प्रस्तावना
फरवरी 2022 में, रूस द्वारा यूक्रेन पर आक्रमण करने से पहले, अमेरिका और नाटो देशों ने यूक्रेन में सैनिकों की तैनाती से इंकार करते हुए रूस के साथ सीधे युद्ध में शामिल होने से बचने का विकल्प चुना था. हालांकि, उन्होंने घोषणा कर दी थी कि यदि रूस ने आक्रमण किया तो, वे बड़े पैमाने पर आर्थिक प्रतिबंध लगाएंगे, ताकि मास्को को युद्ध शुरू करने से रोकने की कोशिश की जा सके. लेकिन जैसा कि अब सामने है रूस आर्थिक प्रतिबंधों की इस धमकी से घबराया नहीं और उसने यूक्रेन पर हमला कर दिया. यह युद्ध अब भी चल रहा है. इसके जवाब में यूएस, यूरोपीयन यूनियन (ईयू) और जापान ने रूस के खिलाफ़ व्यापक आर्थिक प्रतिबंध[1] लागू कर दिए, लेकिन इसकी वजह से रूस का सशस्त्र आक्रमण रूका नहीं.
ऐसे में, आर्थिक प्रतिबंधों का आखिर उद्देश्य क्या है? क्या ये उस स्थिति में अगली सबसे अच्छी चीज हैं, जहां बल का उपयोग संभव नहीं है, जैसा कि यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के मामले में हुआ था? क्या आर्थिक प्रतिबंध आधुनिक युद्ध का व्यवहार्य विकल्प हैं? और यदि इनका लक्ष्य अगली सबसे अच्छी बात नहीं है, तो युद्धविराम को प्रेरित करने या आर्थिक प्रतिबंधों के माध्यम से रूस की नीतियों को बदलने के लिए क्या साधन उपलब्ध हैं? अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में अनेक देश रूस की आलोचना तो करते हैं, लेकिन केवल 40 देश ही ऐसे हैं, जो उसके खिलाफ़ लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों में शामिल हैं. और जो देश प्रतिबंधों में शामिल नहीं हैं, वे रूस के उन प्रयासों में शामिल होंगे, जो प्रतिबंधों से बचने की कोशिश करने के लिए किए जा रहे हैं.
आर्थिक प्रतिबंधों का आखिर उद्देश्य क्या है? क्या ये उस स्थिति में अगली सबसे अच्छी चीज हैं, जहां बल का उपयोग संभव नहीं है, जैसा कि यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के मामले में हुआ था? क्या आर्थिक प्रतिबंध आधुनिक युद्ध का व्यवहार्य विकल्प हैं?
नेपोलियन द्वारा की गई महाद्वीप की नाकाबंदी की तर्ज़ पर ही आर्थिक प्रतिबंधों को लंबे समय से युद्ध का साधन माना जाता रहा है, लेकिन ऐसे बहुत कम मामले हैं, जिनमें यह प्रभावी साबित हुआ हैं. इराक के ख़िलाफ़ संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधों के मामले में जैसा देखा गया है, ये प्रतिबंध वहां एक मानवीय संकट का कारण बने थे. इन आर्थिक प्रतिबंधों की वजह से सत्ता में रहने वालों पर दबाव तो नहीं बनता, लेकिन किसी देश के नागरिकों पर दरिद्रता लाद दी जाती है. इसके साथ ही, सत्ता में रहने वाले लोग भी दरिद्रता का शिकार हुए उन गरीब नागरिकों के अधिकारों का दमन करते हुए सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखने की कोशिश करते हैं. एक ओर जहां आर्थिक प्रतिबंधों की ओर अंतर्राष्ट्रीय विवादों को हल करने के साधन के रूप में देखा जाता हैं, वहीं दूसरी उनकी उपयोगिता अथवा प्रभाव सीमित ही होता है. दूसरी ओर एंड्स एंड मिन्स अर्थात साध्यों और साधनों का ग़लत अलाइनमेंट अर्थात गठबंधन भी है, क्योंकि वे उन नागरिकों को पीड़ा पहुंचाते हैं, जो युद्ध के संचालन के लिए सीधे तौर पर ज़िम्मेदार नहीं होते हैं.
रूस के खिलाफ़ लगाए गए प्रतिबंधों को केस स्टडी अर्थात उदाहरण मानकर इस संक्षेप में पारंपरिक युद्ध में आर्थिक प्रतिबंधों की प्रकृति का आकलन किया गया है और इस बात की जांच की गई कि ये आर्थिक प्रतिबंध किन हालातों में प्रभावी साबित होंगे. इसके बाद इसमें इस बात की चर्चा की जाएगी कि क्या वास्तव में आर्थिक प्रतिबंधों को युद्ध का विकल्प समझना वास्तववादी होगा.
आर्थिक प्रतिबंधों को समझना
आर्थिक प्रतिबंधों के प्रभावी होने के लिए पहले आर्थिक परस्पराधीनता स्थापित करनी होगी. आर्थिक प्रतिबंध उस वक़्त तक कोई प्रभाव नहीं डालेंगे जब तक राजनीतिक रूप से संबंध तोड़ने वाला यह कदम ‘‘पीड़ा’’ पैदा करने वाला साबित नहीं होगा. शीत युद्ध के दौरान भी पूर्व और पश्चिम के बीच व्यापारिक संबंध थे, लेकिन ये इतने परस्पराधीन नहीं थे कि इनके ख़त्म होने की वजह से अर्थव्यवस्था जीवित ही न रह सकें. शीत युद्ध समाप्त होने के बाद रूस और चीन, दोनों ही वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गनाइजेशन अर्थात विश्व व्यापार संगठन के सदस्य बनकर मुक्त व्यापार प्रणाली में शामिल हो गए. नतीजतन, चीन की कम उत्पादन लागत, श्रम की उच्च गुणवत्ता और समाजवादी व्यवस्था के तहत विकसित बुनियादी ढांचे ने उसे ‘दुनिया के कारखाने’ की भूमिका अपनाने का अवसर प्रदान कर दिया. इसके साथ ही पश्चिमी देशों ने भी चीन में निवेश करना शुरू करते हुए उसे वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में समाहित करने का मौका दे दिया. उधर, अपने संपन्न भूमिगत संसाधनों के दम पर रूस ने यूरोपियन देशों तक प्राकृतिक गैस एवं तेल की पाइपलाइन बना डाली और पैलेडियम जैसी नायाब धातु का निर्यात करना भी शुरू कर दिया. इसकी वजह से रूस वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक मुख्य संसाधन शक्ति बनकर उभरने में सफल हो गया. ऐसे में विभिन्न विचारधाराओं की सत्ता वाले देश भी मुक्त व्यापार शासन में एकजुट होने लगे. मुक्त व्यापार शासन, आर्थिक निर्भरता बढ़ाता है, जिसकी वजह से आर्थिक प्रतिबंध अधिक प्रभावी साबित होने लगे.
