Author : Niranjan Sahoo

Published on Dec 10, 2021 Updated 0 Hours ago

लोकतंत्र पर नज़र रखने वाली कई संस्थाएं भले ही ये कह रही हों कि भारत में लोकतंत्र कमज़ोर हो रहा है. मगर, भारत में ऐसी कई जोशीली लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं चल रही हैं, जो बिल्कुल अलग तस्वीर पेश करती हैं. 

Democracy summit: प्रजातंत्र पर हो रहे अंतरराष्ट्रीय शिखर सम्मेलन को भारत किस दृष्टिकोण से ग्रहण करे.!

अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन, 9 और 10 दिसंबर को लोकतंत्र का शिखर सम्मेलन आयोजित कर रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस सम्मेलन की बहुत चर्चा हो रही है. इस शिखर सम्मेलन का मक़सद लोकतांत्रिक देशों, नागरिक समूहों और प्रभावशाली विचारकों के 111 नेताओं को एक मंच पर लाना है, जिससे ‘लोकतंत्र में नई जान डालने के लिए एक सकारात्मक एजेंडा तय किया जा सके और सामूहिक रूप से ऐसे ख़तरों से निपटने की रणनीति बनाई जा सके, जिनका सामना आज पूरी दुनिया के लोकतांत्रिक देश और संगठन कर रहे हैं.’ सिर्फ़ लोकतंत्र और इससे जुड़ी चुनौतियों पर चर्चा के लिए ऐसे किसी व्यापक और विशाल शिखर सम्मेलन की कोई और मिसाल कम से कम हालिया दौर में तो नहीं मिलती है. 11 महीने पुराने बाइडेन प्रशासन द्वारा किया जा रहा शायद ये सबसे बड़ा आयोजन है. इसकी मदद से ‘दुनिया भर में लोकतंत्र में नई जान फूंकने के प्रयासों को प्रोत्साहन देना’ है.

11 महीने पुराने बाइडेन प्रशासन द्वारा किया जा रहा शायद ये सबसे बड़ा आयोजन है. इसकी मदद से ‘दुनिया भर में लोकतंत्र में नई जान फूंकने के प्रयासों को प्रोत्साहन देना’ है.

इसमें कोई शक नहीं कि ये शिखर सम्मेलन बिल्कुल सही समय पर बुलाया गया है और बेहद प्रासंगिक भी है. आज दुनिया भर में लोकतांत्रिक देश- फिर चाहे वो अमीर और लोकतंत्र के लंबे अनुभव वाले हों, या फिर विकासशील और लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाने वाले नए देश- ये सभी लोकतंत्र के कई अहम पैमानों पर गंभीर संकटों का सामना कर रहे हैं. लोकतंत्र पर नज़र रखने वाली दुनिया की कई जानी-मानी संस्थाओं जैसे की वी-डेम, इंटरनेशनल IDEA और फ्रीडम हाउस की ख़बरें ये कहती हैं कि आज दुनिया भर में बेहद चिंताजनक तरीक़े से लोकतंत्र का पतन हो रहा है. इसी साल, मार्च महीने में फ्रीडम हाउस ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि दुनिया भर में पिछले 15 साल से लगातार राजनीतिक अधिकारों और नागरिक स्वतंत्रताओं में कमी आ रही है. इसी बात को इंटरनेशनल IDEA ने भी हाल ही में दोहराते हुए दुनिया भर में बढ़ती तानाशाही को ख़तरे की घंटी बताया था. इससे भी ज़्यादा सख़्त समीक्षा में इकॉनमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट (डेमोक्रेसी इंडेक्स 2020) ने पाया था कि आज दुनिया की केवल नौ फ़ीसद आबादी ‘पूर्ण’ लोकतंत्र में रहती है. म्यांमार, ट्यूनिशिया और सूडान में हाल में हुए सैन्य तख़्तापलट इस बात की मिसाल हैं कि दुनिया भर में लोकतंत्र विरोधी ताक़तें लगातार बढ़ रही हैं और दुनिया भर के लोकतांत्रिक देश, तानाशाही की इस बढ़ती लहर की रोकथाम के लिए सामूहिक रूप से कोई क़दम उठा पाने में पूरी तरह से नाकाम रहे हैं.

