Author : Renita D'souza

Published on Jul 30, 2023 Updated 0 Hours ago

अर्थव्यवस्था के सामने आने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए बज़ट 2022 में आवंटन किया गया है लेकिन बज़ट का प्रभावी कार्यान्वयन ही इसकी सफलता की कुंजी होगी.

केंद्रीय बज़ट 2022-23 को समझने की कोशिश: खाली वादे या ठोस नतीजे देने वाला बज़ट?
केंद्रीय बज़ट 2022-23 को समझने की कोशिश: खाली वादे या ठोस नतीजे देने वाला बज़ट?

बतौर विकास-आधारित आंकी गई केंद्रीय बज़ट 2022-23 ने दलाल स्ट्रीट को उत्साह से भर दिया और शेयर बाज़ार का कारोबार बज़ट पेश होने के साथ ही तेजी के साथ बंद होकर एक बेहतर संकेत छोड़ गया. बज़ट में पूंजीगत व्यय में 35 प्रतिशत की बढ़ोतरी करने का वादा इस बज़ट की ख़ास विशेषता थी. कोरोना महामारी से उबरने के लिए विकास के लिए ज़बर्दस्त प्रतिबद्धता की मांग करता है और इस साल का बज़ट उन  प्रतिबद्धताओं को पूरा करता दिखता है. इससे अलग बज़ट का दूसरा मुख्य आकर्षण, अन्य बातों के साथ-साथ, डिज़िटिकरण और व्यवसाय करने में आसानी पर जोर को लेकर है. इस लेख का मक़सद बज़ट की पेचीदगियों में गहराई से उतरना है जिससे यह समझा जा सके कि बज़ट में आख़िर क्या वादा किया जा रहा है, इन वादों को कैसे पूरा किया जाएगा और क्या वे भारतीय अर्थव्यवस्था की वर्तमान ज़रूरतों को पूरा करने में सक्षम हैं.

इस लेख का मक़सद बज़ट की पेचीदगियों में गहराई से उतरना है जिससे यह समझा जा सके कि बज़ट में आख़िर क्या वादा किया जा रहा है, इन वादों को कैसे पूरा किया जाएगा और क्या वे भारतीय अर्थव्यवस्था की वर्तमान ज़रूरतों को पूरा करने में सक्षम हैं.

बज़ट द्वारा चुने गए विकास के रास्ते में पूंजीगत व्यय को बढ़ाने और राजस्व व्यय में ज़्यादा वृद्धि नहीं करने पर सहमति बनी है. पूंजीगत व्यय में बढ़ोतरी से भारत में धीमी गति से संरचनात्मक बदलाव और एक मध्यम आय में फंसे रहने के जोख़िम के मुद्दे को ठीक करने की कोशिश है, जिससे निजी निवेश में बुनियादी ढांचे पर ख़र्च को बढ़ावा मिल  सकेगा. हालांकि बज़ट में जिस आंकड़े ने ध्यान खींचा है, वह पूंजीगत व्यय (कैपेक्स) में 35 प्रतिशत की बढ़ोतरी को लेकर है और सब कुछ इसके विवरण में निहित है. सबसे पहले, 2021-22 और 2022-23 की तुलना में कैपेक्स में 35.4 प्रतिशत की वृद्धि से तुलना होती है. हालांकि तुलना अगर 2021-22 के संशोधित अनुमान (आरई) और 2022-23 के बीई के बीच है, तब पूंजीगत व्यय में बढ़ोतरी 24.5 प्रतिशत है.  दूसरा, कुल पूंजीगत व्यय में अगर बज़ट के कुल व्यय और सार्वजनिक उद्यमों के संसाधन शामिल हैं, तब यह इस प्रकार है कि पहले वाले में 24.5 प्रतिशत की वृद्धि की गई है, जबकि बाद वाले में 6.6 प्रतिशत की कमी की गई है.  इस तरह कुल पूंजीगत व्यय में वास्तविक वृद्धि 10.4 प्रतिशत की हुई है.

हालांकि, पूंजीगत व्यय एक वक़्त के साथ कई गुणा असर पैदा करेगा तो राजस्व व्यय उपभोग को प्रभावित करके अर्थव्यवस्था में प्रत्यक्ष मांग को बढ़ावा देगा.  यह मानते हुए कि भारत एक उपभोग-आधारित अर्थव्यवस्था है, राजस्व व्यय में इस तरह की बढ़ोतरी से विकास को बढ़ावा मिलने की उम्मीद है.  हालांकि, वर्तमान बज़ट में राजस्व व्यय में वृद्धि महज़ 0.9 प्रतिशत के  बराबर ही है. जबकि राजकोषीय ज़िम्मेदारी और ऋण धारणीयता की चिंताएं, जिनका भविष्य की वैश्विक आर्थिक स्थितियों में काफी महत्व है, हो सकता है कि उसी की वजह से यह पहल किया गया हो. फिर भी, यह कदम तभी उचित होगा जब इस ट्रेड ऑफ़ से  व्यापक आर्थिक स्थिरता और स्थिर पूंजी प्रवाह के रूप में फ़ायदा हो, जो कि प्रत्यक्ष मांग से उत्पन्न विकास के मामले में हुए नुकसान से अधिक होना चाहिए.

