Published on Jan 09, 2023 Updated 0 Hours ago

दो भागों की श्रृंखला के दूसरे हिस्से में ये तर्क दिया गया है कि साइबर स्पेस के विस्तार से मानवाधिकार की नई पीढ़ी की ज़रूरत पैदा होने को लेकर चर्चा प्राथमिक रूप से अकादमिक है.

Human Rights: क्या हमें साइबर स्पेस के लिए मानवाधिकार की नई पीढ़ी की ज़रूरत है?
Human Rights: क्या हमें साइबर स्पेस के लिए मानवाधिकार की नई पीढ़ी की ज़रूरत है?

क्या साइबर स्पेस (Cyber Space) के लिए मानवाधिकारों (Human Rights) को फिर से परिभाषित करने की ज़रूरत है?

एक तरफ़ तो हम ऐसे युग में जी रहे हैं जहां साइबर (Cyber) के मामले में हम एक-दूसरे पर निर्भर हैं. नई समस्याओं का उदय हुआ है जैसे कि तकनीकी नेटवर्क (Technology Network) तक पहुंच (ब्रॉडबैंड समेत), प्राइवेसी की रक्षा (Privacy Protection) , भुलाने का अधिकार, साइबर स्पेस (Cyber Space) में दादागीरी, किसी विषय पर जानकारी इकट्ठी करना, साइबर अपराध (Cyber Crime) नेटवर्क तटस्थता, व्यक्तिगत जानकारी जमा करना, पारदर्शिता, एल्गोरिदम (Algorithm) और कई अन्य. इन समस्याओं की वजह से अतिरिक्त या नये अधिकारों (New Rights of Cyber) की मांग खड़ी होती है. 

भले ही मानवता औद्योगिक युग को छोड़कर सूचना युग में पहुंच गई हो लेकिन मानवीय गरिमा अपरिवर्तनशील है. इसको बदलने की कोई आवश्यकता नहीं है. समस्या ये नहीं है कि नये अधिकार ग़ायब हैं. समस्या ये है कि नये तकनीकी माहौल में पुराने अधिकारों का सम्मान नहीं होता है. 

दूसरी तरफ़ मानवाधिकार की जड़ में मानवीय गरिमा की रक्षा है. भले ही मानवता औद्योगिक युग को छोड़कर सूचना युग में पहुंच गई हो लेकिन मानवीय गरिमा अपरिवर्तनशील है. इसको बदलने की कोई आवश्यकता नहीं है. समस्या ये नहीं है कि नये अधिकार ग़ायब हैं. समस्या ये है कि नये तकनीकी माहौल में पुराने अधिकारों का सम्मान नहीं होता है. 

दुनिया ने संचार की एक क्रांति देखी है. इस क्रांति में अन्य बातों के अलावा सैटेलाइट कम्युनिकेशन, मोबाइल टेलीफ़ोनी, इंटरनेट, स्मार्टफ़ोन, टैबलेट, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) शामिल हैं. इन सभी आविष्कारों का अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के लिए तात्पर्य है. इन्होंने नये अवसरों का निर्माण किया है, जैसे कि सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए समय और जगह की बाधाओं को दूर करना. लेकिन इनकी वजह से नये जोखिम भी पैदा हुए हैं जैसे कि फेक न्यूज़ और निगरानी. मगर इन्होंने खुले रूप से संवाद करने की मानवीय इच्छा का स्वभाव नहीं बदला है. 

सूचनाओं को स्वतंत्र करना और इंटरनेट का जन्म

इन चर्चाओं के दो उदाहरण हैं 70 के दशक में नई विश्व सूचना एवं संचार व्यवस्था (NWICO) और सूचना समाज पर विश्व शिखर सम्मेलन (WSIS) के दौरान बहस (2002-2005). 

