Published on Feb 09, 2021 Updated 0 Hours ago

साइबर स्पेस के लिए ‘नियमों’ पर अलग-अलग देशों के बीच सहयोग के लिए पर्याप्त तौर-तरीक़े में कमी बाल्कनाइज़ेशन को संभालने में बड़ी बाधा है. साइबर सुरक्षा से आगे भी नियमों पर सामंजस्य नहीं है.

टकराव और संघर्ष के मुश्किल समय में डिजिटल संप्रभुता की माँग हुई तेज़

इंटरनेट की बनावट बदल रही है, साथ ही इसकी तकनीक को सहारा देने वाला विचार भी बदल रहा है. ‘विचारधारा’ शब्द का नकारात्मक संकेत हो सकता है लेकिन जब बात इंटरनेट पर फ़ैसले लेने में राह दिखाने की आती है तो विचार और विश्वास की रूपरेखा के बारे में बताते वक़्त इसका तटस्थ मतलब होता है.[1] बदलाव नेटवर्क गतिविधियों पर सरकारी नियंत्रण के विस्तार में है- संप्रभु नियंत्रण. संप्रभु नियंत्रण के विस्तार में जोखिम ‘बाल्कनाइज़ेशन’ या तकनीकी विखंडन नहीं है, न ही अलग-अलग इंटरनेट हैं बल्कि शासकीय अवधारणा का विखंडन है जहां बुनियादी तकनीकी प्रोटोकॉल वैश्विक कनेक्टिविटी का समर्थन तो करते हैं लेकिन ये कनेक्टिविटी डाटा के लिए कई असंगठित और अक्सर अलग तरह के नियम का आवरण ओढ़े रहती है. साथ ही सुरक्षा अलग-अलग और प्रतिस्पर्धी राजनीतिक एजेंडा से तय होती है कि किसी व्यक्ति को क्या अधिकार मिलना चाहिए.

मुद्दा इस ‘बाल्कनाइज़ेशन’ को रोकना नहीं है बल्कि इसका बंदोबस्त करना है. मौजूदा कोशिशें, चाहे वो निजी तौर पर हों या बहुपक्षीय संस्थानों के द्वारा, पर्याप्त नहीं हैं. ये समस्या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक बदलाव की वजह से और भी बढ़ जाती है जहां अमेरिका की अगुवाई में 1945 के बाद की विश्व व्यवस्था बेतरतीब है और जिसे ताक़तवर चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. साइबर स्पेस के लिए ‘नियमों’ पर अलग-अलग देशों के बीच सहयोग के लिए पर्याप्त तौर-तरीक़े में कमी बाल्कनाइज़ेशन को संभालने में बड़ी बाधा है. साइबर सुरक्षा से आगे भी नियमों पर सामंजस्य नहीं है.

शीत युद्ध ख़त्म होने के फ़ौरन बाद इंटरनेट का व्यावसायीकरण किया गया. जब अमेरिकी सरकार ने डोमेन नेम सिस्टम को फंड करने वाले और नियंत्रक की भूमिका से हटने का फ़ैसला किया तो व्यावसायीकरण शुरू हुआ.

शीत युद्ध ख़त्म होने के फ़ौरन बाद इंटरनेट का व्यावसायीकरण किया गया. जब अमेरिकी सरकार ने डोमेन नेम सिस्टम को फंड करने वाले और नियंत्रक की भूमिका से हटने का फ़ैसला किया तो व्यावसायीकरण शुरू हुआ. ये उस वक़्त हुआ जब आर्थिक विनियमन, ख़ास तौर पर टेलीकॉम में, का दौर था और व्यापक स्तर पर ये विश्वास था कि शासन बाज़ार के नियमों के आधार पर होगा और ऐसी दुनिया जहां प्राचीन “बड़ी-बड़ी कंपनियां” ग़ैर-ज़रूरी कहलाएंगी वहां सरकार की भूमिका कम हो जाएगी.[2] खुले बाज़ार और बोलने की आज़ादी (जिसे कई देशों ने अपनाया लेकिन सभी ने नहीं) जैसे अमेरिकी मूल्यों ने शुरुआत से इंटरनेट के संचालन के तौर-तरीक़े तय किए और इसकी तकनीक बनाने वालों को राह दिखाई.

इन विचारों का मज़ाक उड़ाना आसान है लेकिन ज़्यादा दिन नहीं हुए जब ये बेहद ताक़तवर थे और नई पीढ़ी के आदर्शवाद का हिस्सा थे जिसमें कई टेक्नोक्रेट और कुछ विदेश नीति के विश्लेषक भी शामिल थे. इन लोगों ने एनक्रिप्शन, प्राइवेसी और पहचान की सत्यता को लेकर नीतियां बनाई और अभी भी बना रहे हैं जो अक्सर संप्रभु नियंत्रण के ख़िलाफ़ काम करते हैं. नई तकनीक- आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और डाटा एनेलीटिक्स, जिनमें विशाल डाटा की ज़रूरत होती है, और “क्लाउड” इंफ्रास्ट्रक्चर, जो हर महादेश में डाटा और सेवा फैलाते हैं- संप्रभुता के विस्तार के साथ तुरंत तनाव उत्पन्न करते हैं.

साइबर स्पेस को अपार मानने का विश्वास बेवकूफी है और इसका ज़िक्र इसलिए किया जाता है क्योंकि कुछ लोग अभी भी ये मानते हैं. इंटरनेट कनेक्टिविटी की रफ़्तार ये भ्रम पैदा करती है कि कोई सीमा नहीं है और मौजूदा विचारधारा ने इसे मान लिया. लेकिन साइबर स्पेस किसी देश के संप्रभु नियंत्रण के अधीन पूरी तरह भौतिक बुनियादी ढांचे पर निर्भर करता है. हमारे सामने ये मुद्दा नहीं है कि किस तरह एक भ्रम को बरकरार रखा जाए बल्कि मुद्दा ये है कि नियमों के विस्तार में देशों की कार्यवाही का रूप कैसे तय किया जाए ताकि वैश्विक कनेक्टिविटी को कम-से-कम नुक़सान पहुंचे और सभी देशों के हितों को मान्यता मिले.

