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अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की निरपेक्षता के नक़ाब के पीछे उसकी इस हक़ीक़त का सामना करने में नाकामी है कि संघर्षों की वजह से पाकिस्तान में किस तरह आर्थिक बर्बादी आती है.
Image Source: Getty
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के साथ पाकिस्तान का रिश्ता संरचनात्मक निर्भरता के एक गहरे पैटर्न की मिसाल है. 2024 में IMF ने पाकिस्तान को 7 अरब डॉलर के एक्टेंडेड फंड फैसिलिटी (EFF) को मंज़ूरी दी थी. ये न सिर्फ़ पाकिस्तान के लिए एक वित्तीय जीवनरेखा है, बल्कि गहरी जड़ें जमाए बैठी निष्क्रियता से निपटने की कोशिश है. एक अंतिम क़र्ज़दाता के तौर पर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, मदद के एवज़ में सुधारों की मांग करता है: यानी वित्तीय अनुशासन, सब्सिडी में कटौती और पारदर्शिता. लेकिन, पाकिस्तान जैसे सियासी तौर प्रतिरोधक माहौल में ऐसे सुधार दिखावा बनकर रह जाते हैं. पाकिस्तान को उसकी आज़ादी के बाद 24वीं बार IMF से मदद लेनी पड़ी है. ये दुनिया के किसी भी देश के IMF से मदद लेने का सबसे ज़्यादा मामला है. इससे पाकिस्तान के बार बार मुसीबत में पड़ने और बाहर से मदद लेने के दुष्चक्र का भी पता चलता है. वैसे तो मुद्रा कोष का मक़सद स्थिरता बहाल करना है. लेकिन, IMF अक्सर ऐसे देशों को सहारा देने लगता है, जो वित्तीय कुप्रबंध करते हैं. सामरिक रूप से असुरक्षित हैं और संस्थागत तरीक़े से कमज़ोर है.
पाकिस्तान को उसकी आज़ादी के बाद 24वीं बार IMF से मदद लेनी पड़ी है. ये दुनिया के किसी भी देश के IMF से मदद लेने का सबसे ज़्यादा मामला है. इससे पाकिस्तान के बार बार मुसीबत में पड़ने और बाहर से मदद लेने के दुष्चक्र का भी पता चलता है.
इस मामले में पाकिस्तान कोई अनूठा देश नहीं है. लेबनान से लेकर सूडान तक, कई कमज़ोर अर्थव्यवस्थाएं क़र्ज़ का इतना बोझ अपने ऊपर लाद रही हैं, जिनको उतार पाने की उनकी क्षमता नहीं है और वो ये क़र्ज़ न सिर्फ़ बाहरी झटकों और प्रशासनिक अकुशलताओं का नतीजा हैं. बल्कि, जान-बूझकर लिए गए राजनीतिक फ़ैसलों का परिणाम है, जो सैन्य जोखिम लेने से लेकर सामरिक दुविधा तक का नतीजा हैं. इसके बावजूद, IMF क़र्ज़ देते वक़्त जो शर्तें लगाता है, वो सब्सिडी में सुधार और प्रशासनिक कमज़ोरियों की पड़ताल जैसे वित्तीय अनुशासन के संकेत पर आधारित होते हैं. दिक़्क़त ये है कि इस चक्कर में IMF संघर्ष और नियंत्रण की राजनीतिक अर्थव्यवस्था पर सीमित रूप से ही विचार करता है.
इन संदर्भों में मदद देकर उबारने का असर अक्सर अपेक्षा के उलट होता है और वो जिन कमियों को दूर करने के लिए दिए जाते हैं, उन्हीं को और मज़बूती प्रदान करते हैं. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का तरीक़ा इस बात पर निर्भर करता है कि वित्तीय अस्थिरता को बाज़ार आधारित सुधारों और संस्थागत मज़बूती के ज़रिए दुरुस्त किया जा सकता है. फिर भी, उन कमज़ोर देशों में इसका सीमित परिणाम देखने को मिलता है, जहां राजनीतिक सत्ता बंटी रहती है और अक्सर इसका नियंत्रण असैन्य सत्ता के बाहर होता है.
