Published on Jan 06, 2023 Updated 0 Hours ago

आर्थिक सुधारों की प्रयोगशाला में जन विश्वास विधेयक एक प्रयोग है. कारोबार को आगे बढ़ाने के लिए डिक्रिमिनलाइज़ेशन वैक्सीन की ज़रूरत पूरी करने के लिए अभी लंबा सफ़र तय करना है.

Decriminalisation विधेयक यानी आधे-अधूरे सुधार की कोशिश; ज़रूरत है भरपूर सुधारों की!

नियमन के मोर्चे पर सात दशकों से जमा हुए वसा को अनुपालन से जुड़े सुधार में बदलना कतई आसान क़वायद नहीं है. दंड से जुड़े प्रावधानों को अपराध की श्रेणी से बाहर लाने के लिए तमाम मंत्रालयों को एकजुट करना विधायी प्रक्रियाओं के लिहाज़ से और भी मुश्किल है. यही वजह है कि जन विश्वास (प्रावधानों में संशोधन) विधेयक, 2022 उम्मीदों पर पूरी तरह से खरा नहीं उतर पा रहा है. सुधारवादी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राजनीतिक दृढ़ निश्चय और सत्तारूढ़ गठबंधन के वैधानिक इरादों के बावजूद ऐसे हालात दिखाई दे रहे हैं. मोदी और उनकी सरकार, भारत के कारोबारी क़ानूनों को आर्थिक वृद्धि और रोजग़ार निर्माण के उत्प्रेरक में बदलना चाहती है, जिसके तहत 10 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की जीडीपी वाली अर्थव्यवस्था तैयार करने का निश्चय है.

इस विधेयक को एक लंबे सफ़र के आग़ाज़ (न कि मंज़िल) के तौर पर देखे जाने की दरकार है. ये पहला क़दम है, आख़िरी नहीं. ये पूरी तरह से कामयाब क़वायद ना होकर एक लंबी प्रक्रिया की शुरुआत भर है. अगर हम अनुपालन से जुड़े सुधार की 24 घंटे वाले दिन के तौर पर कल्पना करें तो ये विधेयक क़रीब आधे घंटे या 31 मिनट के लिए ही चल पाता है, जो चीन से आने वाले कॉरपोरेट शरणार्थियों को पनाह देने या वैश्विक आर्थिक विविधता के वक़्त घरेलू ऊर्जा को कारोबारी लाभ के लिए मोड़ने के लिहाज़ से बिल्कुल अपर्याप्त है.

जन विश्वास विधेयक, संसद के 42 अधिनियमों से ताल्लुक़ रखता है. इनमें से आधे से कुछ ज़्यादा (यानी 23 अधिनियम) कारोबारी सहूलियत (ease of doing business) पर असर डालते हैं. बाक़ी या तो जीवन जीने की सहूलियत पर असर डालते हैं या संस्थागत ढांचों को प्रभावित करते हैं. कारोबारी नियमों के व्यापक संदर्भ के भीतर रखे जाने पर ये 23 अधिनियम, संघीय स्तर पर अनुपालन से जुड़े पूरे दायरे (जिसमें 678 क़ानून हैं) का बेहद छोटा हिस्सा है. ये अनुपात, 29 में से एक से भी कम या कुल क़ानूनों का महज़ 3.4 प्रतिशत है. विधेयक में 186 अनुपालनों को अपराध की श्रेणी से बाहर रखने का प्रस्ताव रखा गया है. इनमें से 113 (या पांच में से तीन) कारोबार करने से ताल्लुक़ रखते हैं. संघीय विधान के तरकश में मौजूद 5,239 दंडनीय प्रावधानों के संदर्भ में रखे जाने पर ये आंकड़ा 50 प्रावधानों में से तक़रीबन एक (या 2.1 प्रतिशत) का बनता है.

अनुपालनों की तादाद के हिसाब से अपराध की श्रेणी से बाहर किए जाने के लिए प्रस्तावित पांच शीर्ष अधिनियमों में: वाणिज्य पोत परिवहन अधिनियम, 1958; पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986; वायु (प्रदूषण नियंत्रण और रोकथाम) अधिनियम, 1981; राष्ट्रीय आवासीय बैंक अधिनियम, 1987; और प्रिवेंशन ऑफ़ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट, 2022, द कलेक्शन ऑफ़ स्टैटिस्टिक्स एक्ट, 2008, और द लीगल मेट्रोलॉजी एक्ट, 2009 की तिकड़ी शामिल है. कुल मिलाकर इसमें 113 दंडनीय प्रावधानों में से 73 को अपराध श्रेणी से बाहर (decriminalise) करने का प्रस्ताव किया गया है.

