इस साल की शुरुआत में मोदी सरकार ने अमेरिका से 31 MQ9-B रीपर मानव रहित हवाई वाहन (यूएवी) खरीदने का एलान किया था. अमेरिका की जनरल एटॉमिक (जीए) द्वारा विकसित इन यूएवी को प्रीडेटर्स के रूप से भी जाना जाता है. भारतीय सशस्त्र बलों की मज़बूती के लिए ये घोषणा काफी महत्वपूर्ण है. इन 31 प्रीडेटर्स में से 15 MQ9 UAV भारतीय नौसेना को मिलेंगे. समुद्री मिशनों के लिए इन्हें सी गार्डियन कहा जाता है, जबकि भारतीय सेना और भारतीय वायु सेना को आठ-आठ स्काई गार्डियन मिलेंगे, रीपर यूएवी भारत की विशाल ज़मीनी सीमाओं की निगरानी के लिए खुफिया, निगरानी और टोही (आईएसआर) मिशनों को समर्पित होंगे.
ये सौदा मोदी सरकार द्वारा किए गए कुछ पूंजीगत अधिग्रहणों में से एक है. हालांकि ये खरीद इस सरकार की प्रमुख योजनाओं में से एक, आत्मनिर्भर भारत (एएनबी) पहल के अनुरूप नही है.
इन रीपर प्रीडेटर्स को मुख्य रूप से आईएसआर मिशनों के उद्देश्य के लिए लाया जा रहा है, लेकिन ज़रूरत पड़ने पर वो स्ट्राइक मिशन यानी हमला भी कर सकते हैं. भारत द्वारा खरीदे जा रहे यूएवी मल्टीरोल हैं, यानी ये सर्विलांस, टोह, निगरानी और हमले जैसी कई भूमिकाओं को अंजाम दे सकते हैं. हालांकि भारतीय सेनाओं के तीनों अंग इसे मुख्य रूप से आईएसआर मिशनों के लिए ही खरीद रहे हैं. MQ9s हाई एल्टीट्यूड लॉन्ग एंड्योरेंस (एचएएलई) हैं. यही वजह है कि ये कई तरह की क्षमताओं से लैस हैं. ये लगातार 40 घंटे तक उड़ान भर सकते हैं. 40 हजार फीट की ऊंचाई तक जा सकते हैं और इनकी रेंज 11 हज़ार 112 किलोमीटर तक की है. इनमें सेटेलाइट के ज़रिए भी संचार (सैटकॉम) किया जा सकता है. रीपर्स की ये खासियत इसे और भी मारक बनाती है. ये निश्चित है कि MQ9-B के आने से तीनों सेनाओं की आईएसआर क्षमता बढ़ेगी. ये सौदा मोदी सरकार द्वारा किए गए कुछ पूंजीगत अधिग्रहणों में से एक है. हालांकि ये खरीद इस सरकार की प्रमुख योजनाओं में से एक, आत्मनिर्भर भारत (एएनबी) पहल के अनुरूप नही है. आत्मनिर्भर भारत योजना के तहत भारतीय सेना की तीनों शाखाओं के लिए सैन्य रूप से सक्षम स्वदेशी ड्रोन के निवेश, विकास और उत्पादन की बात कही गई है. इस दिशा में काम हो भी रहा है.
तापस का विकास और भारत की यूएवी क्षमता कहां तक पहुंची?
हमने अब तक आपको अमेरिकी रीपर ड्रोन्स की जो भी विशेषताएं बताई, वो भारत के स्वदेशी मीडियम एल्टीट्यूड लॉन्ग एंड्योरेंस (एमएएलई) ड्रोन की टैक्टिकल एयरबोर्न प्लेटफॉर्म फॉर एयर सर्विलांस (TAPAS) की क्षमताओं से कहीं ज़्यादा हैं. विशेष रूप से अगर बात भारतीय स्वदेशी यूएवी कार्यक्रम की करें तो इसमें कई कमियां हैं, जो इसे कमज़ोर करती हैं. तापस को विकसित करने का काम लंबा होता जा रहा है. फिलहाल ये तय नहीं है कि इसके विकास का काम कब तक चलेगा. इसे बनाने का काम 2011 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार के तहत शुरू किया गया. 2014 में बनी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की अगुवाई वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार के तहत भी इस पर काम जारी रहा. इसके विकास की समय सीमा 2016 थी. इस साल इसने अपनी पहली परीक्षण उड़ान भरी थी, लेकिन इसके विकास में समय और लागत बहुत ज़्यादा लग गई. पहले परीक्षण के बाद इसकी लागत 1,650 करोड़ रुपये यानी करीब 200 मिलियन डॉलर आंकी गई थी. जनवरी 2024 में इसकी संशोधित लागत बढ़कर 1,786 करोड़ रुपये यानी 215 मिलियन डॉलर हो गई. हालांकि लागत में 136 करोड़ की बढ़ोत्तरी बहुत ज़्यादा नहीं लगेगी लेकिन जब हम इसके विकास में लगे लंबे समय को देखें तो इसका परिणाम संतोषजनक नहीं रहा है. 13 साल के बाद भी हमें ऐसा उत्पाद मिला है, जिसकी गुणवत्ता ठीक नहीं है.