50 के दशक के बाद अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के नये-नवेले स्वतंत्र देश संयुक्त राष्ट्र (UN) के सदस्य बन गये और उन्होंने राष्ट्रीय संचार प्रणाली के विकास की मांग की. जनसंचार माध्यमों से नियंत्रण हटने का मामला सूचना स्वतंत्रता बनाम कंटेंट पर नियंत्रण के बीच बहस में उलझ गया. सैटेलाइट के ज़रिए टीवी कार्यक्रमों के वितरण ने विवाद को बढ़ा दिया और कुछ देशों की सरकारों को अपने आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप का डर सताने लगा. कुछ अन्य देशों की सरकारों को अपनी सांस्कृतिक पहचान को नुक़सान होने का डर होने लगा. 1972 में यूनेस्को ने सामान्य सिद्धांतों पर एक घोषणापत्र को अपनाया. संयुक्त राष्ट्र की बाहरी अंतरिक्ष समिति ने डायरेक्ट ब्रॉडकास्ट सैटेलाइट टेलीविज़न पर समझौते के एक मसौदे को लेकर चर्चा के बाद एक ग़ैर-बाध्यकारी संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव की सिफ़ारिश की. 

सैटेलाइट कम्युनिकेशन के इर्द-गिर्द बहस को जल्द ही बेहद व्यापक NWICO पर चर्चा ने फीका कर दिया. इस चर्चा के मूल में था विकासशील देशों के लिहाज़ से वैश्विक सूचना प्रवाह को फिर से संतुलित करना और सांस्कृतिक संप्रभुता की रक्षा करना.

सैटेलाइट कम्युनिकेशन के इर्द-गिर्द बहस को जल्द ही बेहद व्यापक NWICO पर चर्चा ने फीका कर दिया. इस चर्चा के मूल में था विकासशील देशों के लिहाज़ से वैश्विक सूचना प्रवाह को फिर से संतुलित करना और सांस्कृतिक संप्रभुता की रक्षा करना. 1976 में नैरोबी में हुए 19वें यूनेस्को सम्मेलन में एक जन संचार घोषणापत्र को अपनाया गया और संचार के अध्ययन के लिए एक स्वतंत्र आयोग की स्थापना की गई. इसके परिणामस्वरूप आई मैकब्राइड रिपोर्ट में एक पुराने संघर्ष को फिर से ज़िंदा कर दिया गया. ये संघर्ष है स्वतंत्रता बनाम सेंसरशिप. 

90 के दशक की शुरुआत में किसी भी देश की सरकार ने उम्मीद नहीं की थी कि एक तकनीकी प्रोटोकॉल यानी TCP/IP, जिसने सीमा से परे डिजिटाइज़्ड कंटेंट को ट्रांसमिट करने के लिए कंप्यूटर के कनेक्शन को शुरू किया, संचार की दुनिया को बदल देगा. 1997 में केविन वेरबैक ने दलील दी कि नियंत्रण की ग़ैर-मौजूदगी ने इंटरनेट क्रांति को बढ़ावा दिया. नेटवर्कों का विकेंद्रित नेटवर्क, जिसने एक सीमाहीन जगह का निर्माण किया, इंटरनेट से पहले के युग के सीमायुक्त क्षेत्र से अलग था. जहां परंपरागत संचार मीडिया यानी प्रेस, प्रसारण और टेलीग्राफ़ी वर्गीकरण के मामले में संगठित थे और उन्हें ऊपर से आसानी से नियंत्रित किया जा सकता था, वहीं इंटरनेट ऐसा नेटवर्क है जहां नियंत्रण का कोई केंद्र बिंदु नहीं है. इंटरनेट का मूल केंद्र “गूंगा” है, उसकी बुद्धि किनारे में है. ये एक समर्थ बनाने वाली तकनीक है जो उपयोगकर्ताओं और प्रोवाइडर्स को बिना किसी इजाज़त के संचार और नई चीज़ों के निर्माण की अनुमति देती है. अगर ई-मेल सीमा के पार भेजा जाता है तो कोई छानबीन नहीं होती है. मानवाधिकार के सार्वभौमिक घोषणापत्र के अनुच्छेद 19 का सपना वास्तविकता में बदल गया. 

