Author : Soumya Awasthi

Expert Speak Raisina Debates
Published on Oct 14, 2025 Updated 0 Hours ago

अफ़ग़ानिस्तान के विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्तक़ी की दारुल उलूम देवबंद यात्रा सिर्फ एक धार्मिक यात्रा नहीं बल्कि दक्षिण एशिया की साझा इस्लामी विरासत को फिर से जोड़ने के लिए नई राजनीतिक और कूटनीतिक संभावनाओं को जन्म देने वाला अहम मोड़ है। यह यात्रा भारत के लिए तालिबान के साथ बातचीत में एक नया, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक आयाम खोलती है जो परंपरागत धार्मिक संबंधों को फिर से जिंदा कर उसके क्षेत्रीय प्रभाव को मजबूत कर सकता है.

देवबंद में मुत्तक़ी: तालिबान की वैचारिक घर वापसी?

9 अक्टूबर 2025 को अफ़ग़ानिस्तान के विदेश मंत्री आमिर ख़ान मुत्तक़ी भारत दौरे पर आए. इस दौरान उनकी भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर के साथ सुरक्षा और व्यापार समेत अन्य मुद्दों पर चर्चा हुई. भारत सरकार के साथ आधिकारिक बातचीत करने के अलावा अफ़ग़ान विदेश मंत्री मुत्तक़ी ने उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले स्थित दारुल उलूम देवबंद का भी दौरा किया. दारुल उलूम देवबंद दक्षिण एशिया के सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक मदरसों में से एक है. इसका दर्जा मिस्र के क़ाहिरा स्थित अल-अज़हर विश्वविद्यालय के बाद दूसरे स्थान पर है.

मुत्तक़ी की यह यात्रा उस ऐतिहासिक, धार्मिक और रणनीतिक रिश्ते को फिर से ज़िंदा करने की भी शुरुआत है जो दक्षिण एशिया में इस्लामी विचारधारा के सबसे प्रभावशाली संप्रदायों में से एक के माध्यम से अफ़ग़ानिस्तान और भारत को जोड़ता है. देवबंद के बौद्धिक और आध्यात्मिक प्रभुत्व से जुड़ने की तालिबान की कोशिश दो चीजों को दिखाती है. पहला, इसके ज़रिए तालिबान खुद को वैधता दिलाना चाहता है. दूसरा, इससे ये भी साबित होता है कि अफ़ग़ानिस्तान की धार्मिक पहचान को आकार देने वाले इस्लामी विद्वानों की वंशावली में भारत का स्थान कितना महत्वपूर्ण है.

  • दारुल उलूम देवबंद को दक्षिण एशिया के प्रमुख ऐतिहासिक मदरसों में गिना जाता है, और इसे प्रतिष्ठा में मिस्र के क़ाहिरा स्थित अल-अज़हर विश्वविद्यालय के बाद दूसरा स्थान प्राप्त है.
  • तालिबान का देवबंद का दौरा भारत के लिए उस धार्मिक और ऐतिहासिक आस्था के जरिए नए संवाद का अवसर खड़ा करता है, जिसने पहले उनके बीच दरारें पैदा की थीं.

देवबंद और अफगानिस्तान का ऐतिहासिक संबंध
दारुल उलूम देवबंद और अफ़ग़ानिस्तान के बीच गहरे और दीर्घकालिक संबंध हैं. उत्तर प्रदेश में सहारनपुर के देवबंद कस्बे में 1866 में स्थापित यह मदरसा इस्लामी शिक्षा के एक ऐसे केंद्र के रूप में उभरा जिसने नैतिक सुधार के साथ-साथ औपनिवेशिक आधुनिकता के प्रतिरोध को भी बढ़ावा दिया. इसके संस्थापकों मौलाना मुहम्मद कासिम नानौतवी और राशिद अहमद गंगोही ने हनफ़ी न्यायशास्त्र और आध्यात्मिक अनुशासन पर आधारित एक धार्मिक पुनरुत्थानवादी आंदोलन की कल्पना की थी. उनका मक़सद ये था कि सांस्कृतिक क्षरण के बावजूद इस्लामी विद्वता का राजनीतिकरण करने के बजाय उसे संरक्षित किया जाए. 

