28 जून 2021 को ब्लूमबर्ग में छपी एक न्यूज रिपोर्ट में दावा किया गया है कि भारत ने उत्तरी सीमा पर विभिन्न जगहों पर 50 हज़ार अतिरिक्त सैनिकों (और नए उपकरणों) की तैनाती कर चीन के ख़िलाफ़ एक आक्रामक सैन्य रणनीति अपनाई है, जो भारत के रुख़ में एक ऐतिहासिक बदलाव है. पहले कमांडरों को चीनी ख़तरे के ख़िलाफ़ रक्षात्मक रुख़ अख्त़ियार करना पड़ता था, लेकिन अब पश्चिम से उत्तर तक के इस पुन: संतुलन (Rebalancing) ने उन्हें आक्रामक रूप से अपनी रक्षा करने का विकल्प मुहैया करवाया है. इस तरह चीन को रोकने की समग्र क्षमता और मज़बूत हो गई है. अन्य ऑनलाइन न्यूज़ माध्यमों और प्रिंट मीडिया में भी इस दावे को जगह मिली है. जहां एक ओर इन अलग-अलग रिपोर्टों में उल्लेखित तथ्य न्यूनतम अर्थों में सही हैं, वहीं इस गतिविधि के कथित प्रभावों को लेकर किए गए आकलन और इस मुद्दे को व्यावहारिक रूप में देखने व समझने के लिए पड़ताल ज़रूरी है. साथ ही पूर्व में हुए वो फैसले जिन के आधार पर यह पुनर्संतुलन हुआ है, उन्हें समझना भी ज़रूरी है.
पूर्वी लद्दाख में भारत-चीन के बीच गतिरोध से स्पष्ट हो गया है कि पैंगोंग त्सो और कैलाश रेंज से सेनाओं की वापसी के अलावा सुलह की दूसरी कोई गुंजाइश नहीं है. समर कैंपैन के मौसम की शुरुआत के साथ ही दोनों पक्षों ने अपनी क्षमता को बढ़ाने और एक दूसरे के साथ दिमाग़ी रूप से सामरिक व रणनीतिक खेल खेलने (माइंड गेम) का काम शुरू कर दिया है.पिछले साल जून में गलवान घाटी में पेट्रोलिंग प्वाइंट 14 पर खूनी संघर्ष और अगस्त में कैलाश रेंज से लगे इलाक़ों में भारत की पहले से मौजूदगी के ख़िलाफ़ तीखी चीनी प्रतिक्रियाओं से यह स्पष्ट हो गया कि वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर भारत-चीन के बीच गतिरोध कोई सामान्य नहीं था. तब तक, दोनों देश पर्याप्त सैनिक तैनात कर चुके थे और अब भी कमोबेश इनकी तैनाती वैसी ही है. तो, अब 50,000 सैनिकों की तैनाती के मामले पर आते हैं. यह एक ऐतिहासिक तैनाती थी और इसने काफी जिज्ञासा भी पैदा की.
पूर्वी लद्दाख में भारत-चीन के बीच गतिरोध से स्पष्ट हो गया है कि पैंगोंग त्सो और कैलाश रेंज से सेनाओं की वापसी के अलावा सुलह की दूसरी कोई गुंजाइश नहीं है. समर कैंपैन के मौसम की शुरुआत के साथ ही दोनों पक्षों ने अपनी क्षमता को बढ़ाने और एक दूसरे के साथ दिमाग़ी रूप से सामरिक व रणनीतिक खेल खेलने (माइंड गेम) का काम शुरू कर दिया है.
निश्चित तौर पर यह फ़ैसला अचानक नहीं लिया गया था. बुनियादी ढांचे का निर्माण और सेना को मज़बूत करने के ये प्रयास एक सुनिश्चित क्षमता विकास योजना के तहत किए गए हें. यह क़दम, रणनीतिक ख़तरों को लेकर साल 2006-07 से ही किए जा रहे वर्गीकृत आकलन की एक लंबी श्रृंखला और चीन के साथ सीमावर्ती क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे के विकास के लिए चीन अध्ययन समूह यानी सीएसजी (China Study Group ) के निर्देश के बाद किया गया है. खुद लेखक सेना में इस बदलाव को देखने के लिए हुए दो अध्ययनों में शामिल रहे हैं. ताकतों के पुन:संतुलन (rebalancing of forces) के बारे में एक तार्किक निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए भारत-चीन सीमा पर पिछले एक दशक के सैन्य तनाव की समय-रेखा पर एक त्वरित नज़र डालने से काफ़ी हद तक चीज़ें स्पष्ट हो जाती हैं.