आज जिस समय पश्चिमी देश और ख़ास तौर से अमेरिका और अमीर यूरोपीय देशों ने लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर अपनी प्रतिबद्धताओं में  काफ़ी रियायतें दे दी हैं. वहीं चीन मानव अधिकारों और लोकतंत्र के वैश्विक मूल्यों को नए सिरे से निर्धारित करने की कोशिश कर रहा है. 

हालांकि, जो सबसे चिंताजनक बात है, वो दुनिया भर में तानाशाही ताक़तों और ख़ास तौर से चीन का लगातार बढ़ता उभार है. आज जिस समय पश्चिमी देश और ख़ास तौर से अमेरिका और अमीर यूरोपीय देशों ने लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर अपनी प्रतिबद्धताओं में  काफ़ी रियायतें दे दी हैं. वहीं चीन मानव अधिकारों और लोकतंत्र के वैश्विक मूल्यों को नए सिरे से निर्धारित करने की कोशिश कर रहा है. एक राष्ट्रवादी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेतृत्व में आज चीन ने ताइवान को डराने-धमकाने के लिए सैन्य और कूटनीतिक घेरेबंदी कर रखी है. वहीं, विवादित साउथ चाइना सी में चीन लगातार अपने दावों का दायरा बढ़ाता जा रहा है. उसने वीगर मुसलमानों को नज़रबंदी शिविरों में क़ैद कर रखा है, तो हॉन्ग कॉन्ग में राजनीतिक आज़ादी पर नई बंदिशें लगा दी हैं. इसके साथ साथ चीन ने दुनिया के तमाम हिस्सों में अपना प्रभाव बढ़ाने का अभियान छेड़ रखा है. हैरानी की बात ये है कि अमेरिका के लोकतंत्र पर शिखर सम्मेलन के जवाब में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की स्टेट काउंसिल ने एक व्यापक दस्तावेज़ जारी किया है. इसमें चीन ने दावा किया है कि उसके यहां ऐसा लोकतंत्र है जो वाक़ई काम कर रहा है.

इन सबसे इतर, ये उम्मीद है कि लोकतंत्र पर इस शिखर सम्मेलन में लोकतंत्र के लिए ख़तरा बने अन्य संबंधित मगर अहम मसलों, जैसे कि ग़लत सूचना, चुनाव में बाहरी (तानाशाही ताक़तों की) दख़लंदाज़ी, राजनीतिक ध्रुवीकरण, आमदनी की बढ़ती असमानता और अन्य मुद्दों पर भी चर्चा होगी. कुल मिलाकर कहें तो दो दिन के इस वर्चुअल शिखर सम्मेलन के दौरान चर्चा के लिए बहुत सारे मुद्दे शामिल किए गए हैं.

भारत को इस शिखर सम्मेलन को कैसे देखना चाहिए?

