Published on Sep 09, 2022 Updated 0 Hours ago

रोहिंग्याओं का म्यांमार वापस लौटना कई चुनौतियों से भरा हुआ है और प्रभावित लोगों की ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए ही इसे अंजाम दिया जाना चाहिए.

बांग्लादेश: निर्वासन के 5 साल बाद देश से विस्थापित रोहिंग्याओं का भविष्य कैसा है?

25 अगस्त को म्यांमार के रखाइन क्षेत्र में बढ़ती हिंसा के कारण बांग्लादेश में लगभग दस लाख रोहिंग्याओं के पलायन की घटना को अब पांच साल बीतने को हैं. साल 2017 में रोहिंग्या लोगों को म्यांमार से बाहर निकाल दिया गया था, जिसे अंतरराष्ट्रीय जगत ने नस्लीय हिंसा और यहां तक कि नरसंहार के रूप में स्वीकार किया था. इसे लेकर संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के अधिकारियों ने कहा है कि देश के सैन्य नेताओं को मानवता के ख़िलाफ़ ऐसे अपराधों के लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए. हालांकि सीमाई इलाक़े में रहने वाले विस्थापित लोगों की ही स्थिति ज़्यादा ख़राब हुई है.

बांग्लादेश में शिविरों में रहने वाले विस्थापित रोहिंग्याओं को जबरन विस्थापित किए गए म्यांमार नागरिक (एफडीएमएन) कहा जाता है. एफडीएमएन बिना किसी राज्य के व्यक्ति हैं और उन्हें म्यांमार में नागरिक या बांग्लादेश में शरणार्थी नहीं माना जाता है

बांग्लादेश में शिविरों में रहने वाले विस्थापित रोहिंग्याओं को जबरन विस्थापित किए गए म्यांमार नागरिक (एफडीएमएन) कहा जाता है. एफडीएमएन बिना किसी राज्य के व्यक्ति हैं और उन्हें म्यांमार में नागरिक या बांग्लादेश में शरणार्थी नहीं माना जाता है, क्योंकि म्यांमार ने 1951 के शरणार्थी कन्वेंशन पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं. तख़्तापलट की आशंकाओं से प्रभावित म्यांमार और चुनाव का इंतज़ार कर रहे बांग्लादेश दोनों जगहों में एफडीएमएन की वापसी को लेकर भविष्य में कोई उम्मीद नहीं दिखती है.

एक शरणस्थळी

बांग्लादेश एक निम्न-मध्यम वर्ग वाला देश है जो वर्तमान में आर्थिक संकट का सामना कर रहा है और इसके कॉक्स बाज़ार ज़िले और भसान चार द्वीप में करीब 918,814 शरणार्थी शरण लिए हुए हैं. नतीजा यह है कि कॉक्स बाज़ार 2017 के बाद से दुनिया की सबसे बड़ी शरणार्थी कॉलोनी बन गई है. भारी तादाद में नए प्रवासियों के यहां आने से सीमित सुविधाओं और कम समय में ख़त्म होने वाली बस्तियों पर भारी दबाव आया है जो कोरोना महामारी और लगातार विकसित हो रहे जलवायु परिवर्तन से और बढ़ गए हैं. शुष्क मौसम के दौरान आग लगने के ख़तरों के बाद भूस्खलन और मानसून में बाढ़ आने की घटना बढ़ गई है. मार्च 2022 तक आग लगने की छह घटनाएं दर्ज़ हो चुकी हैं, जिससे जान-माल का नुक़सान हुआ है. 2022 में मानसून की शुरुआत के बाद से मूसलाधार बारिश और भूस्खलन ने शिक्षण केंद्रों और वॉश प्वाइंट्स सहित 13,000 से अधिक आश्रयों को प्रभावित किया है. यूएनएचसीआर, आईओएम, यूनिसेफ, डब्ल्यूएचओ और डब्ल्यूएफपी सहित मानवीय भागीदारों के साथ बांग्लादेश सरकार ज़रूरतमंद लोगों को फौरन सहायता देने में जुटी है और आग लगने पर ज़मीन के साथ दो मंजिला आश्रयों को बनाने, क्षमता निर्माण और मॉक ड्रिल आयोजित करके समन्वय टीमों को मज़बूत कर ऐसी घटनाओं  से निपटने की तैयारियां कर रही है. बचाव और राहत कार्रवाई को और बेहतर बनाने के मक़सद से विस्थापित आबादी से कई स्वयंसेवकों की भी भर्ती की गई है.

रोहिंग्याओं को वापस भेजने के पिछले प्रयास विफल रहे हैं क्योंकि रोहिंग्याओं ने पूर्ण नागरिकता अधिकार या संरक्षण नहीं मिलने की स्थिति में वतन वापसी के विचार को अस्वीकार कर दिया था.