तापस ड्रोन की एक प्रमुख तकनीकी कमी इसका इंजन है. तेजस लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (एलसीए) जैसे अन्य भारतीय विमान विकास कार्यक्रमों की भी ये एक बुनियादी कमज़ोरी है. सार्वजनिक क्षेत्र के वैमानिकी विकास प्रतिष्ठान (एडीई) के निदेशक वाई. दिलीप भी ये बात मानते हैं कि "मुख्य रूप से, हम इंजनों से लाचार थे". स्वदेशी ड्रोन्स के इंजन की इन्हीं खामियों ने सेनाओं को 31 यूएवी की आपूर्ति के लिए MQ9-B की निर्माता कंपनी जनरल एटॉमिक्स की ओर रुख़ करने के लिए मज़बूर किया. इंजन में खामियों के अलावा भी तापस में अमेरिकी रीपर ड्रोन की तुलना में कुछ और कमियां हैं. तापस की सहनशक्ति MQ9-B से कम है. इसमें उपग्रह से संचार (सैटकॉम) की क्षमता नहीं है. ये उतना ऊंचा भी नहीं उड़ सकता, जितनी ऊंचाई पर अमेरिकी रीपर ड्रोन जाता है. सशस्त्र सेवाओं ने पहले तापस का परीक्षण देखा. इसी के बाद रक्षा मंत्रालय ने MQ9-B ड्रोन खरीदने का फैसला किया. इस साल की शुरुआत में रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) को तापस को "मिशन-मोड" परियोजना के रूप में बंद करना पड़ा था.
स्वदेशी ड्रोन्स के इंजन की इन्हीं खामियों ने सेनाओं को 31 यूएवी की आपूर्ति के लिए MQ9-B की निर्माता कंपनी जनरल एटॉमिक्स की ओर रुख़ करने के लिए मज़बूर किया.
तापस के विकास पर वायुसेना और नौसेना का ज़ोर
ये सही है कि अमेरिकी ड्रोन MQ9-B में कई खूबियां हैं. इसकी तुलना में तापस का प्रदर्शन खराब रहा. वो भारतीय सेनाओं की गुणात्मक ज़रूरतों को पूरा कर पाने में अब तक नाकाम रहा है. इसके बावजूद रक्षा प्रतिष्ठान को तापस का विकास करने को लेकर हतोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए. भारतीय वायु सेना और भारतीय नौसेना की बदौलत तापस परियोजना को इसकी तकनीकी कमियों के बावजूद दोबारा शुरू किया जा रहा है. भारतीय वायुसेना का मानना है कि तापस में कुछ कमियां तो हैं, लेकिन इन्हें सुधारा जा सकता है. वायुसेना इन्हें वास्तविक नियंत्रण रेखा (LaC) में तैनात करना चाहती है. भारतीय नौसेना ने भी कर्नाटक के तट पर तापस के समुद्री संस्करण का परीक्षण किया है. करीब एक साल पहले मानवरहित यान के नौसैनिक संस्करण का परीक्षण युद्धपोत आईएनएस सुभद्रा पर स्थापित कमांड-एंड-कंट्रोल सेंटर (C&CC) से किया गया था. तब इसने 20 हजार फीट की ऊंचाई पर साढ़े तीन घंटे तक 40 मिनट की उड़ान भरी. इसके बाद आईएनएस सुभद्रा पर सवार कंट्रोल सेंटर ने इसकी निगरानी की और तापस का नौसैन्य संस्करण कर्नाटक के चित्रदुर्ग स्थित अपने ठिकाने पर लौट आया. तपास ने अब तक 200 से ज़्यादा उड़ान परीक्षण किए हैं और मीडियम एल्टीट्यूड लॉन्ग एंड्योरेंस यूएवी के रूप में अच्छा प्रदर्शन किया है. वायुसेना और नौसेना की खुफिया, निगरानी और टोही क्षमताओं में जो कमी है, उसे कम करने में तपास मदद करता है.