चूंकि भारत दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे ज़्यादा आबादी वाला लोकतांत्रिक देश है और साम्राज्यवाद के बाद के दौर के सभी देशों में से भारत के पास लोकतांत्रिक प्रक्रिया का बहुत समृद्ध और विविधता भरा तजुर्बा रहा है. ऐसे में माना यही जाता है कि तानाशाही चीन के ख़िलाफ़ वैश्विक मोर्चेबंदी की अगुवाई लिहाज़ से भारत सबसे अहम देश है. फिर भी इस शिखर सम्मेलन में लोकतंत्र पर अपने कमज़ोर घरेलू रिकॉर्ड को लेकर भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तुर्श निगाहों का सामना करना पड़ेगा. फ्रीडम हाउस ने 2021 की अपनी रिपोर्ट में भारत को केवल आंशिक रूप से स्वतंत्र कहा था. वहीं, वी-डेम (V-Dem) ने एक क़दम और आगे जाकर भारत को ‘चुनावी तानाशाही’ क़रार दे दिया था. इंटरनेशनल IDEA की सबसे ताज़ा रिपोर्ट ग्लोबल स्टेट ऑफ़ डेमोक्रेसी 2021 में भारत को ऐसे दस देशों में शुमार किया गया था, जहां लोकतंत्र सबसे तेज़ी से कमज़ोर हो रहा है. जहां पर लोकतंत्र का सबसे घातक और जान-बूझकर अवमूल्यन हो रहा है. हालांकि, ऐसे देशों में भारत अकेला नहीं है. इसी रिपोर्ट में दुनिया के सबसे स्थापित लोकतांत्रिक देशों में लोकतांत्रिक अवमूल्यन की चिंताजनक तस्वीर पेश की गई थी. इत्तिफ़ाक़ से IDEA ने लोकतंत्र पर शिखर सम्मेलन के मेज़बान अमेरिका को भी लोकतांत्रिक अवमूल्यन के शिकार देशों की सूची में रखा था. संगठन का कहना है कि, ‘अमेरिका के लोकतांत्रिक प्रतिष्ठानों में साफ़ तौर पर गिरावट दर्ज की जा रही है. इसमें 2019 से नागरिकों के अधिकारों और सरकार पर अंकुश में लगातार कमी आ रही है. इसके अलावा, 2020 की गर्मियों में हुए विरोध प्रदर्शन के दौरान किसी संस्था या व्यक्ति से जुड़ने और इकट्ठे होकर विरोध प्रदर्शन करने की आज़ादी में भी कमी आई है’. अमेरिका में लोकतांत्रिक मूल्यों के लगातार हो रहे अवमूल्यन का सबसे बड़ा सबूत 6 जनवरी 2021 को अमेरिकी संसद भवन पर हिंसक चढ़ाई के रूप में देखने को मिला था.

 इस शिखर सम्मेलन में लोकतंत्र पर अपने कमज़ोर घरेलू रिकॉर्ड को लेकर भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तुर्श निगाहों का सामना करना पड़ेगा. फ्रीडम हाउस ने 2021 की अपनी रिपोर्ट में भारत को केवल आंशिक रूप से स्वतंत्र कहा था. 

अब अगर अपने देश में लोकतांत्रिक मूल्यों के ऐसे पतन के बावजूद, जब अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन लोकतंत्र पर शिखर सम्मेलन आयोजित कर सकते हैं, तो भारत फिर क्यों मुंह चुराए और शिखर सम्मेलन में ख़ुद को आलोचना का शिकार होने दे? इसके उलट, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में भारत के पास एक अच्छा मौक़ा है कि वो लोकतंत्र के निर्माण में अपने उन ठोस योगदानों के बारे में बताए, जिन्हें अब तक दुनिया में बहुत ज़्यादा अहमियत नहीं मिली है. जैसा कि बहुत से विश्लेषक पहले ही कह चुके हैं कि इस शिखर सम्मेलन के रूप में भारत के पास एक ऐसा मौक़ा है, जिसमें वो दुनिया की सबसे लंबी चुनावी प्रक्रिया चलाने के अद्वितीय रिकॉर्ड के बारे में सबको बताए- जिस में 90 करोड़ से ज़्यादा मतदाता शामिल होते हैं- और जहां चुनाव को इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों की मदद से बहुत आसानी से निपटाया जाता है. जहां एक तरफ़ अमेरिका में पिछले राष्ट्रपति चुनाव में मतों की गिनती की प्रक्रिया कई हफ़्तों तक चली और उसे लेकर कई विवाद भी उठे. वहीं भारत में 2019 के आम चुनाव बस कुछ दिनों में करा लिए गए, वो भी बस छोटे मोटे विवादों के बीच.