अपनी एक्सटेंडेड फंड फैसिलिटी (EFF) के तहत IMF ने पाकिस्तान की हुकूमत से कहा कि वो 2025 के मध्य तक प्रशासन और भ्रष्टाचार की पड़ताल का मूल्यांकन (GCDA) को जारी करे. हालांकि, मार्च 2025 तक पाकिस्तान की एक कैबिनेट समिति ये फ़ैसला भी नहीं कर सकी है कि इस रिपोर्ट को पूरा का पूरा जारी किया जाए या फिर काट-छांटकर सार्वजनिक किया जाए. ये इस बात का शुरुआती संकेत है कि सत्ता प्रतिष्ठानों की तरफ़ से इसका किस क़दर विरोध हो रहा है. वास्तविकता ये है कि बहुत से कमज़ोर देशों में प्रशासनिक ढांचा सत्ता की दोहरी संरचना का शिकार होता है. ऐसे देशों में असंगठित नेटवर्क, सैन्य किरदार और गहरी जड़ें जमाए सामंतवादी वर्ग के पास असीमित ताक़त होती है और वो आधिकारिक नीति पर हावी रहते हैं. IMF के कार्यक्रम अक्सर सत्ता के इस बंटवारे की अनदेखी करती रहती हैं.
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का वास्तविकता से ये मुंह मोड़ना जवाबदेही को लेकर चिंताएं खड़ी करता है. संकुचित रूप से परिभाषित आर्थिक रूप-रेखा के भीतर काम करते हुए IMF, सत्ता के उपभोग और इसको चुनौती देने वाले पहलुओं से निपटने का प्रयास नहीं करता.
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का वास्तविकता से ये मुंह मोड़ना जवाबदेही को लेकर चिंताएं खड़ी करता है. संकुचित रूप से परिभाषित आर्थिक रूप-रेखा के भीतर काम करते हुए IMF, सत्ता के उपभोग और इसको चुनौती देने वाले पहलुओं से निपटने का प्रयास नहीं करता. इसका नतीजा ये होता है कि IMF के कार्यक्रम हो सकता है कि फ़ौरी तौर पर विदेशी मुद्रा के भंडार को स्थिर बनाने या फिर वित्तीय संतुलन को सुधारने का काम कर सकते हैं. लेकिन, इनसे स्थायी संस्थागत सुधार नहीं होते हैं. ऐसे मामलों में तकनीकी निष्पक्षता असल में संस्थागत दुष्क्रिया के स्रोत से निपटने में नाकामी पर पर्दा डालने का काम करती है.
इसके अलावा, संघर्ष वाले इलाक़ों में वित्तीय संकट सिर्फ़ कमज़ोर संस्थानों का ही परिणाम नहीं होते, बल्कि वो अक्सर रणनीतिक तौर पर पैदा किए गए नतीजे होते हैं. लंबे वक़्त तक सेना पर भारी-भरकम ख़र्च, छद्म संघर्ष, कूटनीतिक रूप से अलग थलग पड़ना और निवेशकों के लिए ख़राब होता माहौल ही व्यापक आर्थिक समस्याओं को जन्म देता है. असलियत ये है कि ये ऐसे राजनीतिक फ़ैसले होते हैं, जिनकी आर्थिक क़ीमत चुकानी पड़ती है. फिर भी, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ख़राब प्रशासन की वजह से पैदा हुए क़र्ज़ और जान-बूझकर किए जाने वाले रणनीतिक बर्ताव की वजह से जन्म लेने वाले ऋण के बीच फ़र्क़ नहीं करता है.