हालांकि, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि परस्पराधीनता की स्थिति में आर्थिक प्रतिबंधों के कार्यान्वयन का मतलब है कि ‘पीड़ा’’ न केवल इसे जिसके खिलाफ़ लागू किया गया है उस देश को होगी, बल्कि जो देश इसे लागू करेंगे उन्हें भी होगी. आर्थिक प्रतिबंधों का अर्थ होता है राजनीतिक उद्देश्यों से किसी देश की आर्थिक गतिविधियों को सीमित करना. रूस के ख़िलाफ़ लगाए गए प्रतिबंधों में सबसे प्रभावी प्रतिबंध है, वहां से प्राकृतिक गैस के आयात को रोकना. ऐसा करने से रूस पर आर्थिक बोझ बढ़ेगा, क्योंकि वह विदेशी मुद्रा से होने वाली आय हासिल करने से वंचित हो जाएगा. इसके साथ ही रूस से प्राकृतिक गैस आयात करने पर निर्भर और आर्थिक प्रतिबंध लगाने वाले यूरोपीयन देशों की भी आर्थिक और सामाजिक गतिविधियां बेहद सीमित हो जाएंगी. उनकी सीमित आर्थिक और सामाजिक गतिविधियों की वजह से बिजली की कमी के साथ प्राकृतिक गैस की कमी के कारण उपजने वाली अन्य समस्याएं भी उजागर हो जाएंगी.[2]
परस्पराधीनता का स्तर जितना अधिक होगा, आर्थिक प्रतिबंध भी उतने ही अधिक प्रभावी होंगे, लेकिन साथ ही साथ आर्थिक प्रतिबंध लगाने वाले देशों को स्वयं भी खुद को नुकसान पहुंचाने का खतरा उठाते हुए अपनी आर्थिक गतिविधियों और राष्ट्रीय नीतियों पर इसके प्रभाव को झेलना होगा. ऐसी समस्या अभी इसलिए दिखाई नहीं देती, क्योंकि प्रतिबंधों ने फ़िलहाल छोटी अर्थव्यवस्थाओं (उदाहरण के तौर पर विषम परस्पराधीनता वाले देशों) उत्तर कोरिया और ईरान को ही लक्ष्य किया है. लेकिन रूस के आकार वाली अर्थव्यवस्था को लक्ष्य बनाकर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों ने यह दिखा दिया है कि एक सिमेट्रिकल अर्थात सुडौल परस्पराधीन अर्थव्यवस्था पर प्रतिबंध लगाना कितना मुश्किल हैं. रूस के आकार की अर्थव्यवस्थाओं को लक्षित प्रतिबंधों की वजह से सिमेट्रिकल अर्थात सुडौल परस्पराधीन अर्थव्यवस्था वाले देशों को लक्षित करने की कठिनाई स्पष्ट हो गई.
दूसरा, लक्षित देश से जुड़ी राजनीतिक गणनाओं के कारण आर्थिक प्रतिबंधों की प्रभावशीलता सीमित हो सकती है. लक्षित देश पर आर्थिक प्रतिबंध, आर्थिक बोझ डालकर अपना प्रभाव पैदा करते हैं. ऐसे में लक्षित देश के लिए अपनी वर्तमान नीति को जारी रखना मुश्किल हो जाता है और नीति निर्माताओं को अपना निर्णय बदलने पर मजबूर होना पड़ता हैं. ऐसे में नीति निर्माता वहां के लोगों के जीवन को कठिन बनाकर सार्वजनिक दबाव बढ़ाते हैं. हालांकि, आर्थिक प्रतिबंध तब प्रभावी नहीं होंगे, जब नीति निर्माताओं के पास दृढ़ इच्छाशक्ति हो और उनका मानना हो कि उन पर डाले जा सकने वाले किसी भी आर्थिक बोझ की तुलना में उनकी अपनी नीति को जारी रखना ज़्यादा लाभदायक साबित होगा. उदाहरण के लिए, तानाशाही अधिकार रखने वाले उत्तर कोरिया में सर्वसर्वा किम जोंग-उन, अपने यहां के परमाणु विकास के मामले में यह मानते हैं कि परमाणु हथियारों का विकास और उन्हें अपने पास रखना उनके देश के अस्तित्व की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण मुद्दा है. इसी वजह से उन्होंने व्यापक आर्थिक कठिनाई के बीच भी परमाणु विकास बंद नहीं किया है. आर्थिक प्रतिबंधों की वजह से उत्तर कोरिया के लिए परमाणु विकास के लिए आवश्यक सामग्री प्राप्त करना असंभव हो जाना चाहिए. लेकिन वह इन सामग्रियों को प्राप्त करने में सफल और सक्षम रहा है. उसने स्वयं परमाणु सामग्री के विकास, तस्करी और प्रतिबंधों से बचने के अन्य तरीकों से अपनी परमाणु नीति को जारी रखा है. हालांकि उसके लिए परमाणु विकास के लिए आवश्यक निधि जुटाना मुश्किल होना चाहिए, लेकिन ऐसा माना जाता है कि वह साइबर स्पेस में क्रिप्टोकरंसी चुराकर अपनी इस ज़रूरत को पूरा कर रहा है.[3] ऐसे में यदि आर्थिक प्रतिबंध की ख़ामियों का लाभ उठाया जाएगा तो, ये प्रतिबंध प्रभावी साबित नहीं होंगे.
