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चेयरपर्सन और MD की भूमिकाओं को अलग-अलग करने की ज़रूरतों को पलटने के सेबी के हालिया फ़ैसले से भारत के कॉरपोरेट गवर्नेंस से जुड़े कई अहम सवाल खड़े होते हैं.
पिछले महीने सिक्योरिटीज़ एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ़ इंडिया (SEBI ) ने शीर्ष की 500 लिस्टेड कंपनियों के चेयरपर्सन और MD/CEO की भूमिका को अलग-अलग करने के अपने पहले के फ़ैसले को बदल दिया. सेबी ‘शीर्ष 500 में आने वाली इकाइयां’ को पिछले वित्तीय वर्ष के अंत की बाज़ार पूंजी के हिसाब से परिभाषित करता है. शब्दों की बाज़ीगरी के ज़रिए इस ज़रूरत में नरमी लाते हुए इसे “बाध्यकारी” से “स्वैच्छिक” में बदल दिया गया है.
2017 में कॉरपोरेट गवर्नेंस पर सेबी (SEBI) द्वारा गठित उदय कोटक समिति के सुझावों के आधार पर ये नियम तय किए गए थे. शीर्ष की 500 लिस्टेड इकाइयों को 1 अप्रैल 2020 से चेयरपर्सन और MD/CEO की भूमिकाएं अलग-अलग करनी थीं. बहरहाल उद्योग जगत के अनुरोध पर इस नियम की पालना के लिए और 2 वर्षों (1 अप्रैल 2022 तक) का वक़्त दिया गया था. इस मसले पर सेबी के अध्यक्ष द्वारा सार्वजनिक रूप से दिए गए बयान के मुताबिक “भूमिकाओं को अलग-अलग किए जाने से एक ही शख़्स के हाथों अधिकार के ज़रूरत से ज़्यादा केंद्रीकरण में गिरावट आएगी.”
ये वाक़ई ताज्जुब की बात है कि सेबी ने उद्योग जगत के दबाव समूह द्वारा विरोध के तेवरों का सख़्ती से निपटारा करने की ज़रूरत नहीं समझी. सेबी ने इन नियमनों को पूरा करने को लेकर ज़रूरी नेतृत्व तैयार करने के लिए उद्योग जगत को काफ़ी लंबी मियाद दी थी
दरअसल, इस नियमन में बदलाव के लिए उद्योग जगत ने ज़ोरशोर से दबाव बना रखा था. इस क़वायद में उद्योग जगत ने बेहतर प्रशासकीय ढांचा सुनिश्चित करने वाले इस नियमन को “नियामक ज़्यादती” तक करार दे दिया. ये वाक़ई ताज्जुब की बात है कि सेबी ने उद्योग जगत के दबाव समूह द्वारा विरोध के तेवरों का सख़्ती से निपटारा करने की ज़रूरत नहीं समझी. सेबी ने इन नियमनों को पूरा करने को लेकर ज़रूरी नेतृत्व तैयार करने के लिए उद्योग जगत को काफ़ी लंबी मियाद दी थी. एक ऐसा देश जिसकी प्रतिभाओं का विदेशों में डंका बजता है, वहां शीर्ष की 500 कंपनियों के शुरुआती जत्थे के लिए प्रतिभाओं की ऐसी कमी समझ से परे है.
यहां ये रेखांकित करना ज़रूरी है कि भारत की टॉप 500 कंपनियों में से 300 कारोबारी घराने हैं. उद्योग जगत का मानना है कि इन संगठनों के आकार और कामयाबी का श्रेय इन्हीं प्रोमोटर-एक्ज़ीक्यूटिव को जाता है और उनकी दौलत (इक्विटी स्टेक्स के रूप में) उनकी सूचीबद्ध कंपनियों में निवेशित है. उद्योग जगत ने इसी धारणा के आधार पर अपना पक्ष आगे बढ़ाया था. इनमें से कई कंपनियों में ‘चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर’ की साझी भूमिका है. एक ही शख़्स की दोहरी भूमिका के दायरे में बोर्ड गवर्नेंस की ज़िम्मेदारियों के साथ-साथ कारोबार प्रबंधन से जुड़े रोज़मर्रा के काम आते हैं. कई बार इनसे हितों के टकराव का मसला भी सामने आ सकता है.
