Published on Nov 01, 2021 Updated 0 Hours ago

बांग्लादेश एक उदारवादी इस्लामी देश के रूप में जाना जाता है. बांग्लादेश में एक मज़बूत और प्रतिबद्ध धर्मनिर्पेक्ष वर्ग है  लेकिन इसकी तादाद तेजी से घट रही है.

बांग्लादेश में बढ़ते इस्लामिक कट्टरवाद के ख़तरे को डिकोड करना

दुर्गा पूजा जैसे त्योहार के वक़्त देश में सांप्रदायिक हिंसा की घटना ने बांग्लादेश सरकार को चौंका दिया. अब यह साफ हो चुका है कि हिंसा की इन घटनाओं को इस्लामिक कट्टरपंथियों ने अंजाम दिया, ज़्यादा मुमकिन है ये लोग शिबिर गुट, जो कि पाकिस्तान-परस्त इस्लामिक पार्टी जमात-ए-इस्लामी (जेईएल) की युवा शाखा से जुड़े हैं. दरअसल जमात-ए-इस्लामी गलत कारणों से तब चर्चा में आया जब इसने 1971 के मुक्ति के लिए किए गए युद्ध के दौरान बड़े पैमाने पर नरसंहार को अंजाम देने के लिए पाकिस्तानी सेना के साथ गठजोड़ किया था. हालांकि इस्लामिक संगठन के दो अलग गुट इस्लामी आंदोलन और हिफ़ाज़त भी इसके लिए संदिग्ध माने जा रहे हैं.

हालांकि प्रधानमंत्री शेख हसीना ने वादा किया है कि दोषियों को बख़्शा नहीं जाएगा लेकिन जब हिंसा भड़की तब पुलिस शुरुआती दौर में कार्रवाई करने में सुस्त नज़र आई. हिंदू नेताओं ने भी कुछ आवामी लीग (एएल) के नेताओं पर सालों से जारी हिंदू विरोधी हिंसा को लेकर मिलीभगत का आरोप लगाया. हसीना इन आरोपों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकतीं हैं. क्योंकि सच में सत्ताधारी दल में कट्टरपंथी घुसपैठ करने के लिए एक सोची समझी रणनीति का सहारा लेते रहे हैं.

हालांकि प्रधानमंत्री शेख हसीना ने वादा किया है कि दोषियों को बख़्शा नहीं जाएगा लेकिन जब हिंसा भड़की तब पुलिस शुरुआती दौर में कार्रवाई करने में सुस्त नज़र आई.

इससे पहले अंतिम बार इस स्तर की सांप्रदायिक हिंसा साल 2001 में हुई थी जब बांग्लादेश नेशनल पार्टी (बीएनपी), जिसका नेतृत्व ख़ालिदा ज़िया के हाथों में था और उन्होंने देश में जमात-ए-इस्लामी (जेईएल) से गठबंधन कर चुनाव जीता था. तब साल 2021 की तरह ही दुर्गा पूजा से पहले बीएनपी और जेईएल कैडरों ने हिंदुओं के विरोध में हमले आयोजित किए. तब तत्कालीन भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी  ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्रा को बतौर विशेष दूत नई सरकार के साथ बातचीत करने के लिए भेजा था. मिश्रा ने बांग्लादेश में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं के लिए भारत की चिंताओं के बारे में ख़ालिदा ज़िया को अवगत कराया. इसका फौरन असर हुआ और देश भर में जारी हिंदुओं के ख़िलाफ़ हिंसा पर रोक लगी. बतौर डिप्टी हाई कमिश्नर मैं इन घटनाओं का चश्मदीद रहा.

इस्लामिक देश से “काफ़िरों” की जातीय संहार के अलावा इसका हिंदू समुदाय से संबंधित संपत्तियों और भूमि को हथियाने का दोहरा लाभ था और बांग्लादेश में यह मज़बूत कारण रहा है. ढाका यूनिवर्सिटी के अकादमिक अब्दुल बरक्कत ने भूमि अधिग्रहण को लेकर किए गए अपने मौलिक कार्य में अनुमान लगाया है कि करीब 600-700 हिंदू परिवारों को उनकी ज़मीन से अलग कर दिया गया और हर दिन वो भारत में पलायन कर रहे हैं. बरक्कत के मुताबिक अगले 30-40 सालों में बांग्लादेश में शायद ही कोई हिंदू बचेंगे. हिंदू यहां हमेशा से आसान लक्ष्य रहे हैं क्योंकि पूरे बांग्लादेश में हिंदुओं की आबादी छोटी तादाद में फैली हुई है. 1947 में हिंदुओं की आबादी 29 फ़ीसदी थी जो घटकर अब महज 10 फ़ीसदी रह गई है.