वाणिज्य पोत परिवहन अधिनियम, 1958 इस सूची की अगुवाई करता है, जिसके तहत 22 अनुपालनों को अपराध श्रेणी से बाहर किए जाने का प्रस्ताव है. इनमें जाली दस्तावेज़ तैयार करने या धोखे से नाविक की तरह काम करने; कर्तव्य छोड़कर भागने या लॉग बुक्स में फ़र्जीवाड़े से बदलाव करने या उन्हें बर्बाद करने से जुड़े कारनामे शामिल हैं. पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986, 12 धाराओं को अपराध सूची से बाहर करने का प्रस्ताव करता है. वायु (प्रदूषण नियंत्रण और रोकथाम) अधिनियम, 1981, 10 अनुच्छेदों; राष्ट्रीय आवासीय बैंक अधिनियम, 1987, की 8 धाराओं को डिक्रिमिनलाइज़ करने का प्रस्ताव करता है. इसके अलावा प्रिवेंशन ऑफ़ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट, 2022, द कलेक्शन ऑफ़ स्टैटिस्टिक्स एक्ट, 2008 और द लीगल मेट्रोलॉजी एक्ट, 2009 के तिहरे अधिनियमों में से हरेक की 7 धाराएं शामिल हैं.

पर्यावरण अधिनियम

पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 में अनजाने में अनुपालन क़ानूनों के उल्लंघनों (जैसे खंड 7 और 9 के तहत प्रदूषकों के निर्धारित स्तर से ज़्यादा डिस्चार्ज) के मसले शामिल हैं, जिसके तहत फ़िलहाल 5 साल की क़ैद और एक लाख रु के जुर्माने का प्रावधान है. इस तरह के उल्लंघन को अपराध की श्रेणी से बाहर किए जाने का प्रस्ताव है, जिसके तहत 1 लाख रु से 15 लाख रु तक के जुर्माने का प्रावधान किए जाने की बात कही गई है. इसी तरह अगर कोई इंस्पेक्टर नुक़सानदेह पदार्थों का कारोबार करने वाले किसी कारखाने के प्रबंधक द्वारा मदद नहीं पहुंचाए जाने के चलते सैंपल इकट्ठा करने में नाकाम रहता है तो 5 साल की क़ैद की धारा को 5 लाख रु के जुर्माने के रूप में अपराध के दायरे से बाहर किए जाने का प्रस्ताव किया गया है. 

इस विधेयक में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की छह धाराओं को भी डिक्रिमिनलाइज़ करने का प्रस्ताव किया गया है. इनमें सेक्शन 33 भी शामिल है, जिसके तहत लाइसेंस सरेंडर करने पर जुर्माने का प्रावधान है. इसके साथ ही सेक्शन 67सी भी इसी कड़ी में आता है, जिसमें मध्यवर्तियों द्वारा सूचनाओं को संरक्षित और क़ायम रखे जाने का प्रावधान है. इसके अलावा धारा 72 में गोपनीयता और निजता के उल्लंघन का भी ज़िक्र है. सबसे बढ़कर इसमें सेक्शन 66ए को हटाए जाने का भी प्रस्ताव किया गया है, जिसके तहत किसी संचार सेवा के ज़रिए आक्रामक संदेश भेजे जाने पर दंड का प्रावधान है. ये फ़ैसला सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद लिया गया है. ग़ौरतलब है कि 24 मार्च 2015 को सप्रीम कोर्ट ने सेक्शन 66ए को समाप्त करने का आदेश सुनाया था. 

दंडनीय धाराओं का एक क़ानून कारोबार जगत की दुखती रग बना हुआ है. ये है लीगल मेट्रोलॉजी एक्ट, 2009. इस सिलसिले में जन विश्वास बिल में चार धाराओं को अपराध श्रेणी से बाहर रखने का प्रस्ताव किया गया है- धारा 25 (ग़ैर-मानकीकृत भार या पैमानों का उपयोग); धारा 27 (ग़ैर-मानकीकृत भार या पैमानों का विनिर्माण); धारा 28 (तयशुदा मानकों का उल्लंघन करते हुए लेन-देन करना); और धारा 31 (दस्तावेज़ों का निर्माण नहीं करना). एक अन्य पीड़ादायी मसला द बॉयलर्स एक्ट, 1923 के तहत आने वाला दंडनीय प्रावधान है. इसके तहत दंड से जुड़ी 2 धाराओं- सेक्शन 22 के तहत (किसी हादसे की जानकारी देना) और सेक्शन 23 (बॉयलर का अवैध इस्तेमाल), को अपराध श्रेणी से बाहर रखे जाने का प्रस्ताव किया गया है.