2014 में नेट मुंडियाल विश्व सम्मेलन के दौरान इंटरनेट और मानवाधिकार को लेकर चर्चा हुई. साओ पाउलो नेट मुंडियाल बहुभागीदार बयान कहता है कि मानवाधिकार सार्वभौमिक है जो सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणापत्र में भी दिखता है और इसे इंटरनेट शासन व्यवस्था के सिद्धांतों को सहारा देना चाहिए.

ये कोई हैरानी की बात नहीं है कि 2002 में सूचना समाज पर विश्व शिखर सम्मेलन ने सूचना को लेकर अधिकारों और सरकारी एवं ग़ैर-सरकारी भागीदारों की भूमिका के बारे में बहस को फिर से शुरू कर दिया. कुछ प्रस्तावों में डिजिटल युग के लिए नये अधिकारों जैसे कि संवाद करने के अधिकार को स्थापित करने को भी शामिल किया गया. यूनेस्को ने इस धारणा को आगे बढ़ाते हुए एक रिपोर्ट जारी की जिसकी वजह से स्पष्टता से ज़्यादा विवाद खड़े हुए. एक सवाल जो खड़ा हुआ वो ये था कि क्या संचार के असंतुलित प्रवाह का स्रोत अनुच्छेद 19 है. इसका जवाब सरल था: अनुच्छेद 19 की क़ानूनी धारणा नहीं बल्कि अलग-अलग सरकारों की नीति और मीडिया उद्योग की परिपाटी समस्याएं खड़ी करती हैं. दूसरा सवाल ये था कि संवाद करने का अधिकार मौजूदा नियामक रूप-रेखा को कैसे प्रभावित करेगा? यहां भी जवाब सरल था. ये सिर्फ़ कंटेंट पर नियंत्रण या नियंत्रण हटाने के बारे में सदियों पुरानी बहस को फिर से जन्म देगा. सर्वश्रेष्ठ परिस्थितियों में भी ये एक और अनुच्छेद 19 को जन्म देगा जबकि सबसे ख़राब स्थिति में ये व्यक्तिगत अधिकारों और सरकारों की भूमिका के बीच मौजूदा नियामक संतुलन को कमज़ोर कर सकता है. तीन साल की बहस के बाद सूचना समाज पर विश्व शिखर सम्मेलन ने 2005 में ट्यूनिस एजेंडा के साथ मानवाधिकार पर अपनी बहस ख़त्म की और इस तरह पूरी कवायद बेनतीजा रही. 

नये अधिकार नहीं बल्कि बेहतर ढंग से लागू करने की ज़रूरत 

सूचना और संचार के अधिकारों को लेकर बेहतर समझ नये बुनियादी मानवाधिकार का हिस्सा नहीं हैं. डिजिटल अधिकार 1948 में सार्वभौमिक मानवाधिकार के घोषणापत्र में परिभाषित मौजूदा मानवाधिकार पर आधारित हैं. इस बात की चर्चा करने की ज़रूरत है कि कैसे उन अधिकारों- जिनमें व्यक्तिगत अधिकार भी शामिल हैं जिन्हें नई सूचना एवं संचार तकनीकों (ICT), इंटरनेट ऑफ थिंग्स (IoT) और AI के विकास से चुनौती मिली है- को सीमाहीन साइबर क्षेत्र में बेहतर ढंग से लागू किया जा सकता है. अगर विस्तार से ब्यौरा उपलब्ध है तो ये बेहद उपयोगी है कि इस बात पर चर्चा की जाए कि कैसे मानवाधिकार के लिए सम्मान को डिजिटल युग में और बढ़ाया जा सकता है. इस बात के अनगिनत उदाहरण हैं जहां नये राजनीतिक या क़ानूनी औज़ारों को अपनाने पर अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार क़ानून और मज़बूत हुए हैं. 