पाकिस्तान में तो ऐसा बार बार होता आया है. उसके बार बार पैदा होने वाले भुगतान के संकट अक्सर भू-राजनीतिक चुनावों का नतीजा होते हैं. फिर चाहे वो रक्षा पर अधिक व्यय हो, सीमा पार के तनाव हों या फिर फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (FATF) द्वारा ग्रे-लिस्ट में डालने से विदेशी निवेश हासिल करने में आई कमी हो. इसके बावजूद, IMF की रूप-रेखा ऐसे संकटों को टेक्नोक्रेटिक समस्याओं के तौर पर देखता है, जिनको वित्तीय समाधानों से दुरुस्त किया जा सकता है. कुछ ख़ास वर्षों के दौरान पाकिस्तान का रक्षा व्यय अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा दी गई कुल मदद से भी अधिक रहा है. 2024 में पाकिस्तान को मुद्रा कोष के EFF से 7 अरब डॉलर के अलावा, एक अरब डॉलर अतिरिक्त मिले थे, जिसे उसने 37 महीनों में ख़र्च कर डाला था. इसके बावजूद, उसी साल पाकिस्तान ने रक्षा पर 10.2 अरब डॉलर का व्यय किया था, जो मदद में मिली रक़म से दस गुना अधिक थी. इससे ये गंभीर सवाल पैदा हुए थे कि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय सहायता अनजाने में ही सही, पर क्या वो आर्थिक सुधारों के बजाय सैन्य प्राथमिकताओं को बढ़ावा नहीं दे रही.
इन पहलुओं के पूरे क्षेत्र और ख़ास तौर से भारत पर तो स्पष्ट रूप से प्रभाव पड़ते हैं. IMF की वित्तीय सहायता, उसके सैन्य रुख़ या फिर छद्म आतंकी नेटवर्कों की समस्या से निपटे बग़ैर पाकिस्तान की व्यापक आर्थिक स्थिति को स्थिर बनाती है. इससे अनजाने में ही सुरक्षा क्षेत्र में ख़र्च की वित्तीय गुंजाइश निकल आती है, जिसका असर सीमा पार शांति पर भी पड़ता है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में अपने हिस्से ये योगदान के ज़रिए भारत के करदाता असल में एक ऐसे देश की स्थिरता का बोझ उठाते हैं, जो अलग अलग समय पर ऐसे किरदारों को प्रायोजित करता रहा है, जिन्होंने सीमा पर आतंकवादी हमले किए हैं और युद्ध विराम का उल्लंघन किया है.
मक़सद, IMF के क़र्ज़ देने का राजनीतिकरण करने के बजाय, आज के जटिल भू-राजनीतिक माहौल में उसकी सामरिक प्रासंगिकता को बढ़ाने का होना चाहिए. संघर्ष के शिकार हो जाने वाले देश अक्सर ऐसे लक्षण दिखाते हैं, जो वित्तीय प्रबंधन से कहीं आगे के होते हैं. बहुत से देश असंगठित ऊंच-नीच, कुलीन वर्ग के दबदबे और गहरी जड़ें जमाए बैठे फौजी दबदबे की वजह से संरचनात्मक सुधार के विरोधी होते हैं. अगर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष को भविष्य के लिए तैयार और असरदार बने रहना है, तो उसके क़र्ज़ देने के ढांचे को इन तल्ख़ सच्चाइयों को भी गंभीरता से लेना होगा.
पहले तो उसके कार्यक्रम में सैन्य-असैन्य पारदर्शिता को शामिल किया जाना चाहिए. इसके लिए रक्षा व्यय, बजट से अलग सुरक्षा पर ख़र्च और सरकारी कंपनियों पर सैन्य नियंत्रण की विस्तार से रिपोर्टिंग होनी चाहिए. ऐसी जानकारियां सामने आए बग़ैर इस बात का मूल्यांकन करना लगभग असंभल हो जाता है कि प्रस्तावित सुधार विश्वसनीय भी हैं या सिर्फ़ दिखावा हैं. नाज़ुक देशों के वित्तीय ढांचे को समझने और IMF के फंड अनजाने में सत्ता के मौजूदा नेटवर्क को मज़बूती न दें, ये सुनिश्चित करने के लिए इन क्षेत्रों में पारदर्शिता ज़रूरी है.
