सोमवार से संसद के बजट सत्र की शुरुआत के साथ ही केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 2023-24 के आर्थिक सर्वेक्षण को सदन के पटल पर प्रस्तुत किया. हमेशा की तरह, NDA सरकार के केंद्रीय बजट से पहले आर्थिक सर्वेक्षण ऐसा दस्तावेज़ था जिसका सबसे ज़्यादा इंतज़ार किया जा रहा था. चुनाव के बाद ये NDA सरकार का पहला बजट होगा. बहुत से मामलों में ये आर्थिक सर्वे (ES) बिल्कुल अलग है. वैसे, तो इस बात की अपेक्षा पहले से थी कि दुनिया पर छाये निराशा के बादलों के बीच इस आर्थिक सर्वेक्षण में भारत की अर्थव्यवस्था की ख़ूबसूरत तस्वीर पेश की जाएगी (और ठोस आंकड़ों को देखें, तो इस बात से इनकार भी नहीं किया जा सकता है). ये पहली बार है कि आर्थिक सर्वेक्षण भविष्य और विशेष रूप से मध्यम अवधि के लिए कुछ उपयोगी सुझावों के साथ आया है. निश्चित रूप से इसमें विकसित भारत 2047 के दूरगामी लक्ष्य को ध्यान में रखा गया है. ये भारत का वो महत्वाकांक्षी दृष्टिकोण है, जिसके तहत देश अपनी आज़ादी के सौ साल पूरे होने पर ख़ुद को विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में पहुंचाना चाहता है.
ये पहली बार है कि आर्थिक सर्वेक्षण भविष्य और विशेष रूप से मध्यम अवधि के लिए कुछ उपयोगी सुझावों के साथ आया है. निश्चित रूप से इसमें विकसित भारत 2047 के दूरगामी लक्ष्य को ध्यान में रखा गया है.
जैसा कि हमने कहा कि इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि ‘वैश्विक आर्थिक निराशा’ के बीच भारत ने ख़ुद को ‘चमकते सितारे’ के तौर पर पेश किया है. नेशनल एकाउंट्स एस्टीमेट (NAS) के अनुसार, 2023-24 में भारत की वास्तविक GDP विकास दर 8.2 प्रतिशत रही है, जो दुनिया की सभी प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में सबसे अधिक है, और इनमें विकसित देश और उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएं शामिल हैं. वैसे तो ये बात सबको पता थी. लेकिन, जिस बात को एक वक़्त में एक मिथक के तौर पर प्रचारित किया जा रहा था, वो आर्थिक सर्वेक्षण के बाद ग़लत साबित हुई है. ये बात घरेलू बचत से जुड़ी हुई है. आम तौर पर ये सोच है कि देश में घरेलू बचत गिरती जा रही है. लेकिन, इससे पहले भी कहा जा रहा था कि घरेलू बचत में बढ़ोत्तरी हुई है. आर्थिक सर्वे ने इस दावे को और मज़बूती दी है और ये दिखाया है कि बढ़ी हुई घरेलू बचत अब भौतिक संपत्तियों के रूप में की जाने वाली बचत की ओर बढ़ रही है; यही नहीं, GDP के प्रतिशत के तौर पर भौतिक संपत्तियों में बचत पिछले तीन वर्षों में बढ़ गई है.
इसी तरह, इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि दुनिया में उथल-पुथल और वस्तुओं के मूल्यों में अस्थिरता के बावजूद भारत में कुल मिलाकर महंगाई काबू में ही रही है और ग्राहक मूल्य सूचकांक के मामले में भारत की महंगाई दर 4 से 5 प्रतिशत के बीच रही है. 2022 और 2023 में उभरती अर्थव्यवस्थाओं और विकसित देशों की तुलना में भारत की महंगाई दर दुनिया की औसत महंगाई दर से काफ़ी कम है. यहां तक कि जून 2024 में महंगाई दर लगभग पांच प्रतिशत थी, जो वैश्विक औसत से कम है. ये मार्केटिंग इंटेलिजेंस के ज़रिए बाज़ार के अच्छे बर्ताव, दांव लगाने और दाम के जोख़िम के प्रबंधन का प्रतीक है, विशेष रूप से ऊर्जा जैसी वैश्विक कमोडिटी के मामले में. हालांकि, चिंता की जिस बात को आर्थिक सर्वे में रेखांकित नहीं किया गया है, वो खाद्य पदार्थों की मौजूदा महंगाई की दर है, जिसकी प्रमुख वजह घरेलू बाज़ार में मुनाफ़ाख़ोरी और कृषि उत्पादों की मार्केटिंग के तौर-तरीक़ों में पारदर्शिता का अभाव है.