मिसाल के तौर पर फिनलैंड ने अपने संविधान में इंटरनेट तक पहुंच के अधिकार की शुरुआत की. लेकिन इस संवैधानिक अधिकार से मौजूदा अधिकारों में कोई बदलाव नहीं आया. इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे पहली पीढ़ी के अधिकार को लागू करने में एक अतिरिक्त औज़ार के रूप में देखा जा सकता है. 2014 में नेट मुंडियाल विश्व सम्मेलन के दौरान इंटरनेट और मानवाधिकार को लेकर चर्चा हुई. साओ पाउलो नेट मुंडियाल बहुभागीदार बयान कहता है कि मानवाधिकार सार्वभौमिक है जो सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणापत्र में भी दिखता है और इसे इंटरनेट शासन व्यवस्था के सिद्धांतों को सहारा देना चाहिए. लोगों के जो अधिकार ऑफलाइन हैं उनकी रक्षा हर हाल में ऑनलाइन भी होनी चाहिए. जब आईकैन (इंटरनेट कॉरपोरेशन फॉर असाइन्ड नेम्स एंड नंबर्स) ने 2010 में मानवाधिकार पर चर्चा की तो ये एक व्याख्या की रूप-रेखा (फ्रेमवर्क ऑफ इंटरप्रिटेशन यानी FOI) के विचार के साथ समाप्त हुई. इस रूप-रेखा में ये ज़िक्र था कि कैसे वैश्विक डूमेन नेम सिस्टम के प्रबंधन में मौजूदा मानवाधिकार का सम्मान किया जा सकता है और उसकी रक्षा की जा सकती है. इसी तरह का रास्ता UN में भी लिया गया जब यहां निजी क्षेत्र की भूमिका पर चर्चा हुई थी. कारोबार और मानवाधिकार पर संयुक्त राष्ट्र का मार्गदर्शक सिद्धांत मौजूदा मानवाधिकार रूप-रेखा पर आधारित है.

अब संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देशों में सर्वसम्मति बन गई है. इन देशों ने 2012 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के एक प्रस्ताव का समर्थन किया था जिसमें ये कहा गया था कि लोगों का मानवाधिकार ऑफलाइन और ऑनलाइन एक समान है. यूरोपियन कोर्ट ऑफ जस्टिस और यूरोपियन मानवाधिकार न्यायालय के फ़ैसलों में इस सिद्धांत को बनाये रखा गया है. 

कुछ दिन पहले ही अमेरिका की सरकार ने अधिकारों के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) बिल के लिए एक ब्लूप्रिंट प्रकाशित किया. इस दस्तावेज़ में पांच सिद्धांतों ने इस बात को परिभाषित किया है कि कैसे AI के ग़लत इस्तेमाल से व्यक्तिगत मानवाधिकारों की रक्षा की जाए. इसकी शुरुआत सामाजिक काम के लिए भविष्य में व्यवस्था बनाने से हो. लेकिन ये बिल भी मानवाधिकार की मौजूदा पहली पीढ़ी पर आधारित है. 

ये बहस कि क्या साइबर स्पेस का विस्तार मानवाधिकार की नई पीढ़ी के लिए ज़रूरत का निर्माण करता है, मुख्य रूप से एक अकादमिक बहस है. ऑफलाइन हो या ऑनलाइन लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार इसी रूप में बना रहेगा. डिजिटल दुनिया में नई चुनौतियों का प्रबंधन करने के लिए फिर से खाका खींचने की ज़रूरत नहीं है. मानवाधिकार की नई श्रेणियों का निर्माण करने की आवश्यकता नहीं है बल्कि ज़रूरत ये है कि इस बात को लेकर समझ गहरी हो कि साइबर स्पेस में व्यक्तिगत मानवाधिकार को कैसे लागू किया जाए, किस तरह उनका सम्मान और उनकी रक्षा हो. मौजूदा अधिकारों पर आधारित ज़्यादा विस्तृत स्मार्ट नियंत्रण की आवश्यकता है जो संवाद की तकनीक के अप्रत्याशित असर और ग़लत इस्तेमाल का प्रबंधन करे. विकास की निगरानी के लिए बेहतर तौर-तरीक़े, अच्छी एवं ख़राब कार्यप्रणाली के मूल्यांकन और उल्लंघन पर सज़ा की भी ज़रूरत है.

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