मई 2018 में दोहरी-भूमिका से जुड़े जोख़िमों के निपटारे के लिए सेबी ने अपने ‘लिस्टिंग ऑब्लिगेशंस एंड डिस्क्लोज़र रिक्वायरमेंट्स’ में संशोधन किया था. आमतौर पर इसे LODR के नाम से जाना जाता है. इस संशोधन के ज़रिए शीर्ष 500 सूचीबद्ध इकाइयों को ये सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी दी गई कि उनके बोर्ड का चेयरपर्सन कोई नॉन-एक्ज़ीक्यटिव डायरेक्टर हो. साथ ही वो शख़्स उस इकाई के मैनेजिंग डायरेक्टर या मुख्य कार्यकारी अधिकारी का रिश्तेदार न हो. बाज़ार विश्लेषक और निवेशक कमज़ोर कॉरपोरेट गवर्नेंस को लेकर अक्सर अपनी जायज़ चिंताएं जताते रहे हैं. इनमें रिलेटेड पार्टी ट्रांज़ैक्शंस से लेकर प्रमोटर-एक्ज़ीक्यूटिव में शक्ति और अधिकारों के केंद्रीकरण तक के मसले शामिल हैं. मौजूदा समय के निवेशक तो एक क़दम और आगे बढ़कर विविधतापूर्ण कार्यक्रमों के गठन के साथ-साथ पारदर्शिता पर आधारित व्हिसल-ब्लोअर नीतियों की मांग करने लगे हैं.
बाज़ार विश्लेषक और निवेशक कमज़ोर कॉरपोरेट गवर्नेंस को लेकर अक्सर अपनी जायज़ चिंताएं जताते रहे हैं. इनमें रिलेटेड पार्टी ट्रांज़ैक्शंस से लेकर प्रमोटर-एक्ज़ीक्यूटिव में शक्ति और अधिकारों के केंद्रीकरण तक के मसले शामिल हैं.
साथ ही गवर्नेंस के तौर-तरीक़ों से आधुनिक और मौजूदा पूंजी बाज़ारों की ज़रूरतों की झलक मिलनी ज़रूरी है. पिछले कुछ वर्षों से सेबी ने कॉरपोरेट गवर्नेंस मानकों को बढ़ावा देने के लिए सख़्त नियम लागू करने शुरू किए हैं. इनमें रिलेटेड-पार्टी ट्रांज़ैक्शंस के व्यवहार के निपटारे से जुड़े उपाय भी शामिल हैं.
हम भारतीय बाज़ारों में पर्याप्त मात्रा में विदेशी पूंजी आकर्षित करना चाहते हैं. ऐसे में कॉरपोरेट गवर्नेंस में मज़बूती की क़वायद से हिचकने वालों के लिए पदों का बंटवारा एक बेहद अहम क़दम है. हालांकि, इस नियामक उपाय को नरम बना दिए जाने से ईएसजी यात्रा को लेकर भारत का उत्साह मंद पड़ता दिखाई देता है.
उद्योग जगत के दबाव में फ़ैसला पलटना क्या नियामक संस्थाओं की आज़ादी का संकेत है? अगर संबंधित भागीदारों की चाहत के हिसाब से नियामक संस्थाएं अपने नीतिगत फ़ैसले और समय-सीमाओं को पलटने पर मजबूर होती हैं तो असलियत में उनकी आज़ादी से जुड़े सवाल खड़े होते हैं. क्या ये कॉरपोरेट गवर्नेंस सुधारों के मसले पर उद्योग जगत के दबाव में झुकने का संकेत है? क्या अर्थव्यवस्था के विकास में उनके निवेश को बढ़ावा देने के बदले इस तरह का फ़ैसला लिया गया है?
उद्योग जगत के दबाव में फ़ैसला पलटना क्या नियामक संस्थाओं की आज़ादी का संकेत है? अगर संबंधित भागीदारों की चाहत के हिसाब से नियामक संस्थाएं अपने नीतिगत फ़ैसले और समय-सीमाओं को पलटने पर मजबूर होती हैं तो असलियत में उनकी आज़ादी से जुड़े सवाल खड़े होते हैं.
क्या कारोबारी घराने अपनी दौलत को बरकरार रखने के लिए मनमाफ़िक नीतिगत ढांचा सुरक्षित कराना चाहते हैं? क्या वो अपनी पब्लिक-लिस्टेड इकाइयों के संचालन में बेहिसाब शक्तियां बरकरार रखना चाहते हैं? क्या सेबी का फ़ैसला उनके प्रभाव का पैमाना है? इस तरह की रियायतें ठीक वैसी ही हैं जैसे कोई छात्र परीक्षा की तैयारियां न होने की सूरत में शिक्षा बोर्ड से परीक्षा की तारीख़ें बढ़ाने के लिए कह दे. अगर नियामक संस्थाएं लगातार अपनी डेडलाइन को इसी तरह बदलकर नियमों से जुड़ी वक़्त की पाबंदियों की अहमियत को कम करती रहेंगी तो उनका रुतबा कम होता जाएगा. यहां एक बड़े सवाल पर ग़ौर करने की ज़रूरत है, जो नियामक संस्था की नीयत को लेकर खड़ा होता है. क्या वो वाक़ई ऐसे ठोस क़ायदे लागू करना चाहती हैं या फिर ये नियमन से जुड़ी क़वायदों का बस दिखावा भर है?
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