बीते हुए जून महीने में, म्यांमार के रखाइन प्रांत में रह रहे रोहिंग्या शर्णार्थियों की आबादी ने अपनी पीड़ा का एक दशक पूरा किया, जहां से साल 2012 में निकले जाने के उपरांत, वे खुले शरणार्थी शिविर में रहने को बाध्य हैं. 2012 में रोहिंग्याओं की आबादी पर हुए हमले ने उनपर होने वाले अत्याचार के चरम की शुरुआत की थी, जिसने 2016 में, अधिक शातिर और व्यवस्थित तरीके से सैन्य शक्ति के शिकंजे को कसना शुरू किया और अंततः 2017 में, जिसकी वजह से एक लाख से भी ज्य़ादा असहाय लोगों को पड़ोसी देश बांग्लादेश में पलायन करने को मजबूर किया. वर्तमान में रोहिंग्या में रह रहे लोगों की स्थिति, किसी प्रशंसनीय समाधान के अभाव में, दशक पूर्व रह रहे लोगों की तुलना में काफी दयनीय हैं.
जवाबी कार्यवाही में नृशंस तरीके से मारे गए रोहिंग्याओं के उपरांत, रखाइन प्रांत में हो रहे नरसंहार और बर्बरता की वजह से भारी अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गई हैं. लगातार हो रहे इस हिंसा के शीघ्र ही बाकी अन्य प्रांतों तक फैलने की संभावना का एहसास होने के बाद, आपातकाल की स्थिति घोषित कर दी गई थी.
2012 एक काला अध्याय सरीखा रहा, जहां, बौद्धों और रोहिंग्याओं के बीच एक बौद्ध महिला के ऊपर हुए यौन हिंसा और हत्या के फलस्वरूप जातीय हिंसा शुरू हो गई थी. रोहिंग्या मुसलमानों को ज्य़ादातर सार्वजनिक फैसलों और स्थानीय स्तर पर फैलाए गए इस घृणित अपराध के लिए बग़ैर किसी औपचारिक मुक़दमे के जबरन इन अपराधों में शामिल घोषित कर दिया गया था.
जवाबी कार्यवाही में नृशंस तरीके से मारे गए रोहिंग्याओं के उपरांत, रखाइन प्रांत में हो रहे नरसंहार और बर्बरता की वजह से भारी अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गई हैं. लगातार हो रहे इस हिंसा के शीघ्र ही बाकी अन्य प्रांतों तक फैलने की संभावना का एहसास होने के बाद, आपातकाल की स्थिति घोषित कर दी गई थी. इसके परिणामस्वरूप हुआ ये कि रोहिंग्याओं पर पुनः हमले का एक नया दौर शुरू हो गया, जिसमें उन्हें लगभग सभी प्रकार के अपराध के लिए दोषी ठहराया जाता रहा. अंत में ये हुआ कि इन दरकिनार कर दिए गए समुदाय को उनकी संपत्ति से बेदख़ल कर दिया गया, काम से निकाल दिया गया, और या तो आत्मसमर्पण करने को अथवा मर जाने को बाध्य कर दिया गया. एक तरफ़ जहां उनमें से कुछ लोग भाग कर पड़ोसी देश में शरण लेने चले गए, तो वहीं दूसरी तरफ़ 135,000 से भी ज्य़ादा विस्थापित रोहिंग्याओं को 2012-13 में स्थापित किए गए कैंपों में रखा गया.
सुरक्षा, वॉश और स्वास्थ्य चिंता
संयुक्त राष्ट्र द्वारा की गई व्याख्या के अनुरूप, ये कैंप एक प्रकार से निरोध या डिटेंशन केंद्र ही हैं जहां लोगों के कैंप के अंदर और बाहर आने-जाने से संबंधित काफी पाबंदियाँ लागू की गई हैं. पत्रकारों के यहाँ आने पर मनाही हैं और इंटरनेट बंद होने की वजह से सूचनाओं के बाहर जाने की भी अनुमति नहीं हैं. लोगों को दूर रखने के लिए कैंप के इर्द गिर्द बाड़े लगा दिए गए हैं. कर्फ्यू, धमकी और रिश्वत आदि की वजह से पुलिस द्वारा किए जाने वाले दुर्व्यवहार की काफी चर्चा होती है.
