साल 2019 में लेबनान में प्रदर्शन और विरोध का दौर शुरू हो गया. जब से लेबनान की आम जनता भ्रष्ट नेताओं और अभिजात वर्ग के वित्तीय कुप्रबंधन के ख़िलाफ़ सड़कों पर आवाज़ बुलंद करने लगी तब से लेबनान की अर्थव्यवस्था में गिरावट दर्ज़ की जाने लगी. साल 1997 में लेबनान की मुद्रा पाउंड का डॉलर के मुकाबले विनिमय दर 1507 पर स्थिर हो गया. बाजार में यह अभी भी आधिकारिक दर है लेकिन पिछले सप्ताह गिरकर यह आंकड़ा 22,200 पर पहुंच गया. बुनियादी ज़रूरतों की चीजों की कीमत लोगों की पहुंच से बाहर हो गई. पेट्रोल पंप पर मीलों तक लोगों की कतार लगने लगी और लेबनान में बिजली गुल होना दैनिक जीवन का हिस्सा बन गया.
लेकिन यह आर्थिक संकट तब और गहरा गया जब देश की सेना के जवानों के लिए अपने बच्चों के लिए दो जून की रोटी का जुगाड़ कर पाना भी कठिन होने लगा. संकट की इस घड़ी में पिछले महीने लेबनान के सैन्य मुखिया जोसेफ आउन फ्रांस के दौरे पर गए और इससे पहले कि बहुत देर हो जाए उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से मदद की अपील की. उन्होंने चेतावनी भरे लहजे में कहा कि अगर पश्चिमी मुल्क ने समय रहते लेबनान की सहायता नहीं की तो लेबनान की सेना बिखर जाएगी जिससे युद्धग्रस्त सीरिया और इज़रायल से सटी इसकी सीमा पर सुरक्षा को लेकर खालीपन पैदा हो जाएगा. लेबनान के सैन्य प्रमुख ने कहा “आखिर कैसे एक सेना का जवान अपने परिवार का भरण पोषण करेगा अगर उसकी तनख्वाह 90 अमेरिकी डॉलर से ज़्यादा नहीं होगी?”.
हालांकि, विशेषज्ञों की राय में इसके अलावा जो चिंता की सबसे बड़ी वजह है वो यह कि सेना शरणार्थियों को यूरोप में पलायन करने से रोकने में प्रभावी नहीं होगी. पिछले एक दशक में लेबनान के भूमध्यसागर तट से हज़ारों की तादाद में सीरिया से लोगों ने यूरोप के अलग अलग देशों में शरण लिया है.
संकट की इस घड़ी में पिछले महीने लेबनान के सैन्य मुखिया जोसेफ आउन फ्रांस के दौरे पर गए और इससे पहले कि बहुत देर हो जाए उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से मदद की अपील की.
फ्रांस के दौरे से पहले लेबनान के सेना प्रमुख ने सार्वजनिक तौर पर लेबनान के राजनीतिक वर्ग की घनघोर आलोचना की थी. उन्होंने कहा कि “हमलोग कहां जा रहे हैं ? आप किस बात का इंतजार कर रहे हैं ? आपकी योजना आगे क्या है ? हमने ऐसी स्थिति के पनपने के ख़तरे को लेकर एक से ज़्यादा बार चेतावनी दी थी”.
पैसों की तंगी से जूझती फ़ौज
लेबनान की सेना को अपने जवानों की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए फौरन 100 मिलियन अमेरिकी डॉलर की ज़रूरत है. लेबनान की सेना में करीब 80,000 जवान हैं, जिन्हें लेबनान की मुद्रा पाउंड को अमेरिकी डॉलर में बदलने पर, करीब 800 डॉलर प्रति महीने में मिलती है. लेकिन यह तब की बात है जबकि लेबनान की मुद्रा का अवमूल्यन नहीं हुआ था. अब सेना के इन जवानों को इसका करीब दसवां हिस्सा मासिक वेतन के तौर पर मिल रहा है. और ज़्यादातर लेबनान के आम नागरिकों की तरह ही सेना के जवानों के सामने भी दो जून की रोटी का जुगाड़ करने की चुनौती है और गरीबी की जाल में वो भी फंस चुके हैं.
लेबनान की सेना के लिए पैसे जुटाने के लिए फ्रांस ने एक अंतर्राष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस का आयोजन भी किया और पिछले कई महीनों से वह जवानों के लिए राशन और दवाईयां भेज रहा है. फ्रांस के अलावा अमेरिका ने भी लेबनान को सहायता देने का वादा किया है. लेकिन अभी भी चिंता की कई वजह हैं, ख़ासकर इस बात को लेकर कि देश के लोगों को अभी भी जिस संस्था पर सबसे ज्यादा भरोसा है उसे बचाने के लिए इतनी मदद नाकाफी होगी.
