Published on Aug 23, 2022 Updated 0 Hours ago

ताइवान जलसंधि (स्ट्रेट) में चीन के आक्रामक रवैये की वजह से इंडो-पैसिफिक में तनाव बढ़ा है.

#Indo-Pacific: प्रतिकूल परिस्थितियों के दरमयान ताइवान संकट और ‘हिंद-प्रशांत’ क्षेत्र की गतिविधियां!

इस वर्ष वाशिंगटन डी.सी. के नेशनल झू, जो स्मिथसोनियन फैमिली का हिस्सा है, ने पांडा के 50 वर्ष पूरे होने का जश्न मनाया था. यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि बांस खाने वाला और दिव्य दिखाई देने वाला यह जानवर उसी वर्ष 1972 में आया था, जब पूर्व राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने चीन की ऐतिहासिक यात्रा शुरू करते हुए दोनों देशों के बीच संबंधों में नरमी लाने की कोशिश की थी. इसी वर्ष ‘वन चाइना पॉलिसी’ का जन्म भी हुआ था. अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ उस ऐतिहासिक यात्रा पर गए निकोलस प्लाट ने इस यात्रा की अवधि को ‘दुनिया को बदलने वाला सप्ताह’ बताया था. इस यात्रा ने ही अमेरिका को शीत युद्ध का अंतिम विजेता बनने में अहम भूमिका अदा की थी. अब बीजिंग भी वाशिंगटन के खेमे में शामिल हो गया था. हालांकि वर्तमान में अमेरिका और चीन की प्रतिद्वंद्विता में उफान आने से स्थितियां बदल गई हैं. 

अमेरिका, चीन और ताइवान

‘वन चाइना पॉलिसी’ के मूल में ही यह बात निहित है कि उसने कभी भी ताइवान को चीन के अविभाज्य अंग के रूप में स्वीकार नहीं किया. बीजिंग ने हमेशा से ही ताइवान को एक पाखण्डी प्रांत के रूप में देखा है, जिसका चीन की मूल धरती के साथ विलय होना तय है, बल्कि यह चीन को एकजुट और पूरा करने के लिए जरूरी भी है. 

‘वन चाइना पॉलिसी’ के मूल में ही यह बात निहित है कि उसने कभी भी ताइवान को चीन के अविभाज्य अंग के रूप में स्वीकार नहीं किया. बीजिंग ने हमेशा से ही ताइवान को एक पाखण्डी प्रांत के रूप में देखा है

चीन और अमेरिका के बीच संबंध वर्षो से उतार-चढ़ाव वाले रहे हैं. हिंद-प्रशांत में सुरक्षा से जुड़ी चिंताओं, कोविड-19 की चीन के प्रांत वुहान में शुरुआत होने के मामले की पारदर्शिता, व्यापार से जुड़े मुद्दे, युवान मुद्रा के अवमूल्यन, पेटेंट नियमों के उल्लंघन तथा टेक्नॉलॉजी ट्रांसफर जैसे मुद्दों का इसमें समावेश रहा है. हालांकि इस मर्तबा यह बीजिंग था, जिसने नाराजगी व्यक्त की थी. स्पीकर पेलोसी की ताइवान की हालिया यात्रा ने अमेरिका और चीन के बीच संबंधों को हिलाकर रख दिया है. यह उस वक्त हुआ, जब शी जिनपिंग के दौर में वाशिंगटन और बीजिंग के बीच संबंध एक ठहराव के दौर से गुजर रहे थे.

डेंग जियाओपिंग के दौर में ‘अपनी शक्ति को छुपाओ, समय का इंतजार करो’ वाली नीति अपनाई जाती थी, लेकिन अब शी जिनपिंग के दौर में चीन इस क्षेत्र में अपनी आर्थिक और सैन्य शक्ति का प्रदर्शन कर रहा है. इसके लिए वह बलपूर्वक तरीके अपना रहा है, जिसमें वुल्फ-वॉरियर कूटनीति और आर्थिक रूप से कमजोर देशों के लिए कर्ज का जाल बिछाना शामिल है. ताइवान का द्वीप सन 2016 से ही शी जिनपिंग के रडार के सामने और उसके मध्य में रहा है. 

राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने हमेशा माना है कि देर सवेर ताइवान की भूमि का चीन की मूल भूमि में विलय हो ही जाएगा, जबकि राष्ट्रपति बाइडेन से जब रूस और यूक्रेन के संघर्ष के बीच एक संवाददाता ने यह सवाल पूछा कि क्या ताइवान पर चीन के किसी आक्रमण की सूरत में वाशिंगटन सैन्य सहायता करते हुए ताइवान की मदद करेगा, तो वे खुद को ‘हां’ कहने से नहीं रोक सके.

राष्ट्रपति बाइडेन से जब रूस और यूक्रेन के संघर्ष के बीच एक संवाददाता ने यह सवाल पूछा कि क्या ताइवान पर चीन के किसी आक्रमण की सूरत में वाशिंगटन सैन्य सहायता करते हुए ताइवान की मदद करेगा, तो वे खुद को ‘हां’ कहने से नहीं रोक सके.