दूसरा, IMF को चाहिए कि वो संघर्ष की वजह से पैदा हुए क़र्ज़ को अन्य आर्थिक संकटों से अलग करके देखे. जब किसी देश की आर्थिक स्थिरता लंबे वक़्त तक सैन्य टकराव या फिर उकसावे वाली विदेश नीति का नतीजा होती है, तो वित्तीय मदद देने से पहले अतिरिक्त पड़ताल ज़रूरी हो जाती है. इसका मक़सद दंड देना नहीं, बल्कि सावधानी बरतना है: ताकि उन्हीं संरचनाओं को और न बढ़ाया जाए, जो क्षेत्रीय शांति और स्थिरता को चोट पहुंचाते हैं. ऐसे क़र्ज़ों को अलग करके IMF अपने क़र्ज़ देने के तौर तरीक़ों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शांति बहाली के व्यापक प्रयासों से जोड़ सकता है.
जब किसी देश की आर्थिक स्थिरता लंबे वक़्त तक सैन्य टकराव या फिर उकसावे वाली विदेश नीति का नतीजा होती है, तो वित्तीय मदद देने से पहले अतिरिक्त पड़ताल ज़रूरी हो जाती है. इसका मक़सद दंड देना नहीं, बल्कि सावधानी बरतना है
तीसरा, सक्रिय या छुपे हुए संघर्ष वाले क्षेत्रों के देशों को क़र्ज़ की मोटी रक़म देने से पहले इलाक़े पर इसके होने वाले प्रभाव का मूल्यांकन ज़रूर होना चाहिए. इन मूल्यांकनों में युद्ध विराम के उल्लंघन, प्रतिबंधों के असर और FATF के अनुपालन के आंकड़े शामिल किए जाने चाहिए, जिससे मुद्रा कोष को अपने फ़ैसलों के दूरगामी असर का पहले से अंदाज़ा हो सके. ज़्यादा जोखिम वाले इलाक़ों का स्वतंत्र रूप से ऑडिट होना चाहिए, ख़ास तौर से रक्षा और अंदरूनी सुरक्षा के मामले में, ताकि जवाबदेही सुनिश्चित हो और बेज़ा इस्तेमाल न हो. ऐसी व्यवस्थाएं बनाने से अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की राजनीतिक रूप से अस्थिर देशों की सहायता में ईमानदारी बनी रहेगी.
आख़िर में ये स्वीकार किया जाना चाहिए कि IMF का मक़सद कभी भी संघर्ष के समाधान वाली संस्था का नहीं रहा. लेकिन, उसके क़र्ज़ देने के फ़ैसलों के निश्चित रूप से भू-राजनीतिक परिणाम निकलते हैं. आज जब कमज़ोर देश लगातार आर्थिक नाज़ुकी और सामरिक जोखिम के बीच की रेखा को धूमिल बना रहे हैं, तो मुद्रा कोष सिर्फ़ तकनीकी निरपेक्षता का बहाना नहीं बना सकता है. ऐसा वित्तीय सहयोग जो सत्ता के इस्तेमाल के पहलू की अनदेखी करे, वो वास्तविक सुधार नहीं ला सकेगा. समस्या तब और बढ़ जाती है जब IMF की सहायता से सरकारों को संघर्ष बढ़ाने वाले बर्ताव के नतीजों से सुरक्षा मिल जाती है और भविष्य के संकट सिर्फ़ टलते हैं, ख़त्म नहीं होते. ऐसे में सवाल ये नहीं है कि क्या कमज़ोर देशों को सहायता की ज़रूरत है. बल्कि असली सवाल ये है कि क्या इस सहायता को इलाक़े में दांव पर लगे जोखिमों को स्वीकार करते हुए सुधार को बढ़ावा देने और सामरिक रूप से ग़ैरज़िम्मेदाराना बर्ताव रोकने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है.
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Soumya Bhowmick is a Fellow and Lead, World Economies and Sustainability at the Centre for New Economic Diplomacy (CNED) at Observer Research Foundation (ORF). He ...
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Shashank Shekhar is a Research Intern at the Observer Research Foundation. ...
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