शिविर गंभीर WASH चिंताओं से भरे हुए हैं. ज्य़ादातर शिविर एरिया निचले तटीय क्षेत्र में हैं. बारिश के मौसम में और वार्षिक बाढ़, शौचालय के गड्ढे, हाथ-पंप और कुओं को दूषित कर देते हैं. इसके परिणाम स्वरूप विशेषकर छोटे बच्चों में, डायरिया, कॉलरा और जलजनित बीमारियों के पनपने की संभावना रहती है.
शिविर गंभीर WASH चिंताओं से भरे हुए हैं. ज्य़ादातर शिविर एरिया निचले तटीय क्षेत्र में हैं. बारिश के मौसम में और वार्षिक बाढ़, शौचालय के गड्ढे, हाथ-पंप और कुओं को दूषित कर देते हैं. इसके परिणाम स्वरूप विशेषकर छोटे बच्चों में, डायरिया, कॉलरा और जलजनित बीमारियों के पनपने की संभावना रहती है. वहाँ पर दशकों से बच्चों के शौचालय के गड्ढों और तालाबों में डूब कर मौत होने की कई घटनायें घट चुकी हैं. अप्रैल 2022 तक, जूंता ने इन शिविर क्षेत्र के अंतर्गत किसी भी प्रकार की बिल्डिंग और संरचनाओं के पुनर्निर्माण और बहाली के कार्य को सीमित कर दिया है. इसकी वजह से 28,000 रोहिंग्याओं को गैर-टिकाऊ लॉन्गहाउस में रहने को छोड़ दिया गया है.
स्वास्थ्य सुविधाओं के अनुसार, शिविर क्षेत्र में, अभी दो हेल्थकेयर सेंटर, और चंद तात्कालिक क्लीनिक कार्यरत हैं. एक तरफ जहां सुदूर शिविर में रह रहे लोगों के लिए इन क्लीनिक तक पहुँच पाना मुश्किल है, वहीं दूसरी तरफ ये भी सच है कि इन केंद्रों में प्रोफेश्नल एवं दक्ष डाक्टरों, समुचित दवा, और उपचार के लिए ज़रूरी साजो-सामान की भी कमी है. इसके अलावा, ऐसे क्लीनिक में कोविड-19 जांच की भी कमी है. वहाँ अब तक कितने रोहिंग्याओं का टीकाकरण करवाया गया है, इससे संबंधित किसी प्रकार की आधिकारिक घोषणा भी जारी नहीं की गई है.
जटिल स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे लोगों को सिट्वे जनरल अस्पताल में स्थानांतरित किए जाने की आवश्यकता है, परंतु आवाजाही और यात्रा करने की सीमित सुविधाओं के कारण, प्रतिबंधित अनुमति और वित्तीय कमी की वजह से ये संभव नही हो पा रहा है. वे मुट्ठीभर लोग जिन्हें उपचार अगर मिल भी पा रहा है तो उन्हें भी सिक्योरिटी गार्ड के साथ रखा जाता है. कई बार ये लोग शिविर के बाहर जाकर इराज करवाने से भी डरते हैं क्योंकि उन्हें अपनी जान का भय रहता है, क्योंकि उनमें से कई लोग ज़िंदा वापिस लौटकर नहीं आये हैं.
जटिल स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे लोगों को सिट्वे जनरल अस्पताल में स्थानांतरित किए जाने की आवश्यकता है, परंतु आवाजाही और यात्रा करने की सीमित सुविधाओं के कारण, प्रतिबंधित अनुमति और वित्तीय कमी की वजह से ये संभव नही हो पा रहा है
शिविर क्षेत्र भोजन की कमी से भी त्रस्त हैं. चूंकि, किसी भी प्रकार के रोज़गार या कैश फायदे आदि पूर्णतयाः प्रतिबंधित हैं, यहां रह रहे लोग सिर्फ़ और सिर्फ़ मानवीय कार्यकर्ताओं द्वारा दिए जाने वाले सहयोग और राहत सामग्रियों पर ही निर्भर हैं. परंतु इन राहतकर्मियों को भी आवाजाही में प्रतिबंध की वजह से कार्य करने में काफी मुश्किल आती है, क्योंकि सैन्य बलों और जातीय सशस्त्र संगठनों में अब भी लगातार युद्ध जारी है. इसके अलावा इन्हें मौसम की मार और कठिन इलाके से जुड़ी समस्यायों से भी जूझना पड़ता है. इस वजह से इन राहत कर्मियों को विस्थापित रोहिंग्याओं को लगातार भोजन की सुरक्षा दे पाने में भी दिक्कतें आती हैं और उनकी क्षमता भी सीमित रह जा रही है. जिसकी वजह से बच्चों एवं व्यस्कों में कुपोषण की समस्या उत्पन्न हो रही है. तख्त़ापलट ने लागू किए जाने वाले पर्याप्त उपायों को भी बाधित कर रखा है. जहां विवादग्रस्त क्षेत्र स्थित 56,000 आईडीपी (इंटर्नली डिसप्लेस्ड पीपल) को ही भोजन सहयोग प्रदान किया जा सका रहा है, सैंकड़ों और हजारों लोगोंअब भी ज़रूरतमंद हैं.