बाल्कनाइज़ेशन की वजह क्या है?

संप्रभु नियंत्रण के दावे को ख़त्म करते हुए ‘बाल्कनाइज़ेशन’ देशों की चिंता को नहीं समझता है जिसकी वजह से वो संप्रभुता का विस्तार करते हैं. इंटरनेट नया और बेजोड़ अवसर मुहैया कराता है लेकिन इस अवसर की एक क़ीमत है जिसको हमने शुरू में नही समझा. तमाम फ़ायदों के साथ इंटरनेट प्राइवेसी छीनता है, सुरक्षा में कमी है और बड़ी तकनीकी कंपनियां सरकारों की परवाह किए बिना दुनिया छान मारती हैं. कई सरकार ऐसी भी हैं जिन्हें ये मंज़ूर नहीं होगा. असली सरकारी नियंत्रण से मुक्त नीति के दृष्टिकोण में कमियां प्राइवेसी और सुरक्षा की हिफ़ाज़त को लेकर महत्वपूर्ण समस्याएं बनी हुई हैं और ये सरकारों को प्रेरित करती हैं कि अपने नागरिकों की रक्षा के लिए बड़ी भूमिका निभाएं.

इंटरनेट वैश्विक आबादी की सेवा करता है जिनकी सरकारों की भूमिका को लेकर अलग-अलग आदर्श और अलग-अलग उम्मीदें हैं. आदर्शों और उम्मीदों में इस बदलाव में क़रीब एक दशक लग गया. साल 2000 में न तो फ़ेसबुक था या कोई और सोशल मीडिया. यहां तक कि गूगल भी एक छोटा सा स्टार्टअप था. 2010 आते-आते इंटरनेट वाणिज्य, वित्त और सुरक्षा के मामले में सबसे महत्वपूर्ण बन गया. इंटरनेट ने नये और शक्तिशाली सामाजिक बल की रचना की जो राजनीतिक स्थिरता की परीक्षा लेता है. इसके जवाब में दुनिया भर के देश संप्रभु नियंत्रण का दावा करने लगे जिसकी वजह से इंटरनेट नीति देश के भीतर और देशों के बीच विवाद का नया राजनीतिक अखाड़ा बन गई.

नई तकनीक- आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और डाटा एनेलीटिक्स, जिनमें विशाल डाटा की ज़रूरत होती है, और “क्लाउड” इंफ्रास्ट्रक्चर, जो हर महादेश में डाटा और सेवा फैलाते हैं- संप्रभुता के विस्तार के साथ तुरंत तनाव उत्पन्न करते हैं.

इन विवादों को बाज़ार में दबदबा रखने वाली कुछ बड़ी कंपनियों (अमेरिका और चीन की) के प्रतिस्पर्धा विरोधी व्यवहार को लेकर चिंता से और बल मिला[3]. अमेरिकी कंपनियों की बहुत बड़ी भूमिका को लेकर तो वैश्विक बेचैनी है. इसको लेकर कुछ विडंबनाएं भी हैं क्योंकि जो लोग तकनीक में अमेरिकी कंपनियों के दबदबे पर एतराज़ ज़ाहिर करते हैं वो अक्सर अमेरिकी कंपनियों की सेवाओं पर भरोसा करते हैं. लेकिन प्राइवेसी और सुरक्षा के जोख़िम के साथ अंतर्राष्ट्रीय कनेक्टिविटी से राष्ट्रीय संप्रभुता में कमी ने कई देशों की सरकारों को अपने देश में इस्तेमाल होने वाली चीज़ों पर ज़्यादा नियंत्रण स्थापित करने के लिए प्रेरित किया है.

पिछले दशक का ये रुझान रहा है कि साइबर स्पेस में संप्रभु नियंत्रण का धीरे-धीरे विस्तार हुआ है. इसकी वजह ये है कि अलग-अलग देशों को लगा कि 1990 के दौरान विकसित सरकारी नियंत्रण से मुक्त दृष्टिकोण काफ़ी कमज़ोर है. ये सरकारी नियंत्रण से मुक्त दृष्टिकोण इंटरनेट के व्यावसायीकरण की शुरुआत के समय ठीक था क्योंकि अमेरिका इस नये-नये उद्योग को पनाह दे रहा था और इसके विकास की रफ़्तार को बढ़ा रहा था. वास्तव में नियम-क़ानून से भरपूर मॉडल अभी भी विकास को कमज़ोर कर सकता है और अभी भी कम विकास का जोखिम पेश करता है लेकिन इन जोखिमों की हमेशा सराहना नहीं होती है. जैसे ही इंटरनेट दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचा बना वैसे ही तीन दशक पहले विकसित सरकारी नियंत्रण से मुक्त दृष्टिकोण को अपर्याप्त देखा जाने लगा.

ये समझने लायक और उचित डर है कि शासन की असली संरचना से दूर हटने से इंटरनेट की आर्थिक संभावना कमज़ोर होगा. इसका एक अच्छा उदाहरण है, संप्रभु नियंत्रण के विस्तार के मुख्य औज़ार- नियमों की वजह से विकास और इनोवेशन का धीमा पड़ना. यूरोप ने टेक बूम का अवसर गंवा दिया. वैसे तो इसकी कई वजहें हैं लेकिन उनमें से एक ज़रूरत से ज़्यादा नियम भी है. सरकारी नियंत्रण से मुक्त और ज़रूरत से ज़्यादा नियम के दो ध्रुवों के बीच एक मध्य मार्ग भी है और नीति विश्लेषण का काम है कि वो इनोवेशन और विकास की संभावनाओं को नुक़सान पहुंचाए बगैर जायज़ चिंताओं का समाधान करे.