सेना के इन जवानों को इसका करीब दसवां हिस्सा मासिक वेतन के तौर पर मिल रहा है. और ज़्यादातर लेबनान के आम नागरिकों की तरह ही सेना के जवानों के सामने भी दो जून की रोटी का जुगाड़ करने की चुनौती है और गरीबी की जाल में वो भी फंस चुके हैं.
लेकिन हैरानी तो इस बात को लेकर है कि आम लोगों के दुख से लेबनान के राजनीतिक वर्ग को कोई सहानुभूति नहीं है. राजनेता कैबिनेट पद के लिए एक दूसरे से लड़ने में व्यस्त हैं और देश में एक ऐसी सरकार नहीं बन पा रही है जो अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे संस्थानों से बातचीत करे और देश के लिए बेल आउट पैकेज के बारे में बात कर सके.
आधी से ज़्यादा जनता ग़रीबी रेखा के नीचे
पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री पद के लिए नामित साद हरीरी ने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया. दरअसल हरीरी और राष्ट्रपति माइकल आउन के दामाद और देश के पूर्व विदेश मंत्री गेब्रान बैसिल के बीच विवाद था. बैसिल चाहते थे कि कैबिनेट में एक तिहाई समेत एक मंत्री ईसाई समुदाय का हो जिससे वो उनपर अपना प्रभाव जमा सकें और हर एक कानून पर वो वीटो पावर लगा सकें. लेकिन हारीरी ने इसे मानने से इंकार कर दिया और इस्तीफ़ा दे दिया. इसी घटना के बाद से कई लेबनान के विशेषज्ञों और सेना प्रमुख ने देश में घोर अव्यवस्था के पैदा होने की आशंका जताई थी.
पिछले महीने जारी किए गए एक रिपोर्ट में विश्व बैंक ने कहा था कि लेबनान भयंकर आर्थिक और वित्तीय संकट के दौर से गुजर रहा है. शायद लेबनान दुनिया में तीसरा सबसे ख़राब मुल्क है. इस रिपोर्ट में कहा गया कि पूरी तरह से एक कार्यशील कार्यकारी प्राधिकरण की गैरमौजूदगी सांप्रदायिक आधार पर बंटे हुए देश के समाज में शांति के लिए ख़तरा है.
पिछले महीने जारी किए गए एक रिपोर्ट में विश्व बैंक ने कहा था कि लेबनान भयंकर आर्थिक और वित्तीय संकट के दौर से गुजर रहा है. शायद लेबनान दुनिया में तीसरा सबसे ख़राब मुल्क है.
इस रिपोर्ट में कहा गया कि “करीब डेढ़ साल से ज़्यादा वक्त से लेबनान कई तरह की चुनौतियों का सामना कर रहा है : शांति के दौरान देश में आर्थिक और वित्तीय संकट, कोरोना महामारी और बेरूत विस्फोट” – भी इसमें शामिल है। “विश्व बैंक के मुताबिक साल 2020 में देश की जीडीपी में 20.3 फ़ीसदी की गिरावट दर्ज़ की गई जबकि साल 2019 में इसमें 6.7 फ़ीसदी की गिरावट दर्ज़ की गई थी. ” इसके साथ ही विश्व बैंक ने यह भी कहा कि “इस तरह की भयंकर गिरावट लड़ाई या फिर युद्ध की हालात में देखे जाते हैं.”
विश्व बैंक के अनुमान के मुताबिक लेबनान की आधी से ज़्यादा आबादी गरीबी रेखा के नीचे आ जाएगी, और बेरोजगारी दर के तेजी से बढ़ने की वजह से बड़ी तादाद में लोग स्वास्थ्य समेत बुनियादी सेवाओं के लिए तरसने लगेंगे. विश्व बैंक के गंभीर दृष्टिकोण के बावजूद ऐसा लगता है कि लेबनान के नेता बेफ़िक्री की नींद में सोए हों. आगे प्रधानमंत्री के लिए किसी नाम पर सहमति नहीं बन पाने की हालत में ना तो देश में किसी भी तरह की सुधार प्रक्रिया की शुरुआत हो सकेगी और ना ही अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से कर्ज़ लिया जा सकेगा. अगले साल देश में चुनाव होने वाले हैं, लेकिन उससे पहले लेबनान में लोगों की ज़िंदगी में और गिरावट दर्ज़ की जाएगी जो बेहद चिंताजनक है.
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