ढाका यूनिवर्सिटी के अकादमिक अब्दुल बरक्कत ने भूमि अधिग्रहण को लेकर किए गए अपने मौलिक कार्य में अनुमान लगाया है कि करीब 600-700 हिंदू परिवारों को उनकी ज़मीन से अलग कर दिया गया और हर दिन वो भारत में पलायन कर रहे हैं.

उदारवादी देश की पहचान

बांग्लादेश एक उदारवादी इस्लामी देश के रूप में जाना जाता है. बांग्लादेश में एक मज़बूत और प्रतिबद्ध धर्मनिर्पेक्ष वर्ग भी है  लेकिन इसकी तादाद तेजी से घट रही है. इस्लाम के कट्टर समर्थकों के लिए असहिष्णुता एक कुदरती स्थिति है जो साल दर साल राजनीतिक संरक्षण के चलते मज़बूत होती जा रही है. इसके साथ ही खाड़ी देशों से आने वाला पैसा और इस्लामिक संगठनों द्वारा भारत विरोधी भावनाओं की घुट्टी पिलाए गए मुल्क वापसी करने वाले कट्टरपंथियों के चलते भी असहिष्णुता यहां बढ़ी है. इन कट्टर संगठनों ने ईश निंदा को हथियार बना लिया है और इनकी मांग है कि बांग्लादेश को एक इस्लामिक देश घोषित कर यहां शरिया के कानून का राज स्थापित किया जाए.

प्रधानमंत्री शेख हसीना ने संविधान में धर्मनिरपेक्षता को फिर से जगह दी लेकिन वो इस्लाम को राष्ट्रीय धर्म का स्थान देने से नहीं बच पाईं. इस्लामिक कट्टरपंथियों को यह नागवार गुजरा, इसके साथ ही उनके द्वारा कट्टरपंथियों, जिन्होंने धर्मनिर्पेक्ष ब्लॉगरों की हत्या की और देश में आतंकी घटनाओं के लिए ज़िम्मेदार थे, उन पर की गई कार्रवाई से भी वो नाराज़ थे. इस तरह की सांप्रदायिक हिंसा के पीछे गंभीर साजिश का हाथ माना जा सकता है. जेईएल अपने नेताओं के ख़िलाफ़ 1971 के युद्ध अपराधों के लिए उनके विरुद्ध चलाए जा रहे मुकदमों और उनके निष्पादन से काफी गुस्से में है और बदला लेने का मौका खोज रहा है.

प्रधानमंत्री शेख हसीना ने संविधान में धर्मनिरपेक्षता को फिर से जगह दी लेकिन वो इस्लाम को राष्ट्रीय धर्म का स्थान देने से नहीं बच पाईं.

इस्लामिक कट्टरपंथी संगठन हसीना सरकार और उनकी नीतियों को शर्मिंदा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं. ये लोग तालिबान के काबुल पर कब्ज़ा करने को लेकर बेहद खुश हैं और पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई उनको बढ़ावा दे सकती है, जिनका बेहद करीबी संबंध जमात-ए-इस्लामी और इस्लामिक कट्टरपंथियों से है. पाकिस्तान और इस्लामिक कट्टरपंथियों को इस बात की भारी नाराज़गी है कि हसीना सरकार का भारत के साथ बेहद करीबी संबंध है.

हसीना ने परोक्ष रूप से भारत पर कुछ दोष मढ़ा ज़रूर है, यह कहते हुए कि यहां ऐसा कुछ भी नहीं होना चाहिए जिससे उनके देश की स्थिति प्रभावित हो.

भारत ने बेहद ही सोच समझ कर इन घटनाओं को लेकर प्रतिक्रिया जाहिर की है क्योंकि हसीना सरकार के दौरान द्विपक्षीय संबंधों में बढ़ोतरी हुई है. सुरक्षा और ख़ुफ़िया सहयोग ने बेहतर नतीज़े दिए हैं जिसके चलते आपसी भरोसा और विश्वास पैदा हुआ है. हसीना ने परोक्ष रूप से भारत पर कुछ दोष मढ़ा ज़रूर है, यह कहते हुए कि यहां ऐसा कुछ भी नहीं होना चाहिए जिससे उनके देश की स्थिति प्रभावित हो. ऐसा कहने का मतलब यह है कि भारत में मुस्लिम विरोधी घटनाएं बांग्लादेश में कट्टरपंथी ताकतों को हिंदू समुदाय के ख़िलाफ़ बदला लेने के प्रेरित करता है. हालांकि कट्टरपंथियों को उनके एजेंडे को बढ़ाने के लिए किसी बहाने की ज़रूरत नहीं है. वो कोई और कारण ढूंढ़ लेंगे और फिर हिंसा को अंजाम देंगे जैसा कि उन्होंने इस बार किया है. बांग्लादेश को कानून और व्यवस्था की विफलता के लिए ज़िम्मेदारी लेनी होगी.

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