स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के चुनाव आयोग के शानदार रिकॉर्ड से इतर भारत, एशिया, अफ्रीका और दुनिया के अन्य क्षेत्रों के उन चुनाव अधिकारियों के बारे में भी बता सकता है, जिन्होंने पिछले कई दशकों के दौरान भारत आकर चुनाव प्रबंधन और संसदीय मामलों की ट्रेनिंग ली. चुनावी क्षमता के निर्माण के साथ साथ भारत ने विदेश मंत्रालय के तहत एक विकासात्मक साझेदारी का प्रशासन (DPA) भी बनाया है. जिसके तहत, दुनिया भर के बहुत से विकासशील देशों और नए लोकतांत्रिक देशों को विकास में बेहद अहम मदद मुहैया कराई जाती है. अफ़ग़ानिस्तान में संसद के निर्माण, म्यांमार को उसकी न्यायिक और प्रशासनिक क्षमताएं बेहतर बनाने में मदद जैसी इसकी कई उल्लेखनीय मिसालें दी जा सकती हैं. इसके अलावा, भारत ने लोकतंत्र की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निगरानी में भी काफ़ी अहम भूमिका निभाई है. इसके लिए फंड और संस्थागत मदद दिए हैं. अमेरिका के साथ मिलकर भारत ने संयुक्त राष्ट्र लोकतांत्रिक फंड (UNDEF) और लोकतांत्रिक देशों के समुदाय के गठन में भी काफ़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जिनके ज़रिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकतांत्रिक देशों को मदद उपलब्ध कराई जाती है. इत्तिफ़ाक से भारत UNDEF में सबसे ज़्यादा योगदान (3.2 करोड़ डॉलर से ज़्यादा) देने वाले देशों में से है. इसके ज़रिए दक्षिण एशिया में ग़ैर सरकारी संस्थाओं की अगुवाई में चलने वाले 66 से ज़्यादा परियोजनाओं में मदद दी जाती है. इसके अलावा, वर्ष 1999 में भारत ने वर्ल्ड मूवमेंट फॉर डेमोक्रेसी सम्मेलन की मेज़बानी की थी (इत्तिफ़ाक़ से उस समय भी बीजेपी की अगुवाई वाले NDA की सरकार थी). भारत ने संयुक्त राष्ट्र में लोकतांत्रिक देशों के डेमोक्रेसी कॉकस के गठन में भी अहम भूमिका निभाई थी. संयुक्त राष्ट्र की व्यवस्था के तहत ये इकलौती संस्था है, जिसमें लोकतांत्रिक देश साझा मूल्यों के आधार पर एकजुट होते हैं.

अपने देश में लोकतांत्रिक मूल्यों के ऐसे पतन के बावजूद, जब अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन लोकतंत्र पर शिखर सम्मेलन आयोजित कर सकते हैं, तो भारत फिर क्यों मुंह चुराए और शिखर सम्मेलन में ख़ुद को आलोचना का शिकार होने दे? 