रूस के जीवाश्म ईंधन पर यूरोपीय देशों की इस निर्भरता का मतलब साफ़ है कि इसके परिणामस्वरूप यूरोप को रूस से जीवाश्म ईंधन की खरीद जारी रखनी होगी. ऐसे में यह साफ़ हो जाता है कि रूस को विदेशी मुद्रा मिलती रहेगी.
आर्थिक प्रतिबंध लगाने के फार्मूले को जनमत बहुत प्रभावित कर सकता है, क्योंकि आर्थिक प्रतिबंध अनिवार्य रूप से नागरिकों के जीवन को ही प्रभावित करते हुए सार्वजनिक असंतोष का निर्माण कर आर्थिक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाते हैं. हालांकि, तानाशाह और अधिकारवादी अर्थात दबंग राजनीतिक शासन के मामले में आमतौर पर जनमत को दबा दिया जाता है. ऐसे में आर्थिक प्रतिबंध उसी वक्त प्रभावी साबित होने की संभावना होती हैं, जब स्थानीय नागरिक चुनाव के माध्यम से अपनी नाराज़गी व्यक्त करें और इसकी वजह से नीति निर्माताओं की सोच पर भी असर पड़े. उदाहरण के तौर पर 2015 की ईरान परमाणु संधि पर फैसला इसलिए लिया जा सका, क्योंकि 2013 में ईरान में हुए राष्ट्रपति चुनावों में नरमपंथी उम्मीदवार हसन रूहानी ने जनता से वादा किया था कि वे आर्थिक प्रतिबंधों को हटाने की दिशा में काम करेंगे और जनता ने उन पर ऐसा करने का भरोसा व्यक्त किया था.
तीसरे, आर्थिक प्रतिबंधों का कोई रणनीतिक उद्देश्य होना चाहिए. दूसरे शब्दों में आर्थिक प्रतिबंध उस वक्त तक प्रभावी साबित नहीं होंगे, जब तक उन्हें लगाने के उद्देश्य स्पष्ट तौर पर लोगों को न बताएं जाएं. इस संबंध में, ईरान के ख़िलाफ़ आर्थिक प्रतिबंध उसके परमाणु विकास को रोकने के उद्देश्य से लागू किए गए थे. लेकिन चूंकि ईरान, परमाणु हथियारों को लेकर बनी अप्रसार संधि से कभी पीछे नहीं हटा और उसने अपने परमाणु विकास को ‘‘शांतिपूर्ण उद्देश्य’’ के रूप में जारी रखा, अत: आर्थिक प्रतिबंधों का बोझ अधिक हो गया. हालांकि, ईरान परमाणु समझौते ने मध्य पूर्व क्षेत्र में ईरान के पारंपरिक हथियारों के आधिपत्य पर अंकुश नहीं लगाया, अथवा इराक, लेबनान और यमन पर इसके प्रभाव को कम नहीं किया. उल्टे इसने इजराइल के लिए खतरा पैदा करना जारी रखा, जो कि आर्थिक प्रतिबंधों के परमाणु विकास से अलग, अन्य रणनीतिक लक्ष्यों में शामिल था. इसी वजह से अमेरिका में ट्रम्प प्रशासन, समझौते से हटने और एकतरफा प्रतिबंधों को फिर से लागू करने के लिए प्रेरित हुआ था. ये प्रतिबंध वर्तमान में अपने रणनीतिक लक्ष्यों को प्राप्त करने से दूर हैं. लेकिन यह आंशिक रूप से इस तथ्य के कारण है कि उसने ईरान पर अपने संकल्प को पार करने के लिए पर्याप्त आर्थिक बोझ नहीं डाला है. दूसरी समस्या यह है कि इस परमाणु समझौते और प्रतिबंधों से यूएस के एकतरफा हटने के समझौते में अनेक ख़ामियां हैं. इसकी वजह से अनेक देश अब प्रतिबंधों की वैधता पर लगे सवालिया निशानों की वजह से इसे लेकर सहयोग नहीं कर रहे हैं.
रूसी प्रतिबंधों के मामले में आर्थिक युद्ध
रूस के ख़िलाफ़ यूएस और ईयू की ओर से लगाए गए प्रतिबंध इसके पहले लगाए गए प्रतिबंधों की तुलना में न केवल विस्तृत है, बल्कि कठोर भी हैं. हालांकि, प्रभावशीलता के दृष्टिकोण से क्या वे रणनीतिक लक्ष्यों को प्राप्त कर सकते हैं, तो वे इस दृष्टि से संपूर्ण प्रतिबंध नहीं हैं. हालांकि उनका कुछ प्रभाव पड़ने की संभावना है.
रूस पर हद से ज़्यादा परस्पराधीन यूरोपियन देश ऊर्जा संबंधित प्रतिबंध लगाने को लेकर हिचकिचा रहे थे, क्योंकि तेल और प्राकृतिक गैस पर औचक पाबंदी लगाए जाने का यूरोपियन क्षेत्र में आने वाली अर्थव्यवस्थाओं और वहां के सामाजिक जीवन पर व्यापक प्रभाव पड़ने वाला था. दूसरी ओर यूएस, जो रूस पर कम निर्भर है, ऊर्जा प्रतिबंध लगाने का इच्छुक था. इसी वक्त, जी7 देश इस मामले को लेकर संयुक्त अंतर्राष्ट्रीय जवाब देता दिखना चाहते थे. लेकिन यूएस ने यह सुनिश्चित किया कि रूस को व्यक्तिगत तौर पर अन्य देशों के साथ बातचीत करने का अवसर न मिल सकें. यदि ऐसा होता तो जी7 की एकता बाधित होती और लगाए जाने वाले प्रतिबंधों का प्रभाव भी ढीला पड़ जाता. यूएस ने भी यूरोपियन देशों के कदम से कदम मिलाते हुए रूस के ख़िलाफ़ ऊर्जा प्रतिबंध लगाने के प्रस्तावों का खुलकर मजबूती से समर्थन नहीं किया. (यूएस ने अपनी अंदरुनी प्रतिबंध नीति की वजह से रूस तेल के आयात को निलंबित किया है.)