इस विधेयक में “ज़िंदगी को सहूलियत भरा बनाने और कारोबार करने को लेकर भरोसे पर आधारित प्रशासन को आगे बढ़ाने के लिए छोटे अपराधों को तार्किक रूप से अपराध श्रेणी से बाहर किए जाने के लिए कुछ प्रावधानों को संशोधित” करने का लक्ष्य रखा गया है.

कारोबार से परे या नियोक्ताओं के अनुपालन से जुड़े कुछ अनुच्छेदों को भी इस क़ानून की धाराओं के तहत अपराध श्रेणी से बाहर रखे जाने के लिए सूचीबद्ध किया गया है. इनमें खाद्य निगम अधिनियम, 1964 की धारा 41एल; वेयरहाउसिंग कॉरपोरेशंस एक्ट, 1962 की धारा 38; इंडियन पोस्ट ऑफ़िस एक्ट, 1898 का चैप्टर 10; और आधार (वित्तीय और अन्य अनुदानों, फ़ायदों और सेवाओं की लक्षित आपूर्ति) अधिनियम, 2016 शामिल हैं. 

इस विधेयक के मंसूबे बेहद तीखे हैं. विधेयक के उद्देश्य और मक़सदों से जुड़े बयानों को आगे बढ़ाने के लिए बहुत ख़ूबसूरत शब्दावलियों का इस्तेमाल किया गया है. इनमें “मिनिमम गवर्नमेंट मैक्सिमम गवर्नेंस” और “विश्वास पर आधारित प्रशासन” जैसे जुमले शामिल हैं. इस विधेयक में “ज़िंदगी को सहूलियत भरा बनाने और कारोबार करने को लेकर भरोसे पर आधारित प्रशासन को आगे बढ़ाने के लिए छोटे अपराधों को तार्किक रूप से अपराध श्रेणी से बाहर किए जाने के लिए कुछ प्रावधानों को संशोधित” करने का लक्ष्य रखा गया है.

इतना ही नहीं, ये विधेयक वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारतीय मुकाम की तस्दीक़ भी करता है. इसमें “निवेशकों का भरोसा बढ़ाकर, भारत को वैश्विक निवेश के लिहाज़ से सबसे पसंदीदा ठिकाना” बनाने की बात कही गई है. साथ ही “छोटे अपराधों के लिए दंडित किए जाने के डर” को कारोबार से जुड़े इकोसिस्टम और व्यक्तिगत भरोसे में अड़चन डालने वाले कारक के तौर पर पहचाना गया है. इस सिलसिले में न्यायिक बोझ कम करने का विचार पेश कर दलील को और मज़बूत बनाने की कोशिश की गई है: “कोर्ट को शामिल किए बिना ही चक्रवृद्धि तौर-तरीक़े, न्यायिक निर्णय और प्रशासनिक व्यवस्थाओं द्वारा बड़ी तादाद में मसलों के निपटारे से लोगों को छोटे-मोटे उल्लंघनों और नाकामियों में सुधार करने के अवसर मिलेंगे. कई बार अनजाने में ऐसी ग़लतियां हो जाया करती हैं, ऐसे में इन नए उपायों से समय, ऊर्जा और संसाधनों की बचत मुमकिन हो सकेगी.”

सुधारवादी उपाय

बहरहाल, सुधार के इरादों और प्रस्तावित विधेयक के बीच राजनीतिक आत्मविश्वास के ग़ैर-परिभाषित अभाव का गहरा खालीपन है. अगर हम कारोबारी सहूलियत पर ग़ौर करें तो ऐसे 5,239 दंडनीय प्रावधान हैं जो संघ सरकार के दायरे में आते हैं. अगर हम संघीय श्रम क़ानूनों से 534 दंडनीय प्रावधानों को इस समीकरण से बाहर कर दें तो हमारे पास 4,705 दंडनीय प्रावधान बचते हैं. दरअसल, चार श्रम संहिताओं में 29 संघीय क़ानूनों को एकजुट किए जाने की प्रक्रिया से इन सुधारों में पहले से ही गति आ गई है. प्रस्तावित विधेयक में महज़ 113 धाराओं को अपराध श्रेणी से बाहर रखा गया है, जो वैधानिक स्तर पर एक क़िस्म की सतर्कता का इज़हार करता है. ये ना तो आज की राजनीति को और ना ही सुधारवादी सरकार की गतिविधियों के हिसाब से सटीक लगता है. 

