बुनियादी बातें
हवा से कार्बन को सीधे अवशोषित कर उसे भंडारित करने वाली (DACCS) तकनीक में वातावरण में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड को बाहर निकालकर गहरे भूवैज्ञानिक स्वरूपों में स्थायी रूप से भंडारित किया जाता है. इसके अलावा इसे फ़ूड प्रॉसेसिंग और सिंथेटिक ईंधनों के उत्पादन के लिए भी इस्तेमाल में लाया जाता है. जब कार्बन डाइऑक्साइड को ज़मीन के अंदर भंडारित किया जाता है तो इसके प्रभाव वातावरण के लिए सकारात्मक होते हैं. दरअसल इस प्रक्रिया में नकारात्मक उत्सर्जन देखने को मिलता है. बहरहाल जब CO2 का इस्तेमाल सिंथेटिक ईंधन के उत्पादन में होता है तब ईंधन के जलने पर कार्बन डाइऑक्साइड एक बार फिर वातावरण में उत्सर्जित होता है. हालांकि कुल मिलकर इस पूरी क़वायद से CO2 के उत्सर्जन में गिरावट आती है.
सीधे तौर पर हवा शोषित करने वाली ठोस टेक्नोलॉजी पर फ़िलहाल रिसर्च चल ही रही है. इनमें ठोस शोषक तत्वों को फ़िल्टर करने वाले पदार्थों का प्रयोग किया जाता है. इनमें अमोनिया से हासिल किए गए तत्व शामिल हैं, जो कमज़ोर तरीक़े से ही सही पर एक-दूसरे से जुड़े होते हैं.
तरल हवा शोषित करने वाली तकनीक हाइड्रोऑक्साइड शोषक तत्वों वाले वॉटर सॉल्यूशन के इस्तेमाल पर आधारित होती हैं. इन शोषक तत्वों का कार्बन डाइऑक्साइड से बेहद क़रीबी जुड़ाव होता है. इनमें सोडियम हाइड्रोक्साइड, कैल्शियम हाइड्रोऑक्साइड और पोटेशियम हाइड्रोऑक्साइड शामिल हैं. ये हवा से कार्बन डाइऑक्साइड को छांटकर शेष हवा को वातावरण में वापस छोड़ देते हैं. सीधे तौर पर हवा शोषित करने वाली ठोस टेक्नोलॉजी पर फ़िलहाल रिसर्च चल ही रही है. इनमें ठोस शोषक तत्वों को फ़िल्टर करने वाले पदार्थों का प्रयोग किया जाता है. इनमें अमोनिया से हासिल किए गए तत्व शामिल हैं, जो कमज़ोर तरीक़े से ही सही पर एक-दूसरे से जुड़े होते हैं. कार्बन डाइऑक्साइड के साथ रासायनिक तौर पर जुड़ने वाले ठोस शोषकों के एक व्यापक समूह की अभी पड़ताल चल रही है. इनमें आयोनिक मेम्ब्रेन्स, ज़ियोलाइट्स, सॉलिड ऑक्साइड्स शामिल हैं. जब फ़िल्टर्स को गर्म किया जाता है तब ये संकेंद्रित कार्बन डाइऑक्साइड बाहर छोड़ते हैं. इसे भंडारित करने या इस्तेमाल में लाने के लिए जमा किया जा सकता है. ठोस और तरल दोनों तरह की कैप्चर टेक्नोलॉजी को ऊर्जा के नवीकरणीय साधनों (जैसे भूतापीय, सौर और पवन ऊर्जा) द्वारा संचालित किया जा सकता है. वहीं सॉलिड डायरेक्ट एयर कैप्चर को कचरे से हासिल की जाने वाली तपिश के ज़रिए ऊर्जा दी जा सकती है. इससे जीवनचक्र से जुड़े उत्सर्जनों को काफ़ी हद तक कम किया जा सकता है.