बाल्कनाइज़ेशन बड़े टकराव का लक्षण है

महत्वपूर्ण बात ये है कि इंटरनेट बढ़ते टकराव का एक प्राथमिक अखाड़ा बन गया है जिस टकराव में एक तरफ़ चीन, रूस और ईरान हैं और दूसरी तरफ़ दुनिया भर के लोकतंत्र हैं. इंटरनेट समुदाय में कुछ लोग इस बात को नहीं मानना चाहते हैं क्योंकि टकराव लगातार वैश्विक कनेक्टिविटी और समझौतों की अहमियत में यकीन को कमज़ोर करता है (मौजूदा संयुक्त राष्ट्र की चर्चा केलोग-ब्रियांड समझौते[4] पर काम की तरह हो सकता है, केलोग-ब्रियांड समझौता युद्ध को अंतर्राष्ट्रीय मामलों के औज़ार के रूप में ग़ैर-क़ानूनी ठहराने के लिए बिना सोचे-समझे तैयार हो गया). इंटररनेट का राजनीतिक परिवर्तन द्वितीय विश्य युद्ध के बाद की विश्व व्यवस्था ख़त्म होने के बाद अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में व्यापक बदलाव के संदर्भ में हो रहा है. सत्तावादी शासनों को साफ़ तौर पर चुनौती मिल रही है. यही वजह है कि ऐसे शासन सरकार केंद्रित इंटरनेट को ज़्यादा प्राथमिकता देंगे.

इंटरनेट बढ़ते टकराव का एक प्राथमिक अखाड़ा बन गया है जिस टकराव में एक तरफ़ चीन, रूस और ईरान हैं और दूसरी तरफ़ दुनिया भर के लोकतंत्र हैं. इंटरनेट समुदाय में कुछ लोग इस बात को नहीं मानना चाहते हैं क्योंकि टकराव लगातार वैश्विक कनेक्टिविटी और समझौतों की अहमियत में यकीन को कमज़ोर करता है

चीन और रूस पर अक्सर ये आरोप लगते हैं कि वो इंटरनेट को बांटना चाहते हैं. ये उनके मक़सद को ग़लत तरीक़े से बयान करता है. चीन और रूस एक नया अलग इंटरनेट नहीं बनाना चाहते हैं बल्कि अपने शासन की संरचना के ज़रिए मौजूदा इंटरनेट पर कब्ज़ा करना चाहते हैं. इसके लिए वो राष्ट्रीय संप्रभुता की रक्षा का हवाला देते हैं और 1990 के संचालन के तौर-तरीक़ों[5] से अलग हटने के लिए सुरक्षा मुहैया कराने में ज़ाहिर कमज़ोरी को दूर हटाने की बात करते हैं. इन दलीलों की गूंज यूरोप के कुछ देशों और कुछ ग़ैर-पश्चिमी देशों में भी सुनाई पड़ रही है क्योंकि वहां व्यापक तौर पर ये माना जाता है कि प्राइवेसी को लेकर अमेरिका की तकनीकी कंपनियों का रवैया लापरवाही भरा है और ये कंपनियां अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभा रही हैं.

इंटरनेट और डिजिटल दुनिया कभी भी सही मायनों में खुली या स्वतंत्र नहीं रही है. तकनीकी कंपनियों के पास लगभग सरकार की तरह शक्तियां हैं. ये ध्यान दिलाना महत्वपूर्ण है कि इंटरनेट के सर्च इंजन पहले से नतीजों को फिल्टर करते रहे हैं. आम तौर पर इस्तेमाल करने वाले को इसकी जानकारी भी नहीं होती है. इस तरह आप इंटरनेट सर्च में जो देखते हैं वो सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नतीजों का छोटा हिस्सा भर है.[6] इस्तेमाल करने वाले उसी दायरे में रहते हैं जो भाषा और लोकेशन तय करती है. चीन ने शुरू से अपने वैश्विक इंटरनेट कनेक्शन को इस तरह डिज़ाइन करने की योजना बनाई है ताकि नियंत्रण को सुनिश्चित किया जा सके और राजनीतिक जोख़िम से परहेज किया जा सके. रूस और ईरान चीन के उदाहरण का पालन करते हैं और अरब स्प्रिंग और कलर रेवोल्यूशन की छाया उनकी कोशिशों को आगे ले जाती हैं और दूसरे देशों में भी ऑनलाइन व्यक्तिगत अधिकार पर रोक लगाती है.

ये दलील दी जाती है कि दुनिया भर के देशों को राजनीतिक जोख़िम को स्वीकार करना चाहिए ताकि मुख्य़ तौर पर जो फ़ायदा चीन और अमेरिका की कंपनियों को होता है वो सबको मिले. लेकिन इस दलील को बेबुनियाद माना गया. अलग-अलग शासन प्रणाली और नीतिगत समन्वय के लिए असरदार वैश्विक तौर-तरीक़े की ग़ैर-मौजूदगी अस्थिरता को बढ़ावा देती है. बाल्कनाइज़ेशन को लेकर चिंता उस वक़्त है जब आम तौर पर वैश्विक संस्थान कमज़ोर हो गए हैं और सामूहिक अंतर्राष्ट्रीय कार्रवाई के औज़ार टूट रहे हैं. ये संस्थान एक ताक़तवर ट्रांसअटलांटिक के साथ जापान को मिलाकर बने ‘पश्चिम’ पर निर्भर थे. पिछले दो दशक अमेरिका के लिए ठीक नहीं रहे हैं और यूरोप का पतन तो अमेरिका की मुश्किलों से पहले ही हो गया. ट्रांसअटलांटिक की ताक़त ख़त्म हो गई क्योंकि यूरोप की आर्थिक और सैन्य मज़बूती में कमी आई और अमेरिका के सामरिक सामंजस्य में गिरावट आई है.