हालांकि, रूस इन प्रतिबंधों को पश्चिमी देशों तक सीमित रखने में सफल हो गया. ऐसा उसने मध्य पूर्वी और अफ्रीकी देशों (जिनके साथ वह संसाधनों के साथ अनाज, हथियारों का निर्यात करता है और अपने यहां के प्रायवेट मिलिट्री कंपनियों की सेवाएं उन देशों को मुहैया करवाने का प्रावधान उसने कर रखा है) के साथ अपने संबंधों के दम पर किया था. रूस ने कुछ ऐसा ही चीन और भारत के साथ कर दिखाया है. इन दोनों देशों का बर्ताव, जी7 देशों के बर्ताव से पूर्णत: भिन्न रहा है. इसी वजह से यहां इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि रूस के ख़िलाफ़ लगाए गए प्रतिबंधों पर अमल केवल पश्चिमी देशों तक सीमित हैं, जबकि रूस के शेष विश्व के साथ आर्थिक संबंध बदस्तूर जारी है.
रूस के ख़िलाफ़ प्रभावी आर्थिक प्रतिबंधों को लागू करने के लिए, कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस जैसे जीवाश्म ईंधन को रोकना महत्वपूर्ण है. यह जीवाश्म ईंधन, रूस के निर्यात का लगभग आधा हिस्सा है. और जब तक यूरोपीय संघ, जो रूस का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार और उस देश से होने वाले ऊर्जा निर्यात में 40 प्रतिशत से अधिक का हिस्सेदार है,[4] इसके आयात को नहीं रोकता, तब तक आर्थिक प्रतिबंधों का प्रभाव सीमित ही रहेगा. अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि यदि रूस के खिलाफ़ लगाए गए प्रतिबंधों पर अमल किया जाएगा तो इसमें चीन और भारत शामिल नहीं होंगे. ऐसे में एक ‘ख़ामी’ तैयार होगी, जो इसे कम प्रभावी बना देगी. लेकिन ईयू के बाद रूस का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार होने के बावजूद रूसी निर्यात में चीन की हिस्सेदारी केवल 15 प्रतिशत है, जबकि भारत की हिस्सेदारी महज एक प्रतिशत ही है[5] ऐसे में अगर ईयू ने 2022 के अंत तक रूस से निर्यात होने वाले तेल में 90 प्रतिशत की कटौती भी कर दी तो, चीन और भारत के लिए यह बेहद मुश्किल होगा कि वे यूरोप को निर्यात किए जाने वाले रूसी कच्चे तेल का संपूर्ण निर्यात अपने यहां करवा ले. ऐसे में प्रतिबंधों से बचने का यह छोटा सा रास्ता ही कहा जाएगा.
महत्वपूर्ण बात यह है कि जब यूरोपियन आयोग ने रूसी कच्चे तेल के आयात पर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव दिया तो चारों ओर भूमि से घिरे देश, हंगरी ने इसका जमकर विरोध किया. इसका कारण यह है कि वह पाइपलाइन के माध्यम से रूस से कच्चे तेल को प्राप्त करता है. इस वजह से समझौता होने में चार सप्ताह और लग गए थे. हंगरी की सरकार ने कभी भी अपने ईयू विरोधी रुख को छुपाया नहीं है. उसका दावा है कि ब्रसेल्स की ओर से लागू किए गए एकल बाजार संबंधी नियम उसके राष्ट्रीय हितों को प्रभावित करने वाले हैं. ईयू सदस्य देशों के बीच चल रही इस तनातनी और खिंचतान को रूसी राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन के उन प्रयासों में देखा जा सकता हैं, जिसमें पुतिन हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान के साथ अपने संबंधों को मजबूत करने के लिए करते हैं. ऐसा करते हुए पुतिन, ईयू देशों के बीच समन्वय को रोकने की कोशिश करते हुए देखे जाते हैं. दूसरे शब्दों में जब जी7 और ईयू देशों के बीच ही सहमति नहीं है तो इस स्थिति में आर्थिक प्रतिबंध लागू करना बेहद मुश्किल हो जाता है.
ईयू देशों के बीच यह अंदरुनी असामंजस्य उस वक्त और भी तेज़ हो जाता है जब बात प्राकृतिक गैस को लेकर लगाए जाने वाले प्रतिबंधों की आती है. जर्मनी, सेंट्रल और ईस्टर्न अर्थात मध्य और पूर्वी यूरोपीय देश, जो रूस से होने वाले प्राकृतिक गैस के आयात पर निर्भर करते हैं, के लिए प्राकृतिक गैस पर प्रतिबंध लगाने का मतलब उनके यहां आर्थिक गतिविधि और आम लोगों की जिंदगी का बुरी तरह प्रभावित होना है. क्योंकि नागरिक न केवल ऊर्जा के मुख्य स्त्रोत के ईंधन से वंचित रहेंगे, बल्कि उन्हें गर्म रहने और भोजन पकाने के लिए जो गैस चाहिए वह भी उपलब्ध नहीं होगी. कुछ आकलनों के अनुसार यदि जर्मनी ने प्राकृतिक गैस को लेकर लगाए गए प्रतिबंधों में हिस्सा लिया तो इसकी वजह से 220 बिलियन यूरो का नुकसान होगा.[6] कच्चे तेल के मामले में इसका भंडारण करना आसान होता है. इसी प्रकार रूस से दो-तिहाई कच्चे तेल का परिवहन समुद्री मार्ग से होता है. ऐसे में उम्मीद है कि इसका आयात अब मध्य पूर्व और अन्य तेल उत्पादक देशों से होने लगेगा, लेकिन प्राकृतिक गैस के मामले में यह संभव नहीं है.