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से इस मदरसे ने ना सिर्फ भारत भर से बल्कि अफ़ग़ानिस्तान, मध्य एशिया और वर्तमान पाकिस्तान के सीमावर्ती क्षेत्रों से भी छात्रों को आकर्षित किया.

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से इस मदरसे ने ना सिर्फ भारत भर से बल्कि अफ़ग़ानिस्तान, मध्य एशिया और वर्तमान पाकिस्तान के सीमावर्ती क्षेत्रों से भी छात्रों को आकर्षित किया. अफ़ग़ान विद्वान देवबंद में अध्ययन करने वाले शुरुआती विदेशी शिष्यों में से थे जो काबुल, कंधार और खोस्त लौटकर यहां के पाठ्यक्रम और शिक्षण शैली पर आधारित मदरसे स्थापित करने लगे. इन संस्थानों ने अफ़ग़ान धार्मिक जीवन में विद्वता, सादगी और इस्लामिक ग्रंथों में वर्णित जीवन शैली का कठोरता से पालन करने वाले देवबंदी परंपरा को अपने देश में भी लागू करने की कोशिश की.

विभाजन से पहले भी देवबंदी विद्वानों ने अफ़ग़ानिस्तान के राजनीतिक और धार्मिक मामलों में सक्रिय भूमिका निभाई थी. प्रसिद्ध सिल्क लेटर आंदोलन (1913-1920) के दौरान देवबंदी धर्मगुरुओं ने भारत में ब्रिटिश शासन को चुनौती देने के लिए ओटोमन साम्राज्य, अफ़ग़ानिस्तान और जर्मन साम्राज्य के साथ गठबंधन बनाने की कोशिश की. इन संबंधों ने भारत-अफ़ग़ान धार्मिक और राजनीतिक चेतना पर एक अमिट छाप छोड़ी और दोनों समाजों को साझा बौद्धिक जुड़ाव के माध्यम से एक सूत्र में पिरोया.

देवबंद में अफ़ग़ान छात्र

बीसवीं सदी के मध्य तक अफ़ग़ान छात्र दारुल उलूम देवबंद में आते रहे. भारत की आज़ादी और पाकिस्तान के निर्माण के बाद अफ़ग़ानिस्तान के छात्रों का नामांकन कम तो हुआ लेकिन पूरी तरह से ख़त्म नहीं हुआ. 1950 से लेकर 1970 के दशक के अंत तक, युवा अफ़ग़ानी छात्र देवबंद में पढ़ते रहे. अक्सर धार्मिक संस्थाओं या व्यापारियों के संरक्षण में होने वाले इस अध्ययन के माध्यम से वो भारत के साथ सांस्कृतिक संबंध बनाए रखते थे.

1979 में अफ़ग़ानिस्तान पर सोवियत संघ के हमले के कारण यह बौद्धिक गलियारा अचानक बंद हो गया. जब काबुल संघर्ष में उलझ गया तो पाकिस्तान लाखों विस्थापित अफ़ग़ानों की शरणस्थली बन गया. इसका नतीजा ये हुआ कि पाकिस्तानी धरती पर देवबंदी मदरसे, विशेष रूप से अकोरा खट्टक में दारुल उलूम हक्कानिया, भारतीय मदरसों के विकल्प के रूप में उभरे. इन्हीं पाकिस्तानी संस्थाओं में तालिबान की वैचारिक नींव रखी गई थी. इस तरह देखा जाए तो भारत से पश्चिम की ओर फैला देवबंदी धर्मशास्त्र का रूप पाकिस्तान जाकर बदल गया. भारत में देवबंदी विचारधारा अपनी विद्वत्तापूर्ण और सुधारवादी भावना के लिए जानी जाती थी जबकि पाकिस्तान में ये वहां की रणनीतिक ज़रूरतों के साथ जुड़ गई. शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और सऊदी अरब से मिलने वाली वित्तीय मदद से ये विचारधारा और कट्टर हो गई. आखिर में अफ़ग़ान जिहाद से उपजे उग्रवादी चरित्र के साथ ये घुल-मिल गई.

भारत में देवबंदी विचारधारा अपनी विद्वत्तापूर्ण और सुधारवादी भावना के लिए जानी जाती थी जबकि पाकिस्तान में ये वहां की रणनीतिक ज़रूरतों के साथ जुड़ गई.