स्वास्थ्य के संबंध में, कोरोना महामारी को रोकने के अलावा हैजा, एडब्ल्यूडी, डिप्थीरिया, खुजली और डेंगू जैसे संक्रमण बढ़ रहे हैं. कुल मिलाकर स्वास्थ्य क्षेत्र ने 1,400 से अधिक सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं (सीएचडब्ल्यू) और 130 प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं के नेटवर्क के ज़रिए प्रमुख स्वास्थ्य गतिविधियों को बेहतर बनाने को प्राथमिकता दी है. हालांकि सीमित संसाधनों के कारण ऐसी सुविधाओं को बेहतर तरीक़े से उपलब्ध कराना आसान नहीं होता है. ऐसे में फंडिंग की व्यवस्था करना एक प्रमुख चिंता का विषय बना हुआ है. इसके अलावा सुरक्षा के हालात भी बेहद ख़राब हैं. शिविर के इलाक़ों में मौक़े कम होने की वज़ह से हत्याएं, अपहरण, ड्रग्स और लोगों की तस्करी की घटना बड़े पैमाने पर हुई है.

वापसी करने का समय?

शिविरों में रह रहे रोहिंग्या साफ़तौर पर यह कहते रहे हैं कि वो बांग्लादेश को अपना मूल देश नहीं मानते हैं और वापस अपने देश म्यांमार लौटना चाहते हैं. रोहिंग्याओं को वापस भेजने की बांग्लादेश सरकार की अल्पकालिक नीति का भी कोई ख़ास नतीजा नहीं निकल पाया है. क्योंकि शरणार्थी शिविरों में आजीविका से लेकर शिक्षा के मौक़े नहीं हैं और तो और उनके मूवमेंट पर भी कई पाबंदियां हैं. इसके साथ ही म्यांमार में सैन्य तख़्तापलट के बाद शिविरों में रहने वाले लोगों का भविष्य अधर में लटका नज़र आता है.

रोहिंग्याओं को वापस भेजने के पिछले प्रयास विफल रहे हैं क्योंकि रोहिंग्याओं ने पूर्ण नागरिकता अधिकार या संरक्षण नहीं मिलने की स्थिति में वतन वापसी के विचार को अस्वीकार कर दिया था. यह विचार दरअसल इस डर से उपजा है कि वहां हिंसा ख़त्म नहीं हुई है और उन्हें फिर से भागने के लिए मज़बूर होना पड़ेगा. ऐसी आशंकाएं केवल पिछले साल सैन्य तख़्तापलट से बढ़ी हैं. हालांकि तख़्तापलट के बाद प्रत्यावर्तन की संभावनाओं को लेकर कई बातें हुई थीं लेकिन इनमें 2017 में म्यांमार से भागने वाली पूरी आबादी शामिल नहीं थी, बल्कि हज़ारों मुसलमानों में मुट्ठी भर हिंदू शामिल थे.

इसके अलावा पुनर्वास का सवाल भी आता है. यह सब जानते हैं कि जिन गांवों में कभी विस्थापित लोग रहते थे, उन्हें जुंटा ने तबाह कर दिया था. ऐसे में एकमात्र विकल्प जो व्यावहारिक नज़र आता है, वह है रखाइन इलाक़े में कांटेदार तारों से घिरे और सेना के सैनिकों द्वारा संचालित “पुनर्वास शिविरों” में वापस जाना. पहले से ही 135,000 विस्थापित रोहिंग्या पिछले एक दशक से बिना किसी अधिकार या मौक़ों के ऐसी खुली हवा वाली बस्तियों में जिंदगी जीने को मज़बूर हैं.

अनुकूल परिस्थितियां

संयुक्त राष्ट्र महासचिव के म्यांमार के विशेष दूत नोएलीन हेज़र के मुताबिक़, प्रत्यावर्तन की अधिकांश ज़िम्मेदारी म्यांमार पर आती है. उनका दावा है कि इन लोगों की सुरक्षित वापसी सुनिश्चित करना देश की ज़िम्मेदारी है और रोहिंग्याओं की रक्षा के लिए ज़रूरी परिस्थितियां रखाइन राज्य पर सलाहकार आयोग की सिफारिशों द्वारा निर्देशित म्यांमार सरकार द्वारा बनाई गई समावेशी नीतियों से ही आ सकती है. पूरी प्रक्रिया को सफल बनाने के लिए प्रभावित लोगों, ख़ासकर ख़ुद रोहिंग्याओं की सार्थक भागीदारी भी ज़रूरी होगी. हालांकि मौज़ूदा हक़ीकत इससे कोसों दूर है.