भारत-भूटान-चीन सीमा पर भी गतिरोध
पूर्वी लद्दाख, मध्य सेक्टर (हिमाचल और उत्तराखंड), सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश में चीन के दावे के बारे में सबको पता है, और यह पूरी तरह से दर्ज है. यहां तक कि साल 1993 से लेकर 2013 में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के सत्ता संभालने तक भारत और चीन के बीच कई सीमा प्रोटोकॉल और समझौतों पर हस्ताक्षर हुए हैं, और उनका पालन भी हुआ है (हालांकि चीन ने ज़्यादा उल्लंघन किए हैं). उसी साल पूर्वी लद्दाख में देपसांग के मैदानी इलाक़ों में सैनिकों का जमावड़ा देखा गया और अप्रैल-मई 2013 में तीन सप्ताह से अधिक की बातचीत के बाद ही इसे हल किया जा सका था. इसके अगले साल राष्ट्रपति शी की पहली भारत यात्रा से पहले भारतीय और चीनी सेना दक्षिण-पूर्व लद्दाख के चुमार में आमने-सामने आ गई. यहां विवाद चीन द्वारा किए जा रहे सड़क निर्माण के कारण था, जिसके बारे में भारत का मानना था कि वह उस का क्षेत्र था. इस मामले को 16 दिनों बाद भारत की ओर से एक ब्रिगेड के रूप में जवानों की तैनाती के बाद सुलझाया गया.
सबसे गंभीर गतिरोध जून 2017 में डोकलाम पठार पर सिक्किम में भारत-भूटान-चीन सीमा ट्राई-जंक्शन के पास हुआ था. यहां टोरसा नदी के एक बहुत ही संकीर्ण हिस्से पर चीन द्वारा किए जा रहे सड़क निर्माण को रोकने के लिए भूटान की ओर से भारत ने हस्तक्षेप किया था. दरअसल, इस सड़क के ज़रिए चीनी सैनिक किसी भी संघर्ष के वक्त काफ़ी कम समय में भारत के सिलीगुड़ी कॉरिडोर के लिए ख़तरा पैदा कर सकते थे. यह गतिरोध दो महीने से अधिक समय तक चला. यहां दोनों देशों ने डिविज़न की संख्या के बराबर सैनिकों की तैनाती की और बड़ी संख्या में सैनिकों को सुरक्षित भी रखा. भारतीय वायुसेना और भारतीय नौसेना भी इसमें शामिल हुई. हालांकि, शीर्ष स्तर पर बातचीत के ज़रिए इसे सुलझा लिया गया, लेकिन भारतीय सशस्त्र बलों को अब इस तरह की घटना के लिए समर्पित बलों को तैयार रखने की वास्तविक ज़रूरत महसूस होने लगी, ताकि किसी भी विवादित क्षेत्र में अपने भू-भाग को बचाया जा सके. यह वही भारतीय सशस्त्र बल थे जो डोकलाम की घटना तक लगभग एक दशक से पाकिस्तान-चीन की मिलीभगत से निपटने के लिए तैयार हो रहे थे. इसके बाद पीएलए अप्रैल 2020 में पूर्वी लद्दाख में आगे बढ़ आई और हम जहां थे आज भी वहीं हैं.
सबसे गंभीर गतिरोध जून 2017 में डोकलाम पठार पर सिक्किम में भारत-भूटान-चीन सीमा ट्राई-जंक्शन के पास हुआ था. यहां टोरसा नदी के एक बहुत ही संकीर्ण हिस्से पर चीन द्वारा किए जा रहे सड़क निर्माण को रोकने के लिए भूटान की ओर से भारत ने हस्तक्षेप किया था.
चीन-भारत सैन्य तनावों के ब्यौरे को नए सिरे से समझने के दो उद्देश्य हैं: पहला, एक तरह के बढ़ते ख़तरे को उजागर करना, जिसके बारे में भारत का रणनीतिक नेतृत्व और उसकी सेना लगभग एक दशक (यदि अधिक नहीं) से सचेत है, और दूसरा, यह दिखाना कि आज लद्दाख क्षेत्र में और अरुणाचल में, संघर्ष बिंदुओं के करीब, भारत अतिरिक्त सैन्य साजो-सामान और बलों को तैनात करने में सक्षम है और उन्हें वहां लंबे समय तक रखने में सक्षम है. ऐसा उन प्रक्रियाओं की परिणति के कारण है जिनकी कल्पना इस सदी की शुरुआत के वक्त की गई थी. शुरुआत में इसे यूपीए की सरकार ने प्रोत्साहन दिया, और फिर प्रधानमंत्री मोदी ने अपने दोनों कार्यकालों में इसका सख़्ती से पालन किया. बीते सात सालों में एनडीए सरकार ने बुनियादी ढांचे के विकास के लिए जिस तरह से धन का निरंतर और व्यापक आवंटन किया है, उसे ख़ारिज नहीं किया जा सकता. लद्दाख और अरुणाचल पहले की तुलना में आज रेल, सड़क और हवाई मार्ग से बेहतर तरीक़े से जुड़े हुए हैं. दूर-दराज़ के सीमावर्ती इलाकों में भारत की बेहतर कनेक्टिविटी के कारण ही संभवतः परोक्ष तौर पर चीन के रुख में आक्रामकता देखने को मिली है.