चालू खाते का घाटा
आर्थिक सर्वे में लगातार बढ़ रहे चालू खाते के घाटे (CAD) की व्यापक आर्थिक योजना के एक अहम पहलू के तौर पर चर्चा की गई है. फिर भी, इस योजना में चीन के साथ बढ़ते व्यापार घाटे की चर्चा नहीं की गई है. 2023-24 तक चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा 85 अरब डॉलर का था, रूस के साथ 57.2 अरब डॉलर, दक्षिण कोरिया के साथ 14.71 अरब डॉलर और हॉन्ग कॉन्ग के साथ व्यापार घाटा 12.2 अरब डॉलर का था. जहां रूस के साथ भारत के व्यापार घाटे की वजह वहां से काफ़ी रियायती दरों पर कच्चे तेल के आयात में बढ़ोत्तरी को दिया जा सकता है, जिसकी वजह से भारत की अर्थव्यवस्था को महंगाई पर क़ाबू पाने में काफ़ी मदद मिली है. वहीं, 2023-24 के आंकड़ों के मुताबिक़, चीन के साथ भारत के व्यापार घाटे का एक प्रमुख पहलू बीच की वस्तुओं (67 प्रतिशत) और, पूंजीगत सामान (17 प्रतिशत) हैं. आम तौर पर ये महसूस किया जाता है कि मध्य के वस्तुओं का आयात, अंतरराष्ट्रीय व्यापार और व्यापक अर्थशास्त्र के क्षेत्र में एक होड़ लगा सकने वाली व्यवस्था के निर्माण में मददगार होता है. ये भी एक तथ्य है कि हाल के दिनों में भारत का कुल व्यापार घाटा 2023-24 में कम हुआ है और महंगाई भी क़ाबू में है. इन दोनों में इंटरमीडियेट कमोडिटीज़ के आयात का कितना योगदान रहा है, इसका अधिक विस्तार से विश्लेषण करने की आवश्यकता है.
भारत की प्रगति का विज़न
इस आर्थिक सर्वे को बिल्कुल अलग बनाने वाली बात इसके पांचवें अध्याय में है, जिसमें ‘नए भारत की प्रगति के लिए एक विज़न’ की चर्चा की गई है. ऐसा करने के लिए ये अध्याय नीतिगत रूप से ध्यान केंद्रित करने वाले क्षेत्रों की पहचान करता है और इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए छह प्रमुख रणनीतियों को प्रस्तुत करता है. आर्थिक सर्वे में उत्पादक रोज़गार सृजन, कौशल की कमी को पूरा करने और युवाओं की सेहत बढ़ाने के तीन उपायों के ज़रिए मानव पूंजी के विकास की बात की गई है; इसके अलावा, कृषि क्षेत्र की संपूर्ण संभावना का उपयोग करने का सुझाव दिया गया है; अनुपालन की ज़रूरतों को आसान बनाने और MSME के लिए पूंजी जुटाने की दिक़्क़तों को दूर करने और इस तरह कारोबार का बेहतर माहौल बनाने और कारोबार करने की लागत घटाने की बात कही गई है; भारत के हरित परिवर्तन के प्रबंधन पर बल दिया गया है; वैश्विक मूल्य संवर्धन श्रृंखला में चीन की चुनौती से निपटने का सुझाव दिया गया है; कॉरपोरेट बॉन्ड के बाज़ार को मज़बूत करने के लिए कहा गया है; और आख़िर में असमानता को कम करने की बात कही गई है. वैसे तो इन सभी बिंदुओं पर आम सहमति होनी चाहिए. लेकिन, पिछली बार के सर्वे से जो बातें अलग हैं, उसके दो पहलू हैं.
आर्थिक सर्वे में उत्पादक रोज़गार सृजन, कौशल की कमी को पूरा करने और युवाओं की सेहत बढ़ाने के तीन उपायों के ज़रिए मानव पूंजी के विकास की बात की गई है; इसके अलावा, कृषि क्षेत्र की संपूर्ण संभावना का उपयोग करने का सुझाव दिया गया है
पहला तो कृषि क्षेत्र की संपूर्ण संभावना का लाभ उठाना है. ये भारत के लिए लंबे समय से चुनौती बना हुआ है. इस मसले से निपटने के लिए नौवें अध्याय को पूरी तरह कृषि क्षेत्र को समर्पित किया गया है. हालांकि, इस अध्याय में ज़्यादा एग्रीकल्चरल मार्केटिंग की चुनौतियों से निपटने की बात की गई है, जो निश्चित रूप से बहुत अधिक हैं! हालांकि, इस अध्याय में बमुश्किल ही उत्पादकता के सवाल का जवाब देने की कोशिश की गई है, जो बेहद महत्वपूर्ण है. क्योंकि, भारत के कृषि क्षेत्र की उत्पादकता अभी भी दुनिया में सबसे कम उत्पादकता वाले देशों में से है. वैसे तो कृषि उत्पादों की मार्केटिंग की बात ठीक है. लेकिन, इसके साथ साथ नियमन और जोखिम के प्रबंधन की और चर्चा भी की जा सकती थी. वैसे तो कृषि के बाज़ारों का भारत में लंबे समय से चल रहा है. लेकिन, कमोडिटी की मार्केटिंग और गैर कृषि उत्पादन वाली वस्तुओं के लेन-देन के परिवहन पर कर और भारत में बचाव के संसाधनों के मामले में इनोवेशन की कमी की वजह से आम तौर पर अकुशल परिस्थितियां हैं. इसके अलावा, भौतिक बाज़ार के नियमन का स्पष्ट रूप से अभाव दिखता है, जिसकी वजह से मुनाफ़ा खोरी और घरेलू खाद्य वस्तुओं के दाम की महंगाई बनी रहती है.