सरकार ने लॉज़िस्टिक, डिज़िटाइजेशन और कारोबार करने में आसानी को बढ़ावा देने के लिए सुधार के लिए कई कदम उठाए हैं जो भविष्य में संरचनात्मक बदलाव के लिए रास्ता साफ करेगा. इसके ज़रिए मैन्युफैक्चरिंग में भौतिक और मानवीय पूंजी की उत्पादन क्षमता को बढ़ाया जा सकेगा.

भविष्य में संरचनात्मक बदलाव के लिए रास्ता आसान

बज़ट में प्रत्यक्ष कर रियायतें देने से भी बचा गया है जिससे उपभोग को बढ़ावा मिल सकता है. हालांकि, भारतीय अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति की वजह से आयी मंदी की मौजूदगी को देखते हुए बज़ट मध्यम वर्ग को कुछ राहत प्रदान करते हुए धनी लोगों पर कर लगा सकता था लेकिन बज़ट ने ऐसा नहीं किया है. जबकि संपत्ति पर कर लगाना आंशिक रूप से डिज़िटल संपत्ति को कर के तहत लाने से हासिल किया गया है लेकिन यह एक सीमित कदम है. हालांकि बज़ट में संपत्ति कर का प्रावधान फिर से वापस लाया जा सकता था या फिर मध्यम वर्ग को प्रदान की गई कर राहत से राजस्व के हुए नुकसान की भरपाई के लिए बज़ट में ज़्यादा अमीर लोगों पर कर लगाया जा सकता था. संपत्ति कर को वापस लाया सकता था लेकिन संपत्ति कर तभी बज़ट की विशेषता हो सकती है जब अर्थव्यवस्था फिर से सुधरने लगी हो.

सरकार ने लॉज़िस्टिक, डिज़िटाइजेशन और कारोबार करने में आसानी को बढ़ावा देने के लिए सुधार के लिए कई कदम उठाए हैं जो भविष्य में संरचनात्मक बदलाव के लिए रास्ता साफ करेगा. इसके ज़रिए मैन्युफैक्चरिंग में भौतिक और मानवीय पूंजी की उत्पादन क्षमता को बढ़ाया जा सकेगा. ये उपाय बज़ट में वादा किए गए पूंजीगत व्यय के पूरक साबित होंगे. फिर भी बिजली क्षेत्र को बढ़ावा देने और मानव पूंजी पर कोरोना महामारी के नकारात्मक प्रभाव की भरपाई के संदर्भ में इस बज़ट से निराशा हाथ लगी है. इसमें दो राय नहीं कि वित्तमंत्री ने बज़ट में स्वच्छ ऊर्जा भंडारण प्रणालियों में निवेश का ज़िक्र किया है लेकिन स्मार्ट ग्रिड इंफ्रास्ट्रक्चर के अलावा ट्रांसमिशन और डिस्ट्रिब्यूशन इंफ्रास्ट्रक्चर में बदलाव के लिए आवंटन इस बज़ट में पूरी तरह छूट गया है. 

कोरोना महामारी की वजह से औपचारिक शिक्षा में आने वाली बाधा, जिसने समाज के कमजोर वर्ग से संबंधित बच्चों को बुरी तरह प्रभावित किया है, यह स्थायी रूप से स्कूल छोड़ने के लिए ज़िम्मेदार हो सकता है, जिससे अवसर में असमानता, ख़ास तौर पर लिंग असमानता को और बढ़ावा मिल सकता है. फिर भी इस तरह के नुकसान की भरपाई का उपाय तकनीक केंद्रित तरीक़ों में देखा जा रहा है, वो भी तब जबकि बिजली और इंटरनेट कनेक्टिविटी की पहुंच और गुणवत्ता देश भर में संदिग्ध है, ख़ासकर उन लोगों के संदर्भ में जो समाज के अंतिम छोर पर खड़े हैं.

राज्य को ज़रूरी कार्य करने का निर्देश देकर शहरी स्थानीय निकायों की कार्यात्मक और वित्तीय स्वायत्तता को बढ़ाने का भी कोई प्रयास नहीं किया गया है जो कि अच्छे शहरी प्रशासन के लिए बेहद महत्वपूर्ण है.

एक तरफ बज़ट में दावा किया जा रहा है कि भारत ने ‘एक बाज़ार-एक कर’ के सपने को साकार कर लिया है लेकिन यह दावा हक़ीक़त से अभी भी बहुत दूर है.  देश माल और सेवा कर (जीएसटी) के अलावा, केंद्रीय उत्पाद शुल्क और सेवा कर पर अभी भी काफी निर्भर है. मौजूदा बज़ट में जहां अप्रत्यक्ष करों का 59 फ़ीसदी जीएसटी है, वहीं केंद्रीय उत्पाद शुल्क और सेवा कर का हिस्सा 25 फ़ीसदी है. 