1990 के दशक तक, मूल भारतीय देवबंदी परंपरा-पाठ्यक्रम, शैक्षणिक और खुद के अंदर सुधार करना-इस्लामाबाद की क्षेत्रीय रणनीति के लिए एक राजनीतिक साधन के रूप में परिवर्तित हो चुकी थी. 1994 में उभरे तालिबान आंदोलन ने देवबंदवाद के प्रतीकों और शब्दावली का सहारा लिया लेकिन उसके बौद्धिक अनुशासन या बहुलतावादी संयम का नहीं. 2001 में तालिबान शासन के पतन के बाद कुछ अफ़ग़ान नागरिकों ने भारत में फिर से धार्मिक अध्ययन शुरू किया. हालांकि ज़्यादातर अफ़ग़ानी नागरिकों ने ये अध्ययन देवबंद में नहीं बल्कि निजी या अनौपचारिक परिवेश में किया. 2021 में तालिबान की सत्ता में वापसी के बाद से देववंद को लेकर कोई आधिकारिक अफ़ग़ान स्वीकारोक्ति नहीं हुई. इसके बावजूद तालिबान और देवबंद के बीच प्रतीकात्मक पहचान फीकी पड़ने के बजाय मज़बूत हुई है.

तालिबान और देवबंदी परंपरा

अमीर खान मुत्तक़ी की दारुल उलूम देवबंद की योजनाबद्ध यात्रा प्रतीकात्मक रूप से महत्वपूर्ण है. ये पहली बार हुआ जब तालिबान के किसी वरिष्ठ मंत्री पद के व्यक्ति, चाहे अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, ने समूह की वैचारिक वंशावली के भारतीय स्रोत से संवाद किया. तालिबान कई बार अपना रूप बदल चुका है, नेता से लेकर विचार भी बदले. इस सबके बावजूद अफ़ग़ान तालिबान अपनी जड़ें भारतीय देवबंदी परंपरा में तलाशता रहता है. हालांकि, तालिबान की विचारधारा भी अब मिश्रित हो चुकी है क्योंकि इसमें हक्कानिया नेटवर्क के साथ जुड़ाव के माध्यम से वो देवबंदी विचारधारा को पश्तूनवाली और वहाबी प्रभावों के साथ मिलाता है. इसलिए ये कहा जा सकता है कि मुत्तक़ी की देवबंद यात्रा किसी धार्मिक जिज्ञासा से प्रेरित नहीं है बल्कि धार्मिक कूटनीति की एक सोची-समझी कार्रवाई का प्रतिनिधित्व करती है.

तालिबान के लिए ये यात्रा पाकिस्तान के देवबंदी नेटवर्क से अपने नाभिनाल यानी मूल वैचारिक संबंधों को तोड़ने और अपनी वैचारिक प्रामाणिकता स्थापित करने की एक कोशिश है. दारुल उलूम देवबंद के साथ सार्वजनिक रूप से जुड़कर तालिबान खुद को एक उग्रवादी शासन के बजाय एक विद्वान इस्लामी सुधार आंदोलन के उत्तराधिकारी के रूप में फिर से स्थापित करना चाहता हैं. इस कदम के भू-राजनीतिक निहितार्थ भी हैं. ऐसा करके तालिबान, पाकिस्तान के वैचारिक संरक्षण से आज़ादी का दावा करने की कोशिश करेगा. मुत्तकी की दारुल उलूब देवबंद की यात्रा काबुल को, कम से कम प्रतीकात्मक रूप से, हक्कानिया और पाकिस्तानी मौलवियों के प्रभाव से दूर रहने का मौका देता है जिन्हें लंबे समय से इस्लामाबाद के हितों के मध्यस्थ के रूप में देखा जाता रहा है.

मुत्तकी की दारुल उलूब देवबंद की यात्रा काबुल को, कम से कम प्रतीकात्मक रूप से, हक्कानिया और पाकिस्तानी मौलवियों के प्रभाव से दूर रहने का मौका देता है जिन्हें लंबे समय से इस्लामाबाद के हितों के मध्यस्थ के रूप में देखा जाता रहा है.


