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ये निबंध एक विस्तृत संग्रह "भारत के शहरी पुनर्जागरण के लिए नीति और संस्थागत अनिवार्यता" का हिस्सा है.
'चुनावी निर्वाचन क्षेत्रों' की अवधारणा को एक तरह से भारत में चुनावों का एक स्तंभ माना जाता है. इन निर्वाचन क्षेत्रों को कैसे बनाया जाता है, ये भारतीय लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण पहलू है. निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं (यानी, परिसीमन) का निर्धारण करना एक तकनीकी कार्य है. चुनाव क्षेत्र का मतलब उस इलाके और आबादी से है, जो कुछ राजनीतिक दल के उम्मीदवारों या निर्दलीय प्रत्याशियों को विधायिका में उनका प्रतिनिधित्व करने के लिए वोट देती है. भारत किस तरह से क्षेत्रों और समूहों में निर्वाचन क्षेत्रों को परिभाषित और आवंटित करता है, वो ये तय करता है कि लोग किसे और किस तरह से चुनेंगे.
भारत सरकार ने संकेत दिए हैं कि अगली जनगणना और उसके बाद का परिसीमन 2024 के लोकसभा चुनावों के तुरंत बाद होगा. संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों का अगला व्यापक परिसीमन और दोबारा आवंटन, चाहे जब भी हो लेकिन परिसीमन का ये काम चार दशक से ज़्यादा के लंबे अंतराल के बाद होगा.
भारत सरकार ने संकेत दिए हैं कि अगली जनगणना और उसके बाद का परिसीमन 2024 के लोकसभा चुनावों के तुरंत बाद होगा. संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों का अगला व्यापक परिसीमन और दोबारा आवंटन, चाहे जब भी हो लेकिन परिसीमन का ये काम चार दशक से ज़्यादा के लंबे अंतराल के बाद होगा. निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन के इस कार्य में देश के कुछ हिस्सों के कम प्रतिनिधित्व को लेकर जताई जा रही चिंताओं का समाधान करना शामिल होगा, विशेष रूप से उन शहरी समूहों में, जहां जनसंख्या तेजी से बढ़ी है.
संवैधानिक अपेक्षाएं और राजनीतिक वास्तविकताएं
भारत के संविधान में परिसीमन के लिए कुछ मूल सिद्धांत निर्धारित किए गए हैं. अनुच्छेद 81 कहता है कि हर राज्य को उसकी जनसंख्या के अनुपात में लोकसभा में सीटें मिलती हैं और राज्य के निर्वाचन क्षेत्रों में लगभग समान जनसंख्या होनी चाहिए. संविधान द्वारा समर्थित मौलिक सिद्धांत व्यावहारिकता की सीमाओं के भीतर निर्वाचन क्षेत्रों के बीच समानताओं में से एक हैं. थिग्स समानता ये सुनिश्चित करवाती है कि 'एक व्यक्ति, एक वोट, एक मूल्य' के सिद्धांत का पालन किया जाए. इसका अर्थ ये हुआ कि एक व्यक्ति के वोट का मूल्य किसी अन्य व्यक्ति के समान होना चाहिए, फिर चाहे वो अमीर हो या गरीब. जब निर्वाचन क्षेत्रों में जनसंख्या का अलग-अलग स्तर होता है, तो सामाजिक पदानुक्रम ये तय करते हैं कि कुछ मतदाताओं को प्रभावी रूप से दूसरों की तुलना में कैसे ज़्यादा शक्ति मिलती है. विधायिका (जैसे कि संसद और विधानसभाएं) कैसे बनती हैं.
आज की वास्तविकता ये है कि उत्तर भारत में एक वोट का मूल्य दक्षिण भारत की तुलना में बहुत कम है. उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश का एक सांसद 18.3 लाख मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि केरल के लिए ये संख्या 13.1 लाख है.
जनसंख्या परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए संविधान में चुनावी निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं को फिर से तैयार करने को कहा गया है. संविधान ये आदेश देता है कि हर दशकीय जगणना के बाद लोकसभा और विधानसभाओं में सीटों के आवंटन को फिर से समायोजित किया जाए, यानी उनका परिसीमन किया जाए. हालांकि, 1976 में संविधान के 42वें संशोधन ने 1971 की जनगणना से 2001 की जनगणना तक लोकसभा के साथ-साथ विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन को रोक दिया. चूंकि भारत के विभिन्न हिस्सों में जनसंख्या की वृद्धि असमान है. यही वजह है कि निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन पर रोक का ये फैसला उन राज्यों की चिंताओं को दूर करने के लिए लिया गया था, जिन्होंने जनसंख्या नियंत्रण का नेतृत्व किया था और अपने यहां आबादी की रफ्तार पर काबू पाया था. इन राज्यों को डर था कि उनकी लोकसभा सीटों की संख्या कम हो सकती है. हालांकि 2001 में निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं में थोड़ा बदलाव किया गया लेकिन ये काम जनसंख्या परिवर्तन के लिए फिर से तैयार किया गया था. लोकसभा और विधानसभाओं में सीटों की कुल संख्या समान रही. सीटों के आवंटन पर फिर से विचार करने की समयसीमा को बढ़ाकर 2026 कर दिया गया. तब ये उम्मीद जताई गई थी कि 2026 तक देश के सभी हिस्सों में शायद जनसंख्या वृद्धि की दर एक समान होगी.