घरेलू स्तर पर लोकतांत्रिक आविष्कारों का प्रदर्शन करना

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने योगदान के अलावा, भारत को चाहिए कि वो अपनी विविधता भरे उन समृद्ध लोकतांत्रिक आविष्कारों की तरफ़ भी दुनिया का ध्यान खींचे, जो भारत के लोकतंत्र को विश्वसनीय और सबको साथ लेकर चलने वाला बनाते हैं. मिसाल के तौर पर, भारत कमज़ोर तबक़ों की मदद के लिए चलाए जाने वाले सबसे लंबे अभियान (आरक्षण व्यवस्था) के बारे में दुनिया को बता सकता है. अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद, आरक्षण की व्यवस्था ने ऐतिहासिक रूप से कमज़ोर समुदायों को बहुत से अवसर दिए हैं. कई मामलों में तो आरक्षण के चलते ही दलितों और आदिवासियों के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया में राजनीतिक अवसर मिले हैं. बराक ओबामा द्वारा सदियों की नस्लवादी बेड़ियां तोड़कर अमेरिका का पहले अश्वेत राष्ट्रपति बनने से काफ़ी पहले, भारत में एक दलित महिला मायावती कई बार उत्तर प्रदेश के सर्वोच्च राजनीतिक पद तक पहुंच चुकी थीं, जबकि सबसे ज़्यादा आबादी वाला राज्य उत्तर प्रदेश अपने जातीय भेदभाव और सामंतवाद के लिए बदनाम है. वैसे तो सामाजिक और राजनीतिक समावेश के ऐसे प्रयोग अभी भारत में चल ही रहे हैं. मगर भारत, सूचना के अधिकार क़ानून 2005 का भी हवाला दे सकता है, जिसके चलते भारत में पारदर्शिता का इंक़लाब आया. ये नागरिक संगठनों द्वारा चलाए गए ज़मीनी आंदोलन का ही नतीजा था कि जिसने आम नागरिकों के लिए सूचना के अधिकार का लोकतांत्रीकरण किया.

विकेंद्रीकरण- दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक तजुर्बा

इन सबके अलावा, भारत जिस सबसे दिलचस्प और मज़बूत लोकतांत्रिक आविष्कार को बाक़ी दुनिया से साझा कर सकता है वो, लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की अभी चल रही प्रक्रिया है. इसकी शुरुआत 1992 के दो संवैधानिक (73वें और 74वें) संशोधनों से हुई थी और जिसके तहत, पिछले तीन दशकों के दौरान तीसरे स्तर की प्रशासनिक व्यवस्था (ग्रामीण और शहरी स्थानीय निकायों) का गठन किया गया है. ग्राम सभा, पंचायत समिति और ज़िला परिषदों के स्तर पर तीस लाख से ज़्यादा जन-प्रतिनिधियों को चुनने की ये प्रक्रिया, पूरी दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक अभियान है. इस विकेंद्रीकरण की सबसे अच्छी बात ये है कि ये समाज के सबसे कमज़ोर तबक़ों को भी राजनीतिक नुमाइंदगी की जगह उपलब्ध कराती है. महिलाओं, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के साथ अन्य पिछड़े वर्गों के लिए अनिवार्य आरक्षण ने इन वर्गों के दस लाख से ज़्यादा लोगों को प्रतिनिधित्व का अवसर प्रदान किया है. निश्चित रूप से राजनीति में महिलाओं की नुमाइंदगी बढ़ाने के लिहाज़ से ये भारत का सबसे क्रांतिकारी सकारात्मक एक्शन प्लान है. इसमें कोई दो राय नहीं कि विकेंद्रीकरण की ये प्रक्रिया, संस्थागत और संसाधनों की कई कमियों के साथ चल रही है. लेकिन, ये बहुत गहरा और समावेशी असर डाल रही है. ओडिशा के नियामगिरी में सबसे आदिम जनजातियों की नुमाइंदगी करने वाली ग्राम सभा (पंचायती राज की वैधानिक संस्था) खनन के किसी प्रोजेक्ट को वीटो कर सकती है. ये इस बात का सुबूत है कि नए लोकतांत्रिक प्रयोग के तहत, स्थानीय स्तर की इन लोकतांत्रिक संस्थाओं के पास कितने अधिकार मिले हुए हैं. इस बात को लोकतांत्रिक शिखर सम्मेलन के प्रतिनिधियों के सामने पुरज़ोर तरीक़े से रखा जाना चाहिए.

स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के चुनाव आयोग के शानदार रिकॉर्ड से इतर भारत, एशिया, अफ्रीका और दुनिया के अन्य क्षेत्रों के उन चुनाव अधिकारियों के बारे में भी बता सकता है, जिन्होंने पिछले कई दशकों के दौरान भारत आकर चुनाव प्रबंधन और संसदीय मामलों की ट्रेनिंग ली.

