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आज ऐसा मानने वालों की तादाद लगातार बढ़ रही है कि चीन की फंडिंग से चलने वाले प्रोजेक्ट दूरगामी अवधि में आर्थिक रूप से फ़ायदेमंद नहीं साबित होते. फिर भी अफ्रीकी देश, चीन को सकारात्मक नज़र से ही देखते हैं
अफ्रीका के विकास में चीन की भूमिका पर अक्सर सवाल खड़े होते रहे हैं. इसे लेकर लोगों की प्रतिक्रियाएं भी मिली-जुली ही रही हैं. अफ्रीका में चीन को जनहित के काम करने वाले देश, एक अहम व्यापारिक साझीदार के रूप में जाना जाता है- हालांकि ये कारोबारी रिश्ता काफ़ी असमान होता है- से लेकर ‘क़र्ज़ के जाल’ में फंसाने वाले देश और अफ्रीका में मूलभूत ढांचे के विकास में सबसे बड़े निवेशक जैसी अलग अलग भूमिकाओं में देखा जाता रहा है. चीन द्वारा साउथ-साउथ यानी विकासशील देशों के बीच सहयोग का जो माहौल बनाया गया है, उसमें विकासशील और ग़रीब देशों (ग्लोबल साउथ) के बीच आपसी सहयोग पर ज़ोर दिया जाता है. इससे कम और मध्यम आमदनी वाले देशों को विकास के एक वैकल्पिक मॉडल पर काम करने का मौक़ा मिलता है. निश्चित रूप से चीन का ये मॉडल अफ्रीकी देशों को दिलकश लग रहा है.
अपनी आर्थिक शक्ति के विस्तार के चलते चीन, अफ्रीका के कई देशों में बड़े बड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट को अपनी आर्थिक मदद से पूरा करने में सफल रहा है. अफ्रीका की आर्थिक समृद्धि और टिकाऊ विकास के लिए, वहां के बुनियादी ढांचे की कमियों को दूर किया जाना ज़रूरी है.
2013 में जब चीन ने बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) शुरू ही किया था, तब इसे चीन द्वारा बाहर निकलकर अन्य देशों तक पहुंच बनाने की ‘विशाल रणनीति’ के रूप में देखा गया था. उस समय से ही अफ्रीकी देश इस प्रोजेक्ट में भागीदार बनने को बेक़रार थे. BRI एक ऐसा प्रोजेक्ट है, जिसकी तस्वीर साफ़ नहीं है. इसकी कोई आधिकारिक परिभाषा नहीं है. इसमें शामिल कंपनियों या आधिकारिक भागीदारों की कोई सूची भी नहीं है, और न ही इसका कोई सचिवालय है. ऊपरी तौर पर देखें, तो BRI दुनिया के सभी महाद्वीपों के बीच परिवहन, ऊर्जा, दूरसंचार के बुनियादी ढांचे और देशों की जनता के बीच संवाद और वित्तीय सहयोग के एक विशाल अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क के रूप में प्रचारित किया गया है. अपनी आर्थिक शक्ति के विस्तार के चलते चीन, अफ्रीका के कई देशों में बड़े बड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट को अपनी आर्थिक मदद से पूरा करने में सफल रहा है. अफ्रीका की आर्थिक समृद्धि और टिकाऊ विकास के लिए, वहां के बुनियादी ढांचे की कमियों को दूर किया जाना ज़रूरी है. हालांकि, अन्य विकासशील देशों की तुलना में अफ्रीकी देशों में सड़कों तक पहुंच की दर काफ़ी कम है. अफ्रीकी विकास बैंक (AfDB) के मुताबिक़, अफ्रीका में मूलभूत ढांचे के विकास के लिए हर साल 130 से 150 अरब डॉलर की ज़रूरत है. इसकी तुलना में अफ्रीका के मूलभूत ढांचे के विकास में किए जा रहे निवेश में हर साल 68-108 अरब डॉलर तक की कमी रह जा रही है.
