौर पर सामरिक हितों का मेल खाना है. जिससे दोनों देशों के बीच क़ुदरती साझेदारी विकसित हो रही है.

इसके अलावा, हिंद प्रशांत के प्रति और विशेष रूप से चीन की चुनौती को लेकर अमेरिका की प्रतिबद्धताओं में इस वजह से भी फ़र्क़ पड़ सकता है कि राष्ट्रपति पद के दो उम्मीदवारों में से कौन जीतता है. अमेरिका और भारत के बीच सहयोग का सफ़र इस बात पर निर्भर करेगा कि नए राष्ट्रपति प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका के हितों को कितनी प्राथमिकता देते हैं, और यूक्रेन युद्ध व मध्य पूर्व में छिड़े बहुआयामी संघर्ष के साथ ही अमेरिका, चीन और हिंद प्रशांत क्षेत्र पर अपना ध्यान केंद्रित करने के बीच किस तरह का संतुलन बिठाना चाहेगा. चूंकि ये दोनों ही युद्ध नए राष्ट्रपति के कार्यभार संभालने तक जारी रहने की आशंका है. ऐसे में सवाल ये है कि क्या अमेरिका के नए राष्ट्रपति, अमेरिकी प्राथमिकताओं का रुख़ दोबारा चीन के साथ प्रतिद्वंदिता की ओर मोड़ेंगे.

 

भारत में चीन के साथ कूटनीतिक संवाद, सीमा विवाद का निपटारा करने में प्रगति होने का संकेत दे रहे हैं. हालांकि, अभी ये निश्चित नहीं है कि ये प्रयास कम और मध्यम अवधि में कोई ठोस परिणाम देंगे भी या नहीं. चीन को लेकर भारत की दुविधाएं और अमेरिका के साथ उसके सुरक्षा संबंध भले ही विदेश नीति के अलग अलग मुद्दे नज़र आते हों, मगर उनके बीच धीरे धीरे आपसी जुड़ाव बढ़ता जा रहा है. गलवान के संघर्ष ने चीन के प्रति भारत के अविश्वास को बढ़ा दिया है और इसी वजह से भारत, इस क्षेत्र के लिए अपनी उभरती रणनीति में हिंद प्रशांत की अन्य ताक़तों के साथ तालमेल बिठाने की कोशिश कर रहा है. भारत के इस दृष्टिकोण में अमेरिका एक अहम भूमिका निभा रहा है.

 

ये उम्मीद की जाती है कि अमेरिका के नए राष्ट्रपति किसी भी पार्टी के हों वो हिंद प्रशांत को लेकर मौजूदा नीति को जारी रखेंगे. हालांकि कमला हैरिस के राष्ट्रपति बनने, या फिर डॉनल्ड ट्रंप उसका असर इस क्षेत्र को लेकर अमेरिका की प्रतिबद्धताओं पर ज़रूर पड़ेगा. चूंकि चीन को लेकर अमेरिका के दोनों दलों के बीच आम राय है. ऐसे में नए राष्ट्रपति अपने पूर्ववर्ती की नीतियों के मूल पहलुओं को आगे भी जारी रखेंगे. कमला हैरिस के राष्ट्रपति बनने पर अमेरिका चीन पर प्रतिबंध लगाने और कुछ मामलों में चीन पर पाबंदी लगाने की नीति पर ज़ोर देगा. वहीं ट्रंप राष्ट्रपति चुने गए तो वो अमेरिका को होने वाले चीन के निर्यात पर व्यापार कर बढ़ाने पर ज़ोर देंगे. किसी भी स्थिति में हिंद प्रशांत की आपूर्ति श्रृंखलाओं पर असर पड़ेगा. क्योंकि अमेरिकी प्रतिबंधों के जवाब में चीन भी प्रतिबंध लगाने या फिर व्यापार कर बढ़ाने जैसे क़दम उठाएगा. हिंद प्रशांत की सुरक्षा को लेकर इसके दूरगामी असर अनिश्चित बने रहेंगे.

 अमेरिका और भारत के रिश्तों की बात करें, तो वैसे तो ये साझेदारी अब संरचनात्मक बन चुकी है. फिर भी दोनों देशों के बीच कुछ मसलों पर आम सहमति तो कुछ पर मतभेद बने हुए हैं और ये दोनों ही बातें, द्विपक्षीय संबंधों पर असर डाल रही हैं.

अमेरिका और भारत के रिश्तों की बात करें, तो वैसे तो ये साझेदारी अब संरचनात्मक बन चुकी है. फिर भी दोनों देशों के बीच कुछ मसलों पर आम सहमति तो कुछ पर मतभेद बने हुए हैं और ये दोनों ही बातें, द्विपक्षीय संबंधों पर असर डाल रही हैं. नए राष्ट्रपति के शासनकाल में हिंद प्रशांत क्षेत्र को लेकर अमेरिका की प्रतिबद्धता पर बाहरी तत्वों के गहरा असर डालने की संभावना है. और फिर इसका प्रभाव भारत और अमेरिका की सुरक्षा साझेदारी पर भी पड़ेगा.

 

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Authors

Vivek Mishra

Vivek Mishra

Vivek Mishra is Deputy Director – Strategic Studies Programme at the Observer Research Foundation. His work focuses on US foreign policy, domestic politics in the US, ...

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Rahul Rawat

Rahul Rawat

Rahul Rawat is a Research Assistant with ORF’s Strategic Studies Programme (SSP). He also coordinates the SSP activities. His work focuses on strategic issues in the ...

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