इसके साथ ही, ये यात्रा तालिबान को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक नरम छवि पेश करने में मदद करती है. भारत में देवबंद अपनी नैतिक रूढ़िवादिता के साथ-साथ अपने अस्वीकृतिवादी (रिजेक्शनिस्ट) दृष्टिकोण के लिए भी जाना जाता है. देवबंद से जुड़ने से तालिबान को अपनी कट्टर इस्लामी समूह की छवि को बदलने का मौका भी मिलता है जो पुनर्व्याख्या और सुधार के लिए खुलेपन का संकेत देता है. देवबंद से जुड़ना तालिबान को एक व्यापक दक्षिण एशियाई इस्लामी विरासत के साथ निरंतरता का संकेत देता है. एक ऐसी परंपरा जो पाकिस्तान से भी पुरानी और राजनीतिक सीमाओं से परे है. इसके साथ ही ये स्वायत्तता और धार्मिक प्रामाणिकता का भी दावा करती है.

भारत के लिए अवसर

भारत के लिए तालिबान की देवबंद जाने की पहल उसी आस्था के माध्यम से फिर से बातचीत का अवसर पेश करती है जिसने कभी उन्हें विभाजित किया था. भारत लंबे समय से मानता रहा है कि अफ़ग़ानिस्तान की स्थिरता उसके क्षेत्रीय हितों के लिए महत्वपूर्ण है. हालांकि, पिछली अफ़ग़ान सरकारों के साथ भारत की बातचीत मुख्य रूप से बुनियादी ढांचे, विकास सहायता और मानवीय सहायता पर केंद्रित रही है लेकिन वर्तमान के संदर्भ में देखें तो एक चौथे और अधिक सूक्ष्म और जटिल आयाम को जोड़ने की आवश्यकता है: और ये है धार्मिक कूटनीति.

देवबंदी परंपरा में भारत का ऐतिहासिक नेतृत्व उसे बौद्धिक रूप से सशक्त बनाता है. ज्ञान, नैतिक अखंडता और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व पर पारंपरिक देवबंदी ज़ोर को फिर से स्थापित करके भारत खामोशी से अफ़ग़ान धर्मगुरुओं के धार्मिक रुझान को प्रभावित कर सकता है. इस तरह के जुड़ाव के लिए तालिबान शासन को राजनीतिक और कूटनीतिक मान्यता देने की आवश्यकता भी नहीं है. इसकी बजाय, यह सांस्कृतिक, शैक्षणिक और मौलवियों-मौलानाओं के आदान-प्रदान का रूप ले सकता है. इसमें ऑनलाइन शैक्षिक कार्यक्रम भी शामिल हैं जो आलोचनात्मक सोच, तुलनात्मक न्यायशास्त्र और धार्मिक शिक्षाशास्त्र के भीतर संयम को बढ़ावा देते हैं.

"4 D" - डिप्लोमेसी, डेवलपमेंट, डायलॉग और देवबंद - का ढांचा इस तरह के गैर-राजनीतिक, गैर-कूटनीतिक जुड़ाव का एक खाका पेश करता है. भारत अपने मूल्यों का संचार एक इस्लामी सरकार को प्रोत्साहित करने वाले पश्चिमी लोकतंत्र के रूप में नहीं बल्कि संतुलन और नैतिक संयम को महत्व देने वाले इस्लामी विद्वता के सह-उत्तराधिकारी के रूप में कर सकता है. अगर देवबंदी विद्वान तालिबान को ये समझा पाएं कि इस्लामी शिक्षाओं में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है तो ये भारत के लिए फायदेमंद होगा. इससे भारत उस नैरेटिव को फिर से जीत सकता है जिसे पाकिस्तान ने विकृत कर दिया था. वैसे भी मूल देवबंद आंदोलन आध्यात्मिक सुधार, शिक्षा और राष्ट्रीय सह-अस्तित्व के लिए खड़ा किया गया था. ये ऐसे मूल्य हैं जो पाकिस्तान में प्रचारित उग्रवादी देवबंदवाद में अनुपस्थित थे.

देवबंद के साथ क्यों जुड़ा रहना चाहता है तालिबान?