असफल हस्तक्षेप
म्यांमार की अथॉरिटी इस मनमाने कारावास को किसी वैध औचित्य द्वारा साबित कर पाने में प्रभावहीन सिद्ध हुआ है. हालांकि, ये विस्थापित रोहिंग्या दशकों से व्यवस्थित दमन और क्रूरता से गुज़रे हैं, 2012 की घटना ने लंबे वक्त तक इन लोगों से निपटने की नीति प्रदान कर दी हैं, हालांकि, इस उपाय से ज़मीन पर घटने वाली घटनाओं में ज्य़ादा बदलाव नहीं आया है.
एक तरफ ये विचार किया गया था कि एक बार कोई प्रजातान्त्रिक सरकार सत्ता में आ जाए तो, समस्याएं दूर होंगी, लेकिन देश में व्याप जटिल नागरिक-सैन्य संबंधों के कारण इस मुद्दे को यथोचित तौर पर संबोधित कर पाने में असफलता ही हाथ लगी है. नागरिक और सैन्य सरकारी नीतियाँ दोनों ही बढ़ते द्वेष और बौद्ध विकेंद्रीकरण को संबोधित कर पाने में असफल रहीं हैं; उन्होंने किसी को भी इन लोगों के विरुद्ध किए गए अपराधों के लिए ज़िम्मेदार फिर नहीं ठहराया है, या फिर किसी धर्मनिरक्षेप व्यवहार को प्रोत्साहित किया है. इसलिए, सरकारी अधिकारियों द्वारा इन कमज़ोर समुदायों की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए कोई प्रभावशाली और उचित कदम नहीं उठाने से, वे खुद ही हिंसा के लिए दोषी साबित हो रहे हैं और अंत में इस समुदाय को हाशिये पर धकेलने के दोषी पाये जा रहे हैं.
नागरिक और सैन्य सरकारी नीतियाँ दोनों ही बढ़ते द्वेष और बौद्ध विकेंद्रीकरण को संबोधित कर पाने में असफल रहीं हैं; उन्होंने किसी को भी इन लोगों के विरुद्ध किए गए अपराधों के लिए ज़िम्मेदार फिर नहीं ठहराया है, या फिर किसी धर्मनिरक्षेप व्यवहार को प्रोत्साहित किया है.
इन लोगों की दयनीय स्थिति को देखते हुए अंतरराष्ट्रीय राष्ट्रों एवं संगठनों द्वारा बोले गए शब्दों को भी नज़रअंदाज कर दिया गया है. हाल ही में, किए गए अपने व्यापक अनुसंधान के आधार पर बाइडेन प्रशासन ने लंबे समय से म्यांमार में रोहिंग्याओं की आबादी के ऊपर हो रहे दमन को दरअसल “नरसंहार” घोषित कर दिया है. एक तरफ ये ठप्पा, जूंता के ऊपर किसी प्रकार की कार्यवाही का आधार नहीं है, लेकिन इससे सरकार के ऊपर अंतरराष्ट्रीय दबाव ज़रूर बना है. इसके अलावा उनपर अंतरराष्ट्रीय कोर्ट ऑफ़ जस्टिस द्वारा ‘नरसंहार’ का आरोप भी लगातार बना हुआ है. ये ज़रूरी हैं कि रोहिंग्याओं के ऊपर हो रहे इस अमानवीय स्थिति के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय समुदाय लगातार अपनी आवाज़ उठाती रहे. क्योंकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि ये लोग दशकों-लंबे कारावास के हकदार तो हर हाल में हैं ही.
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