द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के ज़माने में जो बहुपक्षीय संरचना स्थापित की गई थी उसने वैश्विक शासन और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को मज़बूत बनाने में नये अध्याय को शुरू किया था. इन संरचनाओं में स्वतंत्र नौकरशाही के साथ औपचारिक संस्थान शामिल थे जहां बड़ी संख्या में देश बातचीत करने के लिए जमा होते थे और वैश्विक चुनौतियों के समाधान के लिए नियम बनाते थे.
लेकिन मौजूदा समय में वैश्विक सहयोग का आदर्श दृष्टिकोण धीरे-धीरे ग़ायब हो गया है. आज के समय में सर्वसम्मति नामुमकिन लगती है और सुधार दूर-दूर तक नहीं दिखते हैं. वहीं निहित स्वार्थ और संस्थागत निष्क्रियता फ़ैसले लेने में रुकावट बनी हुई है. उदाहरण के लिए, व्यापार बातचीत के दोहा चरण को त्याग दिया गया है, वहीं संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी देशों का विस्तार पहुंच से बाहर लगता है. कोविड-19 महामारी ने बहुपक्षवाद की कमज़ोरी से बड़ी राहत पहुंचाई है क्योंकि अलग-अलग देशों ने इन संगठनों की उपयोगिता पर सवाल उठाए हैं.
ऐसे में मिनी-लैटरल या कुछ देशों का छोटा समूह बहुपक्षवाद की विफलता के समाधान के तौर पर देखा जा रहा है और ये सहयोग और वैश्विक शासन का अच्छा विकल्प प्रदान करता है. छोटे समूह में साझा हितों और मूल्यों वाले देशों को मृतप्राय संरचना से बाहर निकलने का मौक़ा मिलता है और वो एक समान चिंता वाले मुद्दों को सुलझा सकते हैं. जी-20 इसका एक उदाहरण है जिसकी स्थापना 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के जवाब में की गई थी और जिसका मक़सद दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देना था.
छोटे समूह में साझा हितों और मूल्यों वाले देशों को मृतप्राय संरचना से बाहर निकलने का मौक़ा मिलता है और वो एक समान चिंता वाले मुद्दों को सुलझा सकते हैं. जी-20 इसका एक उदाहरण है जिसकी स्थापना 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के जवाब में की गई थी
इसी तरह मिनी-लैटरल नये क्षेत्रीय युद्धक्षेत्र जैसे इंडो-पैसिफिक में रक्षा और सुरक्षा सहयोग को मज़बूत करने का मंच भी प्रदान कर सकते हैं. इस क्षेत्र में सुरक्षा सहयोग के महत्व की वजह से कई मिनी-लैटरल जैसे क्वॉड, भारत-जापान-अमेरिका त्रिकोण और भारत-फ्रांस-ऑस्ट्रेलिया त्रिकोण की स्थापना हुई है ताकि समान विचार वाले देशों के हितों को आगे बढ़ाया जा सके.
लचीली, अस्थायी और ख़ास दृष्टिकोण
ये व्यवस्थाएं अस्थायी, लचीली और स्वैच्छिक हैं और इनके लिए व्यापक दृष्टिकोण की जगह ख़ास दृष्टिकोण की ज़रूरत होती है. छोटी सदस्यता की वजह से यहां फ़ैसले जल्दी हो सकते हैं और महत्वपूर्ण मुद्दों पर नीतिगत समन्वय आसान है. मिनी-लैटरल देश कई मायनों में भारत जैसे देशों, जिनके पास संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद जैसे बड़े मंचों पर इस तरह के फ़ैसले लेने की क्षमता नहीं है, उनकी हिस्सेदारी के लिए भी रास्ता मुहैया कराते हैं.