गांव-देहात की चिंता 

बज़ट भाषण में न केवल बड़े शहरों को बनाए रखने की ज़रूरत पर ध्यान दिया गया है बल्कि टियर 2 और 3 शहरों के विकास को भी बढ़ावा दिया गया है. इसमें यह भी उल्लेख किया गया है कि राज्यों को शहरी नियोजन सहायता प्रदान की जाएगी. हालांकि इसे देखकर ऐसा लग सकता है कि शहरी विकास पर बज़ट में काफी जोर दिया जा रहा है लेकिन इस वादे को पूरा करने के लिए वास्तविक आवंटन नहीं किया गया है. आरई 2021-22 की तुलना बीई 2022-23 से करें तो शहरी विकास को लेकर किए गए आवंटन में मामूली 3 फ़ीसदी की वृद्धि की गई है.  इसके अलावा, शहरी स्थानीय निकायों को कोई वित्तीय सशक्तिकरण का वादा नहीं किया गया है जो असल में शहरी विकास और प्रबंधन के लिए ज़िम्मेदार होते हैं.  राज्य को ज़रूरी कार्य करने का निर्देश देकर शहरी स्थानीय निकायों की कार्यात्मक और वित्तीय स्वायत्तता को बढ़ाने का भी कोई प्रयास नहीं किया गया है जो कि अच्छे शहरी प्रशासन के लिए बेहद महत्वपूर्ण है.

बज़ट में सीमावर्ती गांवों की छिटपुट आबादी, सीमित कनेक्टिविटी और बुनियादी ढांचे के विकास की ज़रूरतों के प्रति भी चिंताओं को प्रदर्शित किया गया है. इन गांवों के बुनियादी ढांचे और नौकरी की ज़रूरतों को पूरा करने को महत्व देना निश्चित तौर पर सराहनीय है क्योंकि यह क्षेत्रीय पिछड़ेपन के मुद्दे की बात करता है और शहरीकरण के प्रणेता के तौर पर काम करता है. इस पहल के लिए फंड मौजूदा योजनाओं और कुछ अतिरिक्त धन को परिवर्तित करने से आएगा. बीई 2021-22 और बीई 2022-23 की तुलना में आवंटन में 6 प्रतिशत की वृद्धि की गई है. हालांकि, आरई 2021-22 और बीई 2022-23 की तुलना में आवंटन में गिरावट आई है, जो 0.3 प्रतिशत है जिसे मामूली कमी कहा जा सकता है. इसके अलावा, मौजूदा योजनाओं का सम्मिलन एक सकारात्मक कदम है अगर इसका लक्ष्य  संसाधनों के कुशल इस्तेमाल को बढ़ावा देना है, अन्यथा इस तरह के सम्मिलन से कोई सकारात्मक नतीजा नहीं निकल सकेगा.

बज़ट इस अनुभूति को बढ़ावा तो देती है कि यह अर्थव्यवस्था की गंभीर चुनौतियों से निपटने के लिए उठाए जा रहे कदम को शामिल कर रही है लेकिन इन समस्याओं को दूर करने के लिए बज़ट आवंटन के आकार और उपायों के स्वरूप को देखकर आशंका भी पैदा होती है. 

बज़ट में कृषि क्षेत्र के विकास के प्रस्ताव टिकाऊ कृषि प्रणालियों और चलन में जो प्रक्रियाएं हैं, जो आम तौर पर लागत प्रभावी प्राकृतिक समाधान और सर्कुलर इकोनॉमी के सिद्धांतों पर आधारित होते हैं और यह तकनीक पर बहुत ज्यादा निर्भरता की मांग नहीं करता है, उसके बजाए तकनीक आधारित ज़्यादा नज़र आती हैं. ऐसी टिकाऊ कृषि प्रणालियां और प्रक्रियाएं जलवायु परिवर्तन के प्रति कृषि की मज़बूती को बढ़ावा देने के तौर पर पहचानी जाती हैं. इसके अलावा, भारत में 87 प्रतिशत के करीब छोटे और सीमांत किसान हैं, ऐसे में टिकाऊ कृषि प्रणालियों और प्रथाओं के बजाय कृषि को बढ़ावा देने के लिए तकनीक पर निर्भरता का कोई ख़ास मतलब नज़र नहीं आता है. इस तरह की प्रक्रियाओं के लिए कम निवेश की आवश्यकता होती है और इसमें तकनीक तक आसान पहुंच की बाधाएं शामिल नहीं होती हैं.

निष्कर्ष

निष्कर्ष के तौर पर, हालांकि बज़ट इस अनुभूति को बढ़ावा तो देती है कि यह अर्थव्यवस्था की गंभीर चुनौतियों से निपटने के लिए उठाए जा रहे कदम को शामिल कर रही है लेकिन इन समस्याओं को दूर करने के लिए बज़ट आवंटन के आकार और उपायों के स्वरूप को देखकर आशंका भी पैदा होती है. आख़िर में बज़ट का फायदा तभी साबित होगा जबकि इसे असरदार तरीके से अमल में लाया जाएगा और इसे लागू करने के बाद बज़ट से जो नतीजे सामने आएंगे उसका सीधा फायदा लोगों तक पहुंचेगा.

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