अफ्रीकी देशों द्वारा अपने परिवहन के नेटवर्क के विकास और कनेक्टिविटी सुधारने की ये ज़रूरत, BRI के घोषित लक्ष्य से मेल खाती है. यही वजह है कि बहुत से अफ्रीकी देशों को चीन द्वारा इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़े बड़े-बड़े प्रोजेक्ट में वित्तीय निवेश करने से फ़ायदा हुआ है. हालांकि, चीन की सरकारी कंपनियां अक्सर अपने इस निवेश को दूसरे तरीक़ों से वसूल लेती हैं. चीन की सरकारी कंपनियों द्वारा बहुत चुन-चुनकर रणनीतिक तरीक़े से किए गए इस काम की कई मिसालें देखने को मिली हैं. अमेरिका के विलियम ऐंड मैरी कॉलेज के रिसर्च केंद्र एडडेटा (AidData) के मुताबिक़, ‘साल 2000 से 2017 के बीच चीन द्वारा अन्य देशों को विकास में दी गई मदद का 42 प्रतिशत हिस्सा अफ्रीकी देशों को मिला था.’ ये चीन की उस आधिकारिक स्थिति से मेल खाता है, जिसमें चीन ने कहा था कि उसके विदेशी मदद के बजट का ज़्यादातर हिस्सा अफ्रीकी देशों के लिए होता है. चीन के विदेशी विकास सहायता फंड का सबसे ज़्यादा फ़ायदा पाने वालों में अफ्रीका के इथियोपिया, कॉन्गो गणराज्य, सूडान, ज़ाम्बिया, कीनिया, कैमरून, माली और कॉट डे आइवरी शामिल हैं.
रोडियम ग्रुप के एक अध्ययन से पता चलता है कि, ‘चीन के कुल विदेशी क़र्ज़ का एक चौथाई हिस्सा किसी न किसी चुनौती का सामना कर रहा है’. इससे चीन के बैंक, अपनी क़र्ज़ देने की नीतियों की नए सिरे से समीक्षा करने को मजबूर हुए हैं.
अपनी मूलभूत ढांचे संबंधी ज़रूरतें पूरी करने के लिए अफ्रीकी देशों के नेता लगातार चीन की तारीफ़ करते रहे हैं. हालांकि, अब बहुत से देशों को ये एहसास होने लगा है कि, चीन के इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट से फ़ौरी तौर पर तो आर्थिक लाभ होता है. लेकिन, दूरगामी अवधि में इन प्रोजेक्ट की उपयोगिता और उनसे जुड़े जोखिमों का प्रबंधन करना ज़रूरी है. हो सकता है कि BRI से जुड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट आगे चलकर ऐसे ‘सफ़ेद हाथी’ साबित हों, जिन्हें ग़ैर-ज़रूरी या आर्थिक रूप से नुक़सानदेह माना जाए. ऐसे प्रोजेक्ट में पैसे लगाने के बजाय उस पैसे को ऐसी परियोजनाओं में लगाया जाना बेहतर होगा, जिनसे आमदनी बढ़े, स्थानीय लोगों को रोज़गार मिले और आर्थिक तरक़्क़ी के दरवाज़े खुलें.
यही कारण है कि, ऐसे अफ्रीकी देशों की संख्या बढ़ रही है, जहां पर जनता के बदले हुए मूड के चलते चीन के ‘BRI प्रोजेक्ट को विरोध का सामना’ करना पड़ रहा है. कुछ अफ्रीकी देशों ने तो कई BRI प्रोजेक्ट या तो रद्द कर दिए हैं, या फिर उन पर नए सिरे से विचार कर रहे हैं कि BRI में शामिल होने से फ़ायदा ज़्यादा है या जोख़िम. पिछले साल कोविड-19 महामारी शुरू होने के बाद से ही ऐसी अटकलें तेज़ हो गई हैं कि चीन द्वारा अफ्रीका को दिए जाने वाले क़र्ज़ में कमी आएगी. महामारी ने चीन को बैकफुट पर धकेल दिया है. क्योंकि, उसे कई BRI प्रोजेक्ट को लागू करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, और ऐसे अफ्रीकी देशों की तादाद भी बढ़ रही है, जो क़र्ज़ चुकाने में दिक़्क़तें झेल रहे हैं. इन देशों के कुल क़र्ज़ का कम से कम 21 प्रतिशत हिस्सा चीन का है. इसके अलावा, रोडियम ग्रुप के एक अध्ययन से पता चलता है कि, ‘चीन के कुल विदेशी क़र्ज़ का एक चौथाई हिस्सा किसी न किसी चुनौती का सामना कर रहा है’. इससे चीन के बैंक, अपनी क़र्ज़ देने की नीतियों की नए सिरे से समीक्षा करने को मजबूर हुए हैं.
सबसे बड़ी घटना तो पिछले कुछ हफ़्तों के दौरान डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कॉन्गो में हुई है, जहां दुनिया का 60 प्रतिशत कोबाल्ट अयस्क पाया जाता है और जहां के खनन उद्योग के बड़े हिस्से पर चीन के निवेशकों का क़ब्ज़ा है.
चीन द्वारा अपनी नीतियों बदलाव का पहला संकेत 2018 में मिला था, जब राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने ऐलान किया कि BRI के फंड का इस्तेमाल ‘दिखावे की परियोजनाओं’ के लिए नहीं किया जाना है. लगभग उसी दौरान, चीन के अधिकारियों ने भी अपने सार्वजनिक बयानों में बदलाव लाकर इस बात पर ज़ोर देना शुरू किया था कि भविष्य में BRI के प्रोजेक्ट अधिक स्वच्छ और हरित होंगे. हालांकि, ऐसे तमाम सबूत सामने आ रहे थे जो इन दावों के उलट थे.