तालिबान द्वारा दारुल उलूम देवबंद का लगातार ज़िक्र करना एक तरह से आत्म-वैधीकरण यानी खुद को वैधानिकता देने की कोशिश है. पाकिस्तान के हक्कानिया नेटवर्क से संस्थागत जुड़ाव के बावजूद तालिबान अपनी स्वतंत्र पहचान बनाए रखना चाहती है. हक्कानिया ने तालिबान के राजनीतिक स्वरूप को आकार दिया लेकिन देवबंद तालिबान को वो बौद्धिक वंशावली प्रदान करता है जो पाकिस्तान नहीं दे सकता. हक्कानिया नेटवर्क, प्रभावशाली होने के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उग्रवाद के मदरसे के रूप में देखा जाता है जिसे राज्य के संरक्षण और जिहादी प्रशिक्षण से आकार मिलता है. दूसरी ओर, देवबंद प्रामाणिकता और रूढ़िवाद का प्रतिनिधित्व करता है जिसकी वंशावली हनफ़ी शिक्षा के शास्त्रीय केंद्रों तक जाती है.

देवबंद को अपना आध्यात्मिक उद्गम स्थल बताकर, तालिबान अपने शासन को धार्मिक वैधता का आवरण पहनाना चाहता है और खुद को आईएसआईएस-खुरासान जैसे सलाफ़ी और वहाबी आंदोलनों से अलग दिखाना चाहता है. यह पहचान तालिबान को कट्टरपंथियों के बजाय परंपरावादी, अंतर्राष्ट्रीय जिहाद के एजेंट के बजाय स्वदेशी दक्षिण एशियाई इस्लामी विरासत के रक्षक के रूप में सामने आने में मदद करती है. इससे तालिबान के कूटनीतिक हित भी सधते हैं. ये भारत और व्यापक मुस्लिम जगत को संकेत देता है कि तालिबान भारतीय मदरसे की नैतिक सत्ता को मान्यता देता है और इस प्रकार सांस्कृतिक और धार्मिक आधार पर सहभागिता को आमंत्रित करता है.

धार्मिक विरासत बनाम भू-राजनीति

तालिबान और दारुल उलूम देवबंद के बीच विकसित होते रिश्ते दक्षिण एशियाई इस्लाम की विरासत पर एक व्यापक संघर्ष का प्रतीक हैं. एक ओर जहां पाकिस्तान के मदरसों ने देवबंदवाद को भू-राजनीतिक प्रभाव के एक साधन में बदल दिया, वहीं भारत ने राजनीतिक मतभेदों के लिए जगह छोड़ते हुए भी अपनी धार्मिक शुद्धता और बौद्धिक गहराई को बनाए रखा है. इसने भारत के लिए ज़्यादा प्रभावशाली भूमिका निभाने का मौका पैदा किया है.

देवबंद के माध्यम से संवाद भारत को औपचारिक कूटनीति की बाधाओं के बिना तालिबान की वैचारिक दिशा को प्रभावित करने एक मंच प्रदान करता है. ये भारत को इतिहास, संस्कृति और आस्था में शामिल अपनी उदार लेकिन प्रभावी शक्ति प्रदर्शित करने का अवसर मुहैया कराता है. अपनी उदारवादी और विद्वत्तापूर्ण देवबंदी परंपरा पर ज़ोर देकर, भारत ना सिर्फ पाकिस्तान के नैरेटिव के नाकाम कर सकता है बल्कि अफ़ग़ानिस्तान के धार्मिक विमर्श को सामंजस्यता और आत्मनिरीक्षण की तरफ भी मोड़ सकता है.

 अगर भारत इस अवसर का दूरदर्शिता और दृढ़ संकल्प के साथ लाभ उठाता है तो वो साझा आध्यात्मिक विरासत को क्षेत्रीय स्थिरता के एक साधन में बदल सकता है.

इसलिए मुत्तक़ी की देवबंद यात्रा प्रतीकात्मक दौरे से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है. ये एक ऐसा अवसर प्रदान करता है, जो या तो पुराने मतभेदों को गहरा करेगा, या नई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है. अगर भारत इस अवसर का दूरदर्शिता और दृढ़ संकल्प के साथ लाभ उठाता है तो वो साझा आध्यात्मिक विरासत को क्षेत्रीय स्थिरता के एक साधन में बदल सकता है. दक्षिण एशियाई इतिहास के व्यापक परिप्रेक्ष्य में, देवबंद के अर्थ को लेकर चल रहा संघर्ष अफ़ग़ानिस्तान के मानचित्र को लेकर चल रहे संघर्ष से भी अधिक महत्वपूर्ण साबित हो सकता है.


सौम्या अवस्थी ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सेंटर फॉर सिक्योरिटी, स्ट्रेटजी और टेक्नोलॉजी में फेलो हैं.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.