हालांकि अभी भी पश्चिम की जगह कोई नहीं ले सका है. अमेरिका के पतन का मतलब चीन का उदय नहीं है. चीन की एक प्रजाति, एक पार्टी की सत्ता का अनूठा मिश्रण अंतर्राष्ट्रीय सर्वसम्मति की जगह नहीं ले सकता है. अपने मौजूदा अवतार में संयुक्त राष्ट्र कोई व्यवस्था लागू करने के लिए बेहद कमज़ोर है. अतीत में कोई व्यवस्था लागू करने के लिए दुनिया की बड़ी ताक़तों के बीच सौहार्द के एक स्तर की ज़रूरत पड़ी थी जिसका नतीजा आम तौर पर बाध्यकारी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के रूप में निकला था जैसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, अंतर्राष्ट्रीय दूरसंचार संघ या अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी का निर्माण हुआ था. अलग-अलग शासन विधि अस्थिरता को बढ़ावा देती है लेकिन ये ताक़तवर देशों के बीच प्रतिस्पर्धा की वजह से उत्पन्न अस्थिरता भी दिखाती है.

बाल्कनाइज़ेशन का सबसे संभावित असर ‘टकराव’ में बढ़ोतरी है, राजनीतिक लाचारी वाली कनेक्टिविटी से उत्पन्न अक्षमता है. संप्रभु शासन में बढ़ोतरी से संपर्क करना कितना मुश्किल होगा ? इसके उदाहरण हैं. अलग-अलग देशों की अलग-अलग करेंसी है. अगर  करेंसी का इस्तेमाल दूसरे देशों में करना है तो इसकी क़ीमत है, लेकिन ये नामुमकिन नहीं है. हर देश में टेलीकॉम सेवा मुहैया कराने वाली कंपनी है लेकिन आप फीस देकर एक देश से दूसरे देश में कॉल कर सकते हैं. संप्रभुता के विस्तार से सबसे बड़ा बदलाव टकराव में बढ़ोतरी है जिसकी वजह से एक देश की सीमा से दूसरे देश में संपर्क करना मुश्किल और ज़्यादा खर्चीला हो जाता है.

डिजिटल संप्रभुता को जगह देना

दबावों का सामना करने के बाद परिवर्तन ज़रूरी है. असल में हम इंटरनेट की विचारधारा को फिर से परिभाषित कर रहे हैं जो इसकी मूल अवधारणा है और उसकी शासन विधि और बनावट को सहारा देती है. इस चीज़ को लेकर बेहद कम सर्वसम्मति है कि इसे कैसे किया जाए लेकिन अगर कोई विकल्प है तो वो धीरे-धीरे उभरता डिजिटल संप्रभुता के विचार का ढांचा है. फिर से परिभाषित करने का काम साइबर स्पेस को लेकर कम प्यार भरे दृष्टिकोण से शुरू किया जाना चाहिए. वैसे तो ज़्यादातर देशों के लिए इस नई जगह में दीर्घकालीन लक्ष्य प्राइवेसी, सुरक्षा और व्यक्तिगत अधिकार को सुनिश्चित करना है लेकिन तात्कालीन लक्ष्य अलग-अलग देशों की इस चिंता को जगह देना है कि मूलभूत स्वतंत्रता से समझौता किए बिना उनके नागरिकों की रक्षा हो.

डिजिटल संप्रभुता अपने नेटवर्क पर शासन के लिए किसी देश का अधिकार है ताकि वो अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा कर सके. इन राष्ट्रीय हितों में सुरक्षा, प्राइवेसी और वाणिज्य सबसे महत्वपूर्ण हैं.

इंटरनेट की नई विचारधारा की प्रमुख अवधारणा संप्रभुता है. डिजिटल संप्रभुता अपने नेटवर्क पर शासन के लिए किसी देश का अधिकार है ताकि वो अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा कर सके. इन राष्ट्रीय हितों में सुरक्षा, प्राइवेसी और वाणिज्य सबसे महत्वपूर्ण हैं.[7] अलग-अलग देश राष्ट्रीय क़ानून और नियमों को नेटवर्क और सेवाओं पर लागू करते हैं ताकि जोखिम कम हो सके और उनके नागरिकों के लिए मौक़ा सुनिश्चित किया जा सके. साथ ही जहां लोकप्रिय सरकारें नहीं हैं वहां राजनीतिक जोखिम को भी कम किया जा सके. इस राष्ट्रीय दृष्टिकोण के साथ समस्या ये है कि इंटरनेट और उसकी बुनियादी बनावट डिज़ाइन और काम-काज के मामलों में वैश्विक है. व्यावसायिक कनेक्शन के एक जटिल वेब और तकनीकी निर्भरता को रेखांकित करने को हम साइबर स्पेस कहते हैं. ये किसी राष्ट्रीय नेटवर्क का समूह नहीं है बल्कि ऐसा सिस्टम है जिसकी सीमा नेटवर्क और बाज़ार के तर्क को मानती है, राजनीति को नहीं. इसको सीमा का सम्मान करने के मुताबिक़ डिज़ाइन या बनाया नहीं गया है. इसके असरदार होने के लिए संप्रभु नियंत्रण का विस्तार किसी देश की भौतिक सीमा के पार यानी अंतर्राष्ट्रीय ज़रूर करना चाहिए. लेकिन अंतर्राष्ट्रीय क़दम दूसरे देश के लिए कभी भी लोकप्रिय नहीं रहे हैं और ऑनलाइन सामग्री और कनेक्टिविटी के ऊपर न तो अंतर्राष्ट्रीय नियंत्रण लागू करने का कोई उदाहरण रहा है, न ही साझा नियमों पर सहमति के तौर-तरीक़े हैं.