आख़िर में, भारत को अपने यहां लोकतंत्र, विविधता और भागीदारी की लंबे समय से चली आ रही परंपरों को स्पष्ट रूप से इस शिखर सम्मेलन के सामने रखना चाहिए. जब देश को उपनिवेश बनाया गया और फिर उसके बाद 1947 में औपचारिक रूप से लोकतांत्रिक बनाया गया था, उससे भी हज़ारों साल पहले से ये परंपराएं चली आ रही हैं. इस तथ्य को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपने भाषण में भी सामने रखा था और ज़ोर देकर बताया था कि भारत में ऐसी लोकतांत्रिक परंपराओं का लंबा इतिहास रहा है. जब एथेंस में औपचारिक विधायी व्यवस्थाओं और नियमों वाली लोकतांत्रिक व्यवस्था का जन्म भी नहीं हुआ था, तब से भारत में ऋग्वेद ने सभा (लोगों के विशाल सम्मेलन) और समिति (कुछ गिने चुने लोगों की बैठक) के विचार की परिकल्पना की थी. लिच्छवि जैसे भारत के प्राचीन साम्राज्यों में गणतांत्रिक व्यवस्था का आविष्कार किया गया था, जिसमें लोगों को चुनाव और प्रशासन में सीधे भाग लेने का अवसर मिलता था. ऐसे में अब समय आ गया है कि लोकतंत्र और उदारवाद के ग़ैर पश्चिमी और स्वदेशी स्वरूप को विश्व मंच पर पेश किया जाए.

.भारत में लोकतांत्रिक प्रयोग की प्रक्रिया लगातार चल रही है. इसकी एक मिसाल हम साल भर से ज़्यादा समय तक चले किसान आंदोलन के रूप में देख सकते हैं. कई दशकों के बाद सत्ता में आई पूर्ण बहुमत वाली सबसे ताक़तवर सरकार को भी इस आंदोलन के आगे झुकना पड़ा 

निष्कर्ष

कुल मिलाकर कहें तो, हाल के दशकों में भारत में बढ़ते लोकतांत्रिक ध्रुवीकरण और लोकतांत्रिक मूल्यों के कमज़ोर होने के बावजूद, भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था उतना ख़राब प्रदर्शन भी नहीं कर रही है, जैसा कि कुछ अंतरराष्ट्रीय संस्थान और रेटिंग संस्थाएं कह रही हैं. जिन लोगों (जैसे कि लोकतंत्र की रेटिंग करने वाली संस्थाओं और ऐसे ही अन्य संगठनों) ने भारत के लोकतंत्र से कोई उम्मीद करना छोड़ दिया है. या फिर भारत को चुनावी तानाशाही क़रार दिया है, उन्हें भारत में लगातार चल रहे ऐसे ही तमाम प्रयोगों को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए. भारत इतना विशाल और विविधता भरा लोकतांत्रिक देश है कि इसे लोकतंत्र के महज़ कुछ गिने चुने पैमानों पर कसकर देखना ठीक नहीं होगा. भारत में लोकतांत्रिक प्रयोग की प्रक्रिया लगातार चल रही है. इसकी एक मिसाल हम साल भर से ज़्यादा समय तक चले किसान आंदोलन के रूप में देख सकते हैं. कई दशकों के बाद सत्ता में आई पूर्ण बहुमत वाली सबसे ताक़तवर सरकार को भी इस आंदोलन के आगे झुकना पड़ा और बेहद विवादित तीन कृषि क़ानूनों को वापस लेना पड़ा. ये अपने आप में भारत के लोकतंत्र के लचीलेपन और मज़बूती का सुबूत है. भारत के बहु-स्तरीय लोकतंत्र की इस ख़ूबसूरती और लचीलेपन को इस तरह सूचकांकों के सीमित पैमानों के आधार पर ख़ारिज नहीं किया जा सकता है.

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Niranjan Sahoo

Niranjan Sahoo

Niranjan Sahoo, PhD, is a Senior Fellow with ORF’s Governance and Politics Initiative. With years of expertise in governance and public policy, he now anchors ...

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