नरेंद्र मोदी सरकार ने सत्ता में आने के पहले चंद महीनों से ही सुधारवादी उपाय अपनाने शुरू कर दिए थे. इनमें अगस्त 2014 में शुरू की गई जन धन योजना और हलफ़नामों और सत्यापनों की जगह ख़ुद से प्रमाणित करने की व्यवस्था शामिल है. उसके बाद से ही सरकार ने सुधारवादी क़वायदों को तेज़ रफ़्तार से आगे बढ़ाना चालू रखा है. इस कड़ी में 2016 में आधार पर क़ानून बनाना, 2016 से 2021 तक इनसॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड (छह सुधारों समेत), 2017 में वस्तु और सेवा करों (जीएसटी) की शुरुआत, 2015, 2018 और 2019 में पुराने पड़ चुके क़ानूनों का ख़ात्मा शामिल हैं. यहां तक कि सरकार 2020 में कृषि सुधार लागू करने की भी कोशिश कर चुकी है. सरकार ने इन सुधारों को फ़ायदों के सीधे हस्तांतरण के ज़रिए ज़मीनी स्तर पर तवज्जो के साथ रफ़्तार दी है. इसने दुनिया की बेहतरीन भुगतान व्यवस्था के ज़रिए अर्थव्यवस्था में नए वित्तीयकरण की ताक़त भरी है.

ऐसे में अनुपालनों से जुड़े सुधारों को अटकाए रखना हैरान करने वाला घटनाक्रम है. इस क़वायद से भ्रष्ट तबक़ों, हेराफ़ेरी कर अपनी झोली भरने वालों और उपनिवेशवादी इंस्पेक्टर राज का ख़ात्मा किया जा सकता है. ग़ौरतलब है कि 1991 में प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की हुकूमत में कोटा-परमिट राज का अंत किया गया था. मोदी सरकार को इस पूरे मसले का संज्ञान है. मिसाल के तौर पर कुछ साल पहले कॉरपोरेट मामलों की मंत्री निर्मला सीतारमन द्वारा कंपनी अधिनियम, 2013 में संशोधन के ज़रिए धाराओं को अपराध श्रेणी से बाहर रखे जाने की क़वायद इस कड़ी में मील का पत्थर है. इस सिलसिले में 2019 में संशोधन के ज़रिए 16 अनुपालनों को आंतरिक न्यायिक व्यवस्था के तहत लाया गया था. 2020 में सुधारों के तहत अन्य 18 धाराओं के साथ भी यही निर्णय लिया गया था. 11 अन्य नियम पालनाओं में दंडनीय धाराओं को 2020 के सुधार के ज़रिए हटा दिया गया था.

अपराध श्रेणी से बाहर किए जाने की इस मुहिम को तमाम अन्य ग़ैर-श्रम क़ानूनों के दायरे में दोहराए जाने की दरकार है. खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम, 2006 और खाद्य सुरक्षा और मानक (खाद्य उत्पाद मानक और खाद्य योजक) नियमन, 2011 के तहत 470 दंडात्मक धाराएं हैं. खदान अधिनियम 1952 और कोयला खदान नियमन, 2017 में 216 दंडनीय प्रावधान हैं. द रेग्युलेशंस एंड गाइडलाइंस ऑन बायोसेफ़्टी ऑफ़ रीकॉम्बिनेंट डीएनए रिसर्च एंड बायोकंटेनमेंट 2017 में 207 दंडनीय धाराएं हैं. खदान अधिनियम, 1952 और तेल खदान नियमन, 2017 में दंड से जुड़े 170 अनुच्छेद हैं. पेट्रोलियम अधिनियम, 1934 और पेट्रोलियम नियमावली, 2002 में 120 दंडनीय धाराएं हैं. सुधारों से जुड़ी इस लंबी सूची में 678 क़ानून हैं. जन विश्वास विधेयक, अनेक मंत्रालयों के दायरे में आने वाला सुधार है. संसद के 23 अधिनियमों की 113 धाराओं पर इसे लागू किए जाने की क़वायद से इसके विस्तार का दायरा सीमित हो जाता है. इस तरह ये पूरी प्रक्रिया बरगद के छायादार पेड़ की बजाए दिखावटी बौने पौधे (bonsai) में बदल गई है. 