डिजिटल संप्रभुता का विस्तार करने की इन कोशिशों में सबसे ख़ास है जनरल डाटा प्रोटेक्शन रेगुलेशन (GDPR). GDPR को जारी करने में यूरोपियन आयोग की वैश्विक महत्वाकांक्षा है. GDPR प्रभावशाली रही है और इसने ब्राज़ील और कैलिफोर्निया में इसी तरह के नियमों को लागू करने में प्रेरित किया है.[8] GDPR के नतीजे के तौर पर यूरोपियन यूनियन (EU) वैश्विक प्राइवेसी नीति में सबसे आगे है और GDPR पहला नियम है जिसमें ग़ैर-यूरोपियन सेवा प्रदाताओं के लिए प्रतिस्पर्धा विरोधी बर्ताव और कर नीति पर सवालों का जवाब शामिल है.

जहां यूरोपियन आयोग बहु हिस्सेदार इंटरनेट की शासन विधि के मॉडल का काफ़ी सम्मान करता है, वहीं वो यूरोप में काम करने वाली कंपनियों के लिए नियमों की रूपरेखा बनाने की तरफ़ भी बढ़ रहा है, भले ही वो कंपनियां उसके क्षेत्र में मौजूद नहीं हैं. ये नया मॉडल अंतर्राष्ट्रीय पहुंच का है जो ‘ऐप इकोनॉमी’ से आगे बढ़ता है, जहां सेवाएं एक देश में तैयार होती हैं, उनको दुनिया भर में बांटा जाता है और इस्तेमाल ‘तीसरे देश’ में होती हैं. वो तीसरे देश निश्चित रूप से अपने अधिकार क्षेत्र को इन तीसरे-पक्ष की सेवा तक पहुंचाने के रास्ते की तलाश करें (टिकटॉक पर अमेरिका का ‘कब्ज़ा’ इसका एक और उदाहरण है).

डाटा के स्थानीयकरण का नतीजा बाल्कनाइज़ेशन नहीं है लेकिन ये कंपनियों के बिज़नेस मॉडल को जटिल बनाएगा और कुल मिलाकर विकास को धीमा कर सकता है. वैश्विक स्तर पर मौजूदगी वाली कंपनी के लिए डाटा के स्थानीयकरण की लागत सबसे पहले उस कंपनी पर पड़ेगी.

डाटा का स्थानीयकरण- सरकार की तरफ़ से उठाए गए क़दम जो कंपनियों को डिजिटल डाटा उनके अधिकार क्षेत्र में जमा करने के लिए मजबूर करते हैं- सीमा पार कनेक्टिविटी का संप्रभु जवाब है. इसका ये मतलब नहीं है कि इंटरनेट ‘छिन्न-भिन्न’ हो जाएगा. लगभग 80 देशों (EU के देश समेत) ने क़ानून बनाए हैं जो सीमा पार डाटा को ले जाने पर रोक लगाते हैं.[9] जिस डाटा को उस देश की सीमा के बाहर ले जाने पर सबसे ज़्यादा रोक है वो है व्यक्तिगत डाटा, इसके बाद वित्तीय और अकाउंटिंग डाटा, सरकारी डाटा (जिनमें सार्वजनिक रिकॉर्ड, रक्षा संबंधी डाटा) और टैक्स डाटा हैं (ख़ास तौर पर वैट संबंधी). इन क़ानूनों को लागू करना अलग-अलग देशों के हिसाब से अलग-अलग हैं. डाटा के स्थानीयकरण का नतीजा बाल्कनाइज़ेशन नहीं है लेकिन ये कंपनियों के बिज़नेस मॉडल को जटिल बनाएगा और कुल मिलाकर विकास को धीमा कर सकता है. वैश्विक स्तर पर मौजूदगी वाली कंपनी के लिए डाटा के स्थानीयकरण की लागत सबसे पहले उस कंपनी पर पड़ेगी. इसका दीर्घकालीन नतीजा ये होगा कि नई या छोटी कंपनी वैश्विक बाज़ार में ख़ुद के पहुंचने का मौक़ा गंवाएगी.[10]

बाल्कनाइज़ेशन की उम्मीद नहीं है क्योंकि ये महंगा है. सही मायनों में बाल्कनाइज़ेशन के नतीजे से कनेक्टिविटी और व्यावसायिक हितों को जो नुक़सान होगा, वो ज़्यादातर देशों को ऐसा करने से रोकेगा. कोई देश नेटवर्क कनेक्टिविटी के लिए नया तकनीकी मानक या प्रोटोकॉल लागू कर सकता है जैसा कि चीन ने प्रस्ताव तैयार किया है[11] और अगर इसको कई देश अपनाते हैं तो इससे वैश्विक इंटरनेट ‘छिन्न-भिन्न’ हो जाएगा लेकिन इसकी गंभीर आर्थिक क़ीमत चुकानी पड़ेगी, इतनी बड़ी क़ीमत कि व्यापक स्तर पर इसको अपनाने से देश बचेंगे (जब तक कि मजबूर नहीं किया जाए, शायद चीन के निवेश के लिए ज़रूरी).

ज़्यादा संप्रभु नियंत्रण, अगर इसको ग़लत तरीक़े से तैयार किया जाए, का मतलब होगा कि अलग-अलग देश डिजिटल कनेक्टिविटी का पूरा आर्थिक लाभ नहीं उठा पाएंगे. दूसरी प्राथमिकताएं (सुरक्षा, प्राइवेसी, संप्रभुता) आमदनी को पछाड़ देंगी. अलग-अलग देश प्राइवेसी और सुरक्षा के फ़ायदों के ख़िलाफ़ नियम बनाने की आर्थिक लागत को संतुलित करने के लिए राजनीतिक फ़ैसला लेंगे लेकिन कोई भी देश ऐसी कार्रवाई नहीं करेगा जिससे ज़्यादा छिन्न-भिन्न होने के हालात बनें. इसका उदाहरण चीन है. चीन में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों को महत्वपूर्ण जानकारी तक पहुंचने से रोका जाता है (चीन के रिसर्चर इसकी शिकायत करते हैं) और घटनाक्रमों को लेकर चीन का अजब दृष्टिकोण है क्योंकि कम्युनिस्ट पार्टी अपने हितों के लिए घटनाओं को तोड़-मरोड़कर दिखाती है. लेकिन इसकी वजह से चीन की कंपनियों को कारोबार करने में दिक़्क़त नहीं आती है. चीन का उदाहरण चरम है.