यदि सामरिक लक्ष्य पुतिन शासन को उखाड़ फेंकना है, तो इसे प्राप्त करने का एकमात्र तरीका शासन के प्रति रूसी लोगों के बीच ही असंतोष बढ़ने की वजह से होने वाला विरोध और सरकार विरोधी आंदोलन ही होना चाहिए, लेकिन ऐसा आर्थिक प्रतिबंधों के माध्यम से प्रेरित करना मुश्किल होगा.
अधिकांश प्राकृतिक गैस का परिवहन पाइपलाइन के माध्यम से होता है. यदि ऐसा नहीं हुआ तो समुद्री मार्ग का उपयोग किया जाता है, तो इसे पहले ठंडा करने और बाद में पिघलाने वाली सुविधाओं की व्यवस्था करनी होगी. ऐसा होने पर ही इसका टैंकर से परिवहन संभव हो सकेगा और इसे दोबारा वाष्पीकृत किया जा सकेगा. इतना ही नहीं इसके लिए बड़े पैमाने पर भंडारण सुविधा भी तैयार करनी होगी, जिसका निर्माण नए सिरे से करना होगा. इसके अलावा पाइपलाइन के माध्यम से प्राकृतिक गैस के परिवहन और लिक्वीफाइड नैचुरल गैस अर्थात तरलीकृत प्राकृतिक गैस (एलएनजी) के परिवहन की लागत में भी भारी अंतर होता है. यदि रूस से मिलने वाले प्राकृतिक गैस के स्थान पर एलएनजी का उपयोग किया भी जाए तो भी इस पर लगने वाली लागत को गैस आपूर्ति के माध्यम से वसूल करना होगा. और पुन: इसकी वजह से अंतत: आर्थिक गतिविधियां और लोगों की जिंदगी प्रभावित होगी ही.
रूस के जीवाश्म ईंधन पर यूरोपीय देशों की इस निर्भरता का मतलब साफ़ है कि इसके परिणामस्वरूप यूरोप को रूस से जीवाश्म ईंधन की खरीद जारी रखनी होगी. ऐसे में यह साफ़ हो जाता है कि रूस को विदेशी मुद्रा मिलती रहेगी. रूसी गैस निर्यातक कंपनी गजप्रोम ने पोलैंड, बुल्गारिया, नेदरलैंड्स समेत अन्य देशों को गैस का निर्यात बंद कर दिया है, क्योंकि उन्होंने रुबल्स में भुगतान करना बंद कर दिया है. लेकिन दरअसल यह निर्यात रूस ने अपने प्रतिशोध संबंधी कारणों से बंद किया है.[7] रूस पर यह निर्भरता और मॉस्को की ओर से गैस आपूर्ति का उपयोग बतौर ‘हथियार’ करते हुए दबाव बनाने की कोशिशों के कारण ही ईयू के पैरों के नीचे से जमीन खिसक रही है और रूस के ख़िलाफ़ लगाए गए प्रतिबंधों पर पूर्णत: अमल नहीं हो पा रहा है. दूसरे शब्दों में, इस रूस के ख़िलाफ़ लगाए गए प्रतिबंधों की इस ‘ख़ामी’ के पीछे चीन अथवा भारत नहीं है, बल्कि इसका ज़िम्मेदार स्वयं यूरोप हैं. और इन मायनों के हिसाब से दरअसल इन प्रतिबंधों में ठीक वैसी ही ख़ामी वाला चरित्र दिखाई देता है, जैसा ख़ामी अथवा छेद ‘डोनट’ में पाया जाता है.
रूस के ख़िलाफ़ पश्चिमी देशों की ओर से लगाए गए प्रतिबंधों को पश्चिमी देशों का समर्थन करने वाले देशों ने तुरंत तय किया था. लेकिन जब इस पर अमल की बात आयी तो इन्हें अपूर्ण रूप से लागू किया गया, जिसकी वजह से इन प्रतिबंधों ने इन देशों को ही छोटा सा ही सही, लेकिन नुकसान पहुंचाया है. ये ‘बॉटम-अप’ आर्थिक प्रतिबंध कुछ इस तरह तैयार किए गए थे कि ये ज़्यादा से ज़्यादा नुकसान पहुंचाने वाले साबित हो, लेकिन इनमें एक मुख्य समस्या रह गई थी. वह यह है कि यह इस बात को साफ नहीं करते हैं कि इन प्रतिबंधों की वजह से रूस के बर्ताव में कैसा परिवर्तन आने की उम्मीद की जा रही थी. आर्थिक प्रतिबंधों को हमेशा ही अपने रणनीतिक उद्देश्य को लेकर स्पष्ट होना चाहिए. लेकिन पश्चिम ने रूस के ख़िलाफ़ प्रतिबंध इसलिए लागू किए, क्योंकि वह सीधे तौर पर युद्ध में शामिल होने के बाद इससे बाहर निकलने की स्पष्ट नीति तैयार नहीं कर पाया था.