आज की वास्तविकता ये है कि उत्तर भारत में एक वोट का मूल्य दक्षिण भारत की तुलना में बहुत कम है. उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश का एक सांसद 18.3 लाख मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि केरल के लिए ये संख्या 13.1 लाख है. इसका मतलब है कि केरल को लोकसभा में अधिक प्रतिनिधित्व दिया गया है, जबकि उत्तर प्रदेश को कम. परिसीमन और उसके साथ भारत के चुनावी निर्वाचन क्षेत्रों के दोबारा सीमांकन का मक़सद इस वोट मूल्य को बराबर करने का है.
ये यहां पर चुनौती ये है कि अगर मौजूदा जनसंख्या के आधार पर परिसीमन किया जाएगा तो उत्तरी राज्यों में निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या में काफ़ी बढ़ोत्तरी होगी. इससे संसद में उनकी उपस्थिति में अनुपात से ज़्यादा वृद्धि होगी. वहीं दक्षिणी राज्यों को डर है कि इससे संसद में उनकी मौजूदगी कम हो जाएगा. इस साल की शुरुआत में तमिलनाडु विधानसभा ने आसन्न परिसीमन को लेकर चिंता जताई. विधानसभा में इसे लेकर एक प्रस्ताव भी स्वीकार किया गया क्योंकि तमिलनाडु को डर है कि परिसीमन के बाद सिर्फ उसका ही नहीं बल्कि दक्षिण के दूसरे राज्यों का भी प्रतिनिधित्व कम हो सकता है. इस लिहाज से देखें तो परिसीमन के इस बहुप्रतीक्षित काम को दो प्रतिस्पर्धी संवैधानिक मूल्यों में संतुलन बनाना होगा. ये दो संवैधानिक मूल्य हैं मतदान में औपचारिक समानता और संघवाद.
शहरी निर्वाचन क्षेत्रों में कम प्रतिनिधित्व
इसके साथ ही, आगामी परिसीमन को प्रतिनिधित्व में विशिष्ट अंतर-राज्य असमानताओं से जूझना होगा. ये असमानताएं एक ही राज्य के भीतर ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच मौजूद हैं. पलायन (ग्रामीण से शहरी इलाकों में) के साथ-साथ प्राकृतिक विकास की प्रवृत्तियों की वजह से भारत में ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरी आबादी बहुत तेज़ी से बढ़ी है. परिसीमन पर रोक के कारण कुछ शहरी निर्वाचन क्षेत्रों में मतदाताओं का आकार अनुपातहीन रूप से अधिक हो गया है. इसका अर्थ है कि ऐसे निर्वाचन क्षेत्र में किसी व्यक्ति के वोट का मूल्य किसी और निर्वाचन क्षेत्र में मतदान करने वाले नागरिक के बराबर नहीं है.
ये जानना भी ज़रूरी है कि इस तरह की असमानता हाल की घटना है और शहरी निर्वाचन क्षेत्रों के बीच भी मौजूद है. मतदाताओं के बड़े आकार और उच्च जनसंख्या वृद्धि दर के साथ अत्यधिक बड़े निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या में 1991 के बाद काफ़ी बढ़ोत्तरी हुई. उदाहरण के लिए, 1999 में, बाहरी दिल्ली निर्वाचन क्षेत्र में 31,01,838 मतदाता थे, जो चांदनी चौक निर्वाचन क्षेत्र (3,76,603 मतदाताओं में) से आठ गुना ज़्यादा थे. मतदाताओं की संख्या के हिसाब से बाहरी दिल्ली निर्वाचन क्षेत्र (2008 के रूप में ख़त्म) 1999 के आम चुनाव के दौरान सबसे बड़ा था.
पिछले कुछ वर्षों में देश की जनसंख्या में बहुत वृद्धि हुई है. इसे देखते हुए कहा जा सकता है कि निर्वाचन क्षेत्र के मतदाताओं के असमान आकार में और वृद्धि हुई होगी. कई शहरी निर्वाचन क्षेत्रों में जनसंख्या काफ़ी बढ़ी है, उस अनुपात में विधायिकाओं में उनका प्रतिनिधित्व नहीं हुआ है.