दिलचस्प बात यह है कि म्यांमार सरकार की शैडो गवर्नमेंट जो कि नेशनल यूनिटी गवर्नमेंट है वो रोहिंग्या मुद्दे का समर्थन कर रही है. जून 2021 में एनयूजी के सत्ता में आने पर इन राज्यविहीन लोगों को नागरिकता का अधिकार देने का वादा किया था. बांग्लादेश में रोहिंग्या के प्रवास के 5 साल पूरे होने पर, एनयूजी ने इन लोगों को मदद करने के तीन तरीक़ों की वकालत की है. पहला, उचित परिस्थितियों को बना कर व्यवस्था सुनिश्चित करे जो रोहिंग्या समुदाय के प्रत्यावर्तन का समर्थन करता हो; दूसरा, उनके ख़िलाफ़ किए गए अपराधों के लिए न्याय और जवाबदेही तय की जाए और तीसरा, कानूनी तंत्र में उनके लिए समान अवसर पैदा किए जाएं. लेकिन ऐसा होना तब संभव है जब जुंटा के प्रभाव से मुक्त एक ऐसी लोकतांत्रिक शासन को जगह मिल सके जिस पर किसी का नियंत्रण नहीं हो. ऐसे में उक्त समस्या का तत्काल समाधान फिलहाल तो दूर की कौड़ी लगती है.

मार्च 2022 में, बाइडेन प्रशासन ने घोषणा की, कि रोहिंग्या आबादी पर म्यांमार के वर्षों से चले आ रहे अत्याचार वास्तव में एक तरह का “नरसंहार” है. हालांकि वो निर्देश जुंटा के ख़िलाफ़ किसी नई कार्रवाई को शुरू नहीं करते हैं लेकिन इससे सरकार पर काफी अतिरिक्त दबाव पड़ता है.

जुलाई 2022 में अंतरराष्ट्रीय  न्यायालय (आईसीजे) के फैसले ने स्टेट एडमिनिस्ट्रेशन काउंसिल (एसएसी) के शुरुआती विरोध को ख़ारिज़ किया था कि रोहिंग्याओं के ख़िलाफ़ नरसंहार में उनकी भूमिका नहीं थी. यह निर्देश उन सबूतों को पेश करने के लिए मंच प्रदान करता है जो बाद की सुनवाई में 1948 के नरसंहार कन्वेंशन के उल्लंघन को साबित करते हैं. मार्च 2022 में, बाइडेन प्रशासन ने घोषणा की, कि रोहिंग्या आबादी पर म्यांमार के वर्षों से चले आ रहे अत्याचार वास्तव में एक तरह का “नरसंहार” है. हालांकि वो निर्देश जुंटा के ख़िलाफ़ किसी नई कार्रवाई को शुरू नहीं करते हैं लेकिन इससे सरकार पर काफी अतिरिक्त दबाव पड़ता है. आसियान या संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद जैसे संगठनों ने अभी तक इस संबंध में कोई उचित कदम नहीं उठाया है.

अभी के लिए यह बांग्लादेश सरकार है जिसे अपने देश के भीतर इन लोगों की ज़रूरतों को पूरा करना है लेकिन सफलतापूर्वक ऐसा करने के लिए, उचित व्यवस्था बनाने और उसे लगातार अंजाम देने के लिए फंड की ज़रूरत होगी. वैश्विक स्तर पर मानवीय फंडिंग की प्रवृत्ति लंबे विस्थापन का सामना करने वालों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए नाकाफी ही साबित हुई है. क्योंकि इसका मक़सद शरणार्थियों और मेज़बान समुदायों की मध्यम या दीर्घकालिक ज़रूरतों को पूरा करना नहीं है. फंडिंग में सबसे बड़ी कमी अक्सर आजीविका और शिक्षा के मौक़ों को बढ़ाने जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में पाई जाती है.

जैसे-जैसे यह संकट लंबा होता जा रहा है, मानवीय अपीलों के ज़रिए दी जाने वाली सहायता का स्तर भी घटता जा रहा है. 2022 की जेआरपी रिपोर्ट के अनुसार  स्वास्थ्य, डब्ल्यूएएसएच, संरक्षण, शिक्षा और पोषण जैसे विभिन्न क्षेत्रों के समुचित कामकाज के लिए 881 मिलियन अमेरिकी डॉलर की आवश्यकता होगी लेकिन अब तक केवल 49 प्रतिशत ही फंडिंग की व्यवस्था हो पाई है. ज़रूरी व्यवस्था के बिना अधिकांश गतिविधियां आधे-अधूरे मन से ही हो पाएंगी. लिहाज़ा मौज़ूदा परिस्थितियों में विस्थापित लोगों के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय से निरंतर समर्थन की ज़रूरत है ताकि समय पर कार्रवाई की जा सके और राहत बचाव का कार्य भी बाधित नही हो.

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