वातावरण में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड बिजली घरों या सीमेंट प्लांट से निकलने वाले धुएं के मुक़ाबले ज़्यादा बारीक होता है. यही वजह है कि इसे हवा से सीधे शोषित करने के लिए ज़्यादा ऊर्जा और लागत की आवश्यकता होती है. कार्बन डाइऑक्साइड को कैप्चर करने वाली दूसरी तकनीकों और ऐप्लिकेशंस के मुक़ाबले इसमें ख़र्च ज़्यादा आता है. भूवैज्ञानिक बनावटों में भीतर पहुंचाने के लिए कार्बन डाइऑक्साइड को बहुत उच्च दबाव पर कम्प्रेस करने की ज़रूरत होती है. इससे प्लांट की पूंजीगत और कार्यकारी लागत में बढ़ोतरी हो जाती है. कम्प्रेसर जैसे अतिरिक्त उपकरण की ज़रूरत की वजह से पूंजीगत लागत बढ़ती है, जबकि कम्प्रेसर को चलाने के लिए कार्यकारी लागत में इज़ाफ़ा होता है. बहरहाल अगर प्लांट भंडारण और उपभोग किए जाने वाले स्थान के क़रीब स्थित होता है तो कार्बन डाइऑक्साइड को लंबी दूरी तक ले जाने की ज़रूरत समाप्त हो जाती है. इससे लागत में कमी आती है.
प्रगति
विश्व के सबसे बड़े डायरेक्ट एयर कैप्चर प्लांट- ओर्का का निर्माण स्विट्ज़रलैंड की कंपनी क्लाइमवर्क्स और आइसलैंड की कंपनी कार्बफ़िक्स ने किया है. अगस्त 2021 से इसने आइसलैंड में अपना काम शुरू भी कर दिया है. क्लाइमवर्क्स हर साल 4 हज़ार टन कार्बन डाइऑक्साइड शोषित करने का काम करेगा. CO₂ की ये मात्रा तक़रीबन 250 अमेरिकी नागरिकों या पश्चिमी दुनिया के 870 कारों के सालाना उत्सर्जन के बराबर है. दूसरी ओर कार्बफ़िक्स CO₂ को धरती में बहुत गहरे दबाने का काम करेगा जिससे वो हमेशा के लिए पत्थर में तब्दील हो जाएगा. क्लाइमवर्क्स का लक्ष्य 2025 तक दुनिया में सालाना CO₂ उत्सर्जन का एक प्रतिशत हिस्सा शोषित करने का है. मात्रा के हिसाब से ये 30 करोड़ टन (mt) कार्बन डाइऑक्साइड से भी ज़्यादा है. क्लाइमवर्क्स ने यूरोप में कुल 16 केंद्र स्थापित किए है. इनमें से ओर्का इकलौता ऐसा केंद्र है जो कार्बन डाइऑक्साइड को रिसाइकल करने की बजाए उसका स्थायी निपटारा करता है. यूरोप, अमेरिका और कनाडा में फ़िलहाल 15 डायरेक्ट एयर कैप्चर प्लांट्स काम कर रहे हैं. इनमें से ज़्यादातर प्लांट आकार में छोटे हैं. ये अवशोषित किए गए CO2 को कार्बनेटिंग ड्रिंक्स आदि में इस्तेमाल के लिए बेचने का काम करते हैं. बहरहाल बड़े आकार वाले पहले डायरेक्ट एयर कैप्चर प्लांट को तैयार करने का काम अमेरिका में चल रहा है. कार्बन इंजीनियरिंग और ऑक्सीडेंटल पेट्रोलियम की साझेदारी में ये पूरी क़वायद जारी है. 2023 के शुरुआती दिनों में इस प्लांट के कामकाज शुरू कर देने की उम्मीद जताई जा रही है. प्लांट हर साल एक mt CO2 अवशोषित करने का काम करेगा. इसका तेल की खोज के काम को और आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल होगा.
विश्व के सबसे बड़े डायरेक्ट एयर कैप्चर प्लांट- ओर्का का निर्माण स्विट्ज़रलैंड की कंपनी क्लाइमवर्क्स और आइसलैंड की कंपनी कार्बफ़िक्स ने किया है. अगस्त 2021 से इसने आइसलैंड में अपना काम शुरू भी कर दिया है.