पिछले कुछ वर्षों में देश की जनसंख्या में बहुत वृद्धि हुई है. इसे देखते हुए कहा जा सकता है कि निर्वाचन क्षेत्र के मतदाताओं के असमान आकार में और वृद्धि हुई होगी. कई शहरी निर्वाचन क्षेत्रों में जनसंख्या काफ़ी बढ़ी है, उस अनुपात में विधायिकाओं में उनका प्रतिनिधित्व नहीं हुआ है. उदाहरण के लिए, 2011 की जनगणना के अनुसार, कर्नाटक की आबादी का 13.82 प्रतिशत बेंगलुरु शहर में था, जबकि लोकसभा और कर्नाटक की विधानसभा में इसकी लगभग 10-12 प्रतिशत सीटें हैं. ये कमियां दूसरे शहरों में भी दिखाई देती हैं.
2011 की जनगणना के अनुसार पुणे की शहरी आबादी 57,51,182 है, जो महाराष्ट्र की 11,23,74,333 की कुल आबादी के पांच प्रतिशत से अधिक है. विडंबना ये है कि महाराष्ट्र की 48 लोकसभा सीटों में से पुणे में सिर्फ एक सीट है. इतना ही नहीं, पुणे के शहरी क्षेत्रों को आठ विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए गए हैं, जो महाराष्ट्र की 288 विधान सभा सीटों का सिर्फ 2.7 प्रतिशत है.
इसी तरह, 2011 में सूरत की शहरी आबादी 48,49,213 थी, जो गुजरात की कुल आबादी 6,04,39,692 का 8.02 प्रतिशत थी. इस आबादी का करीब 92 प्रतिशत हिस्सा सूरत शहर में रहता है, जिसे 2011 की जनगणना में शहरी समूह के रूप में वर्गीकृत किया गया था. सूरत शहर के कुछ हिस्से सूरत पूर्व, सूरत उत्तर, वरछा रोड, करंज, लिंबायत, उधना, मजुरा, कतारगाम और सूरत पश्चिम के नौ विधानसभा क्षेत्रों में फैले हुए हैं. 182 सदस्यीय गुजरात विधानसभा में सूरत जिले से 16 विधानसभा क्षेत्र हैं. सूरत जिले के शेष सात विधानसभा क्षेत्रों में महुवा को छोड़कर, जो पूरी तरह से ग्रामीण है, मिश्रित ग्रामीण और शहरी आबादी है. जनगणना और सूरत जिले के परिसीमन से जुड़े आंकड़ों के विश्लेषण में इस लेखक ने ये पाया कि सूरत जिले की शहरी आबादी का 90 प्रतिशत शामिल होने के बावजूद, नौ विधानसभा क्षेत्रों के साथ सूरत शहर, गुजरात विधानसभा की कुल ताकत का केवल पांच प्रतिशत है.
तालिका 1 : शहरी आबादी और विधानसभाओं में निर्वाचित प्रतिनिधियों में असंतुलन
शहर
|
राज्य की आबादी
|
शहर की आबादी
|
लोकसभा सीट (राज्य)
|
लोकसभा सीट (शहर)
|
विधानसभा सीट
|
शहरी क्षेत्रों में सीटों की अनुमानित संख्या
|
पुणे (महाराष्ट्र)
|
11,23,74,333
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57,51,182
(5.11%)
|
48
|
1 (2.08%)
|
288
|
8 (2.77%)
|
सूरत (गुजरात)
|
6,04,39,692
|
48,49,213
(8.02%)
|
26
|
1 (3.84%)
|
182
|
9 (4.94%)
|
स्रोत: लेखक ने खुद 2011 की जनगणना का विश्लेषण किया है. महाराष्ट्र के मुख्य निर्वाचन अधिकारी और भारत परिसीमन आयोग द्वारा जारी प्रासंगिक आदेश. सूरत नगर निगम और जिला निर्वाचन कार्यालय, सूरत की आधिकारिक वेबसाइटें.
ये आंकड़े 2000 के दशक की शुरुआत के रुझानों को प्रतिबिंबित करते हैं, जब महाराष्ट्र जैसे राज्यों में शहरी आबादी करीब 40 प्रतिशत दर्ज की गई थी, लेकिन विधानसभा में उनका प्रतिनिधित्व महज 25 प्रतिशत था. COVID-19 महामारी के कारण 2021 में जनगणना नहीं हो पाई. यानी 2011 की जनगणना के बाद से जनसंख्या में जो परिवर्तन हुए हैं, उन्होंने प्रतिनिधित्व में असमानता की खाई को और भी चौड़ा कर दिया होगा. मौजूदा जनसंख्या स्तर और संसद और विधानसभाओं में सीटों के वितरण को देखते हुए, शहरी क्षेत्रों के मतदाताओं पर ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में चुनावों में कम ध्यान दिया है क्योंकि उनके वोट का तुलनात्मक मूल्य कम होता है.