2010 के बाद डाटा स्थानीयकरण के क़ानून सामान्य हो गए जिसके तहत नागरिकों के व्यक्तिगत डाटा या अकाउंटिंग के रिकॉर्ड को देश के भीतर जमा करना ज़रूरी हो गया. लेकिन ज़्यादातर देशों के क़ानून, जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर डाटा के ट्रांसफर पर रोक लगाते हैं, वो कुछ शर्तों के साथ डाटा ट्रांसफर की इजाज़त भी देते हैं. इसके उदाहरण हैं साफ़ तौर पर उस व्यक्ति की मंज़ूरी की ज़रूरत या उन देशों को डाटा देने पर रोक जहां ‘पर्याप्त डाटा सुरक्षा’ सुनिश्चित करने वाले क़ानून हैं. डाटा स्थानीयकरण के क़ानून कंपनियों को अपनी अंतर्राष्ट्रीय मौजूदगी को विस्तार देने की राह में रोड़ा हो सकते हैं और कुछ कंपनियां अक्सर कर्मचारी, वित्तीय या क़ानूनी संसाधन की कमी की वजह से इन क़ानूनों का पालन करने की रणनीति नहीं विकसित कर पाती हैं. लेकिन कई सरकारें मानती हैं कि कुछ संभावित विकास को संप्रभुता की रक्षा से अदला-बदली करना सही फ़ैसला है.

साइबर स्पेस को फिर से आकार देने के तौर-तरीक़े

डिजिटल वर्ल्ड को नया आकार देने वाले रुझान- अलग होना, नियम बनाना, सैन्यीकरण और अविश्वास- बड़ी अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के लक्षण हैं- दुनिया भर में राष्ट्रवाद का उदय, वैश्विक संस्थानों की कम होती ताक़त और सत्तावादी शक्तियों से बढ़ता टकराव. लेकिन जिस तरह अलग-अलग देशों में अलग-अलग राजनीतिक प्रणाली हो सकती है या अलग-अलग व्यंजन हो सकते हैं और इसके बावजूद वो एक-दूसरे से कारोबार कर सकते हैं, उसी तरह इंटरनेट भी वैश्विक कनेक्टिविटी के लिए एक मंच के तौर पर काम जारी रख सकता है. देश के हिसाब से एयर स्पेस बंटा होता है लेकिन अंतर्राष्ट्रीय हवाई यात्रा इसके बाद भी मुमकिन है. इसकी वजह ये है कि संयुक्त राष्ट्र के एक संगठन की निगरानी में स्टैंडर्ड और सेफ्टी को लेकर अंतर्राष्ट्रीय समझौते हैं.

टकराव को कम करने और संप्रभु नियंत्रण के विस्तार से निपटने में समन्वय के मज़बूत तौर-तरीक़े और राष्ट्रीय अभियान को राह दिखाने की कमी एक बड़ी समस्या है. इस काम के लिए संयुक्त राष्ट्र सही संस्थान है लेकिन वो ख़ुद संकट का सामना कर रहा है. संयुक्त राष्ट्र महासचिव की उच्च-स्तरीय समिति[12] इसके निदान की एक कोशिश थी लेकिन इसमें बनावट संबंधी समस्या है और इसकी रिपोर्ट और रिपोर्ट जारी होने के बाद काम ने किसी का ध्यान नहीं खींचा है. एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करने वाली ताक़तों ने सार्थक सुरक्षा संवाद को निलंबित कर दिया है. अंतर्राष्ट्रीय तनाव बढ़ने के साथ हथियार नियंत्रण और निरस्त्रीकरण कमज़ोर पड़ रहा है. साइबर स्पेस का ‘सैन्यीकरण’ इस बढ़े हुए तनाव का लक्षण है और कारण की जगह लक्षण का इलाज करने से हालात बेहतर नहीं होंगे. अगर सशस्त्र संघर्ष बढ़ने की संभावना ज़्यादा हो तो कौन देश हथियार छोड़ना चाहेगा ? शांति के संस्थान बनाने या इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले चिंतित लोगों की शांति के लिए अपील से उस मूल समस्या का हल नहीं होता है कि सत्तावादी सरकारें अपने हितों की बेहतरी के लिए वैश्विक नियमों और संस्थानों में फेरबदल कर रही हैं, पश्चिमी असर घटाना चाहती हैं और खुली अभिव्यक्ति की जगह को कम कर रही हैं, वो भी उस वक़्त जब इसकी रक्षा करने वाले कमज़ोर हैं.

वैश्विक राजनीति में फेरबदल के साथ इस बात का असली जोख़िम है कि अभी राह दिखाने वाले लोकतांत्रिक सिद्धांत और मूल्य को ऑनलाइन स्तर पर कम करके आंका जाएगा. ये ज़रूरी नहीं है लेकिन इस बात की संभावना ज़्यादा है अगर हम मौजूदा बहु-हिस्सेदार संरचना को बचाने के लिए अतीत की अवधारणा पर भरोसा करेंगे. दुनिया भर के लोगों के लिए ज़्यादा प्रेरणा वाली कहानी की ज़रूरत है. ये दलील देना ठीक है कि इंटरनेट के लिए सरकारी नियंत्रण से मुक्त नीति, जो सबसे ज़्यादा आर्थिक फ़ायदा देती है, सर्वश्रेष्ठ थी लेकिन ये तभी ठीक है जब अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के लिए समझौते और साझा मूल्यों के बड़े ढांचे में जुड़ी हो. अब जब ये बड़ा ढांचा टूट गया है तो व्यावसायिक फ़ायदे की अपील या तेज़ इनोवेशन से बात नहीं बनेगी क्योंकि अलग-अलग देश संप्रभु नियंत्रण की ज़रूरत की मजबूरियों के बीच व्यापार पर विचार करते हैं.