बहुत से अफ्रीकी देशों में आम लोगों और प्रशासकों के बीच चीन को लेकर नज़रिया बदलता दिख रहा है. ऐसा बड़े पैमाने पर और लगातार होता दिख रहा है. हाल के दौर में ज़ैम्बिया, नाइजीरिया, कीनिया, गिनी, सिएरा लियोन और कॉन्गो लोकतांत्रिक गणराज्य जैसे देश में चीन के प्रति ये मोहभंग बढ़ता दिख रहा है. चीन द्वारा किए जाने वाले समझौते में पारदर्शिता की कमी से ये समस्या और बढ़ जाती है. चीन की कंपनियां अपने क़र्ज़ के समझौतों में अक्सर शर्तों को गोपनीय रखने और सार्वजनिक न किए जाने जैसी बाध्यकारी बातें शामिल करती हैं. अब कोरोना वायरस के प्रकोप के दौरान हुई नस्लवादी घटनाओं के चलते इन बातों पर से पर्दा हटा है. अप्रैल 2020 में चीन के गुआंगझोऊ शहर में अफ्रीकी देशों के नागरिकों के ख़िलाफ़ हुई कार्रवाई और विदेशियों के प्रति भड़के ग़ुस्से के चलते चीन की इन कारगुज़ारियों से पर्दा उठा है. जल्द ही ये मुद्दा सियासी तौर पर भी उबल उठा और इससे चीन और अफ्रीका के बीच सहयोग के माहौल को निश्चित रूप से नुक़सान पहुंचा है.
चीन के वित्तीय सहयोग से अफ्रीका में चल रही परियोजनाएं रद्द करने की पहली मिसाल 2018 में देखने को मिली थी. तब सिएरा लियोन ने 40 करोड़ डॉलर की लागत से मामामह हवाई अड्डा बनाने के समझौते को आर्थिक उपयोगिता संबंधी चिंताओं के चलते रद्द कर दिया था. इसके बाद नवंबर 2020 में चीन के इंडस्ट्रियल ऐंड कॉमर्शियल बैंक ने कीनिया में कोयले से चलने वाले 1050 मेगावाट के लामू पावर प्लांट की परियोजना से ख़ुद को अलग कर लिया था. कीनिया के पर्यावरणविद् और आम नागरिक संगठन, कई महीनों से इस प्रोजेक्ट का कड़ा विरोध कर रहे थे, क्योंकि, लामू में ही यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत घोषित किया गया लामू का पुराना क़स्बा है. इसके अलावा सिएरा लियोन में वर्षावनों के पास एक समुद्र तट पर चीन द्वारा एक औद्योगिक फिशमील कारखाना लगाने की योजना का भी स्थानीय लोगों और पर्यावरणविदों ने कड़ा विरोध किया था. उन्होंने इस प्रोजेक्ट को ‘इंसानों और पर्यावरण के लिए क़यामत’ तक का दर्जा तक दे दिया था. इसी तरह गिनी में सिमानडोऊ लौह अयस्क निकालने की परियोजना का ठेका नवंबर 2019 में दिया गया था. लेकिन तब से ही इसकी शर्तों को लेकर बातचीत चल रही है, जिसमें अब तक कोई ख़ास प्रगति नहीं हुई है. अफ्रीका में चीन के प्रोजेक्ट रद्द करने अन्य हालिया घटनाओं में चीन की सिनो हाइड्रो कंपनी को घाना में बॉक्साइट के बदले इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट चलाने का 2 अरब डॉलर का ठेका, और घाना द्वारा चीन की बीजिंग एवरीवे ट्रैफिक और लाइटनिंग कंपनी को दिया गया ठेका रद्द करना शामिल है. चीन की एवरीवे ट्रैफिक ऐंड लाइटनिंग कंपनी 10 करोड़ डॉलर से यातायात के प्रबंधन का एक आधुनिक सिस्टम विकसित करने वाली थी.
अफ्रीका को लेकर अपनी रुढ़िवादी सोच और संवाद के पुराने तरीक़ों के बावजूद, आज भी अफ्रीका में अमेरिका के पास आर्थिक और सुरक्षा सहयोग के क्षेत्र में रिश्तों की मज़बूत बुनियाद है, जिस पर वो नई साझेदारियां विकसित कर सकता है.