प्रतिनिधित्व में ये विकृति संविधान की अपेक्षाओं को झुठलाती है, जहां मतदान में औपचारिक समानता की बात कही गई है और हर सांसद/विधायक से लगभग समान संख्या में नागरिकों का प्रतिनिधित्व करने की अपेक्षा की गई है. बढ़ती शहरी आबादी शहरों के कुशल और त्वरित रखरखाव की मांग करती है. पुणे और सूरत जैसे शहरों में तेज़ी से शहरीकरण और शहर की सीमाओं का विस्तार हो रहा है. ऐसे में ये उम्मीद की जाती है कि विधायी निकायों में उन्हें बेहतर या फिर आनुपातिक प्रतिनिधित्व मिले. 1992 में संविधान में 74वां संशोधन हुआ था. इसके बाद शहरी स्थानीय निकायों को संवैधानिक रूप से मान्यता दी गई थी. इसके बावजूद शहरों की समस्याओं के निराकरण के लिए इनके पास पूर्ण अधिकार नहीं हैं. ये ना सिर्फ अपने राजस्व के लिए राज्य और केंद्रीय मदद पर निर्भर रहते हैं, बल्कि शासन के स्वशासी तीसरे स्तर के रूप में उनका विकास और उन्हें मिले अधिकार अलग-अलग राज्यों में असमान रहे हैं.
ऐसे में शहरी निर्वाचन क्षेत्रों का दोबारा निर्धारण किया जाना ज़रूरी है. शहरी क्षेत्रों को उनकी संख्यात्मक आकार के हिसाब से जनप्रतिनिधि दिए जाने की आवश्यकता है. अगर ऐसा नहीं होता तो बड़े आकार के शहरी निर्वाचन क्षेत्र कई शहरी मतदाताओं को वंचित कर देंगे. शहरी क्षेत्रों में कम मतदान को देखते हुए वोटरों की ये नाराज़गी विधानसभा में शहरी मुद्दों को प्राथमिकता देने के फैसले को प्रभावित करती है. विधायक इस मुद्दों पर चर्चा में खास रुचि नहीं दिखाते. देश के आर्थिक विकास में में शहरों और शहरी क्षेत्रों के महत्व को देखते हुए ये ज़रूरी है कि विधानसभाओं में शहरी क्षेत्रों के मज़बूत और पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिले.
क्या किए जाने की ज़रूरत है?
चूंकि 2011 के बाद से जनगणना नहीं हुई है, इसलिए हमारे पास वर्तमान में जनसंख्या के सटीक आंकड़े नहीं हैं. ऐसे में ये पता लगाना मुश्किल है कि शहरी क्षेत्रों के प्रतिनिधित्व की समस्या कितनी भयावह है. नई सरकार के लिए जनगणना कराना इसकी प्राथमिकता में सबसे ऊपर होनी चाहिए. चार दशक से परिसीमन का काम रुका हुआ है. यही वजह है कि परिसीमन जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर शोध और अध्ययन नहीं हो पा रहा है. ऐसे में ये बहुत ज़रूरी है कि आगामी परिसीमन पर तुरंत विचार-विमर्श किया जाए.
विधानसभाओं में शहरी क्षेत्रों का उचित प्रतिनिधित्व होना ज़्यादा ज़रूरी है. इसलिए, आगामी परिसीमन में विधानसभाओं को समान महत्व और विचार देना चाहिए, क्योंकि चार दशक से अधिक समय से परिसीमन पर संवैधानिक रोक उन पर भी लागू है.
यहां पर इस बात को याद रखना भी आवश्यक है कि शहरी क्षेत्रों के बेहतर प्रतिनिधित्व के लिए अधिक विश्वसनीय मंच विधानसभाएं हैं, संसद नहीं. विधानसभाओं में शहरी क्षेत्रों का उचित प्रतिनिधित्व होना ज़्यादा ज़रूरी है. इसलिए, आगामी परिसीमन में विधानसभाओं को समान महत्व और विचार देना चाहिए, क्योंकि चार दशक से अधिक समय से परिसीमन पर संवैधानिक रोक उन पर भी लागू है. आखिरकार, परिसीमन का लोकतंत्र और संघवाद दोनों पर गंभीर प्रभाव पड़ता है. इससे उन्हें ज़रूरी प्रतिनिधित्व मिलता है. यही वजह है कि परिसीमन राजनीतिक नेताओं के एकमात्र संरक्षण के रूप में बहुत महत्वपूर्ण प्रक्रिया बन जाता है. ऐसे में ये ज़रूरी है कि परिसीमन सार्थक रूप से सहयोगी होना चाहिए. इसमें राजनीति विज्ञान, शहरी शासन, संवैधानिक कानून और चुनाव विश्लेषण समेत विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों की राय भी शामिल की जानी चाहिए.
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