इसके साथ-साथ ये सवाल भी हैं कि क्या अलग-अलग संरचना की उलझन वाकई बहुपक्षवाद की प्रभावहीनता का समाधान कर सकती है. मिनी-लैटरल क़ानूनी तौर पर अनिवार्य की जगह स्वैच्छिक और बिना बाध्यकारी लक्ष्य की प्रतिबद्धता को बढ़ावा देते हैं. इससे अनुपालन और जवाबदेही के मुद्दे खड़े होते हैं जो वैश्विक शासन और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के लक्ष्य को नाकाम कर सकते हैं. उदाहरण के तौर पर, जी20 का म्युचुअल एसेसमेंट प्रोसेस (एमएपी)- जहां सदस्य देश राष्ट्रीय आर्थिक योजना को साझा करते हैं और उसके संभावित नकारात्मक असर का ख़ुलासा करते हैं- की आलोचना व्यवहार में ‘शक्तिहीन’ होने की वजह से की गई है. इस संदर्भ में गुणात्मक और संख्यात्मक तौर पर ये मापना मुश्किल है कि मिनी-लैटरल समूहों के ज़रिए वास्तविक नतीजा क्या हासिल हो रहा है.
मिनी-लैटरल क़ानूनी तौर पर अनिवार्य की जगह स्वैच्छिक और बिना बाध्यकारी लक्ष्य की प्रतिबद्धता को बढ़ावा देते हैं. इससे अनुपालन और जवाबदेही के मुद्दे खड़े होते हैं जो वैश्विक शासन और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के लक्ष्य को नाकाम कर सकते हैं.
इससे भी बढ़कर, मिनी-लैटरल देशों के लिए किसी भी तरह की प्राथमिकता अंतरर्राष्ट्रीय संगठनों की क्षमता और वैधता को खोखला करते हैं. मिनिलैटरल की वजह से अलग-अलग देशों के लिए बहुपक्षीय संरचना के साथ भागीदारी करने का प्रोत्साहन कम होता है. इससे बहुपक्षीय संरचना का न सिर्फ़ महत्व कम होता है बल्कि उनके कार्यक्रमों में भी रुकावट आती है. उदाहरण के लिए, विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ के क्षेत्रीय कार्यालय स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा और बाल संरक्षण की घरेलू योजनाओं को लागू करने में महत्वपूर्ण तकनीकी और प्रबंधकीय समर्थन मुहैया कराने के लिए अलग-अलग सरकारों के साथ मिलकर काम करते हैं. बहुपक्षीय संगठन क़ानूनी तौर पर बाध्यकारी समझौतों जैसे समुद्र के क़ानून पर संयुक्त राष्ट्र समझौते को लेकर सर्वसम्मति बनाने में भी मदद करते हैं. ये समझौता मिनीलैटरल सहयोग के लिए भी नियम आधारित संरचना की बुनियाद है.
इसके अतिरिक्त मिनीलैटरल वैश्विक शासन के तौर-तरीक़ों को भी बांट सकते हैं और ख़ास ताक़तवर देशों के गुट के निर्माण को भी बढ़ावा दे सकते हैं. चीन की अगुवाई वाला शंघाई सहयोग संगठन और एशियाई इंफ्रास्ट्रक्चर और इन्वेस्टमेंट बैंक एक तरफ़ है, वहीं पश्चिमी देशों की अगुवाई वाला जी-20 और जी-7 दूसरी तरफ़ है. प्रतिस्पर्धी गुटों का निर्माण मुक़ाबले को बढ़ा सकता है और सहयोग की संभावना को कम कर सकता है.
हालांकि, मिनीलैटरल सर्वसम्मति बनाने में तेज़ी ला सकते हैं और नीतिगत समन्वय को आसान बना सकते हैं, लेकिन ये स्पष्ट नहीं है कि ठोस नतीजे हासिल करने में वो बहुपक्षीय संगठनों के मुक़ाबले वास्तव में बेहतर है. बहुपक्षीयवाद की सभी ख़राबियों का हल अगर हम मिनीलैटरल में तलाशते हैं तो जोख़िम इस बात का है कि हम दीर्घकालीन फ़ायदे के ऊपर कुछ समय के फ़ायदे को प्राथमिकता दे रहे हैं. इसकी क़ीमत हमें उम्मीद से ज़्यादा चुकानी पड़ सकती है.
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