सबसे बड़ी घटना तो पिछले कुछ हफ़्तों के दौरान डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कॉन्गो में हुई है, जहां दुनिया का 60 प्रतिशत कोबाल्ट अयस्क पाया जाता है और जहां के खनन उद्योग के बड़े हिस्से पर चीन के निवेशकों का क़ब्ज़ा है. मई 2021 में कॉन्गो के राष्ट्रपति फीलिक्स टिशिसेकेडी ने तय किया कि उनकी सरकार विदेशी भागीदारों के साथ किए गए खनन के समझौतों की समीक्षा करेगी. इसमें चीन के साथ खनिज के बदले में इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास के 6 अरब डॉलर के समझौते भी सामिल थे. इस समीक्षा के बाद कॉन्गो के साउथ किवू प्रांत में सोने के खनन में जुटी छह कंपनियों के ठेके निलंबित कर दिए गए. इन पर अवैध खनन, मानव अधिकारों के उल्लंघन और पर्यावरण को नुक़सान पहुंचाने के आरोप थे. इस मसले की महीनों तक मीडिया में चर्चा रही. इससे चीन की कंपनियों के बारे में लोगों की राय ये बनी कि वो अपने ठेके की शर्तों का पालन नहीं कर रही हैं. न ही वो सामाजिक सेवा कर रही हैं, और न ही अपने काम वाले क्षेत्रों में स्थानीय समुदायों के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट विकसित कर रही हैं. हैरानी की बात ये है कि जो अमेरिका, चीन को निशाना बनाने और उसके तौर-तरीक़ों पर सवाल उठाने का कोई भी मौक़ा हाथ से नहीं जाने देता, उसने सोशल मीडिया पर तंज़ कसने के अलावा, इन गतिविधियों की निंदा करनी तो छोड़िए, इस पर कोई प्रतिक्रिया तक नहीं दी.
चीन द्वारा अफ्रीका को अपना साझीदार चुनने की दूरगामी रणनीति के नतीजे हम चीन और कई अफ्रीकी देशों के बीच मज़बूत व्यापारिक, कारोबारी, तकनीकी और सैन्य-सुरक्षा संबंधी रिश्तों के तौर देखते हैं. हाल के समय तक मूलभूत ढांचे के विकास से जुड़े वैश्विक बाज़ार में चीन का मुक़ाबला करने वाला कोई नहीं था. लेकिन, अमेरिका में नए राष्ट्रपति के आने के बाद से अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने BRI के एक व्यवहारिक विकल्प के विकास पर ज़ोर देना शुरू किया है. इसके लिए, जून 2021 में G-7 द्वारा घोषित, बिल्ड बैक बेटर वर्ल्ड (B3W) जैसी पहल शामिल हैं. ऐसे क़दमों के बावजूद अमेरिका, अफ्रीकी महाद्वीप को साझेदारियों और संबंधों के नए अवसरों के बजाय, चीन के साथ भौगोलिक सामरिक मुक़ाबले के मैदान के ही रूप में देखता है. ये बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है, क्योंकि अफ्रीकी देशों में अभी भी जितना चीन के प्रति सकारात्मक रवैया है, क़रीब क़रीब वैसी ही सोच अमेरिका को लेकर भी है.
2020 में 18 अफ्रीकी देशों में किए गए एफ्रोबैरोमीटर सर्वे में भी यही बात निकलकर सामने आई है. अफ्रीकी लोग चीन के सहयोग और प्रभाव को अभी भी अच्छी नज़र से ही देखते हैं. हालांकि, कोविड-19 महामारी के चलते घरेलू मोर्चे पर पैदा हुई चुनौतियों के चलते, चीन द्वारा अफ्रीका में बड़े पैमाने पर निवेश में कमी आने को लेकर ज़ाहिर की जा रही आशंकाएं भी वाजिब हैं. ऐसे में अमेरिका के पास अच्छा मौक़ा है कि वो अफ्रीका के साथ अर्थपूर्ण और मक़सद भरा संवाद स्थापित करने की कोशिश करे. क्योंकि, उसके विकास के मॉडल को आज भी अफ्रीकी देश, चीन के मुक़ाबले तरज़ीह देते हैं. अफ्रीका को लेकर अपनी रुढ़िवादी सोच और संवाद के पुराने तरीक़ों के बावजूद, आज भी अफ्रीका में अमेरिका के पास आर्थिक और सुरक्षा सहयोग के क्षेत्र में रिश्तों की मज़बूत बुनियाद है, जिस पर वो नई साझेदारियां विकसित कर सकता है. लेकिन जब तक अमेरिका के नेता इस दिशा में वास्तविक क़दम उठाकर अपने वादे पूरे नहीं करते हैं, तब तक BRI और चीन अफ्रीकी जनता के बीच एक लोकप्रिय पसंद बने रहेंगे.
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Abhishek Mishra is an Associate Fellow with the Manohar Parrikar Institute for Defence Studies and Analysis (MP-IDSA). His research focuses on India and China’s engagement ...
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