साइबर स्पेस में विश्वास और सुरक्षा के लिए पेरिस आह्वान हालांकि एक साहसी कोशिश है लेकिन इसमें राजनीतिक सत्ता की कमी है और प्रक्रियागत समस्याएं भी हैं- एक बड़ी शक्ति ने तो समीक्षा के लिए एक हफ़्ते पहले ‘आख़िरी’ मसौदा मिलने के बाद भी इस पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया.

हालत मुश्किल ज़रूर हैं लेकिन निराश करने वाली नहीं. पहला क़दम साइबर स्पेस में समन्वय के लिए तौर-तरीक़े बनाना है. इसके लिए सबसे पहले समान सोच वाले देशों को साथ लाना होगा. जिस पहल की फंडिंग निजी तौर पर होती है, उसे मान्यता नहीं मिलती है. साइबर स्पेस में विश्वास और सुरक्षा के लिए पेरिस आह्वान हालांकि एक साहसी कोशिश है लेकिन इसमें राजनीतिक सत्ता की कमी है और प्रक्रियागत समस्याएं भी हैं- एक बड़ी शक्ति ने तो समीक्षा के लिए एक हफ़्ते पहले ‘आख़िरी’ मसौदा मिलने के बाद भी इस पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया. मसौदा अपने आप में दमदार नहीं था क्योंकि इसमें लोकतांत्रिक मूल्यों और व्यक्तिगत अधिकारों को लेकर अंतर्राष्ट्रीय टकराव की मुख्य समस्या का समाधान नहीं किया गया था. कोई भी कोशिश जिसको भारत, अमेरिका, रूस और चीन का समर्थन हासिल नहीं है, उसे कामयाब नहीं कहा जाएगा.

अगर पेरिस आह्वान एक मिसाल है तो ये दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन ये सबक सिखाता है. 1915 में प्रथम विश्व युद्ध को लेकर चिंतित हेनरी फोर्ड ने एक जहाज़ ख़रीदा (अनौपचारिक तौर पर इसे ‘शांति जहाज़’ का नाम दिया), पादरियों और विद्वानों (आज के बहु हिस्सेदार समुदाय के पूर्वजों) के एक समूह को जमा किया और शांति के लिए यूरोप की तरफ़ रवाना हो गए. परस्पर विरोधी शक्तियों ने रुखाई से फोर्ड और उनके हमवतनों का स्वागत किया. मीडिया ने भी फोर्ड की कोशिशों का मज़ाक उड़ाया. जब बड़ी शक्तियों के मुख्य हित टकराते हैं तो नेक मक़सद वाली ग़ैर-सरकारी कोशिशें वज़नदार नहीं होती हैं. इसी तरह डिजिटल शांति के पुराने दौर को बहाल करने की कोशिश कामयाब नहीं हो सकती है[13]

लेकिन ये 1915 का ज़माना नहीं है. ऐसे उदाहरण अधूरे हैं. साइबर स्पेस में पहले से काफ़ी ज़्यादा टकराव है लेकिन इसकी वजह से अभी तक मौत[14] या तबाही नहीं आई है. फोर्ड के शांति जहाज़ जैसा रूख़ा स्वागत टालने के लिए तीन चीज़ों की ज़रूरत है- साइबर संघर्ष के असली स्वभाव और इसे बढ़ाने वाली शक्तिशाली राजनीतिक असहमति को मान्यता; विरोधियों के बीच सहमति की सीमित जगह; और एक जैसे विचार वाले देशों में भी संघर्ष या तनाव को घटाने में सफलता के लिए असरदार तौर-तरीक़े की अनुपस्थिति. ये अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष जितना बाल्कनाइज़ेशन को बढ़ाता है उतना ही डिजिटल संप्रभुता के लिए राष्ट्रीय इच्छा को भी ताकि प्राइवेसी और सुरक्षा में कमियों का इलाज हो सके.

व्यावसायिक अवसरों या मानवाधिकार जैसे कि स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर पाबंदी लगाए बगैर इंटरनेट को लेकर जोखिम से निपटना संभव है. अलग-अलग देशों के लिए एक विकल्प है कि वो व्यावसायिक जानकारी तक पहुंच की इजाज़त दें जबकि राजनीतिक तौर पर संवेदनशील जानकारी पर रोक लगा दें. चीन उन शुरुआती देशों में से है जो कारोबार के लिए खुला है जबकि राजनीति के लिए बंद है. ये मुश्किल ज़रूर है लेकिन नामुमकिन नहीं (कम-से-कम अल्पकालीन समय में). ऐसी तकनीकें जो सरकारों के लिए कंटेंट और निगरानी पर ज़्यादा नियंत्रण रखना आसान बनाती हैं, उनकी उपलब्धता और विकास तेज़ी से हो रहा है.

डिजिटल संप्रभुता को लेकर ख़राब दृष्टिकोण इनोवेशन और आर्थिक विकास को नुक़सान पहुंचाएगा. ऐसा नहीं है कि बाल्कनाइज़ेशन में बढ़ोतरी हो रही है बल्कि ऑनलाइन और ऑफ़लाइन स्वतंत्रता कम हो रही है.

लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि इस तरह की साइबर संप्रभुता मनचाहा नतीजा है, ख़ासतौर पर उन लोगों के लिए जो इंटरनेट को मूलभूत स्वतंत्रता का विस्तार करने में एक औज़ार के रूप में देखते हैं. डिजिटल संप्रभुता को लेकर ख़राब दृष्टिकोण इनोवेशन और आर्थिक विकास को नुक़सान पहुंचाएगा. ऐसा नहीं है कि बाल्कनाइज़ेशन में बढ़ोतरी हो रही है बल्कि ऑनलाइन और ऑफ़लाइन स्वतंत्रता कम हो रही है. व्यक्तिगत स्वतंत्रता और व्यक्तिगत अधिकारों के माध्यम के रूप में इंटरनेट की परिकल्पना उस वक़्त ख़त्म हो जाएगी जब हम साथ मिलकर काम नहीं करेंगे. कुछ हद तक बाल्कनाइज़ेशन से परहेज करना संभव नहीं है, अगर इसका मतलब नियामक सीमा की स्थापना है तो, लेकिन लोकतांत्रिक देशों का एक मुख्य समूह मूलभूत अधिकारों, कम-से-कम अपनी सीमा में, को बरकरार रखते हुए प्राइवेसी, सुरक्षा और वाणिज्य की चुनौतियों का समाधान करने में राह दिखा सकता है.

ये टकराव उस राजनीतिक बदलाव के संदर्भ में हो रहा है जिसमें इंटरनेट ने मदद की है. नागरिक अब उम्मीद करते हैं कि जानकारी तक उनकी पहुंच बिना किसी बाधा के होगी और जानकारी तक पहुंच को वो मूलभूत अधिकार की तरह देखते हैं. लोकतांत्रिक राजनीतिक संवाद को इंटरनेट द्वारा मुहैया कराए गए चरमपंथ और ध्रुवीकरण में बढ़ावे से चुनौती मिल रही है. ऐसा संभव है कि इंटरनेट तक आसान पहुंच राष्ट्रवाद और लोकप्रियता को सहारा देता है (हालांकि हम इस असर को बढ़ा-चढ़ाकर नहीं बताना चाहते). लेकिन ये याद रखना ज़रूरी है कि ऐसा ही दबाव ग़ैर-लोकतांत्रिक देशों पर भी लागू होता है जो आख़िरकार उनसे निपटने में कम सक्षम हैं. इंटरनेट सत्तावादी सरकारों के भुरभुरेपन को बढ़ाता है और इसे कम करने की उनकी कोशिशों को नये इंटरनेट की बनावट और विचारधारा को आकार देने में नहीं करने देना चाहिए.

न सिर्फ़ संप्रभुता बल्कि व्यक्तिगत अधिकारों को सम्मान देने वाले सिद्धांत के आधार पर नई विचारधारा को व्यक्त करना उपयोगी होगा. इसमें दूसरा क़दम है समान विचार वाले लोकतंत्रों के बीच सहयोग के लिए एक मज़बूत, औपचारिक तौर-तरीक़ा विकसित करना और इस मंच का इस्तेमाल इंटरनेट को नया आकार देने वाली वैध चिंताओं को दूर करते समय बाल्कनाइज़ेशन से होने वाले नुक़सान के जोख़िम को कम करने में समझौते के लिए करना.

ये तौर-तरीक़ा कम-से-कम पहली बार में वैश्विक कोशिश नहीं हो सकता है. निकट भविष्य के लिए दुनिया राजनीतिक विचारधारा के आधार पर छिन्न-भिन्न हो रही है और इंटरनेट के साथ भी ऐसा ही होगा. किसी भी नये तौर-तरीक़े में उनको छोड़ देना चाहिए जो मूलभूत अधिकारों के लिए वचनबद्ध नहीं हैं. सत्तावादियों से सर्वसम्मति की इच्छा करना समय की बर्बादी है. इंटरनेट की शुरुआती विचारधारा के मूल में व्यक्तिगत स्वतंत्रता का आदर्श और व्यक्तिगत अधिकारों पर ज़ोर है जो इसे शिक्षा का असली वंशज बनाता है. हमारे सामने विकल्प बाल्कनाइज़ेश को रोकना नहीं है बल्कि इंटरनेट को व्यक्तिगत कार्यकलापों- भाषण में, डाटा में और इनोवेशन में- की जगह के रूप में सामूहिक रूप से बचाना है.


Endnotes

[1] Pamela Zave and Jennifer Rexford, “The compositional architecture of the Internet” (paper presented at Conference’17, Washington, DC, USA, July 2017).

[2] John Perry Barlow, “A Declaration of the Independence of Cyberspace,” Electronic Frontier Foundation, February 8, 1996.

[3]Parmy Olson, “European Regulators Target Big Tech Companies, Wall Street Journal, January 20, 2020.

[4] The Kellogg-Briand Pact, 1928”, Office of the Historian.

[5] Sarah Rainsford, “Russia internet: Law introducing new controls comes into force, BBC, November 01, 2019.

[6] Simon Ensor, “How to escape Google’s filter bubble, Search Engine Watch, August 18, 2017.

[7] Tambiama Madiega, Digital Sovereignty for Europe, (European Parliamentary Research Service, July 2020).

[8] Bart Van den Brande, “Data protection laws inspired by GDPR are spreading across the world. Is New York next?”, Lexology, September 12, 2019.

[9] William Alan Reinsch, “A Data Localization Free-for-All?”, The Center for Strategic and International Studies, March 9, 2018.

[10] Leviathan Security Group, Quantifying the Cost of Forced Localization, (Leviathan Security Group, 2015).

[11] Madhumita Murgia and Anna Gross, “Inside China’s controversial mission to reinvent the internet” Financial Times, March 27, 2020.

[12] Secretary-General’s High-level Panel on Digital Cooperation”, United Nations, June 11, 2020.

[13] University of Michigan, The Peculiar Case of Henry Ford, (University of Michigan, Michigan in the World).

[14] The reported death of an unfortunate German citizen while being transferred among hospitals hardly qualifies as a “weapon.”

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