पड़ोसी देशों ने किया मजबूर
साल 2012 के बाद से तीनों सेवाओं ने चीन को प्राथमिक विरोधी के रूप में देखा है, और इसी के अनुरूप अपनी ताक़त बढ़ाने के साथ बड़े साज़ो-सामान का अधिग्रहण किया है. मुख्य रूप से सेना और कुछ वायु सेना माध्यमों पर ध्यान केंद्रित करने के ज़रिए, सेना ने पूर्वी कमान के लिए अतिरिक्त पैदल सेना डिवीज़नों से लेकर, माउंटेन स्ट्राइक कोर (दूसरे डिवीज़न का संभवतः अब भी गठन जारी है), लंबी दूरी के रॉकेट और मिसाइल आर्टिलरी की स्थापना, ईडब्ल्यू इकाइयां, वायु रक्षा (Air Defence), एम777 लाइट गन, और पूरे साल दुर्गम इलाक़ों में ऊंचाई पर अतिरिक्त सैनिकों की तैनाती बनाए रखने के लिए रसद व बुनियादी ढांचे के निर्माण पर ध्यान केंद्रित किया है. इसके अलावा पश्चिम से बलों के पुन:संतुलन में मथुरा स्थित आक्रामक कोर के दो पैदल सेना डिवीजनों की भूमिकाओं को नए सिरे से परिभाषित करना (जो सैन्य अभियानों की दोहरी कार्य नीति के तहत उनके लिए हर हाल में एक सेकेंडरी चार्टर था) और सेंट्रल सेक्टर के लिए अतिरिक्त बलों के साथ-साथ आक्रामक विकल्पों के लिए लद्दाख में सभी अतिरिक्त सैनिकों को नियंत्रित करने के लिए एक सैन्य मुख्यालय (corps headquarters) की स्थापना शामिल है.
यह संभव है कि सुरक्षा व्यवस्था ने शुरू में धीमी प्रतिक्रिया दी हो लेकिन हमें यह स्वीकार करना होगा कि संभावित ख़तरों की पहचान पहले ही की जा चुकी थी. ऐसा निश्चित रूप से वर्षों तक रणनीतिक और परिचालन स्तर पर युद्ध अभ्यास और बलों के पुनर्संतुलन से हुआ था
निश्चित रूप से भारतीय वायु सेना को C-17s और C-130Js के रूप में मज़बूत सामरिक व रणनीतिक फायदा मिला है. साथ ही इन के ज़रिए सेना अब गूढ़ व दुरुह इलाक़ों में भी रणनीतिक रूप से सूक्ष्म कार्रवाई के लिए तैयार है जिसे टैक्टिकल स्पेशल ऑपरेशन्स कैपेबिलिटी (tactical special operations capability) के रूप में जाना जाता है. उसे लद्दाख और पूर्वी सेक्टर में पहाड़ी इलाकों की ज़रूरतों के अनुसार सैनिकों और रसद की त्वरित आपूर्ति के लिए चिनूक (Chinooks) के साथ ख़तरनाक AH-64E मल्टी-रोल अटैक हेलीकॉप्टर मिले हैं. भारतीय वायु सेना की मारक क्षमताओं में नई बढ़ोत्तरी राफेल मल्टी रोल लड़ाकू विमानों को शामिल किए जाने से भी हुई है. विमान के छठे खेप को हाल ही में शामिल किया गया. उम्मीद की जा रही है कि इसी साल, रूस से अनुबंध के आधार पर एस-400 ट्रिम्फ सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल प्रणाली भी प्राप्त हो जाएगी.
अंत में, भारत के सैन्य परिवर्तन की दिशा और गति ऐतिहासिक है. हालांकि, इसके पीछे एक कारण पड़ोसियों द्वारा मजबूर किया जाना भी रहा है. लेकिन, अहम कारण वह धीमी पुन:संतुलन प्रक्रिया भी है जो एक दशक से चल रही है. यह संभव है कि सुरक्षा व्यवस्था ने शुरू में धीमी प्रतिक्रिया दी हो लेकिन हमें यह स्वीकार करना होगा कि संभावित ख़तरों की पहचान पहले ही की जा चुकी थी. ऐसा निश्चित रूप से वर्षों तक रणनीतिक और परिचालन स्तर पर युद्ध अभ्यास और बलों के पुनर्संतुलन से हुआ था, लेकिन इस सब के बीच एक दिखाई न देने वाली ताक़त हर वक्त मौजूद थी. उस ताक़त का नाम चीन था जिसने साल 2017 से स्पष्ट रूप से अपना हाथ नहीं दिखाया होता तो संभवतः ऐसा नहीं होता. यह बात की चीन की यह युद्ध-दशा कोविड-19 की महामारी के साथ तालमेल रखती है और भारत का परिधीय सीमाओं पर लगाम कसना, इस बात को पुरज़ोर रूप से सामने लाता है कि हमारी नीतियां भले ही हर समय अपेक्षाओं पर खरा न उतरें, लेकिन जब ड्रैगन (चीन) आपके दरवाज़े पर आ खड़ा हो तो वह असर दिखाती हैं.
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