दूसरा पहलू चीन की चुनौती का है. वैसे तो ग्लोबल वैल्यू चेन (GVA) में भारत का योगदान बहुत कम है. लेकिन, अगर आर्थिक सर्वे में वैश्विक कंपनियों द्वारा अपनी उत्पादन और आपूर्ति श्रृंखलाओं को चीन प्लस वन की रणनीति के तहत विविधता लाने के प्रयास अपनाने की वजह से भारत के लिए उभर रहे अवसरों का ज़िक्र किया जाता तो बेहतर होता, न कि इसे सिर्फ़ एक ठिकाने पर केंद्रित करना.
आर्थिक सर्वे का सबसे बेहतरीन हिस्सा तो निजी निवेश को बढ़ावा देने की स्थायी रणनीति के ज़रिए देश के विकास के भविष्य का मार्ग प्रशस्त करने के सुझाव हैं; MSME सेक्टर को बढ़ावा देना (इन्हें भारत का मिटेलस्टैंड कहना, जहां ये शब्द आम तौर पर जर्मनी, ऑस्ट्रिया और स्विटज़रलैंड में झटके सहने लायक़ कारोबारी उद्यमों के लिए इस्तेमाल किया जाता है); मानव पूंजी की ज़रूरतों से निपटना और इस तरह आबादी के विशाल संसाधन का उपयोग करना; और कृषि की समस्याओं का समाधान निकालना.
वैसे तो ये विचार नया है और विकास का मार्ग प्रशस्त करने के प्रयास की तारीप़ होनी ही चाहिए. लेकिन, अगर आर्थिक सर्वे ने खपत पर आधारित प्रगति और निवेश की अगुवाई वाले विकास के दो रास्तों को लेकर चिंताओं पर बहस करता तो ज़्यादा अच्छा होता. सर्विस सेक्टर के योगदान के अलावा, पिछले तीन दशकों के दौरान भारत की प्रगति को हमें खपत पर आधारित विकास के चलन के तौर पर देखना चाहिए. 1991 का आंकड़ा ये बताता है कि निजी अंतिम खपत का व्यय (PFCE) और GDP विकास, दोनों ही 2022-23 तक एक दूसरे से क़दमताल करके चलते रहे हैं और खपत, GDP का 55.5 प्रतिशत रही है. हालांकि, 2023-24 की आख़िरी तिमाही में ऐसा लग रहा है कि ये क़दमताल टूट गई है. 2023-24 में निजी अंतिम खपत का व्यय सिर्फ़ 4 प्रतिशत के आस-पास बढ़ा, जबकि GDP विकास दर 8.2 प्रतिशत रही है. वहीं कुल स्थिर पूंजी निर्माण या निवेश लगभग 9 प्रतिशत बढ़ गया. जो सवाल आगे उठाया जा सकता है वो ये है कि: क्या भारत खपत पर आधारित विकास के चक्र से बाहर निकल रहा है और निवेश पर आधारित विकास के चलन की ओर बढ़ रहा है?
2023-24 में निजी अंतिम खपत का व्यय सिर्फ़ 4 प्रतिशत के आस-पास बढ़ा, जबकि GDP विकास दर 8.2 प्रतिशत रही है. वहीं कुल स्थिर पूंजी निर्माण या निवेश लगभग 9 प्रतिशत बढ़ गया. जो सवाल आगे उठाया जा सकता है वो ये है कि: क्या भारत खपत पर आधारित विकास के चक्र से बाहर निकल रहा है और निवेश पर आधारित विकास के चलन की ओर बढ़ रहा है?
किसी भी स्थिति में 2023-24 के आर्थिक सर्वे ने 2024 के केंद्रीय बजट पर से पर्दा उठने से पहले का माहौल बना दिया. अब से कुछ घंटों बाद ही ये पता चल जाएगा कि 2024-25 में भारत की अर्थव्यवस्था का भविष्य क्या होगा.
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