वायुसेना और नौसेना की तुलना में भारतीय थल सेना तापस को लेकर ज़्यादा उत्साहित नहीं है. वो इसका विरोध कर रही है. मोदी सरकार की आत्मनिर्भर भारत पहल के बावजूद तापस कार्यक्रम को जारी रखने में वायुसेना और नौसेना से समर्थन मिल रहा है. ये तापस योजना के लिए राहत की बात है. वायुसेना और नौसेना को स्वदेशी सैन्य ड्रोन कार्यक्रम में सुधार का भरोसा है, इसलिए वो इसे बीच में छोड़ने के पक्ष में नहीं हैं. उन्हें उम्मीद है कि जैसे अतीत में कई स्वदेशी सैन्य योजनाएं सफल हुई, वैसे ही एक दिन इसमें भी सफलता मिलेगी.
वायुसेना और नौसेना को स्वदेशी सैन्य ड्रोन कार्यक्रम में सुधार का भरोसा है, इसलिए वो इसे बीच में छोड़ने के पक्ष में नहीं हैं. उन्हें उम्मीद है कि जैसे अतीत में कई स्वदेशी सैन्य योजनाएं सफल हुई, वैसे ही एक दिन इसमें भी सफलता मिलेगी.
रक्षा उत्पादों में चीन के उपकरण : एक गंभीर चुनौती
हाल ही में रक्षा मंत्रालय (एमओडी) ने निजी क्षेत्र के उद्यमों और डीआरडीओ जैसी सरकारी संस्थाओं को चेतावनी दी. रक्षा मंत्रालय की तरफ से कहा गया कि सैन्य यूएवी के लिये चीन से जो ड्रोन के पुर्जे खरीदे जा रहे हैं, वो भविष्य में सुरक्षा को लेकर गंभीर चुनौती पेश कर सकते हैं. इसके बावजूद निजी उद्योग सैन्य उपकरणों के निर्माण के लिए अभी भी चीन से आयात किए जाने वाले कलपुर्जों पर निर्भर है. बेंगलुरु स्थित न्यूस्पेस रिसर्च एंड टेक्नोलॉजीज भारत की सबसे प्रसिद्ध निजी ड्रोन कंपनियों में से एक है. इस कंपनी के संस्थापक समीर जोशी ने कहा कि 'रक्षा उत्पादों की आपूर्ति श्रृंखला के 70 प्रतिशत उपकरण चीन में बने थे.' समीर जोशी ने कहा कि कलपुर्जों को चीन की बजाए किसी दूसरे देश से खरीदने पर इसकी उत्पादन की लागत बहुत बढ़ गई और ड्रोन कार्यक्रमों को पूरा करने में देरी हुई.
हालांकि तापस को भारतीय वायुसेना और भारतीय नौसेना का समर्थन हासिल है, लेकिन मोटे तौर पर देखें तो भारतीय ड्रोन उद्योग कलपुर्जों और उपकरणों के मामले में चीन पर बहुत ज़्यादा निर्भर है. कुछ मामलों में भारत ट्रेड-ऑफ का सामना करता है. खास तौर पर सैन्य ड्रोन के पुर्जों की खरीद के लिए वो चीन के अलावा किसी दूसरे स्रोत की अनुमति देता है. इन दूसरे स्रोतों में भी देशी उद्योगों को प्राथमिकता दी जाती है. इससे ड्रोन के विकास की लागत बढ़ जाती है और इसे विकसित करने में समय भी ज़्यादा लगता है. ड्रोन की सुरक्षा में सेंध भी ना लगे और यूएवी बनाने में काम आने वाले उपकरणों की खरीद लागत भी कम रहे, इसके लिए कैमरा कार्यों जैसे प्रमुख क्षेत्रों में गुणवत्ता से समझौता करना पड़ता है. हालांकि संचार, रेडियो ट्रांसमिशन और सॉफ्टवेयर सुरक्षा जैसे घटक सैन्य अभियानों के लिए महत्वपूर्ण हैं. रक्षा मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने इस असमंजस को काफी अच्छे तरीके से व्यक्त किया. उन्होंने कहा कि "अगर आज मैं चीन से उपकरण खरीदता हूं लेकिन कहता हूं कि हम इसे भारत में बनाना चाहता हैं, तो इस लागत 50 प्रतिशत बढ़ जाएगी. एक देश के रूप में हमें ऐसे इकोसिस्टम का निर्माण करने की आवश्यकता है, जहां हम इस तरह के उपकरण और उत्पाद बना सकें लेकिन इसमें समय और पैसा दोनों लगता है.