यदि इनका रणनीतिक उद्देश्य यूक्रेन के ख़िलाफ़ रूस के आक्रामण को आर्थिक प्रतिबंधों के माध्यम से युद्ध विराम तक पहुंचाना और रूसी कब्जे वाले यूक्रेन के हिस्से को पुन: यूक्रेन के कब्जे में देकर रूसी सेना को वापस रूस भेजना है तो वर्तमान आर्थिक प्रतिबंधों में फिलहाल वह क्षमता नहीं दिखाई देती. अभी यह भी स्पष्ट नहीं है कि इस युद्ध को लेकर पुतिन का उद्देश्य आखिर क्या हैं. लेकिन अभी तो ऐसा लगता है कि पुतिन ने कीव पर तूफानी हमले और जेलेंस्की को सत्ता से बाहर करने का अपना आरंभिक लक्ष्य छोड़ दिया है. अब पुतिन ने रूसी सेनाओं को पूर्वी यूक्रेन में एकत्रित कर दिया है. वह डोनबास क्षेत्र के लुहान्सक तथा दोनेत्सक ओब्लास्ट्स पर संपूर्ण कब्जा करना चाहता है. इसके अलावा दक्षिणी ओब्लास्ट्स के ज़ेपोरिज़या और खेरसोन पर पूर्ण कब्जा चाहता है. जब तक इन रणनीतिक उद्देश्यों की पुर्नव्याख्या नहीं की जाती और भारी कीमत के बावजूद युद्ध जारी रहता है तो भी पुतिन की राजनीतिक इच्छाशक्ति मजबूत ही रहेगी. ऐसे में यदि इन आर्थिक प्रतिबंधों की वजह से लोगों का जीवन बुरी तरह प्रभावित भी हुआ तो भी, पुतिन इसे आर्थिक बोझ के रूप में स्वीकार करते हुए युद्ध को बंद करने का कारण नहीं मानेंगे. यदि पश्चिमी शक्तियों का रणनीतिक लक्ष्य रूसी सेना को वापस भेजने पर मजबूर करना है, तो उन्हें प्राकृतिक गैस प्रतिबंध के बिंदु तक जाकर मजबूत प्रतिबंध लगाने के कदम उठाने की आवश्यकता है. भले ही इससे उन्हें खुद ही चोट क्यों न पहुंचे.
यदि सामरिक लक्ष्य पुतिन शासन को उखाड़ फेंकना है, तो इसे प्राप्त करने का एकमात्र तरीका शासन के प्रति रूसी लोगों के बीच ही असंतोष बढ़ने की वजह से होने वाला विरोध और सरकार विरोधी आंदोलन ही होना चाहिए, लेकिन ऐसा आर्थिक प्रतिबंधों के माध्यम से प्रेरित करना मुश्किल होगा. अगर जनता के बीच असंतोष पैदा हो भी जाता है तो, सरकार विरोधी आंदोलन के गति हासिल करने की संभावना कम ही है. इसका कारण यह है कि वहां सरकार विरोधी आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं को या तो अप्राकृतिक दुर्घटना के माध्यम अथवा जहरीले इंजेक्शन देकर रास्ते से हटा दिया जाता है. इसके साथ ही भले ही रूस, चुनाव के माध्यम से सत्ता परिवर्तन करने में सक्षम हो, लेकिन वहां होने वाले चुनावों को निष्पक्ष कहना बेमानी ही होगा. वहां विभिन्न तरह के चुनाव से संबंधित फ़र्जीवाड़े की खबरें आती रहती हैं.[8] ऐसा अंतर्राष्ट्रीय निगरानी एजेंसियों की मौजूदगी के बावजूद होता है. इन स्थितियों में यह सोचना भी बेहद मुश्किल है कि आर्थिक प्रतिबंधों की वज़ह से वहां की जनता पर पड़ने वाली गरीबी की मार के कारण सत्ता में परिवर्तन करना संभव है. इसी प्रकार पुतिन शासन का समर्थन करने वाले ओलिगार्क अर्थात कुलीन लोगों (नए उभरते समूह) पर भी प्रतिबंध लगाकर उनकी संपत्तियों को अवरुद्ध कर दिया गया है. लेकिन फिलहाल ऐसे कोई संकेत दिखाई नहीं दे रहे हैं कि वे अर्थात ओलिगार्क, पुतिन सरकार को सत्ता से बाहर करना चाहते हैं. ऐसे में वहां सत्ता परिवर्तन की उम्मीद नहीं की जा सकती.
ऐसे में, पश्चिमी शक्तियों की ओर से लागू किए गए आर्थिक प्रतिबंधों का उद्देश्य क्या है? संभवत: इसका उद्देश्य युद्ध की कीमत को बढ़ाना है, ताकि युद्ध को लंबा खिंचने की क्षमता को प्रभावित किया जा सकें. लेकिन जब तक यूरोप, चीन, भारत और अन्य देश रूस से तेल और प्राकृतिक गैस खरीदते रहेंगे, तब तक रूस के पास युद्ध जारी रखने के लिए पैसा होगा, लेकिन उससे भी ज़्यादा परेशानी की बात यह है कि यह युद्ध इसकी वजह से और महंगा होगा. इसके अलावा, प्रतिबंधों ने रूसी कच्चे तेल को काफी डिस्काउंट अर्थात छूट देकर बेचने पर मजबूर किया है. मुख्य रूप से रूसी कच्चे तेल यूराल की कीमत, उत्तरी सागर ब्रेंट और अन्य तेल उत्पादों की तुलना में लगभग 40 अमेरिकी डॉलर सस्ता मिल रहा है. इसके अलावा, आर्थिक प्रतिबंधों की सूची में विदेशी मुद्राओं में अंकित रूसी सरकार के बांड जारी करने पर भी प्रतिबंध को शामिल किया गया है. ऐसे में रूस के लिए युद्ध व्यय के वित्तपोषण के लिए युद्ध बांड जारी करना भी कठिन काम हो जाता है.