अर्थशास्त्र
ओर्का को तैयार करने में 1-1.5 करोड़ अमेरिकी डॉलर की लागत आई है. इनमें निर्माण, जगह के विकास और भंडारण से जुड़े ख़र्चे शामिल हैं. क्लाइमवर्क्स को निजी निवेशकों का एक समूह आगे बढ़ा रहा है. इसके अलावा इसे स्विस बैंक- Zuercher Kantonal बैंक का भी सहारा मिला हुआ है. इतना ही नहीं माइक्रोसॉफ़्ट कॉरपोरेशन के क्लाइमेट इनोवेशन फ़ंड से भी इसे कर्ज़ के रूप में सहायता मिलने का भरोसा मिला हुआ है. प्लांट के सामने सबसे बड़ी चुनौती उसकी सेवा से जुड़ी लागत को लेकर है. क्लाइमवर्क्स तो अभी भी मुनाफ़े में नहीं आ सका है. इसका ज़्यादातर राजस्व माइक्रोसॉफ़्ट, स्ट्राइप, शॉपिफ़ाई और Swiss Re जैसे कॉरपोरेट ग्राहकों से आता है. इसके अलावा अपने इस्तेमाल के लिए कार्बन की ख़रीद के इच्छुक 8 हज़ार निजी ग्राहकों ने भी प्रति टन 1200 अमेरिकी डॉलर की रकम चुकाकर CO₂ की ख़रीद का सौदा किया है. थोक में ख़रीदारी करने वालों (मिसाल के तौर पर जो बिल गेट्स द्वारा किए जाते हैं) के लिए लागत 600 अमेरिकी डॉलर प्रति टन के आसपास है.
क्लाइमवर्क्स ने 2030 तक इस लागत को घटाकर 200-300 अमेरिकी डॉलर के स्तर पर लाने का लक्ष्य रखा है. इसका इरादा अमेरिका में अपनी लागत को 2035 तक 100-200 अमेरिकी डॉलर प्रति टन तक लाने का है. 2035 में अपनी गतिविधियों को पूरे ज़ोर शोर से संचालित करने के मद्देनज़र कंपनी ने ये लक्ष्य तय किए हैं. EU ETS (यूरोपियन यूनियन एमिशन ट्रेडिंग सिस्टम) में कार्बन का भाव लगभग 60 यूरो प्रति टन (70 अमेरिकी डॉलर प्रति टन) है. इसके बहुत जल्द 100 अमेरिकी डॉलर प्रति टन तक पहुंच जाने की संभावना है. इससे साफ़ संकेत मिलते हैं कि क्लाइमवर्क्स के वायदा मूल्य भविष्य में कार्बन के कारोबार के लिए प्रतिस्पर्धी साबित हो सकते हैं.
DACCS के स्तर को महत्वाकांक्षी रूप से ऊंचा उठाने की क़वायद के लिए उपयुक्त नियामक और नीतिगत दख़लों की ज़रूरत होगी.
DACCS के स्तर को महत्वाकांक्षी रूप से ऊंचा उठाने की क़वायद के लिए उपयुक्त नियामक और नीतिगत दख़लों की ज़रूरत होगी. उत्सर्जन को नकारात्मक स्वरूप देने वाली तकनीकों को आगे बढ़ाने के लिए वैश्विक स्तर पर नीतिगत उपकरण और वित्तीय प्रोत्साहन क़रीब- क़रीब नदारद हैं. हालांकि अमेरिका ने कार्बन कैप्चर टेक्नोलॉजी के लिए टैक्स क्रेडिट सहायता से जुड़ी व्यवस्था की शुरुआत करने की पहल की है. ओर्का के आकार का प्लांट अमेरिका में संघीय तौर पर मिलने वाली टैक्स क्रेडिट का हक़दार है. तेल की बढ़ी हुई ख़ोज के लिए तक़रीबन 35 डॉलर प्रति टन CO2 (tCO2) के बराबर और अमेरिका में स्टोरेज के लिए 50 डॉलर प्रति टन tCO2 के बराबर का टैक्स क्रेडिट ओर्का को मिल सकता है. इतना ही नहीं अगर ओर्का CO2 को कम कार्बन उत्सर्जित करने वाले परिवहन ईंधन के उत्पादन में इस्तेमाल करता है तो वो कैलिफ़ॉर्निया लो कार्बन फ़्यूल क्रेडिट पाने का भी हक़दार बन जाता है. 2019 में इस तरह की क्रेडिट का कारोबार 180 डॉलर प्रति टन CO2 के आसपास हुआ करता था.