राष्ट्रपति बाइडेन को हालांकि पूर्व राष्ट्रपति और अपने चुनावी प्रतिद्वंद्वी डोनाल्ड ट्रंप से काफी अलग माना जाता है, लेकिन ताइवान के मामले में वे भी ट्रंप की नीतियों को ही आगे बढ़ा रहे हैं, जिसमें उनका ताइवान के साथ अपने संबंध मजबूत करना शामिल है, ताकि वे उसे चीन और अमेरिका के बीच चलने वाले हंगामे का केंद्र बिंदु बना सके. चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने कहा कि, “लोकतंत्र की आड़ में अमेरिका चीन की सार्वभौमिकता में हस्तक्षेप कर रहा है.” ऐसा इसलिए, क्योंकि बीजिंग ताइवान को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में देखने के लिए उठाए जा रहे कदमों की वजह से क्षुब्ध होता रहता है. ऐसे में न केवल शाब्दिक विवाद भड़क रहा है, बल्कि पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ताइवान के तट पर अपनी सैन्य गतिविधियों को भी बढ़ा रही है. चीनी लड़ाकू जेट विमानों ने ताइवान के हवाई क्षेत्र के करीब उड़ान भरते हुए छद्म हमले किए, जबकि बीजिंग के युद्धपोत ताइवान के बंदरगाहों के करीब आ गए और चीनी रॉकेट्स की चकाचौंध ने जलसंधि के क्षेत्र वाले आसमान को रोशन कर दिया. 

चिंताएं तो काफी हैं. एक ओर जहां मूल सुरक्षा के स्तर पर चिंता है, जिसमें ताइवान की कमजोरियों की तुलना यूक्रेन के साथ की जा रही है. क्योंकि यह दोनों ही देश आक्रमणकर्ताओं के निशाने पर हैं. दूसरे विशेषज्ञों का मानना है कि प्रतिबंध लगाए जाने की स्थिति में इनका आर्थिक रूप से गला घोंटा जा सकता है. दुनिया का अग्रणी सेमीकंडक्टर निर्माणकर्ता होने की वजह से ताइवान वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला का अहम हिस्सा है. यह आपूर्ति श्रृंखला महामारी की वजह से पहले ही हिली हुई है. 

हिंद-प्रशांत क्वॉड के लिए दो महत्वपूर्ण मुद्दे रहे हैं, वह यह कि वह उभरती हुई नई और अहम तकनीक का समर्थन करें तथा लचीली आपूर्ति श्रृंखला के पुनर्निर्माण और पुर्नस्थापना में सहयोग करें. इसके अलावा बढ़ते हुए सैन्य शक्ति के प्रदर्शन का पिशाच, एयूकेयूएस के अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम तथा ऑस्ट्रेलिया के बीच त्रिपक्षीय सुरक्षा की भूमिका को बल देगा और भारत-प्रशांत क्वॉड भागीदारों के बीच सैन्य समन्वय को बढ़ाएगा, क्योंकि जापान और भारत अपने आसपास के क्षेत्र को अनिश्चित स्थिति में देखते हैं.

भारत-चीन संबंध 

गलवान घाटी में 2020 में हुई झड़प के बाद से ही भारत और चीन के बीच रिश्ते एक खूंटी पर चलने वाली सर्कस बने हुए है. दोनों देशों के बीच तनावपूर्ण और विवादास्पद सीमा, जिसका बेहद ढीला सीमांकन हुआ है, के बीच पीएलए के भड़काऊ पैंतरे एक और सैन्य झड़प की संभावनाएं हमेशा बनाए रखते हैं.

अमेरिका में जहां नवंबर में मध्यावधि चुनाव होने जा रहे हैं, वहीं चीन में भी 2022 में उसकी बीसवीं पार्टी कांग्रेस का आयोजन होना है. अमेरिकी मध्यावधि चुनाव में उतरने वाले उम्मीदवार चीन के मामले को लेकर डरपोक नहीं दिखाई देना चाहेंगे

हालांकि ताइपे के ताइवान-एशिया एक्सचेंज फाउंडेशन की पोस्ट डॉक्टोरल फेलो सना हाशमी का मानना है कि इस वजह से भारत और चीन के रिश्तों पर कोई सीधा प्रभाव नहीं पड़ेगा. वे कहती हैं, “हम यह देखेंगे कि चीन 2017-18 की तरह ही भारत की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाएगा, क्योंकि चीन अब भी भारत को पूरी तरह से अमेरिकी खेमे का साथ देता नहीं देखता है. वह भारत और अन्य क्षेत्रीय देशों को यह समझाना चाहता है कि उनके हित और चिंताएं, पश्चिमी देशों की तुलना में बेहद अलग है.”

हालांकि नई दिल्ली ने हमेशा ही अपनी क्षेत्रीय अखंडता को लेकर अपने अनसुलझे मुद्दों पर कड़ा रुख ही अपनाया है, लेकिन हाशमी का मानना है कि, “दोनों के बीच संबंध कभी पूर्णत: सामान्य नहीं हो सकते. ऐसे में हम वुहान को दोहरा तो नहीं सकते, लेकिन चीन की ओर से भारत को कुछ रियायतें तो मिल ही सकती हैं.”

चाय की पत्तियों की लिखावट को पढ़कर यह समझा जा सकता है कि वाशिंगटन और बीजिंग दोनों ही राजनीतिक पैंतरेबाजी में उलझे हुए हैं. क्योंकि अमेरिका में जहां नवंबर में मध्यावधि चुनाव होने जा रहे हैं, वहीं चीन में भी 2022 में उसकी बीसवीं पार्टी कांग्रेस का आयोजन होना है. अमेरिकी मध्यावधि चुनाव में उतरने वाले उम्मीदवार चीन के मामले को लेकर डरपोक नहीं दिखाई देना चाहेंगे, जबकि सीसीपी भी चाहेगी कि वह ताइवान और उसके एकीकरण की पवित्रता को लेकर एक स्वर में बात करें.

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