इन परिस्थितियों को देखते हुए, यह संभावना नहीं बनती है कि आर्थिक प्रतिबंधों का उद्देश्य तत्काल युद्धविराम, रूसी सैनिकों की वापसी या वहां की सत्ता का परिवर्तन करना है. एक संभावना यह है कि इन आर्थिक प्रतिबंधों को इस उम्मीद में लागू किया गया है कि रूस की ओर से युद्ध जारी रखने की सूरत में उसकी लागत में वृद्धि होने की संभावना है. ऐसा होने पर संभवत: किसी बिंदु पर रूस के पास धन की कमी होगी और वह युद्ध से बाहर हो जाएगा. इसके अलावा यह भी उम्मीद की जा रही है कि ऐसी स्थिति में रूस की आबादी और रूसी सेना लड़ाई जारी रखने से इंकार कर देगी. इसके साथ ही यह भी माना जा रहा है कि रूस के खिलाफ़ लगाए गए प्रतिबंधों में कुछ उत्पाद केंद्रित प्रतिबंध भी शामिल हैं, जिनकी वज़ह से रूस के लिए सेमीकंडक्टर और अन्य उच्च-तकनीकी उत्पादों को हासिल करना कठिन हो जाएगा. इस वज़ह से रूस के लिए हथियारों के उत्पादन के लिए आवश्यक पुर्ज़े और अन्य वस्तुओं और धन को प्राप्त करना अधिक कठिन होगा. अंतत: इसकी वज़ह से युद्ध जारी रखने की रूस की क्षमता भी प्रभावित होगी.
निष्कर्ष: प्रतिबंधों के परिणाम
रूस के खि़लाफ़ आर्थिक प्रतिबंध मुख्यत: जी7 देशों की ओर से लगाए गए हैं. क्योंकि रूस ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अपनी वीटो शक्ति का प्रयोग करते हुए यह सुनिश्चित कर दिया है कि संयुक्त राष्ट्र इस मामले को लेकर उपाय करने की दिशा में कोई कदम नहीं उठा सकता. अब जी7 देशों ने खुद को पश्चिमी देशों के साथ संरेखित करते हुए रूस पर यह दबाव बनाने की कोशिश की है कि इस युद्ध को जारी रखना उसके लिए मुश्किल हो जाए. हालांकि, आर्थिक प्रतिबंध न केवल लक्षित देशों को प्रभावित करते हैं, बल्कि यह इन्हें लागू करने वाले देशों की व्यापारिक गतिविधियों और वहां के लोगों के जीवन पर भी असर डालते हैं. लेकिन इन्हें जनता के समर्थन के साथ लागू किया गया है ताकि रूस को अंतर्राष्ट्रीय कानून का उल्लंघन करते हुए बल प्रयोग करने के लिए दंडित किया जा सके और यूक्रेन के लोगों को बचाया जा सके.
हालांकि, इन आर्थिक प्रतिबंधों का तत्काल परिणाम नहीं मिलने वाला है. ऐसे में जब तक युद्ध चलता रहेगा ये प्रतिबंध भी जारी रहेंगे. इतना ही नहीं अगर युद्ध विराम हो भी गया तो भी इन्हें हटा लेना मुश्किल होगा. क्योंकि जब तक कि अंतर्राष्ट्रीय मानवीय कानून (समर्थक रूसी बलों सहित) का उल्लंघन करते हुए यूक्रेनी भूमि पर से रूस का कब्ज़ा समाप्त नहीं हो जाता तब तक ये प्रतिबंध चलते रहेंगे. चूंकि प्रतिबंधों को लगाने का उद्देश्य स्पष्ट तौर पर बताया नहीं गया था, अत: यह भी स्पष्ट नहीं है कि इन्हें किन परिस्थितियों में हटाया जाएगा. नतीजतन, इस बात की संभावना ज़्यादा है कि प्रतिबंधों को हटाए जाने का कोई मौका दिए बगैर प्रतिबंध जारी रहेंगे.
जबकि, इसे हासिल करने में काफी समय लगेगा. क्योंकि इसके लिए एलएनजी भंडारण और वाष्पीकरण सुविधाओं और अन्य संबंधित बुनियादी ढांचे के विकास की जरूरत होगी. जर्मनी ने एलएनजी को वाष्पीकृत करने की सुविधाओं वाले पांच जहाजों को खरीदा हैं, लेकिन यह केवल अस्थायी व्यवस्था ही कही जाएगी.[9] यदि प्रतिबंधों को गंभीरता से प्रभावी होना है, तो रूस पर निर्भरता को पहले से भी अधिक कम करना ही महत्वपूर्ण साबित होगा.
हालांकि, यहां चिंता का विषय ‘सैंक्शन फटिग’ अर्थात ‘प्रतिबंधों की थकान’ है. जब तक ये प्रतिबंध लागू रहेंगे, तब तक इन्हें लागू करने वाले देशों को भी पीड़ा झेलनी होगी, जिसके आर्थिक दुष्परिणाम भी होंगे. पहले ही तेल की बढ़ती कीमतों की वज़ह से लोगों का जीवन प्रभावित हो रहा है. इसके साथ ही वैश्विक अनाज मूल्य में भी वृद्धि हो रही हैं, क्योंकि रूस ने अपने ब्लैक सी फ्लीट से यूक्रेन से निर्यात रोक दिया है. दैनिक जीवन के लिए आवश्यक कच्चे माल की बढ़ती कीमतें लोगों के जीवन को मुश्किल बनाते हुए रूस के साथ व्यापार को कम कर देगी. ऐसे में कुछ कंपनियों के लिए व्यवसाय को जारी रखना असंभव हो जाएगा. इससे उन देशों में भी लोग असंतुष्ट हो जाएंगे, जहां प्रतिबंध लगे हुए हैं. ऐसे में पश्चिमी देशों में सत्तारूढ़ दल के लिए अपनी सत्ता का प्रबंधन करना और अधिक कठिन होगा और परिणामस्वरूप उनके समर्थन में गिरावट आएगी. यदि ऐसा हुआ तो एक वक़्त ऐसा भी आएगा जब यूक्रेन में युद्ध जारी रहने के बावजूद आर्थिक प्रतिबंधों को हटाने की कोशिश की जाएगी. इसके साथ ही पश्चिमी देशों के बीच जो संरेखन या गठबंधन है, वह भी इसकी वजह से बाधित होने लगेगा. और रूस इस स्थिति का लाभ ऐसे देशों को तेल और प्राकृतिक गैस सस्ते दामों पर बेचकर उन देशों को अपने नज़रिये का समर्थन करने के लिए अपने पक्ष में करने के लिए कर सकता है. इसके अलावा, पश्चिमी सरकारों के भीतर बेचैनी पैदा करने के लिए रूस अपने यहां से उत्पन्न होने वाले विभिन्न दुष्प्रचार और प्रचार को सोशल नेटवर्किंग सेवाओं के माध्यम से फैलाने की कोशिश करेगा.