स्वदेशी सैन्य ड्रोन्स का क्या भविष्य है?
इसमें शक नहीं कि भारत के स्वदेशी सैन्य यूएवी कार्यक्रम में अभी तक असफलता मिली है. इसका प्रदर्शन खराब रहा है. फिर भी हमें यूएवी के साथ-साथ अन्य मोर्चों पर और अधिक उत्साह के साथ काम करने की आवश्यकता होगी. भारत में निजी क्षेत्र की रक्षा कंपनियों और स्टार्टअप और मिलकर काम करना होगा, जिससे गुणवत्तापूर्ण रक्षा उत्पादन में हमें ठोस नतीजे हासिल हो सके. अगर तापस की बात करें तो अभी तक ये मुख्य रूप से डीआरडीओ की ही परियोजना रही है. डीआरडीओ को ही इसके विकास की जिम्मेदारी दी गई है. ऐसे में अगर तापस जैसे यूएवी को विकसित करने का काम दो संस्थाओं को देने पर विचार किया जाए तो ये एक बुद्धिमत्तापूर्ण फैसला हो सकता है. अगर दो संस्थाएं इस पर काम करेंगी तो प्रतिस्पर्धा पैदा होगी. उनके बीच बेहतर काम करने की होड़ से गुणवत्तापूर्ण उत्पाद मिल सकता है. भविष्य में भारत हाई एल्टीट्यूड लॉन्ग एंड्योरेंस क्षमता वाले यूएवी बनाने पर विचार कर रहा है. ऐसे में अगर ये काम दो संस्थाओं को दिया जाएगा तो दीर्घकाल में इसका फायदा मिल सकता है. उदाहरण के लिए इस काम का नेतृत्व डीआरडीओ या फिर एक निजी क्षेत्र की कंपनी को दिया जा सकता है. हालांकि इसके लिए रक्षा मंत्रालय को डीआरडीओ और निजी क्षेत्र की कंपनियों द्वारा बोलियां आमंत्रित करने की आवश्यकता होगी. निजी क्षेत्र की कंपनियों की रक्षा मंत्रालय और सशस्त्र सेवाओं की तकनीकी टीमों द्वारा सावधानीपूर्वक जांच की जाएगी, जिससे ये तय किया जा सके कि किस कंपनी को दो समानांतर मीडियम एल्टीट्यूड लॉन्ग एंड्योरेंस यूएवी सिस्टम विकसित करने का अनुबंध मिलना चाहिए. इसके अलावा निजी क्षेत्र की कंपनियों को भी ड्रोन विकसित करने के लिए कुछ ज़ोखिम के साथ-साथ लागत भी उठानी होगी. उन्हें अपने अनुसंधान और विकास पर आंतरिक निवेश करना होगा.
हालांकि फिलहाल एक भी भारतीय ड्रोन ऐसा नहीं है जिसे सैन्य रूप से सक्षम माना जा सके, विशेष रूप से 30 से ज़्यादा घंटे की सहनशक्ति और महत्वपूर्ण कामों को अंजाम देने वाले स्वदेशी यूएवी के विकास में अभी हम बहुत पीछे हैं. लेकिन भारत में उच्च गुणवत्ता वाले सैन्य ड्रोन के विकास को लेकर पूरी तरह निराशाजनक सोच रखना भी सही नहीं है. अगर भारत सरकार की तरफ से मदद मिलती रहे, सेनाओं की तरफ से सकारात्मक सहयोग के संकेत मिले और डीआरडीओ और निजी उद्यमों की तरफ से लगातार कोशिशें जारी रहें तो हम एक दिन के हर ज़रूरी शर्तों पर खरा उतरने वाला यूएवी बना सकते हैं.
कार्तिक बोम्माकांति ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में सीनियर फेलो हैं
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