मुद्दे
ग़ौरतलब है कि CO2 उत्सर्जन का मौजूदा स्तर 40 गीगा टन CO2 प्रति वर्ष के क़रीब पहुंच रहा है. वैश्विक स्तर पर कार्बन उत्सर्जन कम करने से जुड़े उपायों की कामयाबी अबतक बेहद सीमित रही है. ऐसे में वातावरण से बड़े पैमाने पर CO2 को हटाने की क़वायद से हम मुंह नहीं मोड़ सकते. कार्बन को वातावरण से अलग करने के तमाम दूसरे विकल्पों के मुक़ाबले हवा से सीधे तौर पर CO2 को बाहर निकालने की तकनीक के कई फ़ायदे हैं. इसके ज़रिए उत्सर्जन के बिखरे हुए स्वरूप से निपटा जा सकता है. मिसाल के तौर पर परिवहन, हवाई सेवा और सघन औद्योगिक सेक्टरों से होने वाले उत्सर्जनों से निपटने में ये तरीका कारगर साबित होता है. अर्थव्यवस्था के ये सभी सेक्टर कुल उत्सर्जन के तक़रीबन 50 फ़ीसदी के लिए ज़िम्मेदार हैं. मॉड्यूलर DACCS प्लांटों के ज़रिए उत्पादन का स्तर तेज़ी से ऊपर उठाना मुमकिन हो सकेगा. DACCS टेक्नोलॉजी के लिए ज़मीन और पानी की भी अपेक्षाकृत बेहद सीमित दरकार होती है. अध्ययनों से पता चला है कि DACCS तकनीक के प्रयोग से कार्बन उत्सर्जन की रोकथाम से जुड़ी क़वायदों की लागत काफ़ी हद तक कम हो जाती है. DACCS प्रणाली उत्सर्जन को नकारात्मक स्वरूप देने वाली दूसरी तकनीकों का स्थान लेने की जगह उन्हें और मज़बूती प्रदान करती है. बहरहाल DACCS तकनीक को व्यापक रूप से इस्तेमाल में लाने से जुड़ी क़वायद को सीमित करने वाला एक बड़ा कारक है- इसको बड़े पैमाने पर इस्तेमाल में लाने योग्य बनाने की दर या गति.
आकलनों के मुताबिक 2100 में DACCS को क़रीब 50 EJ प्रति वर्ष बिजली की ज़रूरत होगी. ये मौजूदा समय में बिजली के कुल उत्पादन के पचास फ़ीसदी से भी ज़्यादा है (2100 में अनुमानित वैश्विक बिजली उत्पादन का ये क़रीब 10-15 प्रतिशत है).
हाल के मॉडलिंग अध्ययनों के मुताबिक DACCS के पैमाने को 1.5 GtCO2 सालाना की दर पर आगे बढ़ाने के लिए बड़ी तादाद में अवशोषक तत्वों के उत्पादन की ज़रूरत पड़ेगी. इतना ही नहीं इसके लिए 2100 तक तक़रीबन 300 EJ (एक्साजोल्स) सालाना के बराबर ऊर्जा लगाने की ज़रूरत पड़ेगी. आकलनों के मुताबिक 2100 में DACCS को क़रीब 50 EJ प्रति वर्ष बिजली की ज़रूरत होगी. ये मौजूदा समय में बिजली के कुल उत्पादन के पचास फ़ीसदी से भी ज़्यादा है (2100 में अनुमानित वैश्विक बिजली उत्पादन का ये क़रीब 10-15 प्रतिशत है). इतना ही नहीं इसके लिए 250 EJ प्रति वर्ष तपिश की ज़रूरत होगी. आख़िरकार ये मौजूदा समय में विश्व के कुल ऊर्जा उपभोग के आधे हिस्से से भी ज़्यादा है. DACCS प्लांटों की ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अतिरिक्त बुनियादी ढांचे और पाइपलाइन बिछाने से बचने के लिए इन्हें औद्योगिक इकाइयों और परिसरों के नज़दीक स्थापित किए जाने की ज़रूरत होती है. दरअसल यही वो जगहें हैं जहां कचरे से तपिश हासिल की जाती है. हालांकि इस क़वायद से इस तकनीक के विकेंद्रीकरण संबंधी लाभ सीमित हो जाते हैं.
DACCS को बड़े पैमाने पर तैनात किए जा सकने की क्षमता को आधार बनाकर कई मॉडल खड़े किए गए हैं. इनसे ये नतीजा निकाला है कि अगर तमाम वजहों से DACCS उपलब्ध नहीं होते हैं तो इससे वैश्विक तापमान में 0.8 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हो सकती है. इन सभी अध्ययनों का निचोड़ यही है कि DACCS को उत्सर्जन की रोकथाम करने वाले दूसरे विकल्पों के स्थान पर इस्तेमाल में लाने की बजाए उनके समानांतर विकसित और तैनात किया जाना चाहिए.
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