22 दिसंबर को लोकसभा में पेश किए जाने के बाद इस विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) में भेज दिया गया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर बिल पेश करने वाले वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल तक, पूरी सरकार इस मसले की अहमियत समझती है और संसद में इस विधेयक को क़ानून में बदलने के लिए उसके पास पर्याप्त विधायी ताक़त भी है. ऐसे में कारोबारी क़ानूनों, नियमावलियों, नियमनों और अनुपालनों पर नज़दीकी से नज़र रखने वालों को सरकार की ये क़वायद बेवजह की लग रही है. इस विधेयक से प्रभावित हर किरदार (लघु और मध्यम उद्यमों से लेकर विशाल निगमों तक, निवेशकों से लेकर स्टार्ट-अप्स तक, कामगारों से लेकर उद्यमियों तक, और कंपनियों से अर्थव्यवस्था तक) को इस सुधार का लाभ मिलने वाला है. विधेयक के विरोधी (वही संदिग्ध पुराने किरदार जो उद्यमियों के ज़रिए तैयार दौलत की बजाए ग़रीबी का पुनर्वितरण करना चाहते हैं या भ्रष्ट और निहित स्वार्थी और अतिक्रमणकारी अफ़सरशाही) संसदीय गणित के लिहाज़ से अप्रासंगिक हैं.

सतर्कता के लिहाज़ से ये समझना ज़रूरी है कि कोई भी ये तर्क नहीं दे रहा है कि दंड से जुड़े सभी प्रावधानों को अपराध श्रेणी से बाहर कर दिया जाना चाहिए. दरअसल- यहां ये दलील दी जा रही है कि हर धारा पर अच्छी तरह सोच-विचार कर तार्किक रूप से मंथन किया जाना चाहिए.

एक और बात, 113 धाराओं को अपराध श्रेणी से बाहर रखने के लिए भी उतनी ही सियासी कसरत करनी होगी जितनी 4,705 धाराओं के लिए. ऐसे में बाक़ी धाराओं को अटकाए रखना बेमानी है. हालांकि, सतर्कता के लिहाज़ से ये समझना ज़रूरी है कि कोई भी ये तर्क नहीं दे रहा है कि दंड से जुड़े सभी प्रावधानों को अपराध श्रेणी से बाहर कर दिया जाना चाहिए. दरअसल- यहां ये दलील दी जा रही है कि हर धारा पर अच्छी तरह सोच-विचार कर तार्किक रूप से मंथन किया जाना चाहिए. इसके बाद ज़रूरी धाराओं को बरक़रार रखते हुए बाक़ियों को ख़त्म कर दिया जाना चाहिए. जानबूझकर टैक्स चोरी को प्रभावित करने वाली या पर्यावरण को बर्बाद करने वाली धाराओं को बरक़रार रखा जा सकता है, जबकि प्रक्रिया या आवेदन से जुड़े दंडनीय प्रावधानों को ख़त्म कर दिया जाना चाहिए. 

जेपीसी की रिपोर्ट बजट सत्र, 2023 के दूसरे हिस्से में पहले हफ़्ते के आख़िरी दिन सामने आने की उम्मीद है. हम समिति के सदस्यों से गुज़ारिश करते हैं कि वो अपनी क़वायदों के ज़रिए सरकार को इस बेहद सीमित विधेयक के दायरे का विस्तार करने को प्रेरित करने वाली सिफ़ारिशें करें. वो अपने मंथन का पैमाना बड़ा करें, लंबी अवधि के बारे में सोचें, निहित स्वार्थों वाली अफ़सरशाही के क़ब्ज़े का ख़ात्मा करें, और ऐसे सुधार पेश करें जिनमें वैश्विक और घरेलू पूंजी आकर्षित करने की क़ाबिलियत और संभावनाएं मौजूद हों. साथ ही टिकाऊ नौकरियों का निर्माण करने वाले और निरंतर दौलत पैदा करने वाले कारखानों को बेड़ियों से आज़ाद करने से जुड़े सुझाव भी दिए जाने चाहिए. अगर इस पूरी क़वायद के मायने ये हों कि विधेयक को पारित करने की प्रक्रिया बजट सत्र से खिसककर मानसून सत्र तक चली जाए तो भी चिंता की कोई बात नहीं है. अनुपालन से जुड़े ये सुधार निश्चित रूप से पूरी सुधार प्रक्रिया की गतिशीलता के हिसाब से होने चाहिए जिसे प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले 8 सालों में आधार दिया है.

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