पश्चिमी देश यूक्रेन में अपनी सेना भेजकर रूस के साथ सीधे मुकाबला नहीं करना चाहते. ऐसे में यह ज़रूरी हो जाता है कि रूस की युद्ध जारी रखने की क्षमता को कमजोर करने के लिए उसके खि़लाफ़ आर्थिक प्रतिबंध लगाना जारी रखा जाए, ताकि यूक्रेन के लिए युद्ध में बने रहना आसान हो सके. लेकिन अगर अपने यहां बढ़ती ऊर्जा कीमतों और अर्थव्यवस्था को हो रहे नुक़सान की वजह से पश्चिमी देश आर्थिक प्रतिबंध को रोक देते हैं तो इसका रूस को फ़ायदा होगा और वह यूक्रेन के ख़िलाफ़ अपने हमलों को और तेज़ करने लगेगा.
यूक्रेन पर रूसी आक्रमण एक ऐसी घटना है जो अंतर्राष्ट्रीय कानून के विपरीत है और इसे नज़रअंदाज नहीं किया जाना चाहिए. जून 2022 में बुचा नरसंहार के साथ ही रूस द्वारा किया गया बल प्रयोग हिंसक और अमानवीय है. इन कृत्यों को जारी रखने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. पश्चिमी देश यूक्रेन में अपनी सेना भेजकर रूस के साथ सीधे मुकाबला नहीं करना चाहते. ऐसे में यह ज़रूरी हो जाता है कि रूस की युद्ध जारी रखने की क्षमता को कमजोर करने के लिए उसके खि़लाफ़ आर्थिक प्रतिबंध लगाना जारी रखा जाए, ताकि यूक्रेन के लिए युद्ध में बने रहना आसान हो सके. लेकिन अगर अपने यहां बढ़ती ऊर्जा कीमतों और अर्थव्यवस्था को हो रहे नुक़सान की वजह से पश्चिमी देश आर्थिक प्रतिबंध को रोक देते हैं तो इसका रूस को फ़ायदा होगा और वह यूक्रेन के ख़िलाफ़ अपने हमलों को और तेज़ करने लगेगा. इस युद्ध को खत्म करने के लिए यह ज़रूरी है कि आर्थिक प्रतिबंधों को और अधिक कड़ा किया जाए. इसके लिए सरकारों को अपने नागरिकों को यह बात समझानी होगी कि आखिर आर्थिक प्रतिबंध लगाना जारी रखना क्यों महत्वपूर्ण है. नागरिकों को यह बात भी समझानी होगी कि आखिर इनका उद्देश्य क्या है और क्यों इन्हें लागू करते हुए ‘प्रतिबंध की थकान’ से बचना ज़रूरी है.
अंतत: पश्चिम के साथ ही दुनिया को अब भविष्य में आर्थिक युद्ध के लिए तैयार रहना होगा. ठीक यही कारण है कि जापानी डायट (संसद) ने मई 2022 में आर्थिक सुरक्षा को बढ़ावा देने को लेकर एक कानून पारित किया था. यह कानून विदेशी आपूर्ति पर अत्यधिक के मामले में सरकार को वाणिज्यिक गतिविधियों में हस्तक्षेप करने का अधिकार प्रदान करता है. आर्थिक युद्ध के दौर में, निर्भरता - जैसे यूरोप की रूसी तेल और गैस पर निर्भरता - एक कमज़ोरी कही जाएगी. आयुध का एक रूप आर्थिक सुरक्षा को मजबूत करना और आपूर्ति श्रृंखला के लचीलेपन में सुधार करना भी है. इसके साथ ही देश को आपूर्ति श्रृंखलाओं को अपरिहार्य बनाने के लिए औद्योगिक और तकनीकी क्षमताओं का निर्माण करना राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा कही जा सकती है.
(यह संक्षिप्त पहली बार जीपी-ओआरएफ़ सीरीज़ फ्यूचर वॉरफेयर एंड टेक्नोलॉजीस्: इश्यूज एंड स्ट्रैटेजीज में प्रकाशित हुआ था.)
ENDNOTES
[1] US Department of State, Department of the Treasury and Department of Commerce, US Treasury-Commerce Alert: Impact of Sanctions and Export Controls on Russia’s Military-Industrial Complex, 2022; European Council, EU restrictive measures against Russia over Ukraine (since 2014); Centre for Information on Trade Security Council, CISTEC service on sanctions on Russia (Japanese only).
[2] Mark Flanagan, Alfred Kammer, Andrea Pescatori , and Martin Stuermer, “How a Russian Natural Gas Cutoff Could Weigh on Europe’s Economies,” IMF Blog, July 19, 2022.
[3] Choe Sang-Hun and David Yaffe-Bellany, “How North Korea Used Crypto to Hack Its Way Through the Pandemic,” New York Times, July 1, 2022.
[4] “In focus: Reducing the EU’s dependence on imported fossil fuels,” European Commission, 20 April 2022.
[5] “How much oil, gas and coal India imports from Russia,” The Times of India, Feb 17, 2022.
[6] “Joint Economic Forecast: From Pandemic to Energy Crisis: Economy and Politics under Stress,” Kiel Institute for the World Economy, April 13, 2022.
[7] America Hernandez and Zia Weise, “Dutch and Danish gas buyers warn of Russian shutoff,” Politico, May 30, 2022.
[8] Rodion Skovoroda and Tomila V Lankina, “Fabricating votes for Putin: New tests of fraud and electoral manipulations from Russia,” Post-Soviet Affairs (2016), pp. 1-24.
[9] Federal Ministry for Economic Affairs and Climate Action, Government of Germany, September 1, 2022.
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